आलोचक दादा कुछ तो भीतर टूटा होगा मुझसे हाथ छुड़ाते वक़्त.! सच्ची बात छुपाने ख़ातिर, झूठी बात बताते वक़्त.!! तेरी पलकों पर वो आंसू, मेरे होठों ...
आलोचक दादा
कुछ तो भीतर टूटा होगा मुझसे हाथ छुड़ाते वक़्त.!
सच्ची बात छुपाने ख़ातिर, झूठी बात बताते वक़्त.!!
तेरी पलकों पर वो आंसू, मेरे होठों पर वो आह.!
रोज सवेरा हो जाता है, बीती रात भुलाते वक़्त.!!
सारे बंधन, सारे रिश्ते छूट गए हैं साथ तुम्हारे.!
मैं सब से तन्हा रहता हूँ, मिलते और मिलाते वक़्त.!!
टूटी चूड़ी, छूटे कंगन, बिंदिया, काजल, लाली सब.!
तुम को इक दिन देख लिया था, मैंने आते-जाते वक़्त.!!
लम्हा-लम्हा, भीतर-भीतर, टूट रहा हूँ, किरक रहा हूँ.!
खुद को थोड़ा खो देता हूँ, तुम को थोड़ा पाते वक़्त.!!
©आलोचक दादा
दिल्ली
मोबाइल- 7042467873
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प्रभा मुजुमदार
घुन
घुन है कि लग ही जाते है
किसी भी चीज में
जरा भी लापरवाही हो जाये अगर
समेटने, सहेजने, संवारने में.
गेंहू और चावल मूंग और चने तक ही रहे
तो फिर भी ठीक है
मगर धुन तो जकड लेते है
हमारे अरमान आशाओं को.
सपनों महात्वाकांक्षाओं को
हँसी और खुशियों को.
जीने के उल्लास को
असमय ही कर देते है चूर.
जर्जर कर देते है
सम्बन्धों की बुनियाद को.
बुझा देते है रिश्तों की आंच
सोख लेते है
सम्वेदनाओं की नमी.
खुशनुमा गुनगुनी धूप को
दहकते अंगारों में,
संगीत की लय को
चुभते मर्माहत करने वाले शोर
में बदल देते है.
बस एक बार लग जायें कहीं
घुन
बदल ही देते है उसकी रंगत.
कितना भी दिखाएं फिर
धूप और हवा
या फटकारें जोरों से
कुछ न कुछ
बाकी रह ही जाते हैं.
बडी तेजी से फैलते है ये
अन्धेरे सीलन भरे डब्बों
और घुटन भरे माहौल में
जिनमें अक्सर भर देते है हम
जिन्दगी की तमाम दौलत
और निश्चिंत लापरवाह होकर
सोते है फिर ता-उम्र.
और एक दिन
जब बडी हसरत से
खोलते है ढक्कन
निहारना चाहते है
अपनी जुटाई हुई सम्पदा
बन्द डिब्बे के भीतर तब
हम पाते है घुन ही घुन
चूरे का ढेर.
गुरू पूर्णिमा के दिन
ऐसा क्या था गुरू द्रोण
कि तुमने
सिर्फ मेरा अंगूठा ही मांगा
सम्पूर्ण प्राण नहीं.
जबकि तुम जानते ही थे कि
उसी एक अंगूठे में होता था
मेरे जीवन का मकसद.
एक सीधी-सादी मौत की बजाय
क्यों दी बार-बार
मौत की दीवारों से
टकराने की सजा.
नहीं, वह क्षण भर का गुस्सा नहीं था
तुम जान गये थे द्रोण
पृथ्वी पर सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर
तुम्हारा वह प्रियतम शिष्य नहीं
ठुकराया हुआ यह भील था.
तुम्हारी अनिर्बाध प्रशस्ति के लिये
मेरा बलिदान जरूरी था
किसी भी तरह.
यूँ भी तुम साम-दाम दंड-भेद के बल पर ही
हासिल करना ही चाहते थे
साम्राज्य, शक्ति और शोहरत.
वह डर था, बदहवासी थी
वर्षों के छल छद्म से खडे किये
गुरुता के साम्राज्य पर
खतरा मंडराते देखा था तुमने.
उस दिन मुझे तुम गुरूदक्षिणा नहीं
भीख मांगते नजर आये थे.
पराजित, असहाय और बौने से
और अपनी लघुता का अहसास मिटा कर
मैंने काट दिया था
अपने ही हाथों वह अंगूठा.
यूँ भी मैं हाशिये पर पड़ी
एक वंचित दुनिया का
अपने नसीब पर छोड़ा गया
एक मामूली मोहरा
जिसका बलिदान सुर्खियों में नहीं आता.
जिन्दा रहते तो
मर ही सा गया था मैं.
लेकिन मौत के बाद
समय की न मालूम किस करवट से
जीवित हो गया हूँ.
इतिहास के पन्नों से निकल कर
मैं बार बार
आ खड़ा होता रहूंगा गुरू द्रोण.
और देता रहूंगा चुनौती.
तुम्हारे गुरूत्व की
लघुता प्रमाणित करता रहूंगा.
प्रभा मुजुमदार
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अमित भटोरे
खरगोन (मध्य प्रदेश)
मो. 09009311211
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आस्तीनों में ही साँप पले है
हाथी पोरस के साथ चले है
रातों में भी नींद कहां अब
दिनभर चलकर पैर जले है
हम ही कमतर क्यों लगते
सब कहते वो लोग भले है
जग को करते फिरते रोशन
दीपक जलकर हाथ मले है
'अमित' सब इतने क्यों डरते है
चंदन पर भी सर्प पले है
...अमित
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अब नहीं मिलता ग्रीष्मावकाश
वो दिन लौट आए फिर काश
दिनभर मिट्टी में खेलते रहते
एक सा दिखता ज़मी-आकाश
तनाव नहीं बेफिक्री का आलम
रोज खिलते खुशियों के पलाश
जब इम्तेहान का भी नहीं था डर
उन दिनों की फिर से है तलाश
खुद से भी नहीं मिल पाते अमित
कब छूटेंगे अनिश्चितता के पाश
...अमित
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निसर्ग भट्ट
वर्तमान निवास - अहमदाबाद
अभ्यास - Bsc. with biochemistry
जन्मतिथि - १२-८-१९९७
E-mail - nisarg1356@gmail.com
अकेलपन की अंगड़ाइयाँ
पता नहीं कभी कभी क्यों खुद को इतना अकेला पाता हूँ,
हजारों की भीड़ में भी पंछियों के सुरों को सुन पाता हु ।
कभी समंदरों से भी गहरी लगती है,
तो कभी हिमालय से भी उतुंग,
कभी उन लहरों की मस्तियों को समजकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी खंजरों से भी नुकीली लगती है,
तो कभी पंखुड़ियों से भी कोमल,
कभी तो उस चुभन को महसूस कर के देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी जोपड़ियो से भी ज्यादा अमीर लगती है,
तो कभी महलों से भी ज्यादा गरीब,
कभी उस दोगली अमीरी का चश्मा उतारकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी अमावस्या से भी ज्यादा अंधकारमय,
तो कभी पूर्णिमा से भी ज्यादा तेजोमय,
कभी सितारों के उस पार देखने की कोशिश तो करो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी गांवों से भी ज्यादा बेबस लगती है,
तो कभी शहरों से भी ज्यादा विचलित,
कभी उस मिट्टी की खुशबू में खो कर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी माँ की गोद सी मिठी लगती है,
तो कभी मतलबी रिश्तों से भी कड़वी,
कभी किसी बूढ़े हाथों का सहारा बन कर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
कभी गुड़िया सी मासूम लगती है,
तो कभी लोमड़ी से भी चालाक,
कभी उन दोस्तों की नादानियों पर हँसकर तो देखो,
एक बार अकेलेपन की अंगड़ाई ले कर तो देखो ।
पता नहीं कभी कभी क्यों खुद को इतना अकेला पाता हूँ,
हजारों की भीड़ में भी अपनी सांसो को गिन पाता हूँ ।।।
- निसर्ग भट्ट
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प्रिया देवांगन "प्रियू "
सीखो तुम
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मोबाइल का जमाना है, सही इस्तेमाल करके तो देखो तुम
दिन रात गेम खेलना छोड़ के, कुछ बात कहना तो सीखो तुम
क्या रखा है इस छोटी सी जिंदगी में,
हँसकर सबसे बात करना तो सीखो तुम
यूँ ही गुमसूम सी मत रहा करो ,कुछ तो कहना सीखो तुम
दिनभर यूँ ही नेट में व्यस्त मत रहा करो
घर के लोगों से बात करना भी सीखो तुम
हमारी जिंदगी तो छोटी सी हैं, सबसे मिलकर रहना सीखो तुम
जिन्दगी की इस राह में यूँ ही न भटको तुम,
रास्ते दिखाने वाले तो बहुत है किसी से पूछकर तो देखो तुम
मंजिल बहुत पास है तुम्हारी,चलकर तो देखो तुम
घबराना नहीं मंजिल के पास आकर, जरा चल कर तो देखो तुम ।
जिन्दगी की इस राह में आगे बढ़कर के देखो तुम
क्या रखा है इस जिंदगी में, हँसकर तो रहना सीखो तुम
इस छोटी सी जिंदगी में खुशियाँ मनाना सीखो तुम ।।
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रचना
प्रिया देवांगन "प्रियू "
पंडरिया
जिला - कबीरधाम (छ ग)
Priyadewangan1997@gmail.com
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लोकनाथ ललकार
बादल चले जाते हैं
आज झूठ-फरेब-जंजाल देख
मददगार कदम कतराकर चले जाते हैं
पेड़-पौधे कंकाल देख
बासंती नजारे घबराकर चले जाते हैं
उजलों की काली करतूतों का
आज सर्वत्रा बवण्डर है
इन काली करतूतों को देख
आक्रोशित बादल गड़गड़ाकर चले जाते हैं
पर्वतों से बादलों की मित्राता ख्यात है
स्वार्थ ने इस पर किया घात है
इसने पर्वतों को अंग-भंग कर दिया
इनकी बादशाहत को पंग कर दिया
कारखानों के तेजाबी धुएं
पर्यावरण पर कफ़न-सा ढके जाते हैं
इन काली करतूतों को देख
आक्रोशित बादल गड़गड़ाकर चले जाते हैं
प्यासी धरती मुंह बाए खड़ी है
किसानों की आंखें पथराई पड़ी है
धरती की कोख में लाचारी है
बीजों का कन्या भ्रूण-सा जंग जारी है
खेतों में सूखे का ताण्डव देख
दिन-महीने संवेदना जतलाकर चले जाते हैं
इन काली करतूतों को देख
आक्रोशित बादल गड़गड़ाकर चले जाते हैं
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लोकनाथ ललकार
बालकोनगर, कोरबा, (छ.ग.)
मोबाइल - 09981442332
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