रचना समय - अप्रैल-मई 2016 / व्याख्यान : मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है / मिलान कुन्देरा

SHARE:

व्याख्यान मिलान कुन्देरा मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है अंग्रेजी से अनुवाद : मदन सोनी इसराइल के इस सबसे महत्त्वपूर्ण पुरस्कार से...

व्याख्यान

image

मिलान कुन्देरा

मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है

अंग्रेजी से अनुवाद : मदन सोनी

इसराइल के इस सबसे महत्त्वपूर्ण पुरस्कार से अन्तर्राष्ट्रीय साहित्य को पुरस्कृत किया जाना, मेरी राय में सिर्फ़ एक संयोग नहीं है, इसकी एक दीर्घ परम्परा है। दरअसल, अपनी जन्म भूमि से निर्वासित और इसीलिए राष्ट्रवादी उन्माद से ऊपर उठी हुई महान यहूदी हस्तियों ने एक पराराष्ट्र यूरोप के लिए हमेशा अपना ख़ास लगाव दर्शाया है : भौगोलिक इकाई के रूप में नहीं, संस्कृति के रूप में देखा गया एक यूरोप। तब भी जब यूरोप ने उन्हें त्रासद पराजय में धकेल दिया, यहूदियों ने इस यूरोपीय विश्वैकतावाद से अपनी आस्था नहीं त्यागी; अतः यह वह इसराइल है- किसी तरह फिर से हासिल की जा सकी उनकी छोटी-सी जन्मभूमि जो यूरोप के वास्तविक हृदय के रूप में मेरे मन में उभरता है- एक विचित्र हृदय जो देह के बाहर स्थित है।

इसी गहरे भावोद्रेक के साथ मैं आज यह पुरस्कार ग्रहण करता हूँ जिसके साथ जेरूस्लम का नाम जुड़ा है और जिसमें विश्वबन्धुत्चवादी महान यहूदी आत्मा का चिन्ह अंकित है। एक उपन्यासकार की हैसियत में, मैं इसे स्वीकार करता हूँ। लेखक नहीं उपन्यासकार। उपन्यासकार यानी वह जो- फ्लाबेयर के अनुसार-अपने कृतित्त्व के पीछे लुप्त होना, चाहता है। अपने कृतित्व के पीछे लुप्त होना अपनी लोकप्रिय छवि का उत्सर्ग करना है। इन दिनों यह आसान नहीं है, जबकि बहुत मामूली महत्त्व की भी कोई चीज जनसंचार माध्यमों की चकाचौंध में फिसलकर फ्लाबेरियन मर्यादा के ठीक विपरीत कृतित्त्व को सर्जक की छवि के पीछे ओट कर देने का कारण बन जाती है। इस सर्वग्रासी परिस्थिति में, फ्लाबेयर की इस टिप्पणी को मैं एक चेतावनी की तरह लेता हूँ; खुद को एक लोकप्रिय छवि की भूमिका में प्रस्तुत कर उपन्यासकार अपने कृतित्त्व को जोखिम में डालता है; वह अपनी गतिविधियों को अपनी घोषणाओं और वक्तव्यों को यथास्थिति के निरे परिशिष्ट मान लिए जाने के ख़तरे में डालता है।

उपन्यासकार किसी अन्य का प्रवक्ता तो नहीं ही है, इससे भी आगे, मैं कहूँगा कि वह स्वयं अपने विचारों का प्रवक्ता भी नहीं है। टॉल्स्टाय ने जब अन्ना कारेनिना का पहला प्रारूप तैयार किया तब अन्ना नितान्त सहानुभूति-वंचित स्त्री थी और उसका दुखद अन्त बमुश्किल ही अपने में एक योग्य और न्याय संगत अन्त था। उपन्यास का अन्तिम प्रारूप बहुत भिन्न है, पर मैं नहीं मानता कि उस बीच टॉल्स्टाय ने अपनी नैतिक दृष्टि का पुनरीक्षण कर लिया : इसके विपरीत, मैं यह कहूँगा कि उपन्यास की रचना के क्षणों में ही वे अपनी निजी नैतिक मान्यताओं से स्वतंत्र, एक दूसरी ही आवाज़ पर एकाग्र थे। वे जिस चीज़ पर एकाग्र थे उसे मैं उपन्यास की अपनी प्रज्ञा कहना पसंद करूँगा। हर सच्चा उपन्यासकार उस परावैयक्तिक प्रज्ञा से ही प्रतिश्रुत होता है जो बताती है कि क्यों महान उपन्यास अपने कृतिकार की तुलना में हमेशा कुछ अधिक अक्लमंद होते हैं। जो अपनी कृतियों से अधिक अक्लमंद हैं, ऐसे उपन्यासकारों को कोई दूसरा उद्यम तलाशना चाहिए।

लेकिन वह प्रज्ञा क्या है, उपन्यास क्या है? बहुत अच्छी एक यहूदी लोकोक्ति है : आदमी सोचता है, ईश्वर हँसता है। इस उक्ति से प्रेरित, मैं कल्पना करता हूँ कि एक दिन फ्रांसुआ राबेले ने ईश्वर के ठहाके को सुना और तभी प्रथम महान यूरोपीय उपन्यास के विचार ने जन्म लिया। मुझे ऐसा सोचना प्रीतिकर लगता है कि दुनिया में उपन्यास की कला का अवतरण ईश्वर के ठहाके की प्रतिध्वनि के रूप में हुआ।

लेकिन ईश्वर क्यों हँसता है- सोचते हुए आदमी पर क्योंकि आदमी सोचता है और सत्य उसके हाथ से फिसल जाता है। क्योंकि आदमी जितना अधिक सोचते हैं, एक का सोच दूसरे के सोच से उतना ही अलग होता है। और, क्योंकि आदमी कभी भी वह नहीं होता, जो वह सोचता है। मध्ययुग से उत्तीर्ण होकर आए मनुष्य की यह बुनियादी स्थिति आधुनिक सभ्यता के उन्मेष से प्रगट होने लगती है : डॉन किहोते सोचता है सांको सोचता है, और न सिर्फ़ संसार का सत्य बल्कि उनका अपना सत्य भी हाथों से फिसल जाता है। यूरोप के आरंभिक उपन्यासकारों ने इस नयी मानवीय परिस्थिति का सामना किया, उसे सम्भाला और उस पर एक नूतन कला- उपन्यास की कला- का स्थापत्य खड़ा किया।

फ्रांसुआ राबेले ने अनेक नये शब्दों का आविष्कार किया जो अब फ्रेंच और दूसरी भाषाओं में शामिल हो चुके हैं लेकिन इसमें से एक शब्द है जो भुलाया जा चुका है और यह दुखद है। शब्द है ंहमसेंजम. एक ग्रीक शब्द जिसका अर्थ है- आदमी, जो हँसता नहीं, जिसमें विनोद की चेतना का नितान्त अभाव है। राबेले ने ऐसे लोगों से नफ़रत की। वह उनसे डरा। उसकी शिकायत थी कि ंहमसेंजमे ने उसके साथ इतना क्रूर व्यवहार किया कि उसे लगभग हमेशा के लिए अपना लेखन रोक देना पड़ा।

।हमसेंजम और उपन्यासकार के बीच शांति संभव नहीं। ईश्वर के ठहाके को सुन पाने से सदा-वंचित ंहमसेंजम माने बैठा है कि सत्य नितांत दोटूक है, कि सारे मनुष्य अनिवार्यतः एक-सा सोचते हैं और यह कि वे स्वयं ठीक वैसे ही हैं, जैसा कि वे सोचते हैं। लेकिन, वस्तुतः यह सत्य की निश्ंिचतता और दूसरों के एकमत संविदा की पराजय ही है कि आदमी व्यक्ति में रूपायित होता है। उपन्यास व्यक्तियों का काल्पनिक स्वर्ग है। यह वह लोक है जहाँ सत्य पर अपने कब्जे का दावा कोई भी नहीं करता- न अन्ना, न कारेनिन- लेकिन जहाँ हरेक को अपने समझे जाने का हक़ है- अन्ना और कारेनिन दोनों को। यह उपन्यास की कला है जहाँ पिछले चार सौ वर्षों के दौरान यूरोपीय व्यक्तिवाद रचा गया, पुष्ट और विकसित हुआ।

गार्गान्तुआ एण्ड पेन्टागोरल की तीसरी पुस्तक में, यूरोप की दृष्टि में आकार लेता प्रथम महान औपन्यासिक चरित्र पानुर्गे इस प्रश्न से पीड़ित है कि उसे विवाह करना चाहिए या नहीं वह हकीमों से, पैगम्बरों से, प्राध्यापकों, कवियों, दार्शनिकों से सलाह माँगता है और जवाब में इनमें से हरेक, हिप्पोक्रेट्स को, अरस्तू को, होमर को, हेरॉक्लिट्स को, प्लेटो को उद्धरित करता है। लेकिन, समूची किताब में फैली इस व्यापक पांडित्यपूर्ण खोज के बाद भी पानुर्गे अन्तः यह नहीं समझ पाता कि उसे विवाह करना चाहिए या नहीं। और न हम, यानी पाठक समझ पाते हैं कि वह क्या करे, हालाँकि दूसरी ओर, हर सम्भव कोण से हम उस व्यक्ति की- जितनी गम्भीर उतनी ही विद्रूप- हालत का जायज़ा ले चुके होते हैं जो नहीं जानता कि उसे विवाह करना चाहिए या नहीं।

राबेले के, अपने में महान, पांडित्य का, देकार्त के पांडित्य से अलग एक अर्थ है। उपन्यास की प्रज्ञा दर्शन की प्रज्ञा से भिन्न है। उपन्यास, सिद्धान्त की नहीं, विनोद की चेतना से पैदा होता है। यह यूरोप की बड़ी असफलताओं में से एक है कि वह- आत्यंतिक रूप से यूरोपीय कला- उपन्यास को समझ नहीं सका- न तो उसकी आत्मा को, न उसके व्यापक ज्ञान और आविष्कारों को और न ही उसके स्वायत्त इतिहास को। ईश्वर के ठहाके से अनुप्राणित कला विचारधारात्मक निश्चयों का प्रचार नहीं करती, बल्कि इसके विपरीत वह उनका प्रत्याख्यान करती है। पेनलॉप की तरह वह हर रात उस टेपेस्ट्री को उधेड़ देती है जिसे एक दिन पहले पुरोहितों, दार्शनिकों और पढ़े-लिखे लोगों ने बुना होता है।

इस बीच अठारहवीं शताब्दी को कोसने की हमारी आदत बन गई है- इस नुक्ते पर जहाँ यह किल्शे सुनाई देता है कि रूस का दुर्भाग्यपूर्ण सर्वसत्तावाद यूरोप, विशेष रूप से अपने तमाम शक्तिशाली तर्कों में पुनर्जागरण के नास्तिक बुद्धिवाद की उपज है। मैं उन लोगों के साथ अपने को बहस के योग्य नहीं पाता जो गुलाग के लिए वाल्तेयर को दोषी ठहराते हैं, लेकिन यह कहने की योग्यता मैं अपने में महसूस करता हूँ कि अठारहवीं शताब्दी महज़ रूसो, वाल्तेयर और हॉलबाख़ की शताब्दी नहीं है, वह (शायद इन सबसे ऊपर) फील्डिंग, स्टर्न, गोएथे और लाक्लॉस का युग भी है।

वह लारेन्स स्टर्न का ट्रिस्ट्रम शैन्डी है, जिससे इस युग के तमाम उपन्यासों में मुझे सबसे अधिक प्रेम है। एक विलक्षण उपन्यास। स्टर्न इसे, उस रात को याद करते हुए आरम्भ करते हैं जब ट्रिस्ट्रम गर्भ में आया, लेकिन तभी वे यह बताना शुरू कर चुके होते हैं कि कब अचानक एक दूसरे विचार ने उन्हें आकर्षित किया और वह विचार अपने मुक्त संबंध-सूत्रों के सहारे उन्हें कुछ दूसरी कल्पनाओं तक ले जाता है और फिर एक नया क़िस्सा- और ट्रिस्ट्रम- किताब का नायक- इन सौ दिलचस्प पृष्ठों में स्थगित बना रहता है। ऐसा लग सकता है कि क़िस्साग़ोई का यह उच्छृंखल तरीक़ा, निरे रूपगत-कौतुक से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन कला में रूप हमेशा रूप से ज्यादा कुछ होता है। हर उपन्यास- चाहे अनचाहे एक उत्तर प्रस्तावित करता है, इस प्रश्न का कि मानवीय अस्तित्त्व क्या है और उसके कवित्त्व का वास कहाँ है स्टर्न के समकालीनों- मसलन फील्डिंग- के लिए वह जगह कार्रवाई और घटनाओं में है। स्टर्न के उपन्यास में जिस उत्तर का हम अनुभव करते हैं वह अलग है : यह कवित्त्व, कार्रवाई में नहीं कार्रवाई को बाधित करने में है। उपन्यास और दर्शन के बीच परोक्षतः एक व्यापक संवाद शायद इसी कारण हुआ। अठारहवीं शताब्दी का बुद्धिवाद लाइब्निट्ज की इस घोषणा पर टिका है : दपीपसमेज ेपदम तंजपवदम. अपने तर्क से रहित किसी भी चीज़ का अस्तित्त्व नहीं। इस मान्यता से उद्दीप्त होकर विज्ञान ने हर वस्तु का क्यों खोज निकाला, जिस तरह वस्तु व्याख्येय प्रतीत होती है, वैसे ही वह परिकलनीय है। ऐसा मनुष्य जो अपने जीवन का एक अर्थ पाना चाहता है, किसी भी ऐसी क्रिया से परहेज़ करता है जिसका अपना कोई निमित्त और साध्य नहीं। सारी जीवन-गाथाओं की रचना इसी तरह हुई है। जीवन को कार्यकारण, सफलताओं और असफलताओं के एक उत्तप्त प्रक्षेप-पथ के रूप में देखा गया जहाँ मनुष्य अपने कर्मों की तार्किक शृंखला पर बेचैन टकटकी लगाए अपनी पागल प्रजाति को तेजी से मृत्यु की ओर धकेलता है।

दुनिया को घटनाओं के एक तार्किक सिलसिले में घटाने के विरुद्ध, अपनी विशिष्ट शैली में स्टर्न का उपन्यास यह दावा करता है कि कवित्त्व, क्रिया में नहीं, वहाँ है जहाँ क्रिया ठहर जाती है, जहाँ कार्य और कारण के बीच का सेतु दरका हुआ है, और जहाँ एक अलस मधुर स्वतंत्रता में धारणा अपना पथ खो देती है। स्टर्न का उपन्यास कहता है कि अस्तित्त्व की कविता की रिहाइश व्यतिक्रम में है। वह गणनातीत में वास करती है। वह तर्कातीत ेपदम तंजपवदम है। उसका घर लाइब्निट्ज़ के प्रति-उवाच में है।

इसीलिए एक युग की आत्मा की पड़ताल, उस युग की कला, ख़ासकर उपन्यास को समझे वगैर, महज़ उसके विचारों और सैद्धान्तिक अवधारणाओं के सहारे नहीं की जा सकती। उन्नीसवीं शताब्दी ने इंजन का आविष्कार किया और हेगेल ने मान लिया कि उसने सकल इतिहास की असल नब्ज को पकड़ लिया है। लेकिन फ्लाबेयर ने ‘मूढ़ता’ की खोज की। मैं यह कहने का दुस्साहस करता हूँ कि यह उस शताब्दी की महानतम खोज है- उतनी ही गर्वीली जितना उस शताब्दी का वैज्ञानिक चिन्तन।

निश्चय ही, फ्लाबेयर के पूर्व भी, मूढ़ता के अस्तित्त्व से लोग वाकिफ थे, पर उसे कुछ भिन्न ढंग से समझा गया थाः उसे मात्र ज्ञान के अभाव के रूप में देखा गया था- एक दोष जिसे शिक्षा से दूर किया जा सकता है। लेकिन फ्लाबेयर के उपन्यासों में मूढ़ता मानवीय अस्तित्त्व का एक अविभाज्य आयाम है। वह सारे समय बेचारी एम्मा से चिपकी रहती है- उसकी सेज से लेकर, उस मृत्यु शैय्या तक जिस पर दो प्रसिद्ध ंहमसेंजम होमेस और बूर्नीसिएँ एक किस्म के शोक-सम्भाषण सरीखा अपना अर्थहीन प्रलाप करते हैं। लेकिन मूढ़ता के जिस सबसे भयावह और निन्दनीय रूप को फ्लाबेयर उभारते हैं वह यह है : मूढ़ता न केवल विज्ञान, टेक्नालॅजी, आधुनिकता और विकास को जगह नहीं देती, बल्कि इसके विपरीत, वह विकास के समानान्तर विकास करती है!

फ्लाबेयर अत्यंत शरारतपूर्ण भावावेग के साथ ऐसे स्टीरियोटाइप-सूत्र इकट्ठे किया करते थे, जिन्हें बुद्धिमान और दुरुस्त दिखने की कोशिश में, उनके आसपास के लोग बोला करते थे। वे इन सूत्रों को अपनी बहुचर्चित ‘डिक्शनरी’ (क्पेजपवददंपत कमे पकमबे तमबनमे) में रखते थे। इसका थोड़ा-सा उपयोग हम इस घोषणा के लिए कर सकते हैं : आधुनिक मूढ़ता का अर्थ, अज्ञान नहीं, गृहीत धारणाओं की विचार-निरपेक्षता है। दुनिया के भविष्य की खातिर फ्लाबेयर की खोज, फ्रायड या मार्क्स के भड़कीले विचारों से कहीं अधिक महत्त्व की है क्योंकि हम ऐसी दुनिया की कल्पना तो कर सकते है जिसमें वर्ग संघर्ष या मनोविश्लेषण का अभाव हो, लेकिन उन गृहीत-अवधारणाओं के उफनते वेग से रहित दुनिया की कल्पना असंभव है जो संगणकों द्वारा उत्पादित और जनसंचार माध्यमों द्वारा थोपी जाती है जिनसे यह ख़तरा है कि वे जल्दी ही तमाम मौलिक विचारों को धराशायी कर आधुनिक यूरोपीय संस्कृति के अनन्य सत्त्व को नष्ट कर देंगी।

एम्मा बाबेरी की, फ्लाबेयर की परिकल्पना के कोई अस्सी बरस बाद हमारी अपनी शताब्दी के चौथे दशक के दौरान एक और महान विएनी उपन्यासकार हरमन ब्रॉच ने लिखा : ‘‘आधुनिक उपन्यास ज्ञपजेबी के प्रवाह के विरुद्ध डुबाया जाकर समाप्त होता है।’’ ज्ञपजेबी शब्द का जन्म पिछली शताब्दी में जर्मनी में हुआ और जो उस वृत्ति का सूचक है जिसके अधीन लोग किसी भी क़ीमत पर बेशुमार लोगों को खुश करना चाहते हैं। खुश करने के सिलसिले में यह ज़रूरी है कि आप अपने को गृहीत धारणाओं की चाकरी में लगायें, पक्की तौर पर यह जानें कि हर व्यक्ति क्या सुनना चाहता है। ज्ञपजेबी सौन्दर्य और संवेदन की भाषा में, गृहीत धारणाओं की मूढ़ता का अनुवाद है। यह हमें, अपने ही सोचे और अनुभव किए की तुच्छता पर आत्मप्रताड़ता के लिए उकसाता है। आज, पचास बरस बाद भी, ब्रॉच की टिप्पणी उत्तरोत्तर सच हो रही है। अनन्त लोगों को खुश करके उनका ध्यान अपनी ओर आकृष्ट करने की आदेशात्मक अनिवार्यता थोपते जनसंचार माध्यमों का सौन्दर्य बोध अपरिहार्यतः इस ज्ञपजेबी का ही सौन्दर्य बोध है; और जितना ही अधिक जनसंचार माध्यम हमारे जीवन में प्रवेश करते हैं, उसे परिवेष्टित करते हैं, ज्ञपजेबी हमारे दैनिक जीवन की सौन्दर्य-संहिता और आचार-संहिता बन जाता है। अभी हाल तक आधुनिकता का अर्थ यह लिया जाता था कि वह गृहीत धारणाओं और ज्ञपजेबी के विरुद्ध एक अननुवर्ती बगावत है। आज, आधुनिकता जनसंचार माध्यमों की विपुल शक्ति के साथ एकमेक हो चुकी है और आधुनिक होने का अर्थ एकदम तरोताजा होने, एकरूप होन- किसी के भी मुकाबले में पूरी तरह से एकरूप होने- का अनवरत उपक्रम। आधुनिकता ज्ञपजेबी की वेशभूषा धारण कर चुकी है।

ंहमसेंजमेए विचार-निरपेक्ष गृहीत धारणाएँ और ज्ञपजेबी एक ही है : उस कला के लिए समान रूप से घातक त्रिमुण्डधारी शत्रु जो ईश्वर के ठहाके की प्रतिध्वनि के रूप में जनमी, जिसने सबके लिए उस कल्पना-लोक के दरवाज़े खोले जहाँ सत्य का दावेदार कोई भी नहीं और जहाँ हरेक को समझे जाने का हक़ हासिल है। यह सहिष्णु कल्पना-लोक आधुनिक यूरोप का हमारा अपना स्वप्न- एक ऐसा स्वप्न जो बार-बार खंडित हुआ लेकिन फिर भी जिसने पर्याप्त मजबूती से हम सबको उस भाईचारे में बाँधे रखा जो इस छोटे-से यूरोपीय महाद्वीप के पार दूर-दूर तक व्याप्त है। लेकिन हम जानते हैं कि सहिष्णुता का यह लोक (उपन्यास का कल्पनालोक और यूरोप का यथार्थलोक) नाज़ुक और नश्वर है। इसके सीमान्त पर खड़ी ंहमसेंजम की सेनाएँ हमारी हर गतिविधि पर नज़र रखे हुए हैं। और वस्तुतः इसी कारण आज अघोषित और सतत् युद्ध के इन क्षणों में- एक नाटकीय और क्रूर नियति से बँधे इस शहर में- मैंने अपने वक्तव्य के लिए उपन्यास को चुना। आप समझ चुके होंगे कि यह जानबूझकर उन प्रश्नों को टालने की कोशिश नहीं जो अनिवार्यतः विचारणीय कहे जाते हैं। क्योंकि अगर यूरोपीय संस्कृति आज आशंका के अँधेरे में है, अगर आशंका इस संस्कृति के सर्वाधिक मूल्यवान पक्ष- यानी व्यक्ति के मौलिक विचार और उसके निजी जीवन की अनतिक्रमणीयता के प्रति इस संस्कृति के सम्मान पर मँडराते ख़तरे के भीतर या बाहर से है, तब मुझे ऐसा लगता है कि यूरोपीय व्यक्तिवाद का सबसे मूल्यवान तत्त्व उस खज़ाने में सुरक्षित है जो उपन्यास के इतिहास के सीने में छुपा है; वह उपन्यास की प्रज्ञा में सुरक्षित है। यह उपन्यास की वह प्रज्ञा ही है जिसके प्रति मैं इस धन्यवाद-ज्ञापन वक्तव्य में अपना सम्मान व्यक्त करना चाहता हूँ। लेकिन यही वक़्त है जब मुझे चुप हो जाना चाहिए। मैं भूल रहा था कि मुझे सोचता हुआ देखकर ईश्वर हँसता है।

11/8 झरनेश्वर काम्प्लैक्स,

भोपाल-3

मो. 9425680897

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: रचना समय - अप्रैल-मई 2016 / व्याख्यान : मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है / मिलान कुन्देरा
रचना समय - अप्रैल-मई 2016 / व्याख्यान : मनुष्य सोचता है, ईश्वर हँसता है / मिलान कुन्देरा
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKA1ZjuablfJDL4VtQtKsBBlcZ9bl_wAhPcaZuzC-Hqtd1BEqqDZRJbsu1uO5QK04MOzLEQUj0g9AnBDsPoRfRHX1aq1DyZLIRMNn_qU9dHTXq7QsXba2iGK4qxPLc02pnu6-q/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiKA1ZjuablfJDL4VtQtKsBBlcZ9bl_wAhPcaZuzC-Hqtd1BEqqDZRJbsu1uO5QK04MOzLEQUj0g9AnBDsPoRfRHX1aq1DyZLIRMNn_qU9dHTXq7QsXba2iGK4qxPLc02pnu6-q/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/08/2016_69.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/08/2016_69.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content