मणि मोहन ख़ूबसूरत शहर उन्होंने पेड़ों से कहा ख़ाली करो यह धरती हम यहाँ एक ख़ूबसूरत शहर बनाने जा रहे हैं पेड़ों ने सुनी उनकी यह धमकी और भय से...
मणि मोहन
ख़ूबसूरत शहर
उन्होंने पेड़ों से कहा
ख़ाली करो यह धरती
हम यहाँ एक ख़ूबसूरत
शहर बनाने जा रहे हैं
पेड़ों ने सुनी
उनकी यह धमकी
और भय से सिहर उठे
पेड़ों की छाती से चिपके
घोंसलों में दुबके
परिंदे भी सहम गए
सौदागर दरिंदे अपने साथ
कुछ दुभाषिये भी लाये थे
(जो पेड़ों और परिंदों की
भाषा जानने का दावा करते थे)
दरिंदों ने दुभाषियों से पूछा
क्या कहा पेड़ों ने?
क्या कहते हैं परिंदे?
दुभाषिये बोले -
हुज़ूर, पेड़ों ने अपनी
सहमति दे दी है...
और परिंदे भी
उत्साहित हैं
किसी नए ठिकाने पर जाने के लिए
ख़ूब ख़ुश हुए दरिंदे
और दुभाषियों ने तालियाँ बजाईं।
निर्वस्त्र
अपने चेहरे
उतार कर रख दो
रात की इस काली चट्टान पर
कपड़े भी!
अब घुस जाओ
निर्वस्त्र
स्वप्न और अंधकार से भरे
भाषा के इस बीहड़ में
कविता तक पहुँचने का
बस यही एक रास्ता है।
रीछ
रीछ की सी शक्ल लिए
जाकर धम्म से बैठ जाता हूँ
उसकी कुसन पर
ठीक सामने एक आईना था
दुनिया का सबसे चमकदार और साफ़ आईना
(वरना इन दिनों किसे फुर्सत है
अपने चेहरों से
कि आईनों का ख़्याल रखें)
मैं अपना चेहरा देखता हूँ
इस आईने में
और घबराकर अपनी आँखें बन्द कर लेता हूँ
वह अपना काम शुरू करता है
और अगले कुछ मिनटों तक
सिर्फ कैंची और कंघे की जुगलबन्दी सुनाई देती है
अचानक संगीत रुक जाता है
और उसकी आवाज़ सुनाई देती है-
अब देखिये बाबूजी!
मैं आँख खोलता हूँ
और उसके आईने से प्यार करने लगता हूँ
वह फिर पूछता है-
‘कोई कसर रह गई हो तो बताएं बाबूजी’
मैं सिर्फ मुस्करा देता हूँ
और मन ही मन कहता हूँ-
यार, तू तो जादूगर निकला
सिर्फ दस मिनिट में
रीछ से मनुष्य बना दिया
वह पैसे लेता है बड़े ही विनीत भाव से
और कुर्सी के चारों तरफ गिरे बालों को
बुहारने लगता है।
वह बालों के साथ-साथ
पल-पल गिरे
मेरे अक्स भी बुहार रहा है।
समय
कविता के लिए
किसी के पास
समय नहीं
और तो और
खुद कवि के पास तक नहीं
एक छोटी सी कविता
मेरे सीने पर
अपना सिर रखकर
सो गई वह चैन से
किताब की तरह
किताब
कभी पढ़ी
कभी बन्द की
तो कभी फिर बैठ गए खोलकर
यह किताब है या तुम हो!
कभी-कभी तो
एक भी पंक्ति
समझ में नहीं आती
पर मैं प्रेम करता हूँ
किताब से
तुमसे।
ख़ाली हाथ
समुद्र के किनारे
रेत पर लिखता हूँ
कविता
लहरें आती हैं
और बहाकर ले जाती हैं
मेरे शब्द
लौटता हूँ घर
ख़ाली हाथ
रोज़ ब रोज़
रोज़ हँसते हैं
मछुआरे मुझ पर
बचपन
एक बार
अपने पिता के कन्धों पर चढ़कर
छुआ था
मैंने भी आसमान
आसमान
अब भी वही है
बस उसे छूने का
मज़ा चला गया
दरवाज़ा
हँसो
कि विरोध चल रहा है यहाँ
किसी पागलपन का
हँसो
कि यह आत्ममुग्ध मसख़रों का
संधिकाल है
हँसो
कि बस खुलने ही वाला है
सर्जना का दरवाज़ा
मसखरों के लिए।
त्रासदी
अपने ही लिखे
शब्दों के अर्थ से
वो इस क़दर फिसला
कि डूब ही गया
चुल्लू भर भाषा में।
दुःस्वप्न
देखना एक दिन
नदी आएगी
हमारे शहरों में
गुस्से से फुँफकारती
और बहाकर ले जायेगी
अपनी रेत
देखना इसी तरह
किसी दिन
समुद्र भी घुस आएगा
हमारे घरों में
और बहाकर ले जायेगा
अपना पूरा नमक
देखना किसी दिन
सच न हो जाये
इस अदने से कवि का
यह दुःस्वप्न।
भरोसा
टूटने के लिए ही
बने होते हैं
कुछ शब्द
भरोसा करो
मेरी बात पर!
गिनती
गिन रहा हूँ
अपराजिता की लता में लगे
छोटे छोटे नीले शंख
गिन रहा हूँ
अपने अन्डे उठाये
भागती चींटियों को
गिन रहा हूँ
अमरूद के पेड़ पर बैठे हरियल तोतों
और सिर के ऊपर से उड़ान भरते
सफेद कबूतरों को
गिन रहा हूँ
अनगिनित
पेड़, परिंदे
फूल, तितली
स्कूल से घर लौटते
धींगा-मस्ती करते बच्चों को
बहुत अबेर हुई
बन्द हो चुके तमाम बैंक
ख़त्म हुए
संसद और विधानसभाओं के सत्र
बन्द हुए
गिनती से जुड़े तमाम कारोबार
धीरे-धीरे फैलने लगा है अँधेरा
पर अभी चैन कहाँ
अभी तो सितारों से सजा
पूरा आसमान बाकी है।
क़ब्रगाहों के शब्द
जैसा कि हर भाषा में होता है
अपनी भाषा में भी मौजूद हैं
ऐसे सैकड़ों शब्द
जो दुरूह, अबोध्य, कूट
या उलझे हुए हैं
जरा सा करीब जाओ इनके
तो काटने दौड़ते हैं
और मासूम बच्चे तो इन्हें देखकर ही
सहम जाते हैं
मोटे-मोटे ग्रन्थ और शब्दकोशों में
सरल और सहज शब्दों के बीच
मुर्दों की तरह पड़े हुए
इन्हें देखा जा सकता है
कई बार
कुछ तांत्रिक क़िस्म के ज्ञानी और जानिया
इन्हें जिन्दा कर
बाहर भी निकाल लाते हैं
पर सुकून की बात यह
कि ज्ञानी और जानिया
इनके ही हाथों मारे जाते हैं
और ये शब्द
वापिस लौट जाते हैं
अपनी क़ब्रगाहों में।
वातानुकूलित कोच
इस वक़्त
मैं एक वातानुकूलित कोच में हूँ
जहां न दिन समझ आ रहा है न रात
अपने-अपने मोबाइल में व्यस्त हैं लोग
और बातचीत के नाम पर
सिर्फ फुसफुसाहटें
और लो बेड रोल बंटने लगे
यानि कि रात हो चुकी
झक्क सफेद चादरें बिछने लगीं
पूरे कोच में फैल गई
हल्की नीली रोशनी
लोग भी लेट गए यन्त्रवत
पर एक ख़्याल है
जो मुझे सोने नहीं दे रहा-
कि एक सामूहिक क़ब्र में
लेटा हूँ मैं
उन लोगों के साथ
जो मारे गए
सिर्फ अपनी ख़ामोशी की वज़ह से।
दरिद्र
बहुत दरिद्र होते हैं वे लोग
जिनके पास ख़ूबसूरत पलों की स्मृतियां नही होतीं
हम सुनाते हैं एक दूसरे को
अपने हसीन पलों के क़िस्से
और वे भावहीन चेहरे लिए
बस भागने का बहाना खोजते हैं
बहुत दरिद्र होते हैं वे लोग
जिनके पास
भयानक पलों की स्मृतियां भी नहीं होतीं
हम एक दूसरे से सटकर
सुनते-सुनाते हैं
भयावह पलों के क़िस्से
और वे डरावने चेहरे लिए
भागने की जुगत तलाशते हैं
बहुत दरिद्र होते हैं
वे लोग
जिनके पास
स्मृतियां नहीं होतीं।
विजय नगर, सेक्टर-बी,
बरेठ रोड, गंजबासौदा,
विदिशा (म.प्र.)-464221
मो. न. - 9425150346
ब्रज श्रीवास्तव
लौटना...
अनेक वर्जनाओं को करके दरकिनार
पहुँचा था मैं तुम तक।
वो आँखें निहारने के लिए
जो कमल के फूल जैसी खिला करती थीं,
उन पानी की बूँदों के लिए
जो प्यास बुझाती रहीं मुलाकात की।
कुछ नहीं मिला
जो सींच देता सूखते जा रहे
प्रेम के पौधे को।
जिस रिश्ते को
रूई की तरह
रखा था हृदय में
वह
क्विंवटलों से ज्यादा वजनदार लग रहा है।
जिसे लेकर लौटना
शव लेकर लौटने जैसा है।
माँ की ढोलक
ढोलक जब बजती है
तो जरूर पहले
वादक के मन में बजती होगी।
किसी गीत के संग
इस तरह चलती है
कि गीत का सहारा हो जाती है
और गीत जैसे नृत्य करने लग जाता है... जिसके पैरों में
घुंघरू जैसे बंध जाती है ढोलक की थाप।
ऐसी थापों के लिए
माँ बखूबी जानी जाती है,
कहते हैं ससुराल में पहली बार
ढोलक बजाकर
अचरज फैला दिया था हवा में उसने।
उन दिनों रात में
ढोलक-मंजीरों की आवाज़ सुनते सुनते ही
सोया करते थे लोग।
दरअसल तब लोग लय में जीते थे।
जीवन की ढोलक पर लगी
मुश्किलों की डोरियों को
खुशी खुशी कस लेते थे
बजाने के पहले।
अब यहाँ जैसा हो रहा है
मैं क्या कहूँ
उत्सव में हम सलीम भाई को
बुलाते हैं ढोलक बजाने
और कोई नहीं सुनता।
इधर माँ पैंसठ पार हो
गई है
उसकी गर्दन में तकलीफ है
फिर भी पड़ौस में पहुँच ही जाती है
ढोलक बजाने।
हम सुनते हैं मधुर गूँजें
थापें अपना जादू फैलाने लगती हैं
माँ ही है उधर
जो बजा रही है
डूबकर ढोलक।
शहर से प्रिय कवि का जाना
उस शहर में रंग भरने जैसा है
जिसमें वह पहुँचा
इस शहर की फ्रेम में से
तस्वीर के अलग हो जाने जैसा है
घुंघराले बालों वाला वह
सब्जी मंडी जाते समय भी
बुन रहा होता था कविता ही
गौर कर रहा होता हर एक आवाज पर,
अपनी स्कूटी की गति पर सोचते हुए
देश के विकास पर सोचता,
तलाशता हुआ कैनवास पेपर
डूबा हुआ एक कोलाज बनाने में
कभी पीते हुए घूंट घूंट पानी
वह कविता पाठ कर रहा होता
किताबों का दीवाना, जब सुनाता
कवि मित्रों के प्रसंग
तो भरा होता ताज्जुब से
आलोचक से कहता कि
कविता ही है आलोचना भी।
इस शहर में उस कवि का
अब न होना शुरू हुआ
न होना शुरू हुआ उसके
अगले किस्सों का
कविता के नीचे अब
विदिशा न लिखा जाना शुरू हुआ
उज्जैन लिखा जाना शुरू हुआ
कविता के नीचे
और नरेन्द्र जैन के थोड़े ऊपर।
कृष्णा कालोनी की ओर
उनसे ही मिलने जाने का मन
ख़त्म हो गया
उनके कई मुरीदों का।
233, हरीपुरा, विदिशा-464001
मो. न. 9425034312
--
प्रतिभा गोटीवाले
जमे हुए रिश्ते
हथेली पर धूप रख लेने भर से
नहीं पिघलती रिश्तों में जमी बर्फ़
वज़ूद के एक-एक क़तरे को
चिंगारी सा जलाकर
बनाए रखनी पड़ती है गर्माहट...
अब, जबकि मेरा वज़ूद जलकर ख़ाक़ हो चुका
क्यों मेरे हिस्से में
जमने लगी है बर्फ़
शायद... अब तुम्हारी बारी है...।
सर्दियाँ आने को हैं
तुम्हारे और मेरे बीच की
दूरियों से
बुन रही हूँ स्वेटर आजकल,
कहते हैं न!
ठंडी दूरियाँ समेट लो
तो गर्माहट दे जाती है
सर्दियाँ बस आने को हैं।
नमक
तुम्हारा दिल घर था मेरा
माँ कहती है, हमेशा के लिए जाना हो यदि
तब भी, जाते समय घर ख़ाली नहीं छोड़ते
थोड़ा सा नमक रहने देते हैं
नमक बना रही हूँ इन दिनों
आँखों के समंदर से।
मृत्यु
रोज़ रात वह मेरे ज़िस्म में उतर आती है
अपने साथ ले जाने के लिए
धीरे-धीरे बोझिल होने लगती है मेरी आँखें
सुन्न पड़ने लगते हैं कान
आखिर निस्पंद पड़ती देह छोड़
मैं उसके ज़ेहन में उतर जाती हूँ
छपाक!
महसूस करती हूँ डूबना पर जाने कौन सा माध्यम है
जो न पानी न हवा न मिट्टी न आग है
न कोई आवाज़ न दृश्य न स्पर्श
मैं घबराकर वापस अपनी देह में लौटने के लिए
तेज़ी से हाथ पैर चलाती हूँ
छटपटाती हूँ पर सब व्यर्थ
अंततः थक हार कर छोड़ देती हूँ
बदन को ढीला
गिरने लगती हूँ किसी पंख की तरह
भीतर और भीतर कुएँ के तल की ओर
जहाँ से पीठ के बल टिककर निश्चेष्ट देखती हूँ
उस बहुत गहरे कुएँ की मुँडेर पर अपना ज़िस्म
तैर कर आना भी चाहूँ तो असंभव है
एक एक कर विदा करती हूँ
सारे बंध, पहचान, स्मृतियाँ, सपने, आशाएँ
आँखें मूँद लेती हूँ
शरीर का विद्यार्थी फिर
मौत के अभ्यास का पाठ दोहराने लगता है
और मैं शांति से मर जाती हूँ
कि अचानक!
बड़ी बेरहमी से कुएँ से खींच निकालता है कोई
और पीठ पर एक ज़ोरदार धौल जमाता है
हड़बड़ाहट में उखड़ी हुई साँसों के साथ
मुँह, नाक, आँख से
निकल भागती है मौत
मैं आश्चर्य से देखती हूँ चारों ओर
कि तभी सूरज खिलखिलाकर कहता है
अरे!
अब तक सो रही थी!
अंतरिक्ष
अंतरिक्ष में घूमती पृथ्वी,
पृथ्वी पर
एक छोटा सा घर मेरा,
घर में...
फिर अंतरिक्ष!
पेपरवेट
बिखरते दिन रातों को तहाकर
रख दिया है,
तुम्हारे नाम का पेपरवेट
बिखरे हुओं को देखो
एक पनाह मिल गई है।
एक भरा हुआ ख़ालीपन
तुम्हारी अनुपस्थिति में
एक गुलाबी शाम
और टेबिल पर दो कप
तुम्हारे वाले कप में भरती हूँ ख़ालीपन
अपने वाले में चाय
घूँट-घूँट पीती हूँ
और देखती हूँ
चाय की रिक्त हुई जगह में
भरता चला आता है
तुम्हारा ख़ालीपन
मैं सोच में पड़ जाती हूँ
मेरे कप में तो मेरा ख़ालीपन होना चाहिए था न!
लाख कोशिश करती हूँ
पर समझ नहीं आता
ये मेरा ख़ालीपन
तुम्हारे ख़ालीपन से यूँ भर क्यों जाता है...
लिखना
फिर पड़ा है
आसमान की तश्तरी में
एक बुझता हुआ
धुआं धुआं सा दिन
जब काला पड़ जाएगा
आसमान
इस धुएं से
तुम उँगली से
उस पर
चाँद और सितारे लिखना।
हम सब शब्दों के बहेलिये हैं
लिखना सोचते हैं
तो सारे शब्द जैसे घबराकर
कूद पड़ते हैं भीतर किसी अंधी खोह में,
आवाज़ देकर पुकारो
तो फेंक देते हैं हम पर
हमारी ही आवाज़, एक छपाके के साथ,
थक हार कर
खोह के मुहाने पर बैठ जाते हैं हम निःशब्द
हाथों में लिए कलम का जाल
अंततः
जब चारों ओर छा जाती है निस्तब्धता
आहिस्ता खोह की दीवारों से
चींटियों की तरह रेंगकर
बाहर आने लगते हैं शब्द
और ताक में बैठे हम
कलम के जाल में उन्हें फांस कर
ले आते हैं अपने साथ
झटपट काग़ज़ के फ्रेम पर उन्हें जड़
रच डालते हैं एक और कृति...
सच! हम सब शब्दों के बहेलिये ही तो हैं...
301, इनर कोर्ट,
जीटीबी काम्प्लैक्स,
भोपाल - 3
-----
अनुवाद - अशोक कुमार पाण्डेय
अफ़गानी कविताएँ
मीना
कैसे कहूँ तुम्हें
इस ख़ूनी धरती पर
जहाँ गूँजती है
अपने अजीज़ों को खो चुकी
माँओं और विधवाओं की करुण चीत्कार
कैसे कहूँ मैं तुम्हें
कि नया साल मुबारक हो।
देखे हैं मैंने बेर बच्चे
कचरे से बीनते कुछ खाने को
मैंने तबाह गाँवों में
औरतों को देखा है ख़ाली हाथ
मातमी चीथड़ों में।
मैंने सुनी हैं क़ैदखानों से हज़ारों आवाज़ें
उनकी, जिन्हें अगवा कर लिया गया
सताया गया और ज़िना किया गया।
तमाम पड़ोसी वे हमारे
जो ग़ायब हो गए हमारी आँखों के सामने
दिन के उजालों में
और हम ख़ामोश करा दिए गए
आततायी निज़ाम के हाथों।
एक अनजान बन्दूकधारी
घूमता है हमारे इर्द गिर्द
तुम पर और मुझ पर
दिखाते हुए अश्लील अंगुली
इस ख़ूनी धरती पर
कैसे कहूँ मैं तुम्हें
कि नया साल मुबारक हो।
मैं कभी नहीं लौटूँगी
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया था
मैं जागी और अपने जले हुए बच्चों के बीच तूफ़ान बन गई
मैं जागी अपने भाई के लहू की भंवरों के बीच
मेरे वतन की मुश्किलात ने मुझे ताक़त दी
मेरे बर्बाद और जले गाँवों ने भरी मुझमें दुश्मन के लिए नफ़रत
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया
मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं।
मैंने खोल दिए हैं नासमझी के बंद दरवाज़े
मैंने सभी सुनहले बाजूबंदों को अलविदा कह दिया है
ओह मेरे हमवतनो, वह नहीं मैं अब जो थी
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया
मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं।
मैंने नंगे पाँव भटकते बेर बच्चों को देखा है
मैंने मेंहदी रचे हाथों वाली दुल्हनों को मातमी लिबास में देखा है
मैंने खौफ़नाक दीवारों वाली जेल को देखा है आज़ादी को अपने खूंखार पेट में निगलते
मैं प्रतिरोध और साहस के महाकाव्यों के बीच जन्मी हूँ दोबारा
मैंने लहू और जीत की तरंगों के बीच आख़िरी साँसों में आज़ादी के गीत सीखे हैं
ओह मेरे हमवतन, मेरे भाई मत समझो अब मुझे कमज़ोर और नाक़ाबिल
अपनी पूरी ताक़त से मैं अपने वतन की आज़ादी के रास्ते पर तुम्हारे साथ हूँ।
मेरी आवाज़ मिल रही है हज़ारों जागी हुई औरतों की आवाज़ों के साथ
मेरी मुट्ठियाँ भिंची हैं हज़ारों हमवतनों की मुट्ठियों के साथ
इन मुश्किलात और ग़ुलामी की सारी जंज़ीरों को तोड़ने
तुम्हारे साथ मैं निकल पड़ी हूँ अपने वतन की राह पर
ओह मेरे हमवतन, मेरे भाई, वह नहीं मैं अब जो थी
मैं वह औरत हूँ जिसे जगा दिया गया
मुझे मिल गई है मेरी राह और कभी नहीं लौटूँगी मैं।
--
मजिलिंदा बश्लारी
कलंकित फूल
...किसी उन्माद की सी हालत में मैं कोशिश करती हूँ
तुम्हें समझाने की
पियानो बजाने के हुनर का महत्त्व, लेकिन
मैं उसके सामने नहीं बैठ सकती
इस डर से कि मेरी धुंधली आँखों में वह देख लेगा
उमड़ती उदासी के धब्बे ...
इस धरती के ऊपर बजते संगीत की आवाज़
जहाँ एक औरत की ज़िन्दगी ख़त्म की जा सकती है
किसी फूल की तरह
उम्मीद के किसी काले फूल की तरह...
..ख़ुदा, कहाँ से आ रहा है यह सब कूड़ा
यह ज़हर मौत की काली काफी की तरह
कहाँ खिलते हैं ये फूल
क्यों नहीं हो जाते वे सब पागल
किन मेज़ों को सजाते हैं वे
अंतहीन गर्मियों और जाड़ों में...
उड़ो, काली चिड़िया,
पूरब के लहूलुहान आसमान तक,
नवम्बर के कुहासों के पार
जहाँ कलंकित फूलों की महक
और माली के नुकीले पंजे
कभी नहीं पहुँच पायेंगे तुम तक....
--
मेहनाज़ बादिहाँ
क्या गाऊँगी मैं
कोई हसरत नहीं मेरी ज़बान खोलने की
क्या गाऊँगी मैं
मैं, जिससे नफ़रत किया ज़िन्दगी ने
कोई फ़र्क़ नहीं गाने या न गाने में।
क्यों करनी चाहिए मुझे शीरीं बातें
जब भरी हैं मुझमें कड़वाहटें?
उफ़! ये जश्न ज़ालिम के
चोटों से लगते हैं मेरे चेहरे पर।
कोई हमराह नहीं मेरी ज़िन्दगी में
किसके लिए हो सकती हूँ शीरीं
कोई फ़र्क़ नहीं बोलने में-हँसने में
मरने में-जीने में
दुःख और उदासी के साथ
मैं और मेरी बोझिल तन्हा
मैं बेकार हो जाने के लिए पैदा हुई थी
सी देने चाहिए मेरे होठ
उफ़ मेरे दिल तुझे मालूम है कि बहार है
खुशियाँ मनाने का वक़्त
क्या करूँ कफ़स में क़ैद इन परों के साथ
ये उड़ने नहीं देंगे मुझे।
इतने लम्बे वक्फे से रही हूँ ख़ामोश
पर कभी भूल नहीं सकी तराने
कि हर पल अपने दिल में गुनगुनाती रही हूँ वे नगमे
ख़ुद को ही याद दिलाती
वह दिन कि जब तोड़ दूँगी यह कफ़स
उड़ जाऊँगी इस क़ैद ए तन्हा
और उदास नग्मों से दूर
पीपल का कमज़ोर पेड़ नहीं मैं
जिसे हिला जाए कोई भी हवा
मैं एक अफगान औरत हूँ
आह भर सकती हूँ बस
--
बशीर सखावर्ज़
बहन मेरी
दूरियों के विस्तार से
पर्वत शिखरों की दीवारों से
समुद्रों की गहराइयों से
पिछली रात छुआ मैंने तुम्हें
मैंने छुए तुम्हारे दर्द
वे मेरे हो गए
कोई अर्थ नहीं है बच्चों के मुस्कुराने का
फूल खिलते हैं, लेकिन क्या वे फूल हैं?
बच्चे मुस्कुराते हैं, लेकिन क्या वे मुस्कुरा रहे हैं?
तुम्हारे बच्चों के बिना
तुम्हारे बागीचे के बिना
फूल और मुस्कानें नहीं खिलतीं
तुम्हारे हाथों के बिना
ख़ाली ख़ाली है ज़िन्दगी
वक़्त ए रुखसत
तुमने धीमी सी आवाज़ में कहा ‘‘ख़याल रखना’’
तुमने रखा अपना ख़याल?
तुमने देखा कोई ख़्वाब?
क्या तुमने नहीं देखीं आहत उम्मीदें?
तुम टाल सकीं बर्बादियों को?
हवा में हैं बर्बादियाँ
वे तुम्हारे बगीचे में पनपती हैं
और झरती हैं पेड़ों से।
--
अशोक कुमार पाण्डेय
एफ 215, बाटला अपार्टमेंट,
43 आई पी एक्सटेंशन,
पटपड़गंज, दिल्ली-92
मोबाइल : +91 8375072473
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