( परसाई व्यंग्य पखवाड़ा - 10 - 21 अगस्त के दौरान विशेष रूप से हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन किया जा रहा है. आपकी सक्रिय भागीदारी अपेक्...
(परसाई व्यंग्य पखवाड़ा - 10 - 21 अगस्त के दौरान विशेष रूप से हास्य-व्यंग्य रचनाओं का प्रकाशन किया जा रहा है. आपकी सक्रिय भागीदारी अपेक्षित है. )
१-महात्मा गाँधी को चिट्ठी पहुँचे:परसाई
यह चिट्ठी महात्मा मोहनदास करमचंद गाँधी को पहुंचे. महात्माजी, मैं न संसद-सदस्य हूँ, न विधायक, न मंत्री, न नेता. इनमें से कोई कलंक मेरे ऊपर नहीं है. मुझमें कोई ऐसा राजनीतिक ऐब नहीं है कि आपकी जय बोलूं. मुझे कोई भी पद नहीं चाहिये कि राजघाट जाऊँ. मैंने आपकी समाधि पर शपथ भी नहीं ली.
आपका भी अब भरोसा नहीं रहा. पिछले मार्च में आपकी समाधि मोरारजी भाई ने भी शपथ ली थी और जगजीवन राम ने भी. मगर बाबू जी रह गए और मोरारजी प्रधानमंत्री हो गए. आख़िर गुजराती ने गुजराती का साथ दिया.
जिन्होंने आपकी समाधि पर शपथ ली थी उनका दस महीने में ही ‘जिंदाबाद’ से ‘मुर्दाबाद’ हो गया. वे जनता से बचने के लिए बाथरूम में ही बिस्तर डलवाने लगे हैं. मुझे अपनी दुर्गति नहीं करानी. मैं कभी आपकी समाधि पर शपथ नहीं लूँगा. उसमें भी आप टाँग खींच सकते हैं.
आपके नाम पर सड़कें हैं- महात्मा गाँधी मार्ग, गाँधी पथ. इनपर हमारे नेता चलते हैं. कौन कह सकता है कि इन्होंने आपका मार्ग छोड़ दिया है. वे तो रोज़ महात्मा गाँधी रोड पर चलते हैं.
इधर आपको और तरह से अमर बनाने की कोशिश हो रही है. पिछली दिवाली पर दिल्ली के जनसंघी शासन ने सस्ती मोमबत्ती सप्लाई करायी थी. मोमबत्ती के पैकेट पर आपका फोटो था. फोटो में आप आरएसएस के ध्वज को प्रणाम कर रहे हैं. पीछे हेडगेवार खड़े हैं.
एक ही कमी रह गयी. आगे पूरी हो जायेगी. अगली बार आपको हाफ पेंट पहना दिया जायेगा और भगवा टोपी पहना दी जायेगी. आप मजे में आरएसएस के स्वयंसेवक के रुप में अमर हो सकते हैं. आगे वही अमर होगा जिसे जनसंघ करेगा.
कांग्रेसियों से आप उम्मीद मत कीजिये. यह नस्ल खत्म हो रही है. आगे गड़ाये जाने वाले में कालपत्र में एक नमूना कांग्रेस का भी रखा जयेगा, जिससे आगे आनेवाले यह जान सकें कि पृथ्वी पर एक प्राणी ऐसा भी था. गैण्डा तो अपना अस्तित्व कायम रखे है लेकिन कांग्रेसी नहीं रख सका.
मोरारजी भाई भी आपके लिए कुछ नहीं कर सकेंगे. वे सत्यवादी हैं. इसलिए अब वे यह नहीं कहते कि आपको मारने वाला गोडसे आरएसएस का था.
यह सभी जानते हैं कि गोडसे फांसी पर चढ़ा, तब उसके हाथ में भगवा ध्वज था और होठों पर संघ की प्रार्थना- नमस्ते सादा वत्सले मातृभूमि. पर यही बात बताने वाला गाँधीवादी गाइड दामोदरन नौकरी से निकाल दिया गया. उसे आपके मोरारजी भाई ने नहीं बचाया.
मोरारजी सत्य पर अटल रहते हैं. इस समय उनके लिए सत्य है प्रधानमंत्री बने रहना. इस सत्य की उन्हें रक्षा करनी है. इस सत्य की रक्षा के लिए जनसंघ का सहयोग जरूरी है. इसलिए वे यह झूठ नहीं कहेंगे कि गोडसे आरएसएस का था. वे सत्यवादी है.
तो महात्माजी, जो कुछ उम्मीद है, बाला साहब देवरास से है. वे जो करेंगे वही आपके लिए होगा. वैसे काम चालू हो गया है. गोडसे को भगत सिंह का दर्जा देने की कोशिश चल रह रही है. गोडसे ने हिंदू राष्ट्र के विरोधी गाँधी को मारा था.
गोडसे जब भगत सिंह की तरह राष्ट्रीय हीरो हो जायेगा, तब तीस जनवरी का क्या होगा? अभी तक यह ‘गाँधी निर्वाण दिवस है’, आगे ‘गोडसे गौरव दिवस’ हो जायेगा. इस दिन कोई राजघाट नहीं जायेगा, फिर भी आपको याद जरूर किया जायेगा.
जब तीस जनवरी को गोडसे की जय-जयकार होगी, तब यह तो बताना ही पड़ेगा कि उसने कौन-सा महान कर्म किया था. बताया जायेगा कि इस दिन उस वीर ने गाँधी को मार डाला था. तो आप गोडसे के बहाने याद किए जायेंगे. अभी तक गोडसे को आपके बहाने याद किया जाता था.
एक महान पुरुष के हाथों मरने का कितना फयदा मिलेगा आपको? लोग पूछेंगे- यह गाँधी कौन था? जवाब मिलेगा- वही, जिसे गोडसे ने मारा था.
एक संयोग और आपके लिए अच्छा है. 30 जनवरी 1977 को जनता पार्टी बनी थी. 30 जनवरी जनता पार्टी का जन्म-दिन है. अब बताइये, जन्मदिन पर कोई आपके लिए रोयेगा? वह तो खुशी का दिन होगा.
आगे चलकर जनता पार्टी पुरी तरह जनसंघ हो जायेगी. तब 30 जनवरी का यह महत्त्व होगा- इस दिन परमवीर राष्ट्रभक्त गोडसे ने गाँधी को मारा. इस पुण्य के प्रताप से इसी दिन जनता पार्टी का जन्म हुआ, जिसने हिंदू राष्ट्र की स्थापना की.
आप चिंता न करें, महात्माजी! हमारे मोरारजी भाई को न कभी चिंता होती है और न वे कभी तनाव अनुभव करते हैं. चिंता क्यों हो उन्हें? किसकी चिंता हो? देश की? नहीं. उन्होंने तो ऐलान कर दिया है- राम की चिड़िया, राम के खेत! खाओ री चिड़िया, भर-भर पेट! तो चिड़िया खेत खा रही है और मोरारजी को कोई चिंता, कोई तनाव नहीं है.
बाकी भी ठीक चल रहा है. आप जो लाठी छोड़ गए थे, उसे चरण सिंह ने हथिया लिया है.
चौधरी साहब इस लाठी को लेकर जवाहरलाल नेहरू का पीछा कर रहे हैं. जहाँ नेहरू को पा जाते हैं, एक-दो हाथ दे देते हैं. जो भी नेहरू की नीतियों की वकालत करता है, उसे चौधरी आपकी लाठी से मार देते हैं.
उस दिन चंद्रशेखर ने कहीं कह दिया कि नेहरू की उद्योगीकरन की नीति सही थी और उससे देश को बहुत फायदा हुआ है.
चरण सिंह ने सुना तो नौकर से कहा- अरे लाना गाँधीजी की लाठी!
लाठी को लेकर चंद्रशेखर को मारने निकल पड़े. बेचारे बचने के लिए थाने गए तो थानेदार ने कह दिया- पुलिस चौधरी साहब की है. वे अगर आपको मार रहे हैं तो हम नहीं बचा सकते.
आप हरिजन वगैरह की चिन्ता मत कीजिये. हर साल कोटा तय रहता है कि इस साल गाँधी जयंती तक इतने हरिजन मरेंगे. इस साल ‘कोटा’ बढ़ा दिया गया था, क्योंकि जनता पार्टी के नेताओं ने राजघाट पर शपथ ली थी.
उनकी सरकार बन गयी. उन्हें शपथ की लाज रखनी थी. इसीलिये हरिजनों को मारने का ‘कोटा’ बढ़ा दिया गया. खुशी है कि ‘कोटे’ से कुछ ज्यादा ही हरिजन मारे गए. आप बेफिक्र रहें, आपका यश किसी ना किसी रुप में सुरक्षित रहेगा.
आपका
एक भक्त
साभार: परसाई रचनावली-4
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2- पिटने_पिटने_में_फर्क :परसाई
बहुत लोग कहते हैं - तुम पिटे। शुभ ही हुआ। पर तुम्हारे सिर्फ दो अखबारी वक्तव्य छपे। तुम लेखक हो। एकाध कहानी लिखो। रिपोर्ताज लिखो। नहीं तो कोई ललित निबंध लिख डालो। पिट भी जाओ और साहित्य-रचना भी न हो। यह साहित्य के प्रति बड़ा अन्याय है। लोगों को मिरगी आती है और वे मिरगी पर उपन्यास लिख डालते हैं। टी-हाउस में दो लेखकों में सिर्फ माँ-बहन की गाली-गलौज हो गई। दोनों ने दो कहानियाँ लिख डालीं। दोनों बढ़िया। एक ने लिखा कि पहला नीच है। दूसरे ने लिखा - मैं नहीं, वह नीच है। पढ़नेवालों ने निष्कर्ष निकाला कि दोनों ही नीच हैं। देखो, साहित्य का कितना लाभ हुआ कि यह सिद्ध हो गया कि दोनों लेखक नीच हैं। फिर लोगों ने देखा कि दोनों गले मिल रहे हैं। साथ चाय पी रहे हैं। दोनों ने माँ-बहन की गाली अपने मन के कलुष से नहीं दी थी, साहित्य-साधना के लिए दी थी। ऐसे लेखक मुझे पसंद हैं।
पिटाई की सहानुभूति के सिलसिले में जो लोग आए, उनकी संख्या काफी होती थी। मैं उन्हें पान खिलाता था। जब पान का खर्च बहुत बढ़ गया, तो मैंने सोचा पीटने वालों के पास जाऊँ और कहूँ, 'जब तुमने मेरे लिए इतना किया है, मेरा यश फैलाया है, तो कम से कम पान का खर्च दे दो। चाहे तो एक बेंत और मार लो। लोग तो खरोंच लग जाय तो भी पान का खर्च ले लेते हैं।'
मेरे पास कई तरह के दिलचस्प आदमी आते हैं।
आमतौर पर लोग आकर यही कहते हैं, 'सुनकर बड़ा दुख हुआ, बड़ा बुरा हुआ।'
मैं इस 'बुरे लगने' और 'दुख' से बहुत बोर हो गया। पर बेचारे लोग और कहें भी क्या?
मगर एक दिलचस्प आदमी आए। बोले, 'इतने सालों से लिख रहे हो। क्या मिला? कुछ लोगों की तारीफ, बस! लिखने से ज्यादा शोहरत पिटने से मिली। इसलिए हर लेखक को साल में कम से कम एक बार पिटना चाहिए। तुम छ: महीने में एक बार पिटो। फिर देखो कि बिना एक शब्द लिखे अंतरराष्ट्रीय ख्याति के होते हो या नहीं। तुम चाहो तो तुम्हारा यह काम मैं ही कर सकता हूँ।'
मैंने कहा, 'बात सही है। जब जरूरत होगी, आपको तकलीफ दूँगा। पर यार ज्यादा मत मारना।'
पिटा पहले भी हूँ।
मैंट्रिक में था तो एक सहपाठी रामेश्वर से मेरा झगड़ा था। एक दिन उसे मैं ढकेलते-ढकेलते कक्षा की दीवार तक ले गया। वह फँस गया था। मैंने उसे पीटा। फिर दोनों में अच्छे संबंध हो गए। स्कूली लड़ाई स्थायी नहीं होती। पर वह गाँठ बाँधे था। हमारे घर से स्कूल डेढ़ मील दूर था। एक दिन हम दोनों गपशप करते शाम के झुटपुटे में आ रहे थे कि वह एकाएक बोला, 'अरे, यह रामदास कहाँ से आ रहा है? वह देखो।' मैं उस तरफ देखने लगा। उसने बिजली की तेजी से मेरी टाँगों में हाथ डाला और वह पटखनी दी कि मैं नाले के पुल से नीचे गिर पड़ा। उठा। शरीर से ताकत से मैं डेवढ़ा पड़ता था। सोचा, इसे दमचूँ। पर उसने बड़े मजे की बात कही। कहने लगा, 'देखो, अदा-बदा हो गए। अपन अब पक्के दोस्त। मैंने तुम्हें कैसी बढ़िया तरकीब सिखाई है।' मैंने भी कहा, 'हाँ यार, तरकीब बढ़िया है। मैं काफी दुश्मनों को ठीक करूँगा।' फिर मैंने चार विरोधियों को वहीं आम के झुरमुट में पछाड़ा। तरकीब वही - साथ जा रहे हैं। एकाएक कहता - अरे, वह उधर से श्याम सुंदर आ रहा है। वह उधर देखने लगता और मैं उसकी टाँगों में हाथ डालकर सड़क के नीचे गढ़े में फेंक देता।
यह तो स्कूल की पिटाई हुई।
लिखने लगा, तो फिर एक बार पिटाई हुई। आज से पंद्रह-बीस साल पहले। मैं कहानियाँ लिखता और उसमें 'कमला' नाम की पात्री आ जाती। कुछ नाम कमला, विमला, आशा, सरस्वती ऐसे हैं कि कलम पर यों ही आ जाते हैं।
मुझे दो चिट्ठियाँ मिलीं - 'खबरदार, कभी कमला कहानी में आई तो ठीक कर दिए जाओगे। वह मेरी प्रेमिका है और तुम उससे कहानी में हर कुछ करवाते हो। वह ऐसी नहीं है।'
मैं बात टाल गया।
एक दिन सँकरी गली से घर आ रहा था। आगे गली का मोड़ था। वहीं मकान के पीछे की दीवार थी। एक आदमी चुपचाप पीछे से आया और ऐसे जोर से धक्का दिया कि मैं दीवार तक पहुँच गया। हाथ आगे बढ़ाकर मैंने दीवार पर रख दिए और सिर बचा लिया, वरना सिर फूट जाता। बाद में मालूम हुआ कि वह शहर का नंबर एक का पहलवान है। मैंने कमला को विमला कर दिया। लेखक को नाम से क्या फर्क पड़ता है।
पर यह जूनवाली ताजा पिटाई बड़ी मजेदार रही। मारने वाले आए। पाँच-छ: बेंत मारे। मैंने हथेलियों से आँखें बचा लीं। पाँच-सात सेकंड में काम खत्म। वे दो वाक्य राजनीति के बोलकर हवा में विलीन हो गए।
मैंने डिटाल लगाया और एक-डेढ़ घंटे सोया। ताजा हो गया।
तीन दिन बाद अखबारों में खबर छपी तो मजे की बातें मेरे कानों में शहर और बाहर से आने लगीं। स्नेह, दुख की आती ही थीं। पर - अच्छा पिटा - पिटने लायक ही था - घोर अहंकारी आदमी - ऐसा लिखेगा तो पिटेगा ही - जो लिखता है, वह साहित्य है क्या? अरे, प्रेम कहानी लिख। उसमें कोई नहीं पिटता।
कुछ लेखकों की प्रसन्नता मेरे पास तक आई। उनका कहना था - अब यह क्या लिखेगा? सब खत्म। हो गया इसका काम-तमाम। बहुत आग मूतता था। पर मैंने ठीक वैसा ही लिखना जारी रखा और इस बीच पाँच कहानियाँ तथा चार निबंध लिख डाले और एक डायरी उपन्यास तिहाई लिख लिया है।
सहानुभूति वाले बड़े दिलचस्प होते हैं। तरह-तरह की बातें करते हैं। बुजुर्ग-बीमार-वरिष्ठ साहित्यकार बाबू रामानुजलाल श्रीवास्तव ने अपनी मोटी छड़ी भेजी और लिखा - 'अब यह मेरे काम की नहीं रही। मेरी दुनिया अब बिस्तर हो गई है। इस छड़ी को साथ रखो।'
लाठी में गुन बहुत हैं, सदा राखिए संग...
एक अपरिचित आए और एक छड़ी दे गए। वह गुप्ती थी, पर भीतर फलक नहीं था। मूठ पर पैने लोहे का ढक्कन लगा था, जिसके कनपटी पर एक वार से आदमी पछाड़ खा जाए।
मेरे चाचा नंबर एक के लठैत थे। वे लट्ठ को तेल पिलाते थे और उसे दुखभंजन कहते थे। मुहल्ले के रंगदार को, जो सबको तंग करता था, उन्होंने पकड़ा। सामने एक पतले झाड़ से बाँधा और वह पिटाई की कि वह हमेशा के लिए ठीक हो गया। मैंने ही कहा, 'दादा इसे अब छोड़ दो।' उन्होंने छोड़ दिया, मगर कहा, 'देख मैंने दुखभंजन से काम नहीं लिया। गड़बड़ की तो दुखभंजन अपना काम करेगा।'
वह दुखभंजन पता नहीं कहाँ चला गया। उनकी मृत्यु हो गई। पर वे शीशम की अपनी छड़ी छोड़ गए हैं।
एक साहब एक दिन आए। एक-दो बार दुआ-सलाम हुई होगी। पर उन्होंने प्रेमी मित्रों से ज्यादा दुख जताया। मुझे आशंका हुई कि कहीं वे रो न पड़ें।
वे मुझे उस जगह ले गए, जहाँ मैं पिटा था। जगह का मुलाहजा किया।
- कहाँ खड़े थे?
- किस तरफ देख रहे थे?
- क्या वे पीछे से चुपचाप आए?
- तुम सावधान नहीं थे?
- कुल पाँच-सात सेकंड में हो गया?
- बिना चुनौती दिए हमला करना कायरता है। सतयुग से चुनौती देकर हमला किया जाता रहा है, पर यह कलियुग है।
मैं परेशान। जिस बात को ढाई महीने हो गए, जिसे मैं भूल जाना चाहता हूँ, उसी की पूरी तफ्शीश कर रहा है। कहीं यह खुफिया विभाग का आदमी तो नहीं है? पर जिसका सब खुला है, उसे खुफिया से क्या डर।
वे आकर बैठ गए।
कहने लगे, 'नाम बहुत फैल गया है। मंत्रियों ने दिलचस्पी ली होगी?'
मैंने कहा, 'हाँ, ली।'
वे बोले, 'मुख्यमंत्री ने भी ली होगी। मुख्यमंत्री से आपके संबंध बहुत अच्छे होंगे?'
मैंने कहा, 'अच्छे संबंध हैं।'
वे बोले, 'मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं?'
मैंने कहा, 'हाँ, मान भी लेते हैं।'
मैं परेशान कि आखिर ये बातें क्यों करते हैं। क्या मकसद है?
आखिर वे खुले।
कहने लगे, 'मुख्यमंत्री आपकी बात मानते हैं। लड़के का तबादला अभी काँकरे हो गया है। जरा मुख्यमंत्री से कहकर उसका तबादला यहीं करवा दीजिए।'
पिटे तो तबादला करवाने, नियुक्ति कराने की ताकत आ गई - ऐसा लोग मानने लगे हैं। मानें। मानने से कौन किसे रोक सकता है। यह क्या कम साहित्य की उपलब्धि है कि पिटकर लेखक तबादला कराने लायक हो जाए। सन 1973 की यह सबसे बड़ी साहित्यिक उपलब्धि है। पर अकादमी माने तो।
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प्रस्तुति:
एम.एम.चन्द्रा
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