हमारी विरासत बंग महिला वास्तविक नाम राजबाला घोष या श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष . जन्म कलकत्ता के पास चंद्रनगर के किसी स्थान पर हुआ था. वे ...
हमारी विरासत
बंग महिला
वास्तविक नाम राजबाला घोष या श्रीमती राजेन्द्र बाला घोष. जन्म कलकत्ता के पास चंद्रनगर के किसी स्थान पर हुआ था. वे मिरजापुर के एक प्रतिष्ठित बंगाली राम प्रसन्न घोष की पुत्री और पूर्णचंद्र की धर्मपत्नी थीं. मिरजापुर में रामचंद्र शुल्क के सम्पर्क में आने पर हिन्दी में लिखने लगीं. इन्होंने हिन्दी में बहुत सी बंगला कहानियों का अनुवाद प्रस्तुत करके आधुनिक हिन्दी कहानी का पथ प्रशस्त किया. बाद में कुछ मौलिक कहानियां भी लिखीं जिनमें दुलाई वाली सुप्रसिद्ध है ही. दुलाई वाली कहानी को हिन्दी की प्रथम मौलिक कहानी होने का श्रेय दिया जाता रहा है. यह 1907 ई. की सरस्वती (भाग-8, संख्या-5) में प्रकाशित हुई थी. यथार्थ चित्रण, पात्रानुकूल भाषा और स्थानीय रंगों की दृष्टि से यह कहानी आज भी प्रमाण है.
दुलाई वाली कहानी में निश्चय ही शुक्ल जी व गोस्वामी जी की कहानियों की अपेक्षा अधिक निखार है. डॉ. श्री कृष्णलाल तथा रायकृष्ण दास ने पाश्चात्य कला की दृष्टि से दुलाई वाली को ही हिन्दी की सर्वप्रथम मौलिक कहानी माना है. इस कहानी में लेखिका ने साधारण घटनाओं को स्थान-चलन और यथार्थवादी चित्रण से प्रभावशाली बनाया है. शिल्प की दृष्टि से निश्चित ही दुलाई वाली शुक्ल जी की ग्यारह वर्ष का समय से काफी श्रेष्ठ है.
दुलाई वाली
बंग महिला
काशी जी के दशाश्वमेध घाट पर स्नान करके एक मनुष्य बड़ी व्यग्रता के साथ गोदौलिया की तरफ आ रहा था. एक हाथ में मैली-सी तौलिया में लपेटी हुई भीगी धोती और दूसरे में सूरती की गोलियों की कई डिबियां और सुंघनी की एक पुड़िया थी. उस समय दिन के ग्यारह बजे थे. गोदौलिया की बाईं तरफ जो गली है, उसके भीतर एक और गली में थोड़ी दूर पर, एक टूटे से पुराने मकान में वह जा घुसा. मकान के पहले खण्ड में बहुत अंधेरा था( पर ऊपर की जगह मनुष्य के वासोपयोगी थी. नवागत मनुष्य धड़धड़ाता हुआ ऊपर चढ़ गया. वहां एक कोठरी में से उसने हाथ की चीजें रख दीं और, ‘‘सीता! सीता!’’ कहकर पुकारने लगा.
‘‘क्या है?’’ कहती हुई एक दस बरस की बालिका आ खड़ी हुई. तब उस पुरुष ने कहा, ‘‘सीता! जरा अपनी बहन को बुला ला.’’
‘‘अच्छा!’’ कहकर सीता गयी और कुछ देर में एक नवीना स्त्री आकर उपस्थित हुई. उसे देखते ही पुरुष ने कहा- ‘‘लो हम लोगों को तो आज ही जाना होगा.’’
इस बात को सुनकर स्त्री कुछ आश्चर्ययुक्त होकर और झुंझला कर बोली- ‘‘आज ही जाना होगा! यह क्यों? भला आज कैसे जाना हो सकेगा? ऐसा ही था तो सवेरे भैया से कह देते. तुम तो जानते हो कि मुंह से कह दिया( बस छुट्टी हुई. लड़की कभी विदा की होती तो मालूम पड़ता. आज तो किसी सूरत जाना नहीं हो सकता.’’
‘‘तुम आज कहती हो! हमें तो अभी जाना है. बात यह है कि आज ही नवल किशोर कलकत्ते से आ रहे हैं. आगरे से अपनी नई बहू को भी साथ ला रहे हैं. सो उन्होंने हमें आज ही जाने के लिए इसरार किया है. हम सब लोग मुगल सराय से साथ ही इलाहाबाद चलेंगे. उनका तार मुझे घर से निकलते ही मिला. इसी से मैं झट नहा-धोकर लौट आया. बस अब करना ही क्या है! कपड़ा-वपड़ा जो कुछ हो बांध-बूंधकर, घण्टे भर में खा-पीकर चली चलो. जब हम तुम्हें विदा करने आये ही हैं तब कल के बदले आज ही सही.’’
‘‘हां यह बात है. नवल जो चाहें करावें. क्या एक ही गाड़ी में न जाने से दोस्ती में बट्टा लग जायेगा? अब तो किसी तरह रुकोगे नहीं, जरूर ही उनके साथ जाओगे. पर मेरे तो नाकों दम आ जायेगी.’’
‘‘क्यों? किस बात से?’’
‘‘उनकी हंसी से और किससे! हंसी ठट्ठा भी राह में अच्छी लगती है. उनकी हंसी मुझे नहीं भाती. एक रोज मैं चौक में बैठी पूड़ियां काढ़ रही थी, कि इतने में न जाने कहां से आकर नवल चिल्लाने लगे, ‘ए बुआ! ए बुआ! देखो तुम्हारी बहू पूड़ियां खा रही है.’ मैं तो मारे सरम के मर सी गयी. हां भाभी जी ने बात उड़ा दी सही. वे बोली, ‘खाने दो, खाने पहनने के लिए तो आयी ही है.’ पर मुझे उनकी हंसी बहुत बुरी लगी.’’
‘‘बस इसी से तुम उनके साथ नहीं जाना चाहतीं? अच्छा चलो मैं नवल से कह दूंगा कि यह बेचारी कभी रोटी तक तो खाती ही नहीं, पूरी क्यों खाने लगी.’’
इतना कहकर वंशीधर कोठरी के बाहर चले आये, और बोले, ‘‘मैं तुम्हारे भैया के पास जाता हूं. तुम रो-रुलाकर तैयार हो जाना.’’
इतना सुनते ही जानकी देई की आंखें भर आयीं. और असाढ़ सावन की ऐसी झड़ी लग गई.
2
वंशीधर इलाहाबाद के रहने वाले हैं. बनारस में ससुराल है. स्त्री को विदा कराने आये हैं. ससुराल में एक साले, साली और सास के सिवा और कोई नहीं है. नवल किशोर इनके दूर के नाते में ममेरे भाई हैं. पर दोनों से मित्रता का ख्याल अधिक है. दोनों एक जान दो कालिब हैं.
उसी दिन वंशीधर का जाना स्थिर हो गया. सीता, बहन के संग जाने के लिए रोने लगी. मां रोती-धोती लड़की की विदा की सामग्री इकट्ठी करने लगीं. जानकी देई भी रोती ही रोती तैयार होने लगी. कोई चीज भूलने पर धीमी आवाज से मां को याद भी दिलाती गयी. एक बजने पर स्टेशन जाने का समय आया. अब गाड़ी या इक्का लाने कौन जाय? ससुराल वालों की अवस्था अब आगे की सी नहीं कि दो चार नौकर-चाकर हर समय बने रहें. सीता के बाप के न रहने से काम बिगड़ गया है. पैसे वाले के यहां नौकर चाकरों के सिवा और भी दो चार खुशामदी घेरे रहते हैं. छूछे को कौन पूछे? एक कहारिन है( सो भी इस समय कहीं गयी है. सालेराम की तबीयत अच्छी नहीं. वे हर घड़ी बिछौने से बातें करते हैं. तिस पर भी आप कहने ले- ‘‘मैं ही धीरे-धीरे जाकर कोई सवारी ले आता हूं. नजदीक तो है.’’
वंशीधर बोले- ‘‘नहीं, नहीं, तुम क्यों तकलीफ करोगे? मैं ही जाता हूं.’’
जाते-जाते वंशीधर विचारने लगे कि इक्के की सवारी तो भले घर की स्त्रियों के बैठने लायक नहीं होती. क्योंकि एक तो उतने ऊंचे पर चढ़ना पड़ता है( दूसरे पराये पुरुष के संग एक साथ बैठना पड़ता है. मैं एक पालकी गाड़ी ही कर लूं. उसमें सब तरह का आराम रहता है. पर जब गाड़ी वाले ने डेढ़ रुपया किराया मांगा, तब वंशीधर ने कहा- ‘‘चलो इक्का ही सही. पहुंचने से काम. कुछ नवलकिशोर तो यहां से साथ हैं नहीं. इलाहाबाद में देखा जायेगा.’’
वंशीधर इक्का ले आये, और जो कुछ असबाब था इक्के पर रखकर आप भी बैठ गये. जानकी देई बड़ी विफलता से रोती हुई इक्के पर जा बैठी. पर इस अस्थिर संसार में स्थिरता कहां? यहां कुछ भी स्थिर नहीं. इक्का जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, वैसे जानकी की रुलाई भी कम होती गयी. सिकरौल के स्टेशन के पास पहुंचते-पहुंचते जानकी अपनी आंखें अच्छी तरह पौंछ चुकी थी.
दोनों चुपचाप चले जा रहे थे कि, अचानक वंशीधर की नजर अपनी धोती पर पड़ी( और ‘‘अरे एक बात तो हम भूल ही गये.’’ कहकर पछता-से उठे. इक्के वाले के कान बचाकर जानकी जी ने पूछा, ‘‘क्या हुआ? क्या कोई जरूरी चीज भूल आये?’’
‘‘नहीं एक देशी धोती पहिनकर आना था( सो भूलकर विलायती ही पहिन आये. नवल कट्टर स्वदेशी हुए हैं न? वे बंगालियों से भी बढ़ गये हैं. देखेंगे तो दो चार सुनाये बिना न रहेंगे. और, बात भी ठीक है. नाहक विलायती चीजें मोल लेकर क्यों रुपये की बरबादी की जाये. देशी लेने से भी दाम लगेगा सही( पर रहेगा तो देश ही में.’’
जनकी जरा भौहें टेढ़ी करके बोली, ‘‘उंह, धोती तो धोती, पहिनने से काम. क्या बुरी है?’’
इतने में स्टेशन के कुलियों ने आ घेरा. वंशीधर एक कुली करके चले. इतने में इक्के वाले ने कहा, ‘‘इधर से टिकट लेते जाइए. पुल के उस पार तो ड्योढ़े दरजे का टिकट मिलता है.’’
वंशीधर फिर कर बोले, ‘‘अगर मैं ड्योढ़े दरजे ही का टिकट लूं तो?’’
इक्के वाला चुप हो रहा. ‘इक्के ही सवारी देखकर इसने ऐसा कहा.’ यह कहते हुए वंशीधर आगे बढ़ गये.
यथा समय रेल पर बैठकर वंशीधर राजघाट पार करके मुगलसराय पहुंचे. वहां पुल लांघकर दूसरे प्लेटफार्म पर जा बैठे. आप नवल से मिलने की खुशी में प्लेटफार्म के इस छोर से उस छोर तक टहलते रहे. देखते-देखते गाड़ी का धुआं दिखलाई पड़ा. मुसाफिर अपनी-अपनी गठरी संभालने लगे. रेलदेवी भी अपनी चाल धीमी करती हुई गंभीरता से आ खड़ी हुई. वंशीधर एक बार चलती गाड़ी ही में शुरू से आखिर तक देख गये. पर नवल का कहीं पता नहीं. वंशीधर फिर सब गाड़ियों को दोहरा गये, तेहरा गये, भीतर घुस-घुस कर एक-एक डिब्बे को देखा, किंतु नवल न मिले. अंत को आप खिजला उठे, और सोचने लगे कि मुझे तो वैसी चिट्ठी लिखी, और आप न आया. मुझे अच्छा उल्लू बनाया. अच्छा जायेंगे कहां? भेंट होने पर समझ लूंगा. सबसे अधिक सोच तो इस बात का था कि जानकी सुनेगी तो ताने पर ताना मारेगी. पर अब सोचने का समय नहीं. रेल की बात ठहरी. वंशीधर झट गये और जानकी को लाकर जनानी गाड़ी में बिठाया. वह पूछने लगी, ‘‘नवल की बहू कहां है?’’
‘‘वह नहीं आये, कोई अटकाव हो गया.’’ कहकर आप बगल वाले कमरे में जा बैठे. टिकट तो ड्योढ़े का था( पर ड्योढ़े दरजे का कमरा कलकत्ते से आने वाले मुसाफिरों से भरा था. इसलिए तीसरे दर्जे में बैठना पड़ा. जिस गाड़ी में वंशीधर बैठे थे उसके सब कमरों में मिलाकर कुल दस बारह ही स्त्री-पुरुष थे. समय पर गाड़ी छूटी. नवल की बातें, और न जाने क्या अगड़-बगड़, सोचते गाड़ी स्टेशन पार करके मिरजापुर पहुंची.
3
मिरजापुर में पेटराम की शिकायत शुरू हुई. उसने सुझाया कि इलाहाबाद पहुंचने में अभी देरी है. चलने के झंझट में अच्छी तरह उसकी पूजा किये बिना ही वंशीधर ने बनारस छोड़ा था. इसलिए आप झट प्लेटफार्म पर उतरे, और पानी के बम्बे से हाथ मुंह धोकर, एक खोंचे वाले से थोड़ी-सी ताजी पूड़ियां और मिठाई लेकर, निराले में बैठे आपने उन्हें ठिकाने पहुंचाया. पीछे से जानकी की सुध आयी. सोचा कि पहले पूछ लें, तब कुछ मोल लेंगे. क्योंकि स्त्रियां नटखट होती हैं. वे रेल पर खाना पसन्द नहीं करतीं. पूछने पर वही बात हुई. तब वंशीधर लौटकर अपने कमरे में आ बैठे. यदि वे चाहते तो इस समय ड्योढ़े में बैठ जाते( क्योंकि अब भीड़ कम हो गयी थी. पर उन्होंने कहा, थोड़ी देर के लिए कौन बखेड़ा करे.
वंशीधर अपने कमरे में बैठे तो दो एक मुसाफिर अधिक देख पड़े. आगे वालों में से एक उतर भी गया था. जो लोग थे सब तीसरे दर्जें के योग्य जान पड़ते थे( अधिक सभ्य कोई थे तो
वंशीधर ही थे. उनके कमरे के पास वाले कमरे में एक भले घर की स्त्री बैठी थी. वह बेचारी सिर से पैर तक ओढ़े, सिर झुकाये, एक हाथ लम्बा घूंघट काढ़े, कपड़े की गठरी-सी बनी बैठी थी. वंशीधर ने सोचा इनके संग वाले भद्र पुरुष के आने पर उनके साथ बातचीत करके समय बितावेंगे. एक दो करके तीसरी घंटी बजी. तब वह स्त्री कुछ अचकचाकर, थोड़ा-सा मुंह खोल, जंगले के बाहर देखने लगी. ज्योंही गाड़ी छूटी, वह मानों कांप-सी उठी. रेल का देना लेना तो हो ही गया था. अब उसको किसी की क्या परवा? वह अपनी स्वाभाविक गति से चलने लगी. प्लेटफार्म पर भीड़ भी न थी. केवल दो-चार आदमी रेल की अन्तिम विदाई तक खड़े थे. जब तक स्टेशन दिखलाई दिया तब तक वह बेचारी बाहर ही देखती रही. फिर अस्पष्ट स्वर से रोने लगी. उस कमरे में तीन चार प्रौढ़ा ग्रामीण स्त्रियां भी थीं. एक, जो उसके पास ही थी, कहने लगी- ‘‘अरे इनकार मनई तो नाहीं आईलेन. हो देखहो रोवल करथईन.’’
दूसरी- ‘‘अरे दुसर गाड़ी में बैठा होंइंहें.’’
पहली- ‘‘दुर बौरही! ई जनानी गाड़ी थोड़े है.’’
दूसरी- ‘‘तऊ हो भलू तो कहू.’’ कहकर दूसरी भद्र महिला से पूछने लगी, ‘‘कौन गांव उतरबू बेटा! मोरजैपूरा चढ़ो हऊ न.’’ इसके जवाब में उसने जो कहा सो वह न सुन सकी.
तब पहली बोली- ‘‘हट हम पुंछिला न( हम कहा काहां उतरबू हो? आंय ईलाहावास?’’
दूसरी- ‘‘ईलाहाबास कौन गांव ही गोइंयां?’’
पहली- ‘‘अरे नाहीं जनैलू? पैयाग जी, जहां मनई मकर नाहाए जाला.’’
दूसरी- ‘‘भला पैगाम जी काहे न जानीथ( ले, कहैके नाहीं, तोहरे पंच के धरम से चार दांई नहाए चुकी हंई. ऐसों हो सोमवारी, अउर गहन, दका, दका, लाग रहा तउन तोहरे काशी जी नहाय गइ रहे.’’
पहली- ‘‘आवे जाय के तो सब अऊते जाता बटले! फुन यह साइत तो विचारो विपत में न पड़ल बाटिली. हे हम पंचा हई, राजघाट टिकस कटऊली( मोंगल के सरायें उतरलीह( होद पुनः चढ़लीह.’’
दूसरी- ‘‘ऐसे एक दांह हम आवत रहे. एक मिली औरो मोरे संचे रही. द कौन टिसनीया पर उकर मलिकबा उतरे से कि जुरतंइहं गड़िया खुली. अब भईया ऊ गरा फाड़फाड़ नरियाय, ए साहब खड़ी कर! ए साहेब गड़िया खड़ी कर! ए साहेब गड़िया तनी खड़ी कर! भला गड़िया दहिनाति काहै के खड़ी होय?’’
पहली- ‘‘द मेहरुबा बड़ी उजबक रहल. भला केहू के चिल्लाये से रैलीओ कहूं खडी होला?’’
इसकी इस बात पर कुल कमरे वाले हंस पड़े. अब जितने पुरुष स्त्रियां थीं, एक से एक अनोखी बातें कहकर अपने-अपने तजरुबे बयान करने लगीं. बीच-बीच में उस अकेली अबला की स्थिति पर भी दुःख प्रकट करती जाती थीं.
तीसरी स्त्री बोली- ‘‘टीक्कसिया पल्ले बाय द नांही. हे सहेबवा सुनि तो कलकत्ते तांई ले मसुलिया लेई. अरे-इंहो तो नांहि कि दूर से आवत रहले न, फरागत के बदे उतरलेन.’’
चौथी- ‘‘हम तो इनके संगे के आदमी के देखबो न किहा गोइयां.’’
तीसरी- ‘‘हम देखे रहली हो, मजेक टोली दिहले रहलेन को.’’
इस तरह उनकी बेसिर पैर की बातें सुनते-सुनते वंशीधर ऊब उठे. तब वे उन स्त्रियों से कहने लगे- ‘‘तुम तो नाहक उन्हें और भी डरा रही हो. जरूर इलाहाबाद तार गया हो और दूसरी गाड़ी से वे भी पहुंच जायेंगे. मैं भी इलाहाबाद ही जा रहा हूं. मेरे संग भी स्त्रियां हैं. जो ऐसा ही है तो दूसरी गाड़ी के आने तक मैं स्टेशन पर ही ठहरा रहूंगा. तुम लोगों में से यदि कोई प्रयाग उतरे तो थोड़ी देर के लिए स्टेशन पर ठहर जाना. इनको अकेला छोड़ देना उचित नहीं. यदि पता मालूम हो जायेगा तो मैं इन्हें इनके ठहरने के स्थान पर भी पहुंचा दूंगा.’’
वंशीधर की इन बातों से उन स्त्रियों की वाक्य-धारा दूसरी ओर वह चली, ‘‘हां यह बात तो आम भली कही.’’ ‘‘नाहीं भइया! हम पंचे काहिके केहुसे कुछ कही. अरे एक के एक करन बाय तो दुनिया चलत कैसे बाय?’’ इत्यादि ज्ञान गाथा होने लगी. कोई-कोई तो उस बेचारी को सहारा मिलते देख खुश हुए और कोई-कोई नाराज भी हुए. क्यों, सो मैं नहीं बतला सकती. उस गाड़ी में जितने मनुष्य थे सभी ने इस विषय में कुछ न कुछ कह डाला था. पिछले कमरे में केवल एक स्त्री जो फरासीसी छींठ की दुलाई ओढ़े अकेली बैठी थी, कुछ नहीं बोली. कभी-कभी घूंघट के भीतर से एक आंख निकालकर वंशीधर की ओर वह ताक देती थी और, सामना हो जाने पर, फिर मुंह फेर लेती थी. बंशीधर सोचने लगे कि, ‘‘यह क्या बात है? देखने में तो यह भले घर की मालूम होती है, पर आचरण इसका अच्छा नहीं.’’
गाड़ी इलाहाबाद के पास पहुंचने को हुई. वंशीधर उस स्त्री को धीरज दिलाकर आकाश-पाताल सोचने लगे. यदि तार में कोई खबर न आई होती तो दूसरी गाड़ी तक स्टेशन पर ही ठहरना पड़ेगा. और जो उससे भी कोई न आया तो क्या करूंगा? जो हो गाड़ी नैनी से छूट गयी. अब साथ ही उन अशिक्षिता स्त्रियों ने फिर मुंह खोला. ‘‘क भईया, जो केहु बिन टिक्कस के आवत होय तो ओकर का सजाय होला? अरे ओंका ई नाहीं चाहत रहा कि मेहरारू के तो बैठा दिहलेन, अउर अपुआ तउन टिक्कस लेई के चल दिहलेन.’’ किसी-किसी आदमी ने तो यहां तक दौड़ मारी कि रात को वंशीधर इसके जेवर छीनकर रफूचक्कर हो जायेंगे. उस गाड़ी में एक लाठी वाला भी था. उसने खुल्लम-खुल्ला कहा- ‘‘का बाबू जी! कुछ हमरो साझा.’’
इसकी बात पर वंशीधर क्रोध से लाल हो गये. उन्होंने इसे खूब धमकाया. उस समय तो वह चुप हो गया, पर यदि इलाहाबाद उतरता तो वंशीधर से बदला लिये बिना न रहता.
4
वंशीधर इलाहाबाद में उतरे. एक बुढ़िया को भी वहीं उतरना था. उससे उन्होंने कहा कि ‘‘उनको भी अपने संग उतार लो.’’ फिर उस बुढ़िया को उस स्त्री के पास बिठाकर आप जानकी को उतारने गये. जानकी से सब हाल कहने पर वह बोली- ‘‘अरे जाने भी दो( किस बखेड़े में पड़े हो.’’ पर वंशीधर ने न माना. जानकी को और उस भद्र महिला को एक ठिकाने बिठाकर आप स्टेशन मास्टर के पास गये. वंशीधर के जाते ही वह बुढ़िया, जिसे उन्होंने रखवाली के लिए छोड़ा था, किसी बहाने से भाग गई. स्टेशन मास्टर से पूछने पर मालूम हुआ कि कोई तार नहीं आया. अब से तो वंशीधर बड़े असमंजस में पड़े. टिकट के लिए बखेड़ा होगा. क्योंकि वह स्त्री बे-टिकट है. लौटकर आये तो किसी को न पाया. ‘‘अरे ये सब कहां गईं?’’ यह कहकर चारों तरफ देखने लगे. कहीं पता नहीं. इस पर वंशीधर घबराये, ‘‘आज कैसी बुरी साइत में घर से निकले कि एक के बाद दूसरी आफत में फंसते चले आ रहे हैं.’’ इतने में अपने सामने उस दुलाई वाली को आते देखा. ‘‘तू ही उन स्त्रियों को कहीं ले गई है.’’ इतना कहना था कि दुलाई से मुंह खोलकर नवल किशोर खिलखिला उठे.
‘‘अरे यह क्या? सब तुम्हारी ही करतूत है. अब मैं समझ गया. कैसा गजब तुमने किया है? ऐसी हंसी मुझे नहीं अच्छी लगती. मालूम होता है वह तुम्हारी ही बहू थी. अच्छा तो वे गई कहां?’’
‘‘वे लोग तो पालकी गाड़ी में बैठी हैं. तुम भी चलो.’’
‘‘नहीं मैं सब हाल सुन लूंगा तब चलूंगा. हां यह तो कहो, तुम मिरजापुर में कहां से आ निकले?’’
‘‘मिरजापुर नहीं मैं तो कलकत्ते से, बल्कि मुगलसराय से, तुम्हारे साथ चला आ रहा हूं. तुम जब मुगलसराय में मेरे लिए चक्कर लगाते थे तब मैं ड्योढ़े दर्जे में ऊपर वाले बेंच पर लेटे तुम्हारा तमाशा देख रहा था. फिर मिरजापुर में जब तुम पेट के धन्धे में लगे थे, मैं तुम्हारे पास से निकल गया पर तुमने न देखा. मैं तुम्हारी गाड़ी में जा बैठा. सोचा कि तुम्हारे आने पर प्रकट होऊंगा. फिर थोड़ा और देख लें, करते-करते यहां तक नौबत पहुंची. अच्छा अब चलो, जो हुआ उसे माफ करो!’’
यह सुन वंशीधर प्रसन्न हो गये. दोनों मित्रों में बड़े प्रेम से बातचीत होने लगी. वंशीधर बोले- ‘‘मेरे ऊपर तो कुछ बीती सो बीती, पर वह बेचारी, जो तुम्हारे से गुनवान के संग पहली ही बार रेल से आ रही थी, बहुत ही तंग हुई. उसे तो तुमने नाहक रुलाया. बहुत ही डर गयी थी.
‘‘नहीं जी! डर किस बात का था? हम-तुम, दोनों गाड़ी में न थे?’’
‘‘हां पर, यदि मैं स्टेशन मास्टर से इत्तिला कर देता तो बखेड़ा खड़ा हो जाता न?’’
‘‘अरे तो क्या, मैं थोड़े ही गया था! चार हाथ की दुलाई की बिसात ही कितनी?’’
इसी तरह बातचीत करते-करते दोनों गाड़ी के पास आये. देखा तो दोनों मित्र वधुओं में खूब हंसी हो रही है. जानकी कह रही थी- ‘‘अरे तुम जानो क्या. इन लोगों की हंसी ही ऐसी होती है. हंसी में किसी के प्राण भी निकल जायें तो भी इन्हें दया न आवे.’’
खैर, दोनों मित्र अपनी-अपनी घरवाली को लेकर राजी खुशी घर पहुंचे और मुझे भी उनकी राम-कहानी लिखने से छुट्टी मिली.
Vastukhtha dulaiwali kahani ki
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