गाँव की नदी (सहगान के लिए : उत्तरप्रदेश कीएक लोक-धुन पर आधारित: जिसको ढिंढिया कहते हैं) नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय, ' सहल...
गाँव की नदी
(सहगान के लिए : उत्तरप्रदेश कीएक लोक-धुन पर आधारित:
जिसको ढिंढिया कहते हैं)
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय, '
सहलाती चली जाय, सहलाती चली जाय
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय;
दिन-राती चलीजाय!
.
जाने कौन कहाँ से आती,
जाने कौन कहाँ को जाती,
अपनी गति-लय में मदमाती, लहराती-चली-जाय,
लहराती चली जाय, इतराती चली जाय,
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चलीजाय!'.
कितने स्वप्न बहाकर लाती,
तट पर कितने स्वप्न लगाती,
तट से कितनों को धारा में बहाती चली जाय,
वह बहाती चली जाय, वह ढहाती चली जाय,
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय!
चाहे इसमें दूध चढ़ाओ,
चाहे इसमें मौर सराओ,
चाहे फूल बहाओ, नदिया गुनगुनाती चली जाय,
गुनगुनाती चली जाय, धुन सुनाती चली जाय,
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय!
कितनी नावें पार लगाती,
कितनी नावें भँवर डुबाती,
मेरी कागद की डोंगी को दुलराती चली जाय,
दुलराती चली जाय, हलराती चली जाय,
नदिया गाँव के सिवाने को सहलाती चली जाय!
दिन-राती चली जाय!
बरस-तरस
जब तुम बरसो तब मैं तरसूं,
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
मेरी अंतर्ज्वाला जागी,
अंबर ने बरसा दी आगी,
आकुल मेरा मन अनुरागी,
मेरे उच्छवासों का बादल
छाया नयनों में मँडलाकर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूँ,
जब मैं तरसूं तब तुम बरसो, हे धाराधर!
शब्दों से कुछ न कहूंगा मैं,
नयनों के बीच रहूँगा मैं,
जो सहना मौन सहूंगा मैं,
मेरी धड़कन, मेरी आहें,
माँगेगी तुमसे प्रत्युत्तर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूँ
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
ज्वाला से ज्वाला को जानो,
पानी से तृष्णा पहचानो,
ऐसे न कही मेरी मानो,
अपने गर्जन-तर्जन में तुम
प्रतिध्वनित सुनो मेरा अंतर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूं,
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
तुम आओ, पर न बुलाऊं मैं,
पट खोलूं तुमको पाऊँ मैं,
दो बहुत न किंतु अघाऊँ मैं,
दो कम भी तो दूँ सींच धरा
भीतर से उफना-उफनाकर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूँ
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
यह भार तुम्हीं पर भारी है,
ऊपर बिजली की धारी है,
क्या मेरी ही लाचारी है?
कुछ रिक्त भरा हो जाऊं मैं,
कुछ भार तुम्हारा जाय उतर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूँ,
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
तुम बरसो भीगे मेरा तन,
तुम बरसो भीगे मेरा मन,
तुम बरसो सावन के सावन,
कुछ हलकी छलकी गागर हो,
कुछ भीगी-भारी हो कामर ।
जब तुम बरसो तब मैं तरसूँ,
जब मैं तरसूँ तब तुम बरसो, हे धाराधर!
वर्षा मंगल
(ढोलक पर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोक-धुन
पर आधारित)
घन बरसे, भीग धरा गमके,
घन बरसे!
यह भूमि भली,
यह बहुत जली,
यह और न अब जल को तरसे,
धन बरसे!
घन बरसे, भीग धरा गमके,
घन बरसे
परबत भीगे,
घर-छत भीगे,
भीगे बन, खेत, कुटी झर से,
घन बरसे!
घन बरसे, भीग धरा गमके,
घन बरसे!
फूटे क्यारी,
नव नर-नारी,
बहकें, चहकें मधुमय स्वर से,
घन बरसे!
घन बरसे, भोग धरा गमके,
घन बरसे!
नव धान उठे,
नव गान उठे,
सबके खेतों से, सब घर से,
घन बरसे!
घन बरसे, भीग धरा गमके
घन बरसे!
ढोलक ठनके,
रूठी मन के
रूठे प्रियतम के ढिग बिहँसे,
घन बरसे!
घन बरसे, भीग धरा गमके,
घन बरसे!
रसधार गिरे
दिन सरस फिरे,
पपिहा तरसे न पिया तरसे,
घन बरसे!
घन बरसे, भीग धरा गमके,
घन बरसे!
जामुन चूती है
(ढोलक-मजीरे पर सहगान के लिए : उत्तर प्रदेश की एक लोक-धुन
पर आधारित)
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है ।
सावन की बदली
अंबर में मचली
भीगी-भीगी होती भोर
कि जामुन चूती है ।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है ।
मधु की पिटारी
भौंरे-सी कारी
बागों में पैठें न चोर
कि जामुन चूती है ।
अब गाँवों में घर-घर शोर
कि जामुन चूती है।
बीकानेर का सावन
(बीकानेरी मजदूरिनियों से सुनी एक लोक-धुन पर आधारित)
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
कितने दिन मुंबई बिताए,
कितने दिन मद्रास में,
कितने दिन दिलदार नगर में,
कितने, दिल्ली खास में;
कितने दिन डहका कलकत्ते में पैसे के फेर में ।
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
जो आ जाएं पूनम दैया
अपने देहरादून से
भूखन भैया और कन्हैया
राँची से, रंगून से!
सुना कि होंगे अबके तो मन-भावन बीकानेर में ।
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
बादल काजल छाए, मोती
बरसाएगा बाद में
उजली' के आँसू गिरते हों
ज्यों जेठवा की याद में
मरकत बनकर जो फूटेंगे करकट के भी ढेर में ।
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
पानी खाए, पन्ना उगले,
राजस्थानी रेत है;
मूँग बिखेरे, मूँगा जोड़े
में गहरा संकेत है;
हर बेले में हीरा फूलेगा, पुखराज कनेर में ।'
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
आएगी जब तीज लगेगा
मेला रँग-रस-गान का,
देखूँ क्या आदर होता है
दो दिन के मेहमान का; -
फेनी तो फूली होती है
छोटू-मोटू जोशी की,
रसगुल्ला रसगर होता है
गोगर की दूकान का-
देख छबीली, डाल न देना दोल कटीली बेर में ।
बिताऊंगा मैं अबके तो सावन बीकानेर में ।
जी, सावन बीकानेर में ।
वर्षा मंगल
सखि कारी घटा बरसै बरसाने पै गोरी घटा नँद गाँव पै री -ठाकुर
(मंच गान)
( साइक्लोरामा पर काले बादल छाए हैं : बीच-बीच में बिजली
चमकती है और गड़गड़ाहट का शब्द होता है ।
मंच पर एक ओर क्षीणकाय सात पुरुषों की पंक्ति है, दूसरी ओर
सात स्त्रियों की । दोनों के बीच में एक युगल--पुरुषों की पंक्ति की ओर
स्त्री, स्त्रियों की पंक्ति की ओर पुरुष । पुरुषों ने देहाती ढंग की दूनी रंग की
पगड़ी बाँधी है, जिसका लंबा पुछल्ला सामने छाती पर दाहिनी तरफ लटक
रहा है, उनके कुरते और धोती का रंग सफेद है । स्त्रियों ने दूनी रंग की
साड़ी पहनी है, जिसका पल्लू बाएँ कंधे से पीछे की ओर लटक रहा है;
उनकी आधी बाँह की कुरती सफेद रंग की है; उनके शरीर पर कोई आभूषण नहीं हैं । रंग सूखेपन और जलन के प्रतीक हैं ।
पंक्तियाँ बोलते समय लोग आकाश की ओर गर्दन उठाते हैं । बाद को
सामने देखते हैं ।)
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
गोरा बादल! गोरा बादल!
दोनों पंक्ति
गोरा बादल!
युगल
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
बहुत दिनों से बहुत दिनों से
अम्बर प्यासा! धरती प्यासी
दोनों पंक्ति
बहुत दिनों से
घिरी उदासी!
युगल
गोरा बादल तो तरसाकर चला गया;
क्या काला बादल भी जग को तरसाएगा ?
पुरुष पंक्ति '' स्त्री पंक्ति
गोरा बादल! काला बादल!
दोनों पंक्ति
गोरा बादल! '
काला बादल! '
युगल (पुरुष) ' '.
गोरा बादल उठ पच्छिम से आया था- ' '
गरज-तरज कर फिर पच्छिम को चला गया ।
युगल (स्त्री)
काला बादल उठ पूरब से आया है-
कड़क रहा है, चमक रहा है, छाया है ।
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
आखों को जाग रहा है
धोखा होता है! या सोता है?
युगल (पुरुष)
गोरा बादल गया नहीं था पच्छिम को,
रंग बदलकर अब भी .ऊपर छाया है ।
युगल (स्त्री)
गोरा बादल चला गया हो तो भी क्या,
काले बादल का सब ढंग उसी का और पराया है ।
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
इससे जल की उलटा इसने
आशा, धोखा! जलको सोखा!
युगल
कैसा अचरज!
कैसा ''धोखा!
छूँ छी धरती
भरा हुआ बादल का कोखा ।
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
गोरा बादल! काला बादल!
दोनों पंक्ति
काला बादल!
गोरा बादल!
युगल (पुरुष)
गोरा बादल तो बे-बरसे चला गया;
क्या काला बादल भी बे-बरसे जाएगा?
युगल (स्त्री)
गोरा बादल तो तरसा कर चला गया;
क्या काला बादल भी जग को तरसाएगा?
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
गोरा बादल! काला बादल!
युगल
पूरब का, पच्छिम का बादल,
उत्तर का, दक्खिन का बादल-
कोई बादल नहीं बरसता ।
वसुंधरा के
कंठ-हृदय की प्यास न हरता ।
वसुधा-तल का
जन-मन-संकट-त्रास न हरता ।
व्यर्थ प्रतीक्षा! धिक् प्रत्याशा! धिक् परवशता!
उसे कहें क्या कड़क - चमक जो नहीं बरसता!
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
गोरा बादल! एक तरह का
काला बादल! सारा बादल!
( बिजली चमकती है : गड़गड़ाहट का शब्द होता है । सब लोग
ऊपर की ओर देखते हैं । बूंद न गिरने से फिर निराश हो सिर झुका लेते हैं ।)
युगल
जीवित आँखों की, कानों की आशा रखता,
प्यासा रखता! प्यासा रखता! प्यासा रखता!
पुरुष पंक्ति स्त्री पंक्ति
गोरा बादल ' ' काला बादल
प्यासा रखता! प्यासा रखता
(बारी बारी से दोनों पंक्तियाँ मंद-मंदतर स्वर में दुहराती हैं फिर बिजली चमकती है बादल गरजता है। दूर पर कोई व्यंग्य स्वर में गाता है – “सखि कारी घटा बरसै बरसाने पै गोरी घटा नंद गांव पैरी। पर्दा गिरता है।”)
(हरिवंश राय बच्चन के कविता संग्रह चार खेमे चौंसठ खूंटे से साभार)
bachchn kii lok-geet kavitaaen baut dino se dekhane kii khvaahish thee | aaj unhen dekh paane kaa sukh praapt kar sakaa |p0st karane ke lie badhaaii aur dhanyvaad | surendra verma
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