कविता डॉ . अनीता कपूर अब अब तुम्हारे झूठे आश्वासन मेरे घर के आंगन में फूल नहीं खिला सकते चांद नहीं उगा सकते मेरे घर की दीवार की ईंट ...
कविता
डॉ. अनीता कपूर
अब
अब
तुम्हारे झूठे आश्वासन
मेरे घर के आंगन में फूल नहीं खिला सकते
चांद नहीं उगा सकते
मेरे घर की दीवार की ईंट भी नहीं बन सकते
अब
तुम्हारे वो सपने
मुझे सतरंगी इंद्रधनुष नहीं दिखा सकते
जिसका न शुरू मालूम है न कोई अंत
अब
तुम मुझे कांच के बुत की तरह
अपने अंदर सजाकर तोड़ नहीं सकते
मैंने तुम्हारे अंदर के अंधेरों को
सूंघ लिया है
टटोल लिया है
उस सच को भी
अपनी सार्थकता को
अपने निजत्व को भी
जान लिया है अपने अर्थों को भी
मुझे पता है अब तुम नहीं लौटोगे
मुझे इस रूप में नहीं सहोगे
तुम्हें तो आदत है
सदियों से चीर हरण करने की
अग्नि परीक्षा लेते रहने की
खूंटे से बंधी मेमनी अब मैं नहीं
बहुत दिखा दिया तुमने
और देख लिया मैंने
मेरे हिस्से के सूरज को
अपनी हथेलियों की ओट से
छुपाए रखा तुमने
मैं तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में
खंडित इतिहास की कोई मूर्ति नहीं हूं
नहीं चाहिए मुझे अपनी आंखों पर
तुम्हारा चश्मा
अब मैं अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाऊंगी
मैंने भी अब
सीख लिया है
शिव के धनुष को तोड़ना
संपर्क : anitakapoor.us@gmail.com
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जीवन क्या है ?
डॉ. सुधा ओम ढींगरा
प्रसून है या कांटा?
हंगामा है कि सन्नाटा?
उल्लास है या आभास?
संघर्ष है या उत्कर्ष?
कोई नहीं जानता
वस्तुतः
जीवन का रंग, रूप, आयु और भेद क्या है?
इसमें अस्थि, मज्जा, रक्त या स्वेद क्या है?
बस...
एक चाह के लिये हजारों कष्टों से गुजरना
और लाखों पड़ाव पार करना
शायद
प्रकृति का नियम यही है
हंसी खुशी चलते रहना
सांसों की डोरी खींचना
और, अन्ततः
मृत्यु का निमंत्रण स्वीकार करना
Email: ceddlt@yahoo.com
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दो गजलें
रशीद कैसरानी
यूं तो इक बज्म-ए-सदा1 हमने सजायी पहरों.
कान बजते रहे, आवाज न आई पहरों.
लम्हे भर के लिए बरसी तिरी यादों की घटा,
हमने भीगी हुई चिलमन2 न उठायी पहरों.
वो तो फिर गैर था गैरों से शिकायत क्या हो,
नब्ज अपनी भी मिरे हाथ न आयी पहरों.
आंख झपकी तो रवां थी वो हवा के रुख पर,
हमने जो रेत की दीवार बनायी पहरों.
लौट कर आये न भटके हुए राही दिल में,
आग इस दश्त में हमने तो जलायी पहरों.
1. ध्वनि की सभा, 2 चिक
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राशिद मुफ्ती
जो कर्ज मुझपे है वो बोझ उतारता जाऊं.
कोई सुने न सुने मैं पुकारता जाऊं.
जो मेरे पास है अपने लिए बचा रक्खूं,
जो मेरे पास नहीं तुझपे वारता जाऊं.
कदम-कदम पे नये लोग सामने आएं,
कदम-कदम पे नये रूप धारता जाऊं.
कहीं बने न अना1 मेरी राह में दीवार,
ये तौक2 अपने गले से उतारता जाऊं.
मुकाबला तो करूं राशिद अपने दुश्मन से,
ये और बात है जीतूं कि हारता जाऊं.
1. अहम, 2. हंसली
दोहे
पावस के अनुबंध
अशोक ‘अंजुम’
शब्द-शब्द बूंदें गिरें, यत्र-तत्र सर्वत्र.
बादल टाइप कर रहे, फिर पावस के पत्र.
बूढ़े हुए जवान फिर, देखा ऐसा हाल.
सावन में गदरा गए, फिर पोखर, फिर ताल.
नदिया बौराने लगी, छोड़ पुराने छोर.
मन में रख दुर्भावना, चली गांव की ओर.
मौसम से कुछ यूं हुए, पावस के अनुबंध.
गली-गली में बिछ गई, सोंधी-सोंधी गंध.
छनन-छनन-छन कर रही, आंगन वाली टीन.
बूंदें कत्थक कर रहीं, दिवस हो गए तीन.
दुखिया की छत कर रही, टप-टप, टप-टप रोज.
पखवाड़े से हो रही, कोलतार की खोज.
पावस का अद्भुत असर, देखा हमने मित्र.
चित्रकार ने रंग दिए, हरे-हरे सब चित्र.
बूंदों की अठखेलियां, प्रिये करें बेचैन.
मन में बादल याद के, बरसा करते नैन.
पल में बादल घिर गये, पल में तपती धूप.
नेताओं जैसा लगे, मौसम का ये रूप.
छम-छम बूंदें नाचतीं, बादल छेड़ें साज.
हरियाली रचने लगी, महाकाव्य फिर आज.
नदिया को यूं भा गई, बस्ती, मानव-गंध.
इस बारिश में एक दिन, तोड़ दिए तटबंध.
डरे-डरे से लोग हैं, चीख-पुकारें शोर.
इस बारिश में हो गई, नदियां आदमखोर.
नदिया फैली गर्व से, पाकर नीर अपार.
किसकी शामत आयगी, पता नहीं इस बार.
सम्पर्कः सम्पादक ‘अभिनव प्रयास’,
गली-2, चन्द्रविहार कॉलोनी (नगला डालचंद),
क्वारसी बाईपास, अलीगढ़-202201 (उ.प्र.)
मोः 9258779744, 9358218907
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गीत
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कृपाशंकर शर्मा ‘अचूक’
जीवन की झोली में खुशियां भरनी हैं हर पल की.
आज हमारा तो अपना है, फिर क्यों चिंता कल की.
घूम-घूम कर खुशियां बांटीं, बस मिल सांझ सकारे,
दीखे कोई नहीं पराया, मन से सभी दुलारे.
होंठों पर मुस्कानें दीखें, उनके हल्की-हल्की,
आज हमारा तो अपना है, फिर क्यों चिंता कल की.
कर्मक्षेत्र अद्भुत है अपना, संकल्पित हों सारे,
अब तक रहे अधूरे सपने, इन पर खूब विचारे.
सीमा, समय छोड़कर आगे गति होगी हलचल की,
आज हमारा तो अपना है, फिर क्यों चिंता कल की.
साथ हमारे हो जाएगा, समय ‘अचूक’ सुहाना,
आशाओं के दीप जलाओ, गीत सुरीले गाना.
हरियाली हर तरफ बिखेरे, हालत जो मरुथल की,
आज हमारा तो अपना है, फिर क्यों चिंता कल की.
सम्पर्कः 38-उ, विजया नगर, करतारपुरा,
जयपुर-30200श् (राजस्थान)
मो. 9983811506
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दो कविताएं
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तेजेन्द्र शर्मा
दरख्तों के साये तले
दरख्तों के साये तले
करता हूं इंतजार
सूखे पत्तों के खड़कने का
बहुत दिन हो गये
उनको गये
घर बाबुल के.
रास्ता शायद यही रहा होगा
पेड़ों की शाखों
और पत्तियों में
उनके जिस्म की खुशबू
बस कर रह गई है.
पत्ते तब भी परेशान थे
पत्ते आज भी परेशान हैं
उनके कदमों से
लिपट कर, खड़कने को
बेचैन हैं.
मगर सुना है
कि रूहों के चलने से
आवाज नहीं होती.
सुबह का अखबार
सुबह का अखबार
दोपहर से शाम तक
रद्दी बन जाता है.
और फिर एक दिन
वो रद्दी का ढेर
आवाज लगा कर
कहता है,
कि मुझे उठाओ
और बेच आओ!
तुम्हारी याद की इंतहा
ये है
कि हीरे से कांच तक
सोने से पीतल तक
और रद्दी से अनमोल तक
हर शै से जुड़ी है
तेरी याद.
मुझे याद है मेरी आदत
मेरे साथ है मेरी आदत
रद्दी के ढेर को उठाना
बैठक के कोने में रखना
और भूल जाना-
तुम्हारा उलाहना,
तुम्हारा डांटना.
रद्दी का ढेर आज भी है
बैठक का कोना आज भी है
मेरा भूलना आज भी है
मगर कहां गया
तुम्हारा उलाहना,
तुम्हारा डांटना,
तुम्हारा प्यार,
तुम स्वयं!
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कविता
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पर्यावरण
प्रेम बिहारी शुक्ल
वायु प्रदूषित जल है दूषित, हम खोएं सुन्दर वन उपवन
कैसा हमें फितूर चढ़ा है,, आज बने हम अपने दुश्मन
खेत हटा कर महल बनाएं, पेड़ कटा कर लकड़ी लाएं
उनसे हम आगार सजाएं, त्यागी हमने पुष्प लताएं
कूड़ा करकट और प्रदूषण, जगह जगह हम डाल रहे हैं
खुद अपने ही बच्चों को हम, जहर पिला कर पाल रहे हैं
जहर हवा में, जहर दवा में, अब पानी भी जहरीला है
सांसों में अब जहर घुला है, हर तन मन गांठ गंठीला है
भाई मेरे कुछ तो सोचें, इतना जग में जहर न घोलें
अपने ही खुद पांव न काटें, जागें अपनी आंखें खोलें
मां समान है मान प्रकृति का, ना इस पर पाषाण उगाएं
नदियों में दूषण ना डालें, हरियाली धरती पर लाएं
आओ मिल कर शपथ उठाएं, कहीं प्रदूषण ना फैलाएं
जन्म-दिवस, शादी हर अवसर, सबसे पहले पेड़ लगाएं
संपर्कः सी-501, चित्रकूट अपार्टमेंट्स
प्लाट-9, सेक्टर-22, द्वारका, नई दिल्ली-110077
मो. 09711860519
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दोहे
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साधू संगति कीजिये
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’
जीवन की गाड़ी सदा, नेक राह ले जायं.
गलत राह पर जब चले, जीवन भर पछतायं.
साधू संगति कीजिये, तन मन सब सध जायं.
कभी न संकट आ सकें, जीवन भर मुस्कायं.
मान और सम्मान का, रखें सदा ही ध्यान.
शांति और सुख साथ में, मिले जगत में मान.
जो विवेक से काम लें, नहीं फंसेंगे आप.
मुश्किल के हर दौर में, दूर भगें सन्ताप.
संकट जब भी आ पड़े, कभी न विचलित होंय.
धीरज साहस साथ रख, आपा कभी न खोय.
मन में यदि ऊर्जा रहे, जीवन सुखमय होय.
थके हुये मन का नहीं, संगी साथी कोय.
जीना तो सब चाहते, जीने का हो ढंग.
अनपढ़ होकर जो जिये, वह जीवन बेढंग.
उत्साहित मन ही सदा, घर को रखे निहाल.
बिगड़े कारज सब बनें, सभी रहें खुशहाल.
रखो याद मन में सदा, स्वाभिमान का पाठ.
जीवन में तब देखना, बदलेंगे सब ठाठ.
सम्पर्कः 58, आशीष दीप,
उत्तर मिलौनी गंज,
जबलपुर (म.प्र.)
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मोहिनी मिश्रा की दो कविताएं
1
‘शब्द’
वो-
बेहद बृहत
विराटतत्व विराट
तेजपुंज हैं,
वो -
‘ब्रह्म’ ही है,
तो इसका
अपव्यय करना
कभी भी
ज्ञानी का लक्षण
नहीं हो सकता है!
2
मन की डायरी में
उभरे कुछ शब्द
होंठों के द्वार से
निकल बोले मुस्कुराते
‘‘तुम्हारी याद आ रही बड़ी जोर से’’
अप्रत्याशित आशा
जिसका जन्म ही न
हो पाया हो
सहज अंदाज में डूबा पल
खिलखिलाया और बोला
खैर-नवाजिश में
हुई कमी में अपनी
जरूरत बताइए
सजदे में हजूर
हम अब भी
वही हैं आपके!!
सम्पर्कः द्वारा श्री महेश मिश्रा, ए-202, एरिस अपार्टमेंट, एरिस लिओ सैगिटेरियस ग्रुप हाउसिंग सोसायटी, जन कल्याण नगर, मलाड (प.), मुंबई-400095
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