धरोहर कहानी शाम हो रही थी . रास्ता खतम करके, पसीना पोंछने के लिए उसने सिर पर बंधा हुआ अंगोछा हाथ में ले लिया था. इस बार मैंने ध्यान से उस ...
धरोहर कहानी
शाम हो रही थी. रास्ता खतम करके, पसीना पोंछने के लिए उसने सिर पर बंधा हुआ अंगोछा हाथ में ले लिया था. इस बार मैंने ध्यान से उस आदमी को देखा और मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे सामने जातक की कहानियों के बोधिसत्व खड़े हो गए हैं. भगवान बुद्ध ने हर वर्तमान कहानी के लिए बोधिसत्व के पिछले जन्म की गाथाएं कही थीं, लेकिन आज मुझे लगा कि बोधिसत्वों की परम्परा जैसी अतीत काल में थी, वैसी ही भविष्य में भी तो होगी. यदि भगवान बुद्ध मुझ क्षमा करें, तो मैं इस कथा का अंत इस प्रकार करूंः
आदमी एक खुली किताब
ठाकुरप्रसाद सिंह
जून महीने के अंत में इस बार पानी समय से कुछ पहले और काफी बरस गया है. गांव में ऐसे समय पड़ने वाली शादियां काफी दिक्कत-तलब हुआ करती हैं. इसलिए पूरे दस दिन से ननिहाल की शादी में जाने के लिए अपने को भीतर से मजबूत कर रहा था. रोज कोई-न-कोई उधर से आता और बता जाता कि स्टेशन से गांव तक 3-4 जगह तैरना भी पड़ सकता है और बाकी दो-एक जगहों पर तो केवल कमर तक भीगने से ही काम बन जाएगा. फिर किसी ने बतलाया कि यदि ग्राण्ट ट्रंक रोड से चलकर चन्दौली तक बस से जाया जाए तो वहां से ढाई-तीन कोस पर नहर की सड़क मिल जाएगी और रास्ता कुछ लम्बा तो हो जाएगा, लेकिन एकदम सुरक्षित रहेगा. लगन-बारात का समय तो है, लेकिन अगर समय अच्छा रहा तो रिक्शेवाले भी वहां तक जाने के लिए तैयार हो जाएंगे. यही सोचते-समझते रवाना होने का दिन भी आ गया और सारी तैयारियों के बावजूद भी हाथ-पांव ढीले होने लगे. दोपहर बीत गई और जब नींद खुली, तो तीसरे पहर की बस का समय भी बीत चुका था. बड़ा घबराया हुआ-सा उठा और झुंझलाता हुआ-सा बस-स्टेशन तक इस ख्याल से पहुंचा कि यदि बस न मिली तो आज लौट आऊंगा, कल फिर देखा जाएगा. लेकिन वहां जाने पर न केवल बस मिली बल्कि कण्डक्टर और ड्राइवर भी अपने पुराने परिचित मिले. एक बार उनसे पूछकर फिर लौटने का रास्ता नहीं रह गया. उन्होंने संरक्षित भाव से केवल एक घण्टे के अन्दर मुझे चन्दौली में छोड़ दिया और अब दूसरी दफा भाग्य आजमाने के लिए मैं रिक्शा खोजने लगा. किसी रिक्शेवाले ने मेरी बात न सुनी. अब मुझे लगा कि या तो ये सब-के-सब ऊंचा सुनते हैं, या मैं काफी
धीरे-धीरे बोल रहा हूं. फिर मैंने जोर से पूछा और एक ने क्रोध से जवाब दिया, ‘‘क्या हम बहरे हैं?’’ इसके बाद कुछ कहना खतरे से खाली नहीं था. मैं कड़ी जबान का इस्तेमाल करूं और फिर आंख, कान और जबान के लाचार होने पर कहीं शरीर के अन्य अंगों के उपयोग करने की लाचारी आ उपस्थित हो, तो? पढ़े-लिखे शहरी बाबू का गौरव मुखौटे की तरह चेहरे पर डालकर और भीतर से बिलकुल नाराज-सा मैं एक पान की दूकान के आस-पास घूमने लगा. तभी एक रिक्शेवाले ने आकर धीरे से कहा, ‘‘मैं वहां चल सकता हूं बशर्ते मुझे किराया ढंग का मिल जाए. आप ही सोचिए कि मैं यहां से तीन कोस गांव में जाऊंगा, फिर लौटूंगा, और फिर मैं मुगलसराय के पास का रहने वाला हूं, वहां जाऊंगा तो रात के 10 बजेंगे. यह सब सोच-समझकर आप जो दे देंगे, वहीं ठीक होगा.’’
मैंने कहा, ‘‘ठीक है, तुम तैयार हो जाओ. मैं पान ले लूं, उसके बाद चलता हूं.’’
ऐसा लगा, जैसे यहां भी भाग्य ने साथ दिया और मैं बड़े प्रसन्न मन से एक प्याला चाय लेकर बाजार और सड़क पर आने-जाने वालों को देखने लगा. जंगल में पड़ गया हूं, ऐसा भय तिरोहित हो गया और गरमी की कड़ी धूप भी कुछ नरम-सी लगने लगी.
तभी वह रिक्शेवाला फिर हमारे पास आया. उसने मुझे जल्दी करने को कहा, क्योंकि लोग उसे मुगलसराय के लिए 5 रुपये तक देने के लिए तैयार हो गए थे और यदि लौटते रास्ते का उसे 5 रुपये मिल जाए तो फिर बात ही क्या है. लेकिन चूंकि वह बात हार चुका है, इसलिए उसे जल्द-से-जल्द वहां गांव के लिए रवाना हो जाना चाहिए.
मैंने उस अजीब आदमी को अपने सामने खड़ा पाया. रोज वादे तोड़ने वाले लोगों से मुलाकात होती है. उस दुनिया से मैं इस जलंगल में आज एकाएक आ गया हूं. यहां एक ऐसा विचित्र आदमी भी है, जो इस डर के मारे कि कहीं उसे ज्यादा पैसे न मिल जाएं, जल्द-से-जल्द मेरे साथ रवाना हो जाना चाहता है. मैं जल्दी से रिक्शे पर चढ़ गया और देखते-देखते तेज रिक्शा चलाकर वह बाजार से बाहर हो गया.
मैंने डरते-डरते उससे पूछा कि इतनी दूर का रिक्शेवाले आखिर क्या लेते हैं? और उसने बड़े हलके मन से पैडिल मारते हुए कहा कि यों तो दो रुपये इस रास्ते के लिए कम नहीं हैं, लेकिन लोग विवाह-शादी के मौके पर तीन रुपये तक भी चार्ज कर लेते हैं और चुप होकर रिक्शा चलाता रहा.
एकान्त रास्ता और एकाएक धूप कम हो गई, इसलिए मैंने झोले में से एक पुस्तक निकाल ली और रास्ता काटने के ख्याल से पढ़ने लगा. जातक की कहानियों की इस पुस्तक में आज से 2500 वर्ष पहले के लोक-जीवन की बड़ी ही मार्मिक व्यंजना हुई है-उस समय आदमी का मूल्य समझा जाता था और मर्यादाएं सुरक्षित थीं और बातों का मोल हुआ करता था. इसकी परम्पराएं और भी पुरानी हैं. मुख्य रूप से यह भारत के जन-मानस को कितने सौ सालों से उद्वेलित करती रही है. जातक के जमाने की भगवान बुद्ध के मुख से कही गई उनके पिछले जन्म की कहानियां अपने भीतर बहुत-सारा महत्त्व छिपाए रखती हैं. किताब शुरू करने के साथ ही मैं उसमें खो गया और यह भूल गया कि मैं तीन कोस के इस देहाती रास्ते पर जून की गरमी में जा रहा हूं....कहानी चलती रही...बोधिसत्व उस समय वाराणसी में एक गरीब व्यापारी के घर पैदा हुए और थोड़ा बड़ा होते ही परिवार के सभी लोगों की मृत्यु हो गई. घर का काम-धंधा खत्म हो जाने पर वह आस-पास इधर-उधर घूमते रहे और एक दिन उन्होंने वहीं के परम श्रेष्ठी से जाकर अपनी दुःख-गाथा सुनाई. श्रेष्ठी ने कहा, ‘‘बेटा, सौभाग्य से तो सौभाग्य पाया जा सकता है, न ग्रह-नक्षत्र से, न उच्च-कुल से. वह पाया जाता है, आदमी के अपने ही धैर्य और साहस से...सो यदि तुम पुनः धनवान होना चाहते हो तो यही करो. छोटी-सी-छोटी चीज को भी तुम कम महत्त्व का न समझना, यह जानकर कि पता नहीं भाग्य कहां छिपा हुआ है...
रिक्शेवाले ने मुड़कर मुझे देखा और हंसकर बोला, ‘‘बाबू, कुछ कहते-सुनते रहो, जिससे रास्ता कटे.’’
मैंने उसका ख्याल करते हुए किताब बंद कर दी और कहा, ‘‘अच्छा, तुम्हीं कुछ कहो.’’
और उसने हंसकर कहना शुरू किया. रिक्शे की बगल से निकलकर एक मैला-कुचैला ठिगना-सा चार वर्ष का लड़का दौड़ते हुए बगल के गड्ढे में कूद पड़ा था. बड़े स्नेह से उसकी ओर देखते हुए उसने कहा, ‘‘जब मैं इतना ही बड़ा था तो बाप मुझे छोड़कर भगवान के घर चले गए. जब तक वे जिन्दा रहे, हाड़-तोड़ मेहनत करते रहे. उन्होंने घर बनाया था, खेती-बारी ठीक की थी और कुछ गहने तथा रुपये भी मां को दिए थे. उनके मरने के बाद मां ने दूसरा घर कर लिया और हमारे घर में ताला लगाकर, मेरी बांह पकड़कर, करीब-करीब घसीटते हुए मेरा नया बाप मुझे कई कोस ले गया. वहां कुछ दिन के बाद ही विपत्ति हो गई. गन्दे चिथड़े लपेटे और महीनों का मैल देह पर लाते जब मैं गांव में जिधर से निकलता, मुझे कुत्ते तक दौड़ा लेते. घर में कभी पेट तो नहीं भरा, लेकिन मैंने शक्ति-भर किसी का दिया कभी नहीं खाया. फिर भी घर लौटने पर रोज केवल इसलिए मार खाता रहा कि दूसरों के घर जाकर मैं हाथ फैलाता हूं और इससे इस नये बाप की बेइज्जती होती है. मेरी मां कभी-कभी मेरी तरफ से लड़ती थी, लेकिन उसे तो मुझसे भी ज्यादा मार पड़ती थी. और एक दिन जब उसे एक छोटा-सा बच्चा हो गया तो मेरे रहे-सहे बन्धन भी उस पर से खत्म हो गए.
‘‘दूसरा सवेरा मुझे याद है. मैंने इस पक्की सड़क पर देखा, बनजारे बैल लादे, गाड़ीवान अनाज लादे रास्ते पर चले जा रहे थे. मैं उनके पीछे-पीछे बैलों की घंटियों की आवाज पर पैर बिठाता धीरे-
धीरे जा रहा था. जाड़े के दिन थे और शाम जल्दी ही हो गई थी. रात को जहां उन लोगों ने आग लगाई, वहां जाकर मैं भी बैठ गया. तब उन सबकी निगाह मेरे ऊपर पड़ी. मुझे उन्होंने अपने खाने में से हिस्सा दिया और बहुत देर तक मेरी ओर देख-देखकर मेरे घरवालों को कोसते रहे. फिर मैं उनके साथ हो लिया. दिन में वे मुझे अपनी गाड़ियों पर बिठा लेते. खाना खाते समय मुझे खाना देते और इस तरह उनके साथ मैं कई दिन तक चलता रहा. एक दिन एक बड़े बाजार में उन्होंने सब सामान बेचा और कुछ नया सामान लादकर वे लोग वापस लौटे. कुछ दूर आगे चलने पर मैंने उनका साथ छोड़ देने को कहा. चलते समय बहुत दुखी मन से उन्होंने मुझे विदा दी और कई दिनों के लिए चना-गुड़ बांधकर मेरे हवाले किया. मैं घूमता-फिरता जिस बाजार में पहुंचा उसकी बगल में रेलवे का एक स्टेशन था. मुझे वहां एक रेलवे खलासी ने देखा और अपने घर लिवा ले गया. उसके कोई लड़का न था. उसने मुझे पास के तालाब में दिन-भर रगड़-रगड़कर धोया और धूप में सूखने के लिए खड़ा कर दिया. फिर खुद वह पानी में घुसा और नहाकर, पूजा करके लौट आया. उस दिन दोपहर को मैंने बहुत दिन बाद रसोई-घर में बैठकर खाना खाया और मुझे चार आंखें स्नेह से घूरती रहीं. खाना खाने के बाद मुझे नींद आ गई.’’
एकाएक रिक्शे का चेन उतर गया और उसने रिक्शे से उतरकर उसे चढ़ाना शुरू किया. उसके बाद वह बगल की झोंपड़ी के पास बीड़ी सुलगाने के लिए चला गया और किसी से बातें करने लगा. मैंने इसी बीच में आधी छूटी हुई कहानी को पूरा करने के ख्याल से किताब खोलीः-
बोधिसत्व व्यापारियों के चौक में जाकर लोगों का सामान बिकने के बाद बचा हुआ पुआल मांगकर धीरे-धीरे इकट्ठा करने लगे. पुआल इकट्ठा करते हुए देखकर लोग उनपर हंसे. लेकिन वह अपने काम में लगे रहे. इसी बीच कुछ लोगों ने धोखे से बोधिसत्व के पुआल में आग लगा दी. उनका कई दिनों का प्रयत्न व्यर्थ हो गया और वह फिर नये सिरे से चौक में घूमने लगे.
रिक्शेवाले ने बीड़ी के दो-एक लम्बे कश लिये और उसे फेंककर उसने हैण्डिल पकड़ लिया और फिर उसकी कहानी शुरू हो गई-
‘‘मैं, पता नहीं, कब तक सोता रहा. लेकिन जब मेरी नींद खुली तो मैं पूरा जवान हो चुका था. पूरा खाना मिलने से शरीर निखर आया था. मैं अपनी उमर के पहलवानों को अपने सामने कुछ समझता ही न था. मेरे इस नये बाप ने मेरे गले में काला धाग बांध दिया था और कमरे में करधन. वह अक्सर कहा करता था कि उसने जंगली मेंढ़े को काला धागा पहनाकर पालतू बना लिया है. जब तक यह काला धागा है, तब तक वह उसके घर में है. जिस दिन धागा टूटा, भागते देर नहीं लगेगी.
‘‘बड़े आनन्द से दिन कट रहे थे. तभी मेरी नई मां मर गई और बहुत ही जल्दी मेरे इस नये पिता ने दूसरी शादी कर ली. मेरे भीतर किसी चोर ने सिर उठाया और मुझे लगा कि जैसे अब मेरे दुःख के दिन फिर आने वाले हैं. मैं बहुत डरा-डरा-सा रहने लगा. एक दिन मेरी मां ने दोपहर को एकान्त पाकर मेरी ओर हंसकर देखा और मेरा हाथ पकड़ लिया. इस पर मैंने कसकर उसे डांटा और डरा हुआ-सा खेत की तरफ भाग गया. उस समय सारी दुनिया घूमती हुई-सी लगी और लगा कि अब इस दुनिया में कोई सच्चाई नहीं रह गई है. भागते-भागते मैंने सुना था, वह चिल्लाकर कह रही थी कि जो तुम धोती-कुरता पहने छैला बने घूम रहे हो, वह अधिक दिन तक नहीं चलने दूंगी. अगर दो दिन के अन्दर यह धोती न उतरवा दी, तो अपने बाप की बेटी नहीं!
‘‘तीसरे दिन दोपहर को कुएं पर बाप ने मुझे बुलवाया. उस समय मैं नहा-धोकर सफेद धुली हुई धोती की लुंगी लगाने जा रहा था. उसके बुलाने पर ठसक गया और देखा तो मेरी नई मां मेरी ओर तिरछी निगाह से देखते हुए हंस रही थी. बाप के पास जाकर मैंने बुलाने का कारण पूछा, तो उसने कहा, ‘जो धोती पहने हुए हो, उसे वहीं खोलकर घर आओ.’ मैंने कहा कि मैंने नीचे कुछ नहीं पहन रखा है, घर जाकर दूसरी धोती पहनकर इसे लिये आ रहा हूं. पर उसने जिद्द पकड़ ली तो मुझे भी क्रोध आ गया. मैंने धोती उतारकर लंगोट के ऊपर सिर से उतारकर अंगौछा लपेट लिया और धोती वहीं बीच से दो टुकड़े फाड़कर फेंक दी. इसपर वह तड़पते हुए उठा. लेकिन मैं भी घूमकर खड़ा हो गया था. वह मेरी ओर देखकर सहम गया.
‘‘उस दिन से मैंने वह घर छोड़ दिया और गांव में ही एक दूसरे आदमी के पास जाकर रहने लगा. दो ही तीन दिन के बाद, शाम को जब मैं कुएं की बगल से गुजर रहा था, मेरी नई मां ने औरतों के बीच खड़े-खड़े ही मेरे ऊपर कुछ व्यंग्य-बाण कसे और फिर एक ही उम्र की कई औरतों ने मिलकर जो गाना गाना शुरू किया, उसमें मेरा वस्त्र उतरवाने तथा अपमानित होने की बात कहीं गई थी. तब क्या था, मेरे माथे पर खून चढ़ गया और मैंने एक ही छलांग में जाकर उसकी गरदन पकड़कर दबा दी. मेरे भीतर से किसी ने कहा कि ऐसा अवसर फिर नहीं मिलेगा, वह तेरी ही धोती पहनकर तुझी पर व्यंग कर रही है, वह धोती इसी समय इससे छीन ले और इसे भी वैसे ही बाप के पास भेज! मेरा हाथ उठा लेकिन फिर कुछ सोचकर मैंने उसको छोड़ दिया और वहीं खड़ा रहा. इसी बीच मेरा नया बाप दौड़ते हुए आया और उसने बिना कुछ पूछे-ताछे मुझे पीटना शुरू कर दिया. मैं चुपचाप मार खाता रहा. जब वह पीटकर थक चुका तो मैंने गरदन और कमर में पड़ा हुआ काला डोरा एक झटके में तोड़कर उसके पांव पर रख दिया.
‘‘मेरे ऊपर से मंत्र दूर हो चुका था. मैंने आखिरी बन्धन तक तोड़ फेंके थे और अब मैं पुनः जंगली मेंढ़ा हो चुका था. उस समय मेरे सामने यदि कोई पड़ जाता तो उसकी खैर न थी. लेकिन जल्दी ही मैं वहां से कलकत्ता भाग गया और जब तक लड़ाई चली, वहां मिलों में खटता रहा, या हाथरिक्शे खींचे या बोझा ढोया और जब कलकत्ता में बम गिरा तब भी मैं वहीं डटा रहा. मैं बड़े आराम से वहां था, लेकिन भीतर कांटे की तरह कहीं एक कोने में जाने क्या गड़ता था. जैसे जमीन में पड़ा हुआ कोई बीज हो जो पानी और खाद न मिलने से ऊपर आ सकने में असमर्थ तो हो, लेकिन हर समय वह कोशिश करे कि किसी तरह धरती तोड़कर ऊपर आने का उसे अवसर मिले.’’
पास ही में कुएं पर लोगों को पानी भरते हुए देखकर रिक्शेवाले ने रिक्शा रोक दिया और पानी पीने के लिए वह कुएं के नीचे जा खड़ा हो गया. हरिजन होने के कारण वह कुएं पर न जा सकता था. ऐसी हालत में मैंने खुद उतरकर, थरमस में रखा हुआ अपना पानी गिराकर, फिर ताजा पानी भरा और उसे पिलाकर खुद भी पिया. बगल में पान की दुकान थी. उसे पान लेने के लिए कहकर मैं रिक्शे पर आ बैठा.
मैंने बोधिसत्व की कहानी आगे बढ़ाईः-
बोधिसत्व ने अब वर्णिक चौक में आये हुए पशुओं का गोबर और घोड़ों की लीद इकट्ठा करना शुरू किया. उनको ऐसा करते देखकर बाजार वाले पहले की ही भांति हंसते रहते थे. लेकिन बोधिसत्व ने साहस नहीं छोड़ा और आंख मूंदकर पूरी शक्ति से वह अपने काम में जुटे रहे. इसी बीच विरोधियों की फौजों ने वाराणसी नगर पर आक्रमण किया और बाजार में चारों तरफ तबाही फैली गई. फिर भी बोधिसत्व ने निश्चिन्त भाव से अपना काम जारी रखा था. सेना ने आकर जब नगर लूट लिया, तो सभी वर्णिक निराश्रय होकर बाहर भाग गए. तब एक तरह से अकाल फैल गया. ऐसे समय बोधिसत्व को अपने इकट्ठा किये हुए उस कूड़े और खाद से काफी सम्पत्ति प्राप्त हुई. नये सिरे से आकर कृषि करने वाले लोगों ने उन्हें आशीर्वाद देकर उनका सारा कूड़ा खरीद लिया. बोधिसत्व ने उनसे मुद्रा नहीं मांगी. उन्होंने कहा कि और वर्षों से खेत में जितनी अधिक फसल होगी, वही उनके कूड़े की कीमत होगी. कुछ ऐसा सौभाग्य कि उस साल खेतों में चौगुनी फसल हुई और बोधिसत्व के पास उस गांव के धनी-से-धनी आदमी से भी दुगुना अनाज हो गया. तब वाराणसी के राजा के पास जाकर उन्होंने अपनी पिछली सेवा के बदले एक वरदान मांगा कि उन्हें अगले महीने के अमुक दिन बाजार में अनाज बेचने का अवसर दिया जाए, उस दिन और कोई अनाज न बेचे. राजा ने उनकी बात मान ली और बोधिसत्व प्रसन्न मन से घर लौटे. उन्हें इस बात का पहले से पता लग गया था कि उस दिन जलमार्ग से चम्पा के श्रेष्ठियों की नौकाएं आने वाली हैं. वे काफी दूर से आ रहे हैं, इसलिए काफी अन्न उनको चाहिए और यहीं से अन्न लादकर वे राजगृह और चम्पा की तरफ जाएंगे.
उस दिन बोधिसत्व के सोचे अनुसार नौकाएं आईं. उन्होंने दस गुने मूल्य पर बोधिसत्व का सारा अनाज खरीद लिया और उस दिन से बोधिसत्व की गणना वाराणसी के प्रमुख श्रेष्ठियों में होने लगी.
रिक्शेवाले ने मेरे हाथ में पान दिये और रिक्शे पर चढ़ते ही उसकी कहानी शुरू हो गई.
‘‘मर-खपकर मैंने कुछ पैसे इकट्ठा किए और फिर अपनी हारी हुई लड़ाई लड़ने के लिए गांव की ओर लौटा. मैं सीधे अपने मरे हुए बाप के गांव पहुंचा, जहां मेरे पुरखों की जमीन थी और जहां रहने के लिए मेरे मन में बराबर इच्छा जागती थी. वहां जाकर देखने पर पता लगा कि मेरी जमीन पर दूसरों ने कब्जा कर लिया है. मकान गिर गया है और मुझे पहचानने के लिए कोई तैयार नहीं है. छः महीने तक वहां लोगों के साने सिर रगड़ता रहा, सेवा करता रहा, तब जाकर किसी तरह मकान बनाने-भर की जमीन नगद पैसे देकर उन्होंने मुझे दी. जमीन लेकर जो कुछ बचा हुआ पैसा था उसे मैंने गांठ में बांधा और तब दूसरी चिंता की-घर बसाने की.
‘‘दूर के गांव में जहां मेरी ननिहाल थी, पहुंचकर मैंने यह बात लोगों से कही, तो एक विधवा की लड़की से मेरी शादी बचे रुपये लेकर करने को लोग तैयार हो गए. शादी हो गई. पैसे खत्म हो चुके थे. इसलिए ससुराल में ही टिककर मेहनत-मजदूरी करके मैं आगे का रास्ता बनाने की बात सोचने लगा. मेरे भीतर भी यह डर बना हुआ था कि मुझे यह जगह जल्दी ही छोड़ देनी पड़ेगी. वह डर जल्दी ही सच भी हो गया.
‘‘मेरी विधवा सास की निगाह भी मेरी तरफ खराब हो गई. एक दिन मैंने उसे भी गाली दी और जान से मार देने की धमकी दी. मैं जिसे एक बार मां मान लेता हूं, उसे मां ही मानता हूं, जिसे बहन मान लेता हूं उसे बहन. लेकिन यह दुनिया ऐसी गंदी है कि क्या कहा जाए और क्या न कहा जाए. इस बार जब मेरी विधवा सास जब नहीं मानी, तो जला हुआ होने के कारण मैंने उसकी भरपूर मरम्मत कर दी. दूसरे दिन वह सारे गांव रोती फिरी और अपनी लड़की को गालियां दे-देकर मुझे छोड़ देने को कहती रही. मुझे ऐसा लगा कि मेरे पैर फिर उखड़े, मैं इस तेज आंधी में पहले की ही तरह फिर उड़ता-उड़ता न जाने कहां जा गिरूं. शाम को गांव-भर की पंचायत इकट्ठा हुई और मेरी विधवा सास ने चिल्लाकर पंचों से कहा कि इससे कहो कि मेरी लड़की को छोड़ दे और गांव छोड़कर चला जाए. मैंने कहा कि इसमें पंचायत की राय का कोई सवाल नहीं है. इतना तो तुम्हारी लड़की ही कह सकती है और अगर वह कह देगी तो मैं एक मिनट भी यहां नहीं रुकूंगा. कहने को तो मैं जोश में इतना कह गया, लेकिन भीतर मन पत्ते की तरह कांप रहा था कि कहीं उसने भरी सभा में मेरा हाथ छोड़ दिया तो क्या होगा. जितनी देर वह नहीं बोली, मेरे भीतर की धक्-धक् मुझे सुनाई देती रही. सभी लोग चुप थे.
सभी औरतों की भीड़ में से वह उठकर खड़ी हुई और उसने धीमी, लेकिन मजबूत आवाज में कहा, सबके सामने जिसका हाथ पकड़ा है उसको कैसे छोड़ दूं? मुझे उन्हीं के साथ रहना है, करम में चाहे जो लिखा हो. रही गांव छोड़ने की बात, सो हम लोग अभी छोड़कर चले जाते हैं. और वह तेजी से मेरे पास आयी, बिजली की तरह मेरा हाथ पकड़ा और इसके पहले कि मैं कुछ सोचूं, उसने पंचायत की जरूरत बेकार कर दी.
‘‘जिंदगी में पहली बार मुझे महसूस हुआ कि औरत भी कोई चीज होती है. अब तक मैंने औरत का एक ही रूप देखा था- धोखा देने वाला, आग लगाने वाला. आज मैंने औरत का एक दूसरा रूप भी देखा, जो आदमी को मौका पड़ने पर आंधी में जमीन पर रोके रहती है, उड़ने नहीं देती. अगर उस दिन वह मेरा हाथ न थामती तो पुरखों की जमीन पर फिर मैं कभी न लौट पाता. कहीं डूब-धंसकर मर जाता या कलकत्ते, रंगून के किसी कोने में जूझकर प्राण दे देता.
‘‘थोड़ी देर पहले तक मुझे रास्ता नहीं सूझ रहा था, अब ऐसा लगने लगा, जैसे रास्ता आगे चमक रहा है और निराश होने की कोई बात नहीं है. वहां से हम लोग गांव लौटे और पास में एक भी पैसा न होते हुए भी मन में इतना उत्साह था कि घर बनाने पर जुट गए. बिना किसी मजदूर के, बिना पैसे के मैंने मिट्टी खोदी, गीली की और बगल की बंसवारी में से बांस काटकर सीढ़ी बनाई. बसंती हवा जोर से चल रही थी और दिन-भर पत्ते टूट-टूटकर हम लोगों पर बरसते थे. औरों की मजदूरी करके, अनाज लाकर, मिट्टी के बरतन में हम रात को पकाते थे. करछुल की जगह बांस का टुकड़ा था, थाली की जगह पलाश के पत्ते, छाया के लिए पीपल के पेड़ का तना! जब नींद उचटती, घर बनाने लग जाते. मेरी स्त्री मेरे पहले बच्चे की मां होने वाली थी. काम करते-करते वह बिलकुल थककर निढाल हो जाती थी. पीपल के पेड़ पर चिड़ियों के कई जोड़े तेजी से घोंसला बनाते जा रहे थे, उनके भी अंडे देने का समय आ गया था. दिन-दिन भर उनका आने-जाने का तांता बंधा रहता था. उन्हें देखते हुए, उनकी आवाज-से-आवाज मिलाते हुए हम लोग काम करते जा रहे थे और उस दिन की प्रतीक्षा कर रहे थे, जब अपने घर की छाया होगी और उस छाया में एक नये जन्मे बच्चे की आवाज गूंज रही होगी. यही सोचते-सोचते हम लोग सो जाते थे.
‘‘आखिर एक दिन आया और हमारे घर को ढोलक की आवाज और बच्चे के रोने ने नये सिरे से जिला दिया. मैंने कर्ज लेकर गांव-भर को निमंत्रण दिया और सबको बेले की मालाएं पहनाईं और कथा कहलवाई. रात को जब सब लोग खा-पीकर बैठे तो मैंने हाथ जोड़कर पंचों से कहा कि जैसे आप लोगों ने कृपा की है वैसे भगवान् की भी कृपा हुई. बहुत दिनों तक पुरुखों की जड़ जमीन में धंसी पड़ी थी, आज वह जमीन तोड़कर बाहर निकली है. आप लोग आशीर्वाद दें कि हमारा यह वंश-वृक्ष बढ़े, फूले-फले और उसका सिर आप लोगों के आगे हमेशा झुका रहे.’’
रिक्शेवाले ने यहां उतरकर बगल में देहाती नहर में खुश-खुश सर धोया, हाथ-पैर साफ किये और ऊंची मेंड़ पर खड़े होकर उसने झलकती हुई अमराई की तरफ देखा और बोला, ‘‘बस, हम लोग पहुंच गए हैं. आम के बगीचे के उस पार गांव है. उसके बाद तो मैं लौट जाऊंगा ही.’’
मैंने अपनी तरफ से कहा कि थोड़ा तुम घूम-फिर लो, अब तो आ ही गया हूं. जल्दी की क्या बात है, अभी काफी दिन है.
उसने बीड़ी सुलगाने के लिए पास की एक झोंपड़ी में ललकारा और मैंने जातक की वह बची हुई कहानी पूरी करने की सोची :-
नगर के श्रेष्ठी और सभी लोग बोधिसत्व की जय-जय करते हुए उनके दरवाजे पर आये और उन्होंने कहा, ‘‘बोधिसत्व का यह जो दिन लौटा है, वह उनके अपने साहस और श्रम के कारण ही लौटा है.’’
बोधिसत्व ने सबको झुककर नमस्कार किया और अपने पुरुखों की ड्योढ़ी पर सबका समुचित सत्कार करते हुए उन्होंने कहा कि आपकी कृपा से और भगवान के अनुगृह से मेरी ड्योढ़ी फिर से प्रकाशमान हुई है, ऐसी ही कृपा आप लोग बराबर बनाये रखें.
मैंने पुस्तक बंद कर दी. रिक्शा अपनी चाल से चलने लगा. उसने कहानी फिर शुरू की और विश्वास के साथ बोला, ‘‘अब तो कहीं कष्ट है ही नहीं. मेरे पांच लड़के हैं, जिनमें से दो कॉलेज में हैं बनारस, एक मेरे साथ ही पढ़ रहा है. दो अभी छोटे हैं. औरत मेरी पूरी तंदुरुस्त है और अब भी वह पहले ही की तरह काम कर सकती है. मेरी उम्र पहले से अधिक बढ़ी हुई-सी लगती है और यदि रिक्शा चलाते-चलाते किसी दिन मेरी आंख मुंद भी गई, तो कोई बात नहीं है. यदि जिंदा रहूंगा तो मेरे ऊपर वृक्ष की छाया है और वह वृक्ष ऐसा-वैसा नहीं है. वह वृक्ष मेरे ही खून से, मेरे ही पसीने से बढ़ा है और छतनार हुआ है. मैं तो बिना पेड़ के रास्तों पर रिक्शा चलाता हूं, लेकिन मुझे कभी धूप नहीं मालूम पड़ती. पेड़ों की छाया भी कोई छाया है, बाबू? असली छाया तो होती है घर-परिवार की. वही छाया जब मेरे ऊपर बनी हुई है, तो यह धूप से भरी हुई जिंदगी वैसी ही है जैसी मखमल की राह.’’
उसने ब्रेक दबाकर रिक्शा रोका और पसीना पोंछते हुए उतरकर कहा, ‘‘नहर के उस पार रास्ता पकड़कर चले जाइए सामने गांव दिखाई दे रहा है.’’
शाम हो रही थी. रास्ता खतम करके, पसीना पोंछने के लिए उसने सिर पर बंधा हुआ अंगोछा हाथ में ले लिया था. इस बार मैंने ध्यान से उस आदमी को देखा और मुझे ऐसा लगा कि जैसे मेरे सामने जातक की कहानियों के बोधिसत्व खड़े हो गए हैं. भगवान बुद्ध ने हर वर्तमान कहानी के लिए बोधिसत्व के पिछले जन्म की गाथाएं कही थीं, लेकिन आज मुझे लगा कि बोधिसत्वों की परम्परा जैसी अतीत काल में थी, वैसी ही भविष्य में भी तो होगी. यदि भगवान बुद्ध मुझ क्षमा करें, तो मैं इस कथा का अंत इस प्रकार करूं :
जैसे इस जन्म में बसे वैसे ही अगले जन्म में भी बोधिसत्व वाराणसी के एक हरिजन के घर में जन्म लेंगे, जहां उन्हें असंख्य कष्ट सहन करने पड़ेंगे, किंतु परिश्रम और दृढ़ निश्चय के बल पर वह न केवल अपने पूर्वजों की परम्परा चलाने में सफल होंगे, बल्कि एक नया रास्ता भी बना जाएंगे.
मैंने बुढ़ापे की ओर झुकते हुए उस शरीर को देखा, जैसे मेंढ़े के सींगों का बना हुआ एक मजबूत धनुष हो. उस पर किसी भी लक्ष्य को लेकर तीर चलाया जाए, तो लक्ष्य भले धोखा दे दे, तीर धोखा नहीं दे सकता.
जातक की बंद किताब मेरे झोले में थी और मेरे सामने एक किताब खुली हुई खड़ी थी जिसकी केवल एक कथा मैंने पढ़ी थी.
उसके असंख्य जन्मों की कथाएं अभी पढ़ी जानी शेष हैं.
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