प्राची - अगस्त 2016 / रंगे हुए सियार / संपादकीय / राकेश भ्रमर

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  रंगे हुए सियार दे श सम्पन्न था. लोग खुशहाल थे. स्वतंत्रता के बाद देश में चहुमुखी विकास और उन्नति हो रही थी, परंतु देश की खुशहाली और सम...

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रंगे हुए सियार

देश सम्पन्न था. लोग खुशहाल थे. स्वतंत्रता के बाद देश में चहुमुखी विकास और उन्नति हो रही थी, परंतु देश की खुशहाली और सम्पन्नता कुछ लोगों से देखी नहीं जा रही थी. लोग स्वतंत्र थे, इसलिए उन पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं था. सत्तासीन लोग मनमाने ढंग से देश पर शासन कर रहे थे और देश के नागरिक मनमाने ढंग से देश के कार्य संपन्न कर रहे थे.

देश में जनतंत्र था, इसलिए जनता ही अपने जनप्रतिनिधियों को चुनकर देश पर शासन करने के लिए राजधानी में भेजती थी, परंतु यह जन प्रतिनिधि सत्ता की गद्दी पर पहुंचते ही कानों से सुनना बंद कर देते थे और आंखों से देखना. सत्ता पाकर वह पुराने युग के राजा-महाराजाओं से भी अधिक मदमस्त हो जाते थे. राजा-महाराजा तो फिर भी दयालु हुआ करते थे, क्योंकि वह जन्मजात राजा होते थे. सत्ता और शासन उन्हें विरासत में प्राप्त होता था, इसलिए उन्हें उसके खोने का भय नहीं सताता था, परंतु...

परंतु उस देश के जन प्रतिनिधियों के साथ ऐसी बात नहीं थी. वह स्वतंत्र भारत के जन-प्रतिनिधि थे और जनता द्वारा प्रत्येक पांच साल में चुने जाते थे, अतः उन्हें सदा भय सताता रहता था कि अगले पांच साल बाद जनता उन्हें फिर से चुनेगी या नहीं और उन्हें फिर से सत्ता-सुख नसीब होगा भी कि नहीं, इसलिए जनता की भलाई की चिन्ता न करते हुए केवल अपनी और अपने परिवार की भलाई की चिन्ता करते थे. वह आंख-मूंदकर सत्ता का सुख भोगने में लिप्त हो जाते थे. सही मायनों में वह सत्ता का दुरुपयोग और शोषण करते थे.

सत्ता द्वारा प्राप्त शक्ति और साधनों की बदौलत वह भ्रष्ट गतिविधियों में लिप्त होकर देश के संसाधनों का दोहन करते थे और मालामाल होते रहते थे. जनता की भलाई के लिए निर्धारित राशि में भी लूट-खसोट करते थे और उनके लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों को आधा-अधूरा छोड़कर पूरी मलाई चाट जाते थे. देश के विकास और प्रगति के नाम पर चारों तरफ लूट मची हुई थी. विकास हो नहीं रहा था, प्रगति खून के आंसू रो रही थी, परन्तु विज्ञापनों के माध्यम से सत्ता में बैठे जनता के प्रतिनिधि देश में कहीं न होनेवाली चहुमुखी प्रगति और विकास का खूब प्रचार करते थे, ताकि जनता सदा भ्रम में बनी रहे. जनता भी देखती थी कि विकास कहीं नहीं हो रहा था, परंतु वह सोचती थी कि जब सरकार इस तरह प्रचार कर रही है, तो कहीं-न-कहीं विकास अवश्य हो रहा होगा और धीरे-धीरे उनके गांव-शहर तक भी पहुंचेगा. इसी आशा में वह टूटी सड़कों के गड्ढों में गिरते-पड़ते अपने जीवन की यात्रा पूरी करते जा रहे थे और काली अंधेरी रातों में मच्छरों से यु) करते हुए आसमान के तारों जैसे टिमटिमाते रंगीन सपने देखते रहते थे.

जनता के चुने हुए प्रतिनिधि सत्ता में बैठकर बिल्कुल पंचतंत्र के उस रंगे हुए सियार की तरह हो गये थे, जो भेद खुल जाने के डर से अपनी जाति के सियारों को अपने से दूर रखता था. उस देश के जन प्रतिनिधियों ने भी स्वयं को जनता से उसी प्रकार दूर कर लिया था, जिस प्रकार सनातनी कर्मकांडी ब्राह्मण मैला होने वाले या मृत जानवरों को उठाने वाले लोगों की छाया से स्वयं को दूर रखता है. जब तक वह सत्ता में रहते थे, तब तक न तो जनता से मिलते थे, न उसके लिए कोई कार्य करते थे.

देश सम्पन्न था, इसलिए जन प्रतिनिधियों के पास न केवल लूटने के लिए पर्याप्त साधन उपलब्ध थे, बल्कि सुविधाएं भी थीं. विरोधी पक्ष के नेता कभी-कभार सत्ता पक्ष के भ्रष्टाचार और देश की सम्पदा की लूट-खसोट पर शोर-शराबा करते थे, परंतु प्रभावी ढंग से नहीं, क्योंकि वह भी जनता के चुने हुए प्रतिनिधि होते थे, और कम संख्या में होने के कारण विपक्ष में बैठते थे, परन्तु वह यह बात भली-भांति जानते थे कि हर पांच वर्ष में सत्ता परिवर्तन होता है, अतः अगली बार जनता उनको भरपूर समर्थन देकर उन्हें भी भरपेट खाने और मालामाल होने का अवसर प्रदान करेगी.

स्वतंत्र भारत का यह नियम था कि जनता को हर पांच साल में अपने प्रतिनिधि चुनने या बदलने का अवसर प्राप्त होता था, परन्तु जनता इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं कर पाती थी. देश के विकास और प्रगति में उसका कोई योगदान नहीं होता था, और उसके चुने हुए प्रतिनिधि जनता की आशाओं पर कभी खरे नहीं उतरते थे. सदा उसकी आशाओं पर तुषारापात होता था, फिर भी उस देश की जनता इतनी आशावान थी कि हर पांच साल में पहले जैसे उत्साह और ऊर्जा के साथ नए प्रतिनिधि चुनती थी या पुराने प्रतिनिधियों को फिर से संसद या विधान सभा में जाने को अवसर प्रदान करती थी, ताकि अगली बार परिवर्तन हो सके.

किसी भी देश में जब जनतंत्र होता है, तो किसी का एक दूसरे के ऊपर कोई नियंत्रण नहीं रहता. उस स्वतंत्र देश में किसी को कुछ भी करने और कहने के लिए स्वतंत्रता थी. जन प्रतिनिधि देश को लूटकर खोखला कर रहे थे, और जनकार्यों को आधा-अधूरा छोड़कर जनता को बदहाल कर रहे थे. दूसरी तरफ जनता भी कम नहीं थी. स्वतंत्र हवा में सांस लेते हुए उसके अंदर भी होशियारी और चालाकी ने घर कर लिया था. जो शिक्षित थे और सरकारियों नौकरियों में थे, उन्होंने अपने-अपने स्तर पर घूसखोरी और कामचोरी को बढ़ावा दे रखा था. परिणामस्वरूप सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों की जेबें भरने लगी थीं. उनकी जेबें जब फूलकर फटने लगीं, तो उनका पैसा बैंक लॉकरों (खातों में नहीं) जमा होने लगा. खातों में जमा करते तो सरकार की पकड़ में आ जाते.

कुछ समझदार लोगों ने बेईमानी का पैसा बेनामी सम्पत्तियों में लगाना आरंभ कर दिया. जो अत्यधिक समझदार थे और विदेशों में जिनका आना-जाना था, उन्होंने अपना काला धन विदेशी बैंकों में जमा कर दिया. सरकार दिनोंदिन गरीब होती जा रही थी, परंतु नेता, सरकारी कर्मचारी और अधिकारी अमीर बनते जा रहे थे. सरकार का खजाना खाली था तो आम जनता गरीबी, महंगाई और बेरोजगारी से त्रस्त थी. वह चिल्लाती थी, परंतु उसकी सुनवाई कहीं नहीं थी.

चूंकि वह देश रंगे हुए सियारों द्वारा शासित था, इसलिए सत्ताच्युत शेर देश में स्वतंत्र रूप से घूमते हुए आतंक फैला रहे थे. अपने जन्मजात गुणों के कारण वह इतने खूंखार और दुर्दान्त थे कि किसी भी आमजन को पलक झपकते मार-काट डालते थे और उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता था, न शासन-प्रशासन, न पुलिस-कानून और न कोई अन्य व्यक्ति. समाज के यह शेर दबंगों के नाम से जाने जाते थे और इन्होंने अपनी दबंगई दिखाने के लिए ‘बलवीर सेना’, ‘बजरंग दल’, ‘गौ रक्षक दल’ जैसे नामों से तरह-तरह की संस्थायें बना रखी थीं. इन संस्थाओं के खूंखार शेर खुलेआम जगह-जगह घूमते रहते थे. इनका देश की प्रगति में कोई सार्थक योगदान नहीं होता था, परन्तु जाति-धर्म के नाम पर किसी को भी मार देना, काट देना इनके लिए फल काटकर खाने के समान था.

‘बलबीर सेना’ के लोग दलितों और गरीबों पर अत्याचार करते थे, उनकी रोटी छीन लेते थे और विरोध करने पर उनकी हत्या तक कर देते थे. वहीं ‘बजरंग दल’ के सेनानियों ने उस देश की सभ्यता और संस्कृति की सुरक्षा का बीड़ा हाथ में उठा रखा था. यह लोग अपने घरों में मां-बाप को नौकरों की तरह रखते थे, पत्नी को देवी की तरह पूजते थे और बेटे-बेटियों को अंग्रेजी शिक्षा प्रदान करते थे. कुछ साधन-सम्पन्न लोग अपने बच्चों को शिक्षा के लिए विदेश भी भेजते थे, परंतु यही लोग स्वदेशी मंचों पर खड़े होकर भारतीय सभ्यता और संस्कृति के हृास होने की दुहाई देते थे. अपने बेटे का दूसरी लड़कियों से प्यार करना उन्हें पसंद था, परंतु बेटी किसी और को प्यार कर ले तो उन्हें नागवार गुजरता था. यहीं लोग अपनी संस्कृति की दुहाई देते हुए एक साथ घूमने वाले लड़के-लड़कियों को पकड़कर पीटते थे और चिल्लाते हुए देश भक्ति के नारे लगाते थे.

‘गौरक्षक दल’ के लोग तो अत्यंत खतरनाक थे. शहर में आवारा घूमने वाली गायों की उन्हें चिंता नहीं थी. वह पोलिथिन खा-खाकर मर रही थीं, इससे भी उन्हें कोई लेना-देना नहीं था, परंतु किसी व्यक्ति को गाय ले जाते हुए देखते, तो उसे पकड़कर मार डालते या मरणासन्न् छोड़कर भाग जाते. गौ रक्षकों को इस बात से भी कोई लेना-देना नहीं था, कि वह व्यक्ति गाय को कहां और किस उद्देश्य से ले जाया जा रहा था. इस तरह के प्रकरणों में बेचारे गायों की खरीद-फरोख्त करने वाले, उन्हें भाड़े पर ढोने वाले और पुश्तैनी चर्मकार, जो मृत जानवरों का चमड़ा छीलने का काम करते थे, मारे जाते और गायों को मारकर खाने वाले साफ बच निकलते थे. इस प्रकार उस देश में गौ रक्षा का कार्य चल रहा था. सड़कों पर गायें बदहाल सूरत में घूमती रहती थीं, परन्तु उनके लिए निर्दोष लोग मारे-काटे जा रहे थे.

देश स्वतंत्र भी था और धर्मनिरपेक्ष भी. इसलिए उस देश में मूल धर्म के अलावा कुछ विदेशी धर्म भी फल-फूल रहे थे. कहना न होगा कि विदेशी धर्म कुछ ज्यादा ही तेजी से फल-फूल रहे थे, क्योंकि वोट की खातिर देश के रंगे-हुए सियारों ने उन्हें खुली छूट दे रखी थी कि वह अपने धर्म के अनुसार कुछ भी करें, उनके खिलाफ कुछ नहीं किया जायेगा. भले ही इसके लिए वह देश के कानून का उलंघन करते रहें. देश में समान कानून व्यवस्था के बावजूद समान नागरिक संहिता नहीं थी, जिसके कारण अल्पसंख्यक धर्म की जनसंख्या बढ़ रही थी, तो दूसरी तरफ बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की संख्या घट रही थी, क्योंकि वह देश के कानून का पालन कुछ हद तक अवश्य करते थे.

परंतु देश की मूल समस्या यह नहीं थी कि कौन फल-फूल रहा था और कौन विनाश की नाली में गिरा जा रहा था. देश की मूल समस्या यह थी कि सत्ता में बैठे रंगे सियारों की दोगली राजनीति के कारण देश में विदेशी ताकतों का प्रवेश आरंभ हो गया था और वह देश के कुछ नागरिकों को बरगलाकर देश के खिलाफ बगावत करने के लिए भड़का रहे थे. देश में राष्ट्रविरोधी गतिविधियों को प्रमुखता से प्रश्रय मिलने लगा था

देश में कुछ असामाजिक और अराजक तत्वों द्वारा जगह-जगह देश विरोधी नारे लगाये जा रहे थे, और पड़ोसी देश के झंडे भी फहराये जा रहे थे, परंतु रंगे हुए सियारों को देश की नहीं, वोटों की चिंता था, इसलिए वह ऐसे राष्ट्रद्रोही तत्वों के खिलाफ कोई कार्यवाई नहीं करती थी. अगर कभी-कदा कोई कार्यवाई होती भी थी, तो विपक्षी नेता धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देकर अल्पसंख्यकों को बचाने के लिए आगे आ जाते थे, क्योंकि पक्ष-विपक्ष के नेता जाति और अल्पसंख्यक धर्म के लोगों के वोटों की बदौलत ही सत्तासीन होते थे और रात-दिन सुख सुविधा के सागर में गोते लगाते थे.

इतिहास गवाह है कि उस देश के ऊपर जब-जब विदेशी आक्रमणकारियों ने हमला किया, तब-तब देश के गद्दारों के कारण ही वह उस देश पर शासन करने में कामयाब हुए थे. वैसी ही स्थिति आज उस देश में पैदा हो गयी थी. देश स्वतंत्र था, फिर भी कुछ ताकतें ‘‘हमें आजादी चाहिए’’ जैसे नारे लगा रही थीं. देश के एक हिस्से को पड़ोसी राष्ट्र में विलय करने के प्रयास हो रहे थे. देश के रंगे हुए सियारों के साथ-साथ, कुछ मीडिया और जनता के लोग भी उन लोगों का साथ दे रहे थे, जो देश के टुकड़े करने पर आमादा थे.

वह देश पहले भी कई टुकड़ों (राष्ट्रों) में बंट चुका था. अब फिर से टुकड़े-टुकड़े होने के लिए तैयार हो रहा था. बराए मेहरबानी यह सब उस देश के रंगे हुए सियारों द्वारा बड़ी आसानी से हो रहा था. पड़ोसी देश के सियासतदां और उस देश के अलगाववादी नेता रंगे हुए सियारों की जोकरों जैसी हरकतों को देखकर हंसते थे और मन ही मन खुश होते थे कि वह लोग बिना किसी लड़ाई के उनका काम आसान बना रहे थे. इसी प्रकार उस देश की मीडिया को भी वह धन्यवाद देने से नहीं चूकते थे, क्योंकि उस देश का मीडिया भी बिकाऊ था और वह जयचन्द्र बनकर देश को बेचने पर आमादा था.

वह देश टूट रहा था, बिखर रहा था, परन्तु रंगे हुए सियार सिंहासन पर बैठकर इसे नहीं देख पा रहे थे. बस जनता को दिखाई दे रहा था.

अब देखना ये था कि देश को टूटने-बिखरने में कितने दिन लगते हैं. दिन ही लगेंगे. वर्षों तक यह देश इंतजार नहीं कर सकता, क्योंकि रंगे हुए सियारों ने देश की जड़ें इतनी कमजोर कर दी हैं की अब इसे सूखने में ज्यादा समय नहीं लगेगा.

- राकेश भ्रमर

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रचनाकार: प्राची - अगस्त 2016 / रंगे हुए सियार / संपादकीय / राकेश भ्रमर
प्राची - अगस्त 2016 / रंगे हुए सियार / संपादकीय / राकेश भ्रमर
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