आलोचक दादा ग़ज़ल नाटकों का दौर है करते रहो। रोज़ जीने के लिए मरते रहो।। जिन्दगी में हैं बहुत से मश्गले। बाँध कर मुट्ठी सदा लड़ते रहो।। आस...
आलोचक दादा
ग़ज़ल
नाटकों का दौर है करते रहो।
रोज़ जीने के लिए मरते रहो।।
जिन्दगी में हैं बहुत से मश्गले।
बाँध कर मुट्ठी सदा लड़ते रहो।।
आसमां छूने की हसरत को सलाम।
पाँव धरती पर मगर धरते रहो।।
गुलबरों से दोस्ती होगी तभी।
पतझड़ों से भी अगर डरते रहो।।
है वतन को आज भी उनसे उम्मीद।
जागती लाशों में दम भरते रहो।।
जागना "पंकज" तेरी फितरत सही।
बात ख्वाबों की मगर करते रहो।।
पड़ ना जाये खून ठंडा बर्फ सा।
हाथ हाथों से सदा मलते रहो।।
दोस्तों से भी ना पालो दुश्मनी।
दुश्मनों से भी गले मिलते रहो।।
©आलोचक दादा
अनुज
पंकज सैन
7042467873
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सुशील शर्मा
क्यूँ मुझे लगता है ऐसा
मुझे ऐसा लगता है की तुम्हें मुझसे बेपनाह ...... हो गई है।
क्योंकि जब भी मेरी याद तुम्हें आती है
तुम गिनने लगती हो बाहर गमले में खिले फूलों को।
जब भी मैं तुम्हारी यादों में मुस्कराता हूँ।
तुम पिंजरे के पास जाकर गोरैया को पुचकारती हो।
अक्सर मेरे फोटो को एकटक देख कर।
करती हो अनकही बातें जो तुम कभी न कह सकी।
बच्चों को अपने पास बैठा कर मेरी तरह।
कोशिश करती हो उन्हें जिंदगी के पाठ पढ़ाने की।
तुम्हारी हर अदा में हर बात में शामिल हो जाता हूँ मैं।
अनजाने में तुम्हारे मुंह से मेरे शब्द निकलते हैं।
जब भी मंदिर में जाकर कान्हा की मूर्ति के सामने।
बंद आँखों में मुझे देख सिसक लेती हो।
लम्हा लम्हा सा बहता है जिंदगी का सफर।
सब रिश्तों से आँख बचा कर रो लेती हो।
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सागर यादव 'जख्मी'
दिल किसी का दुखाना आया न हमेँ
बात पर मुस्कुराना न आया हमेँ
आह भरते रहे नज्म लिखते रहे
दर्द दिल का छुपाना न आया हमेँ
चाँदनी रात थी और वो पास थे
पर मुहब्बत जताना न आया हमेँ
सामने उनके बातेँ बहुत की मगर
रुख से पर्दा हटाना न आया हमेँ
मौत की बात पर हर खुशी रो पड़ी
चुप किसी को कराना न आया हमेँ
उसके जाने से तनहा बहुत थे मगर
छुप के आँसू बहाना न आया हमेँ
आज थे मूड मेँ सो ग़ज़ल कह लिए
पर किसी को सुनाना न आया हमेँ
(जौनपुर , उत्तर प्रदेश)
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धर्मेन्द्र निर्मल
फूलों से जख्म खा गए
लड़ते लड़ते मौत से मात जिंदगी से खा गये।
साहिल के करीब आकर तूफाँ से टकरा गये।।
गम के अंधेरे में रोशन तलाशते रहे
पत्थरों से बच गया साये से टकरा गये।।
कराहते रहे उम्र भर नासूर ए दिल के दर्द से
एक खुशी मिली भी तो हँसी से घबरा गये।।
जिनकी खातिर हमने चुन चुन सपने सँजोए
सच का दिखाकर आइना हमें वो मुस्करा गये।।
तन्हा रहकर जिससे दामन छुड़ाना चाहा
निगाहों को यादों के बादल बरसा गये।।
टूटे हैं इस कदर जिसकी हद नहीं कोई
जिसे अपना समझते रहे वही कहर ढा गये।।
अपनों में औरों को पहचाने कैसे निर्मल
काँटों से बचते रहे फूलो से जख्म खा गये।।
जिसकी चाहत में हमने दुनियाँ ठुकरायी
वो दूर हमें छोड़कर कारवाँ में आ गये।।
आँसू भी नहीं बहा सकते
किस्मत ऐसा खेल दिखायी बदल गयी जिंदगी वाह।
नैनों के सागर में डूबी बन कागज की किश्ती चाह।।
अंबर छत में तारे सजते चाँद चाकरी करता था
तुम क्या हुए जुदा हमदर्द रातें हुईं पूनम की स्याह।।
आँखों में हो बन अँजन आँसू भी नहीं बहा सकते
गम का एहसास न हो तुमको दिल कर सकता नहीं आह।।
साथ तेरा था दुनिया के हर रंगीन नजारे थे
जिंदगी रह गयी अधूरी अंधी हुई निगाह।।
मंजिल की कोई खबर नहीं चलना कितना बाकी है
जख्म पाँव भर कर डाले चलकर पथरीली राह।।
बीते सफर सुहाने थे अब मैं बिल्कुल तन्हा हूँ
जिस दिन से छूटा साथ तेरा मेरी दुनिया हुई तबाह ।।
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सीताराम साहू
नजरों से गिराना ना चाहे जो भी सजा देना ।
चिन्तन से जाना ना चाहे कुछ भी सजा देना ।
नजरों से जो गिर जाये मुश्किल है संभल जाये ।
गिरता ही चला जाए कैसे फिर उठ पाये ।
एक बार तेरी पद रज प्रभु वर गर मिल जाए ।
भटका हुआ राही भी मंजिल पे पहुंच जाए ।
दुनिया मुझे कुछ भी कहे तू अपनी रजा देना ।
नजरों से गिराना ना चाहे जो भी सजा देना ।
नैया तो मेरी तुम बिन मंजिल न पायेगी ।
बिन तेरी कृपा प्रभु जी कुछ भी न पायेगी ।
लहरों के थपेड़े खा यूं ही मिट जायेगी ।
मेरा क्या है भगवन तेरी महिमा जायेगी ।
सुख दुख कुछ भी देना सहने की कला देना ।
नजरों से गिराना ना चाहे जो भी सजा देना ।
अंतिम छण चिन्तन में बस तुम ही समा जाना ।
जग जननी सीता के संग में तुम मुस्काना ।
अर्जी को प्रभु मेरी मर्जी बना ही जाना ।
अब तक तो निभाया है उस वक्त निभा जाना ।
तुलसी गंगा जल का मेरे मुँह में मजा देना ।
नजरों से गिराना ना चाहे जो भी सजा देना ।
9755492466
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महेन्द्र देवांगन "माटी "
हाईकू
(1)
मेरी प्यारी माँ
करती सदा स्नेह
करुणा वाली
(2)
माँ की ममता
बरसता सावन
भीगी पलकें
(3)
भूखी रहती
ममता बरसाती
दूध पिलाती
(4)
आया सावन
रिमझिम फुहारें
आंचल तले
(5)
खाना बनाती
हंसकर खिलाती
खुश रहती ।
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गोपीबंद पारा पंडरिया
जिला - कबीरधाम ( छ ग )
मो•नं•- 8602407353
mahendradewanganmati@gmail.com
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‘सनातन'
कैलाश प्रसाद यादव
धर्म की आड़ में...........
आड़ लेकर धर्म की, सत्ता सुख की छांव
अस्त्र लिये कोई हाथ में, कोई घुंघरू बांध् पांव
छुरूी छुपी है हाथ में, मुख में लिये हैं राम
कहीं हजरत का नाम ले, करते कत्ले- आम
भोला बचपन विश्व में, भाले दिये हैं हाथ
भरी जवानी आज तरूण, छोड़ रहे हैं साथ
कराह रही इंसानियत, चीत्कार चहुंओर
धर्म हमारे मौन से, सत्ता का नहीं ठौर
कोई कहे अल्लाह बडे़, कोई कहे श्रीराम
कोई कहे ईसा सही, कोई कहे सतनाम
कहीं धर्म के नाम पर, दहक रही बंदूक
कहीं धर्म के नाम पर, भरी हुई संदूक
आज धर्म के मर्म को, समझ रहा है कौन,
कांव-कांव कौवा करे, कोयल बैठी मौन
हम सबको दो हाथ मिले, करने को सदकाम
एक हाथ से जेब भरी, एक हाथ में जाम
नाम नहीं ले राम का, तब भी होंगे काम
रावण की गर राह चला, तब बिगड़ेंगे काम
रावण की गर राह चला, तब नहीं मिलेंगे राम
मात-पिता जिनके नहीं, उनके भी हैं नाम
कलयुग में है कर्म बड़ा, नहीं किसी का नाम
अमन-चैन कायम रहे, तभी धर्म का मोल
पूजा-पाठ अजान सब, वरना खाली बोल
वरना मत्था टेकना, बस बच्चों का खेल
उम्र शूल की सदा बड़ी, फूलों की कुछ पल
महक फूल की और कम, किसका है ये छल
धर्म वृक्ष का वही बड़ा, नित्य खिलें नये फूल
फूल झरें इक साथ गर, नित्य चुभेंगे शूल
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तेरे बिन किस्मत नहीं मिलती
तेरे बिन सांसें नहीं चलतीं, तेरे बिन कलियां नहीं खिलतीं।
नयन तो सबके होते लेकिन, तेरे बिन नजरे नहीं मिलतीं॥
सांझ सवेरे तुझसे होते, तुझसे ही हम हंसते रोते।
सूरज चंदा नीलगगन ये , शाम-सुबह जाने कहां खोते॥
सब कुछ मिलता जग में लेकिन, तेरे बिन किस्मत नहीं मिलती।
तेरे बिन सांसें नहीं चलतीं, तेरे बिन कलियां नहीं खिलतीं।
नयन तो सबके होते लेकिन, तेरे बिन नजरे नहीं मिलतीं॥
सबके सीने दिल होता है, सबके दिल में धड़कन है।
जब तक तेरी मरजी न हो, धड़कन में वो लय नहीं बनती।
तेरे बिन सांसें नहीं चलतीं, तेरे बिन कलियां नहीं खिलतीं।
नयन तो सबके होते लेकिन, तेरे बिन नजरे नहीं मिलतीं॥
कर्म जरूरी जग में लेकिन, किस्मत से सब मिलता है।
सबके दिल में, इक न इक दिन, पुष्प प्यार का खिलता है।
दिल कस्तूरी, हिना हथेली, तेरे बिन जग में नहीं रचती।
तेरे बिन सांसें नहीं चलतीं, तेरे बिन कलियां नहीं खिलतीं।
नयन तो सबके होते लेकिन, तेरे बिन नजरे नहीं मिलतीं॥
‘‘सनातन''
कैलाश प्रसाद यादव
154, एल आय जी विजय नगर
देवास 455 001
मो. 96304 50031
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वीरेन्द्र ‘सरल‘
बिगडे पर्यावरण संवारो
नदी किनारे का पीपल हूँ, तूफानों में ढह जाऊँगा।
मिटने से पहले पर तुमसे, एक बात मैं कह जाऊँगा।
जो देते हैं शीतल छाया, उस पर मत कुल्हाड़ी मारो।
बहुत हो चुका अब तो जागो, हे बुद्धि के ठेकेदारों।
अपने ही जीवन के जड़ को, दीमक बन क्यों चाट रहे हो।
जिस डाली पर बैठे हो तुम, उसको ही क्यों काट रहे हो।
पेड़ कटेंगे ऐसे ही तो, वह दिन जल्दी आ जायेगा।
मौत का ही सन्नाटा होगा, जीवन खाक में मिल जायेगा।
कल की छोटी-सी नादानी, आज बनी है विपदा भारी।
आग लगाने को आतुर है, राख में दबी हुई चिंगारी।
झुलस रहा तन तेज धूप से, सावन की आँखों में ज्वाला।
बरखा रानी हुई बेवफा, हमने कुछ ऐसा कर डाला।
खड़ी समस्या विकट सामने, बाढ़ कहीं सूखा-भूचाल है।
सुलझाना ही होगा सबको, जीवन-मृत्यु का सवाल है।
सावधान हो समय से पहले, वक्त हाथ से निकल ना जाये।
सदा सहायक रहा जो बादल, वह अब हमसे रूठ ना जाये।
हरे-भरे जंगल मत काटो, अपनी पिछली भूल सुधारो।
पेड़ लगाओ, उन्हें बचाओ, बिगड़े पर्यावरण सुधारो।
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छन्द
सैनिक का संदेश
(1)
जब तक एक भी रहेगा सांस बाकी हम, समर भूमि में अपनी वीरता दिखायेंगें।
देश और देशवासियों की हिफाजत के लिए, अपने लहू का हर कतरा बहायेंगें।
अपना ये वादा रहा जीते जीं जीतेंगें जंग, तब सीना तान के तिरंगा लहरायेंगें,
और हो गये यदि शहीद रणभूमि में तो शान से तिरंगे में लिपट घर आयेंगें।
(2)
मेरे इस तन के हर एक बूंद खून का, आये काम देश की यही है मेरी योजना।
जा रहा हूँ रण में विदा करो मुझे प्रिये मैं खाक हो जाऊँ तो पति खोया मत सोचना।
मर भी गया तो मैं अमर हो जाऊँगा मुझे, देखना तुम मन में बाहर मत खोजना,
मातृभूमि के लिए हो जाऊँ मैं शहीद तो भी माँग से तुम अपना सिन्दूर मत पोंछना।
(3)
मेरा भी बहा है लहू मातृभूमि के लिए, ये सोच फख्र से मेरा भी ऊँचा सिर हो गया।
दे रही है साँसे दगा दोस्तों विदा दो मुझे, जिन्दगी का पूरा मेरा ये सफर हो गया।
रक्षाबंधन के दिन पूछे मेरी बहना कि आया नहीं भैया मेरा ओ किधर खो गया,
तब मेरे दोस्त मेरी बहना से कहना तू, देश के लिए तेरा भाई अमर हो गया।
(4)
आन, बान, शान तू ही, धरम-इर्मान तू ही, ईसा, अल्लाह वाहेगुरू और भगवान है।
तू ही प्रकाशपर्व, होली ,क्रिसमस, दीपावली, तू ही तो हमारे लिए रोजा-रमजान है।
देश तुझे अर्पित तन-मन-धन सब, तू ही हमारी खुशियां होंठों की मुस्कान है,
एक बार मिले जिन्दगी की बात कौन कहे, मिले लाखों बार भी तो तुझपे कुर्बान है।
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बेटियां
बेटी गंगा-सी पावन है, बेटी तुलसी है आंगन की।
बेटी धड़कन दिलों का है, बेटी सांसे है जीवन की।
बेटी सृष्टि की जननी है, बेटी श्रृंगार है जग का,
बेटी उल्लास है मन का, बेटी मधुमास मधुबन की।
बेटी करती नहीं मां-बाप से, अधिकार की बातें।
बेटी करती सभी से है, हमेशा प्यार की बातें।
बेटी बोती नहीं हैं बीज नफरत के किसी दिल में,
बेटी शबनम-सी है करती नहीं अंगार की बातें।
बेटी फूलों की डाली है, बेटी पूजा की थाली है।
बेटी लक्ष्मी है, सीता है, बेटी दुर्गा है, काली है।
बेटी है चांद-सी शीतल ,बेटी में तेज सूरज का,
बेटी के ही रौनक से तो होली हे दीवाली है।
बेटी फूलों-सी कोमल है, उन्हें अपनी महक दे दो।
बेटी चंचल किरण-सी है, उन्हें अपनी चमक दे दो।
उन्हें मत कोख में मारो ,उन्हें दुनिया में आने दो,
बेटी महकायेगी जग को उन्हें जीने का हक दे दो।
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दीप जलाने वालों की
भारत माता बँधी हुई थी, वर्षों तक जंजीरों में।
पराधीनता लिखा हुआ था, शायद हस्त लकीरों में।
जो सपूत थे आजादी के मूल्य तभी पहचान गये।
जिल्लत के जीवन से अच्छा, मृत्यु है यह मान लिए।
शुरू हुआ फिर आजादी के महायज्ञ की तैयारी।
बलिदानों का दौर चला तो, जाग गई जनता सारी।
देश के कोने-कोने में बस इंकलाब का नारा था।
धर्म, जाति, भाषा से पहले देश सभी को प्यारा था।
देशभक्ति का प्याला पीकर, झूम रहे थे मतवाले।
प्राण न्यौछावर करने आतुर, हुए वतन के रखवाले।
आजादी के महायज्ञ में, कई वीर कुर्बान हुए।
स्वतंत्रता ही परम लक्ष्य था, अर्पित सब अरमान हुए।
बुढ़ापे का छिना सहारा, कई मांग से मिटे सिन्दूर।
बुझ गये कई कुल के दीपक, हुए बहन से भाई दूर।
हँसते-हँसते फाँसी के फंदे, पर कितने झूल गये।
मातृभूमि के खातिर अपनी, सारी दुनिया भूल गये।
बही खून की गंगा कितनी, इसका कहीं हिसाब नहीं।
पन्ना-पन्ना पलटो पर, इतिहास के पास जवाब नहीं।
पता चला जब अंग्रेजों को, शेर हिन्द के जाग गये।
देश को दो टुकड़ों में बाँट के, दूर फिरंगी भाग गये।
छटा अंधेरा हुई रौशनी, आजादी का दीप जला।
लाखों कुर्बानी के बदले, खोया हक फिर हमें मिला।
स्वतन्त्रता की बलिवेदी पर, जिन्होंने आहूति दी।
देकर लहू जिगर का अपना, देश धर्म को ज्योति दी।
आज उन्हीं वीरों की गाथा, देश की माटी गाती है।
मिट्टी के हर कण से उनके, यश की खुशबू आती है।
जिनके त्याग से लहराता है, आज तिरंगा लहर-लहर।
आज उन्हीं के जयगानों से, गूँजित है हर गाँव-शहर।
मातृभूमि के चरणों पर, निज शीश चढ़ाने वालों की।
शत-शत नमन है, आजादी के दीप जलाने वालों की।
वीरेन्द्र ‘सरल‘
बोड़रा (मगरलोड़)
जिला-धमतरी (छत्तीसगढ़)
मो-07828243377
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संजय वर्मा"दृष्टी"
पक्ष
स्त्री की उत्पीड़न की
आवाज टकराती पहाड़ों पर
और आवाज लोट आती
साँझ की तरह
नव कोंपले वसंत मूक बना
कोयल फिजूल मीठी राग अलापे
ढलता सूरज मुँह छुपाता
उत्पीड़न कौन रोके
मौन हुए बादल
चुप सी हवाएँ
नदियों व् मेड़ों के पत्थर
हुए मौन
जैसे साँप सूंघ गया
झड़ी पत्तियाँ मानो रो रही
पहाड़ और जंगल कटते गए
विकास की राह बदली
किन्तु उत्पीड़न की आवाजें
कम नहीं हुई स्त्री के पक्ष में
बद्तमीजों को सबक सिखाने
वासन्तिक छटा में टेसू को
मानों आ रहा हो गुस्सा
वो सुर्ख लाल आँखें दिखा
उत्पीडन के उन्मूलन हेतु
रख रहा हो दुनिया के समक्ष
वेदना का पक्ष
---
शिक्षा
किसी को माध्यम बनाकर
सड़कों पर भीख मांगते बच्चे
कभी कटोरों /खुले हाथों में
भीख मांगने पर मिल जाते कुछ सिक्के
जिनसे आज की महंगाई में
कुछ भी नहीं आता
उन सिक्कों में कुछ खोटे हैं
इनकी किस्मत की तरह जो
चल नहीं पाते
उन सिक्कों पर छपे चिन्ह मौन है
किन्तु संकेत देते
नई राह शिक्षा प्राप्त करने की
ताकि ज्ञान प्राप्त कर
भीख मांगने के अवैध व्यवसाय से
उभर सके
और शिक्षा के बल पर नाम रोशन कर सके
--
आधुनिक
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
माँ अब नहीं देखती दीवार पर धूप आने का समय
अचार बनाने में क्या मिलाया जाए और कितना
बूढ़े पग अब नहीं दबाए जाते अब क्यों
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
चश्मे के नम्बर कब बढ़ गए
सुई में धागा नहीं डलता कांप रहे हाथ कोई मदद नहीं
बूढ़ों को संग ले जाने में शर्म हुई पागल अब क्यों
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
घर के पिछवाड़े से आती खांसी की आवाजें
कोई सुध लेने वाला क्यों नहीं
संयुक्त दीखते परिवार मगर लगता अकेलापन
कुछ खाने की लालसा मगर कहने में संकोच क्यों
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
बुजुर्गों का आशीर्वाद /सलाह /अनुभव पर लगा जंग
भाग दौड़ भरी दुनिया में उनके पास बैठने का समय क्यों नहीं
गुमसुम से बैठे पार्क में और अकेले जाते धार्मिक स्थान अब क्यों
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
बुजुर्ग है तो रिश्ते है ,नाम है , पहचान है
अगर बुजुर्ग नहीं तो बच्चों की कहानियाँ बेजान है
ख्याल ,आदर सम्मान को करने लगे नजर अंदाज अब क्यों
क्या जिंदगी आधुनिक हो गई
---
सुबह
सुप्रभात बतलाता तालाब को
अलविदा करता रात को
खिले कमल और
सूरज की किरणों की लालिमा
लगती चुनर पहनी हो
फिजाओं ने गुलाबी
खिलते कमल लगते
तालाब के नीर ने
लगाई हो जैसे
पैरों में महावार
भोर का तारा
छुप गया उषा के आँचल
पंछी कलरव ,
माँ की मीठी पुकार
सच अब तो सुबह हो गई
श्रम के पांव चलने लगे
अपने निर्धारित लक्ष्य
और हर दिन की तरह
सूरज देता गया
धरा पर ऊर्जा
--
फिर आई है हिचकी
स्त्री हिचकियाँ की सखी
साथ फेरों का संकल्प
दुःख सुख की साथी
एकाकीपन खटकता
परछाई नापता सूरज
पहचान वाली आवाजों में
खोजता मुझे दी जाने वाली
तुम्हारी जानी पहचानी पुकार
आँगन -मोहल्ले में सूनापन
विलाप के स्वर
तस्वीरों में कैद छवि
सदा बहते अश्रु
तेज हो जाते
तुम्हारी पुण्य तिथियों पर
दरवाजा बंद करता
खालीपन महसूस
अकेलापन कचोटता मन
बिन तुम्हारे
हवाओं से उत्पन्न आहटें
देती संदेशा
मैं हूँ ना
मृत्यु नाप चुकी रास्ता
अटल सत्य का
किन्तु सात फेरों का संकल्प
सात जन्मों का छोड़ साथ
कर जाता मुझे अकेला
फिर आई है हिचकी
क्या तुम मुझे याद कर रही हो ?
--
चाँद -चकोर
आकाश की आँखों में
रातों का सूरमा
सितारों की गलियों में
गुजरते रहे मेहमां
मचलते हुए चाँद को
कैसे दिखाए कोई शमा
छुप छुपकर जब
चाँद हो रहा है जवां
चकोर को डर
भोर न हो जाएँ
चमकता मेरा चाँद
कहीं खो न जाए
मन बेचैन आँखे
पथरा सी जाएगी
विरह मन की राहे
रातें निहारती जाएगी
चकोर का यूँ बुदबुदाना
चाँद को यूँ सुनाना
ईद और पूनम पे
बादलों में मत छुप जाना
याद रखना बस
इतना न तरसाना
मेरे चाँद तुम खुद
चले आना
--
अटल सत्य
मृत्यु अटल सत्य
दाह शरीर में से
शेष हड्डियां और राख रहकर
हो जाती मानव मूर्ति विलीन
पंचतत्व में
मानव मृत्यु का
अनवरत चलते आ रहे क्रम से
क्षण भर आता वैराग्यता का बोध
जो समा जाता
हर एक स्मृति पटल पर
मृत्यु के सच को
अच्छाई /भलाई के विचारों पर
मृत मानव के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप
चिंतन करते मानव
श्मशान के बाहर आते ही
छाई वैराग्यता को
श्मशान में उठे धुँए की तरह
कर जाते है विलीन
कुछ समय तक
जिंदगी रुलाती रहती
किंतु नए मेहमान के आने पर
मिलान करती /खोजती
अपने एवं अपने पूर्वजों के चेहरों की आकृति
खुश हो जाती अब जिंदगी
देखते -देखते
फिर से जिंदगी बूढ़ी हो जाती
मृत्यु का क्रम अनवरत
मानव मूर्ति फिर होने लगती विलीन
क्षण भर की वैराग्यता
फिर से समा जाती
अस्थिर मन में
यही संकेत फिर से
दे जाता मृत्यु
अटल सत्य को
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राकेश रौशन
बिस्तर पर पड़ी नैना अंतिम सांसें गिन रही है
'काश' मैं उठ बैठती फुर्ती से !
मकई के खेत में बिजूका चिढ़ा रहा होगा
चंद पक्षियों को
परंतु एक कोना खाली होगा
बर्बादी की दास्तान कहती
ऐ वीरान बस्ती थी कभी हंसती
बच्चों की कहकहे बड़ों की ठहाके
ओ बूढ़ा बरगद पास छोटा कुंऑ
मुसाफिरों की आरामगाह प्यास थी बुझाती
घर के कोने-कोने तिनके बिखरे पड़े है
मकड़ी ने भी जाल जगह-जगह बना दी है
इन कांपते हाथों से उठ कर
पक्षियों की झुरमुट को हांक दूं
कुंए की मीठे पानी से प्यास बुझा लूं
और सवार दूं इस घर को
यही मेरी अंतिम इच्छा है
(2) मिलावट की सरकार
महंगाई को देखकर हँसना भूल गए गालिब
चंद शायर बचे थे बेचकर खा गए
दरक गई है खिड़कियाँ दरक गई दीवार
रंग रोगन कैसे करा पाऊँ मैं
बचे खुचे चंद टका गए बाज़ार में
चुने और रंग पेंट टंगे आसमान में
करेले की मोल-भाव करना ना भूल कर
झिड़क देगी तुरहन तुम्हें ही देखकर
पत्थर की सब्जी बना सकते थे
पर अंगूठी को कम पड़ने लगे है वो
आटे और पानी का एक है मोल
मन मारकर के सोच रहा क्या मैं खरीदू
सुना है आर्सेनिक बांट रहे चापाकल
दो चार लीटर उधार ही ले लूँ
क्या तेरा भी दिमाग खराब है
उस पडाव के दस रुपए कर दिए
बाप दादा पैदल चंद ही मिनटों में
पूरे शहर के इस छोर से उस छोर
कर लो अपनी मनमानी
ना आगे ना पीछे कोई लगाम है
बिरजू हलवाई के दुकान पर शोर है
पनीर खमीर में मिलावट बड़ी जोर है
जाने दो उसको क्यों फटकारते हो
आजकल तो मिलावट की सरकार है!
राकेश रौशन (मनेर पोस्ट ऑफिस पटना )
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सुन्दर कविताएँ
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