प्राची - अगस्त 2016 / क्या यही जिन्दगी है / बलूची कहानी / नइमत गुलची / अनुवाद - देवी नागरानी

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बलूची कहानी लेखक परिचय डॉ . नइमत गुलची, 18, अप्रैल 1929 को मकरान (Makran ) में पैदा हुए . पेशे से डॉक्टर. बलूची जबान में अफसाने पर बखूबी ...

बलूची कहानी

लेखक परिचय

डॉ. नइमत गुलची, 18, अप्रैल 1929 को मकरान (Makran) में पैदा हुए. पेशे से डॉक्टर. बलूची जबान में अफसाने पर बखूबी कलम आजमाई है.

किताब का नामः अंजीर के फूल- बलोचिस्तान के अफसाने- (उर्दू अनुवाद व सम्पादनः अफजल मुराद)

पताः Director General Health (Baluchistan), Queta.

 

अनुवाद - देवी नागरानी

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जन्मः 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 गजल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेजी), 2 भजन-संग्रह, 6 अनूदित कहानी-संग्रह प्रकाशित. सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेजी में समान अधिकार से लेखन, हिन्दी-सिंधी में परस्पर अनुवाद. तमिलनाडू, कर्नाटक, महाराष्ट्र अकादेमी व अन्य संस्थाओं से सम्मानित. साहित्य अकादमी एवं राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुस्कृत

संपर्कः 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई-400050

फोनः 9987928358

 

क्या यही जिन्दगी है

मूलः डॉ. नइमत गुलची (अनुवादः देवी नागरानी)

वाएं तलवार की तरह काट पैदा कर रही थीं. तेज झोकों ने तूफान बरपा कर रखा था. दरख्तों ने खिजां की काली चादर ओढ़ ली थी. यूं लगता था जैसे गए मौसमों का सोग मना रहे हैं. कोई क्या जाने ये क्यों दुखी हैं? रातों की स्याही अब दिन में भी नजर आती है. परिंदे, हवाओं में उड़ते सारे समूह अपने घोंसलों में पनाह लेकर, अपनी जमा की हुई पूंजी पर जिन्दगी बसर कर रहे थे.

बूढ़ी दादी अम्मा ने अपने जर्जर लिहाफ से झांकते हुए आवाज दी, ‘गुलोजान, देखना तो साए अगर पलट पड़े हों. कहीं ऐसा न हो कि मेरी नमाज सर्दी की भेंट चढ़ जाए.’ गुलोजान ने जवाब दिया- ‘बड़ी अम्मा, साए लौट रहे हैं. हवा का रुख भी टूट रहा है, आपकी नमाज का वक्त हो चुका है.’

‘हां बेटे, जाड़े की शिद्दत घटने लगी है तो बादलों ने सर उठा लिया है. खुदा हम बेघरों, कपड़े लत्तों से महरूम इन्सानों पर रहम फरमाए. कुटिया की टूटी-फूटी छत तो अभी से डराने लगी है.’ दादी अम्मा ने गम से तर-बतर लहजे में कहा. पोते ने एक जोरदार कहकहा बुलंद करते हुए बताया- ‘दादी जान, आपकी एड़ी तो लिहाफ से बाहर झांक रही है, आपने यह लिहाफ कब बनाया?’

‘अरे...ओए...चंदा, तुम क्यों ऐसी बातें पूछते रहते हो? मेरा दिल ऐसी बातों से दुखता है. यह मेरी पुरानी सहेली जैसा है. तेरे दादा ने अपने ब्याह के दिनों में बनवाया था. हम दोनों ने अपनी जवानियां इसकी ओट में बसर कीं. वह तो अपनी राह चल दिया. सोचती हूं- यह मुझे भी कब्र तक पहुंचाने में साथ देगा. तेरे बाबा के पास ऐसी हैसियत नहीं कि नया बनवा दे. दिन भर भाग-दौड़ करता, जान पर बन आती तब कहीं जाकर रूखी-सूखी से बच्चों का पेट पालता. ऐसे में भला मेरे लिहाफ की किस्मत कैसे जाग सकती है! उसकी कमाई तो इस-उसकी भलाई में खर्च हो जाती है. कभी किसी की भांग, किसी की बीड़ी, कितने हैं जो अपने आराम के लिये उसे पीड़ की सेज पर लिटा देते थे.’ एक सांस में दादी अम्मा कह गई.

दादी ने फटे-पुराने लिहाफ को खैरबाद कहा (वह कलमा जो बिदाई के वक्त कहते हैं) साथ ही उसे भूख का अहसास हुआ.

‘सदो जां, देखना तो रोटियों के कपड़े में बची-खुची रोटी पड़ी है. शायद मेरे दिल को कुछ करार आ जाए.’

‘दादी जान, वो तो पहले ही मैंने आपके सामने झाड़ दिया था, थोड़ा-सा चूरा झड़ा. मैंने जो दो-तीन चपातियां पकाई थीं गुलोजान ने तोड़-तोड़ कर खा लीं. दो एक निवाले मैंने भी लिये और बस...हां एक रोटी तह कर रखी है, गुलो जान के वालिद के लिये. वो काम पर गए हैं, भूखे होंगे.’ सदो ने जवाब दिया.

‘अरी रहने दे, मुझ चंडाल की बजाए वह आकर खा ले तो बेहतर है.’

थोड़ी देर गुजरी थी कि गुलोजान का बाबा इशरक सर्दी और भूख से निढाल लौट आया. धूप में बैठते ही सदो को आवाज दी...‘सदो अगर खाने को कुछ है तो ले आओ. यहां बैठकर कुछ सांस लें. खजूर के अगर कुछ दाने हों तो लेती आना.’

‘आपसे कहा तो था कि खजूरें खत्म हो गई हैं. अखरोट, नेजे का बचा हुआ हिस्सा जो मैंने सर्दियों के लिये बचा रखा था वह कर्जदारों को दे दिया.’ सदो ने अफसरों जैसे रुख में कहा.

उनका छः साल का बेटा बाहूट दौड़ता हुआ आया.

‘अम्मा मैंने आज छोटे जानवर का शिकार किया है. वहीं उसके पर नोच डाले, नमक कहां है? मैं उसे आग पर भूनना चाहता हूं.’

‘वहीं नमक दानी में देखो, अन्दर पड़ी है, मेरा दिमाग मत चाटो.’ सदो ने झाड़ पिला दी.

‘अम्मा उसमें तो नमक नहीं है.’ लड़के ने गिड़गिड़ाते हुए कहा.

‘अच्छा जरा दूसरे मर्तबान में भी देख लो, अगर उसमें भी नहीं है तो बगैर नमक के अंगारों पर रख दे.’

‘मां!’ लड़का एक बार फिर पुकार उठा ‘रोटी का एक निवाला रख लेना, मैं गोश्त के साथ खाऊंगा.’

इशरक ने सदो से कहा- ‘हवा में पहले-सी शिद्दत नहीं रही. तुम मेरी चादर ओढ़कर मीर के यहां चली जाओ, थोड़ी-सी खजूर मांग लाओ. आज रात मुझे लकड़ी काटने जाना है. मीर के यहां लकड़ी खतम हो गई है.’

सूरज ढलकर क्षितिज पर झुक रहा था. दक्षिण की तरफ से काले-काले बादल झूम-झूम कर बढ़ रहे थे, थोड़ी ही देर में सूरज गायब हो गया. अंधेरा बढ़ गया. बादलों ने बढ़कर सारे आसमान को ढांप लिया. एक तो रात का अंधेरा, ऊपर से बादलों की स्याही. घोर अंधेरे में हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था. खूब बूंदा-बांदी और मूसलाधार बारिश हुई. ओले तड़तड़ाने लगे. बारिश ने यूं समां बांधा कि जैसे आज ही टूट कर बरसना है. भेड़-बकरियों ने सहमकर जोर-जोर से मिमियाना और डकरना शुरू कर दिया. अमीर अपने पक्के घरों में और गरीब अपने बेहाल झोपड़ों में फटे-पुराने कपड़ों में दांत बजा रहे थे. बारिश रुक गई. जानवरों की आवाजें आनी बंद हो गईं मगर अब भी कहीं कहीं से अभी पैदा हुए बच्चों के कराहने की आवाज आती तो अपनी गिरी हुई झोंपड़ियों से आग की तमन्ना लिये दांत बजाते, बगलों में हाथ दे, सहमे हुए सर्दी का दुख झेल रहे थे. यूं लगता था कि ये कहावत सही है- ‘गुलाबी जाड़ा भूखे-नंगे लोगों की रजाई है.’

रात टूटती रही, दूसरा पहर गुजरा, मुगरें ने बांग देनी शुरू की. सदो रातभर मारे सर्दी के सो न सकी. मुगरें की बांग सुनकर उठी, इसलिये कि अमीरों के घर का उसे अनाज पीसना था. वह जरूरत से फारिग होने के लिये बाहर निकली. इशरक अभी सर्दी के मारे सिकुड़ा सुकड़ा हुआ पड़ा था. उसकी आंख लगी ही थी कि बाहर से एक दिल दहलाने वाली चीख ने उसे झंझोड़ डाला. वह बड़बड़ाकर उठा और दौड़कर बाहर आया. देखा तो सदो मिट्टी में लोट रही है. इशरक ने अपने दुखों के साथी को सहारा देकर उठाया और घसीटता हुआ झोंपड़े में ले आया.

‘तुझे क्या हुआ?’ इशरक ने सदो से बेताबी से पूछा, ‘क्यों इतनी जोर जोर से चीखी है?’

‘क्या बताऊं, सर्द हवा के एक थपेड़े ने मेरे होश उड़ा दिये. मेरे हाथ-पांव जम गए हैं.’ सदो ने अपना सुन्न पड़ा हाथ फैलाया.

इशरक झोंपड़े के एक कोने की तरफ गया जहां बच्चे खुद में समाए, कम्बल में लिपटे हुए सो रहे थे. वहां कुछ झाड़ियां पड़ी थीं, मगर झोंपड़े में बारिश का पानी भर आया था और वह सबकी सब भीग चुकी थीं. उसने इधर-उधर तलाश किया और खजूर के फूल का बना हुआ एक थैला उठा लाया. सदो से पूछने लगा, ‘माचिस कहां रखी है?’

‘माचिस में एक तीली रह गई थी. कल लड़के ने आग जलाकर एक परिंदे को पकाया. मैंने आग सुलगाए रखने के लिये गोबर के उपले सुलगाए थे मगर बारिश ने बुझा डाले.’ सदो का यह दुख भरा जवाब सुनकर इशरक की आंखें भर आई. मजबूर होकर उसने सदो पर फटी पुरानी रजाइयां डाल दीं.

वह अपने ओढ़ने-बिछौने सदो पर डालकर बोला, ‘अच्छा अब मैं चलता हूं, जब तेरे बदन में कुछ जान पड़े तो उठकर मीर के घर अनाज पीस डालना. सुबह अगर वक्त मिले तो मीर के घर से लाया हुआ वह धान भी कूट कर साफ कर लेना जो उसने कल भिजवाया है. मैं शायद देर से लौटूं, वह खाम-खाह खफा होगा.’

बारिश थम चुकी थी मगर हवा गुस्से में भरी हुई थी. इशरक ने गधे पर झोला कसा. अपने बोझल जूते पहने. पुरानी कम्बल खींच ली( ताकि उसे ओढ़ ले, मगर छोटा चीख-चीख कर रोने लगा. बाप ने पूछा, ‘बेटे क्या बात है, क्यों रोते हो, कुछ तकलीफ तो नहीं?’

वह बोला, ‘नहीं बाबा मुझे तो सर्दी ने मार ही डाला है. मुझे कंपन हो रही है, कुछ ओढ़ने को दो.’ उसके दांत बज रहे थे. इशरक निहायत परेशान था. एक तरफ बच्चे के रोने और बिलबिलाने की आवाज, दूसरी ओर बाहर हवा का दिल में उतरता शोर. औलाद का प्यार अपनी राहत पर हावी रहा. फटा-पुराना कम्बल बच्चे को अच्छी तरह ओढ़ाकर, आरी कमरबंद में ठूंसकर वह बाहर आया. दो एक कदम उठाकर वह रुका और अपनी बीवी को आवाज देकर पूछने लगा- ‘अरे सदो! कल जो मैंने तुझे मीर के यहां से खजूर मांग लाने को कहा था, कुछ दिया उसने?’

‘भई, मैं तो मुंह खोल कर पशेमान हो गई थी. खजूर उसने क्या देना था. भाईचारे की बातें सुनाकर मेरी सात पुश्तों की जन्मपत्री उधेड़ डाली.’ सदो ने रजाई के अंदर से बड़बड़ाकर कहा.

इशरक गधे पर बैठा और जंगल की राह ली. जिस्म पर सिर्फ मीर का दिया हुआ एक फटा पुराना पहनावा, हवा के बुलंद तेज थपेड़े...उसकी जान पर बन आई थी. वह हमेशा जिस तरफ जाया करता था उसी तरफ हो लिया. सुबह का गया शाम को लौट आता, मगर अब की बार वह गया तो लौट कर नहीं आया.

सुबह हुई, सदो ने चक्की पीस कर एक तरफ ढकेल डाली. अपनी धंसी हुई आंखें दादी अम्मा के लिहाफ पर जमाईं. बुढ़िया अभी तक सिमटी सिमटाई पड़ी हुई थी. उसे ताज्जुब हो रहा था कि वह इतनी देर तक कभी भी नहीं सोई. वह अपनी सास के सिरहाने जा खड़ी हुई. उसे झिंझोड़-झिंझोड़कर जगाने लगी. मगर वह तो ऐसा सोई थी कि जागने से रही. अपने फटे पुराने लिहाफ में वह कब की दूसरी दुनिया को सिधार चुकी थी. सदो की आंखों में अंधेरा छा गया. उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा. उसकी होश उड़ा देने वाली चीख फजा में गूंजने लगी. पास पड़ोस के लोग सिमट कर आ गए.

‘अरे अब के बुढ़िया को क्या हुआ? क्या हुआ?’ के शोर में सदो को कहते हुए सुना गया. ‘बहनों, होना क्या था, वही हुआ जो गरीबों का मुकद्दर है. गर्दिश का दुख कोई कब तक बर्दाश्त करे? उसे सर्दी ने हम से छीन लिया.’

इशरक कितना बदनसीब था कि उसे मां का आखिरी दीदार भी नहीं मिल सका. ‘खुदा का खौफ’ रखने वाले लोगों ने बुढ़िया का कफन-दफन किया और अपने-अपने घरों को हो लिये. सदो सर पर हाथ रखे मातम मनाती रही. अभी सास की मौत का दुख कम नहीं हुआ था कि एक पड़ोसन दौड़ती हुई आई और चीखकर कहने लगी ‘बदकिस्मत सदो! अफसोस तेरी हालत पर. तू बुढ़िया के लिये मातम कर रही है और मौत ने तुझसे तेरे बच्चों के सर का साया भी छीन लिया है. इशरक सर्दी में सिकुड़कर भरी दुनिया में तुझे अकेला छोड़ गया. एक काफिले को गुजरते हुए रास्ते में उसकी लाश पड़ी मिली है, वह उसे उठा लाए हैं.’

यह सुनना था कि सदो पर गोया बिजली गिरी. उसका गला रुंध गया और उसकी आंखें धुंधला गईं. हाथ-पांव शिथिल होकर रह गए. करीब बैठी हुई औरतों ने उसे उठाकर एक कोने में लिटा दिया.

हर साल इसी तरह सर्दियों का बेरहम मौसम आता है. इसी तरह हवा तबाही का शोर मचाती रह जाती है. ओले तड़तड़ बरसते हैं और इसी तरह दरख्तों में सनसनाती हवाएं इशरक का सोग मनाती है, और इसी तरह न जाने कितनी सदो बेवा हो जाती हैं. हजारों मासूम बच्चे गुरबत का दुख सहने के लिये यतीम हो जाते हैं.

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रचनाकार: प्राची - अगस्त 2016 / क्या यही जिन्दगी है / बलूची कहानी / नइमत गुलची / अनुवाद - देवी नागरानी
प्राची - अगस्त 2016 / क्या यही जिन्दगी है / बलूची कहानी / नइमत गुलची / अनुवाद - देवी नागरानी
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रचनाकार
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