कहानी / नम्बर दस / सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन

SHARE:

सवेरे रतन के मन में बहुत मिठास रही हो, ऐसी बात तो नहीं था, लेकिन अब शाम को वह कडुवाहट से भर गया था । सवेरे और नहीं तो एक खुलापन तो था, मिठा...

image

सवेरे रतन के मन में बहुत मिठास रही हो, ऐसी बात तो नहीं था, लेकिन अब शाम को वह कडुवाहट से भर गया था । सवेरे और नहीं तो एक खुलापन तो था, मिठास के प्रति एक अनुमति-भाव, कि ले तू आती है तो आजा, मैं मना नहीं करता; लेकिन शाम को उसने इस के प्रति अपने आपको एकदम बन्द कर लिया था । और बन्द करने से ही मालिन्य और भी बढ़ता ही जा रहा था । जैसे आग खुली हो तो जल लेती है, लेकिन बन्द कर दी जाय तो खूब धुआँ देने लगती है ।

रतन का दिन बहुत लम्बा बीता था । सवेरे जिस समय से वह जेल से निकला, उस समय से वह दर-दर, गरमी-गली, चौक-मुहल्ले फिर आया था; कहीं उसका रुकने को मन नहीं हुआ था-कहीं उसने ऐसी जगह ही नहीं पाई थी जहाँ वह रुक सके । चलते-चलते वह थक गया था, लेकिन उन कागज के खिलौनों की तरह, जो भीतर जलते दिये के धुएँ से घूमते जाते हैं, वह भी अनथक घूमता जा रहा था । उसके भीतर एक अभूतपूर्व संघर्ष हो ' रहा था' जैसा कि जेल में कभी नहीं हुआ था-एक ओर उसके मन में आवाज उठ रही थी, 'में जेल में नहीं हूँ, जेल में नहीं हूँ' और दूसरी ओर एक प्रतिध्वनि-सी, जो असली ध्वनि से भी तीखी ही थी, पुकार उठती थी 'तुम सजायाफ्ता चोर ।' और इस दुहरी मार से पिटता हुआ वह रुक नहीं सकता था; और भटकता जा रहा था, भटकता जा रहा था ।

सूर्यास्त के समय के करीब वह जमुना के किनारे एक घाट पर पहुँच गया । अपने आगे उस चमकते हुए पानी का विस्तार देखकर मन में, दिन -भर में पहली बार, कुछ ऐसा बोध हुआ कि वह दुनिया में आ ही नहीं गया है, उससे उसका कुछ नाता भी है

वह क्षणभर के लिए रुक गया । तब जैसे आसपास की दुनिया धीरे- -धीरे उसके भीतर प्रवेश करने लगी, और उसके भीतर का धुआँ कुछ-कुछ फूट कर निकलने लगा । वह घाट की सीढ़ी पर बैठ गया ।

फरवरी के दिन थे । शीत की कठोरता का जमाना बीत चुका था और विकल्प का आ गया था, जिसमें कभी वह कठोर होने की इच्छा से भर कर धुँधला हो जाता था, कभी मृदुता के आवेश में हल्की सी पीली धूप से -निखर सा आता था । रतन के देखते-देखते नदी के ऊपर एक धुन्ध छाने लगी और धीरे-धीरे आगे बढ़ने लगी । बादल में सूर्य ने उदास होकर मुँह छिपा लिया । बादल में अरुणाई नहीं आई, एक श्वेत परदा-सा आकाश पर तन गया, और उसके ऊपर जमुना-किनारे की एक मिल की चिमनी से उठता हुआ धुआँ कुछ लिखत लिखने लगा ।

देखते हुए रतन को वह लिखत अच्छी नहीं लगी । उसे लगा कि जिस तरह यह उस परदे की स्वच्छता को बिगाड़ रही है, उसी तरह पृथ्वी को भी मानव की लिखत ने बिगाड़ रखा है । नहीं तो--जेल क्यों होते?

'' फिर एक कड़वाहट की बाढ़-सी आई और रतन उसमें इबने-उतराने लगा । उसे याद आया, कि जेल से बाहर आते समय जब उससे पूछा गया था कि उसका घर कहाँ है, ताकि उसे लौटने के लिये पैसे दिये जायँ तब उसने पैसे लेने से इन्कार कर दिया था । उसे लगा था कि जिसने उसे सजा दी थी, उसी संगठन से पैसे लेकर वह घर जायगा, तो घर जिसके पास जा रहा है उसे मुँह दिखाने लायक नहीं रहेगा । उस संगठन के प्रति उसके मन में जलन थी । ' चोरी उसने अवश्य की थी, लेकिन अभी तक अपने को

अपराधी वह नहीं मान पाया था । चोरी करते समय उसके मन से कभी भी यह बात ओझल नहीं हुई थी कि वह चोरी कर रहा है । पर यह जानते हुए भी कि। चोरी अनुचित है, वह यह भी देख रहा था कि रुपया लेना अनुचित नहीं है, और जरूरी भी है, और उसे नहीं मिल रहा है; यद्यपि वह उसके बदले में अपना पसीना देने को तैयार है । बल्कि, उस दिन तो वह अपना खून- देने के लिए भी तैयार था

तब-आज जब उसे रुपये मिल रहे थे तब उसने क्यों नहीं लिये क्यों नहीं लिये? आज क्या उसे कुछ कम जरूरत है? और आज क्या उनका मिलना कुछ अधिक आसान है जब कि वह 'सजायाफ्ता चोर' की उपाधि पा चुका है?

उस बात को छ: महीने हो गये । छ: महीने पहले उसकी बहन यशोदा बहुत बीमार थी । थी-क्योंकि अब पता नहीं वह कैसी है-, भी या नहीं । उसे बचाने के लिये बेकार रतन ने भरसक कोशिश की थी, और अन्त में अपनी जमा हुई पूँजी खत्म पाकर हर तरह के काम के लिए हर तरह के यत्न किये थे जब उसे कोई काम नहीं मिला-दवा की कीमत पाने का कोई साधन नहीं मिला-तब उसने अपनी बुद्धि के आसरे कुछ पा लेने का कोशिश की, तो क्या बुरा किया? उसने अपनी बहन की रक्षा के लिए रुपये चुराये । किसी की हत्या उसने नहीं की, केवल कुछ रुपये ले लिये, सो भी ऐसे आदमी के, जिसके लिए उतने रुपये खो देना कोई बड़ी बात नहीं थी, । तब?

हो सकता है कि उसका यह मोह ही गलत रहा हो । वह कौन होता- है बहन की रक्षा के लिए अपने को जिम्मेवार समझने वाला? खुदा ने जिनको बनाया है, उनको जिलायेगा भी । नहीं भी जिलायेगा, तो उनका स्थान लेने के लिए और बना देगा । रतन खुदा का काम हथियाने वाला कौन, और हथियाकर वह कितनों खो दबा-दारू पहुंचा सकेगा? बहुत से लोग बिना दवा के मरेंगे, बहुत से बिना रोटी के मरेंगे, बहुत से बिना कपड़ों के मरेंगे, बहुत से बिना किसी वजह के यों ही मर जायेंगे । क्यों रतन यह दम्भ करे कि उसकी ही बहन बचने की ज्यादा अधिकारिणी हैं ?-

क्यों नहीं करे वह दम्भ उसकी बहन है । दूसरों के भी जो भाई हैं, वे उनके लिए दम्भ करें ।

लेंकिन जिनका कोई नहीं है

सरकार? लेकिन सरकार ने किसी के रुपये की रक्षा का दम्भ तो किया ही

है । तब तो सरकार ठीक है, और वह-वह भी ठीक ?

लेकिन-मैं ठीक हूँ तो सरकार भी ठीक है । मैं नहीं हूँ तो सरकार भी नहीं । यानी मैं चोर नहीं हूँ, तो चोर हूँ; और चोर हूँ तो, नहीं हूँ । पागल हूँ मैं । जेल ने दिमागखराब कर दिया है ।

लेकिन पागल कहने से छुट्टी मिल जाती है? मैंने सवेरे वे रुपये क्यों नहीं लिये? जिस ममता की बात सोच रहा हूँ, उसकी रक्षा क्या उसी तरह नहीं होती? यशोदा शायद जीती है-शायद बाट देख रही है । उसने दिन गिने होंगे, और आज शायद और उस बेवकूफ ने झूठे अहंकार में रुपये नहीं लिये, और १

अंधेरा हो चला था । घाट पर जो एक-आध आदमी आता-जाता भी था, वह भी अब बन्द हो गया था । घाट बिल्कुल सूना था । आसपास मन्दिरों में घण्टे बज रहे थे । कहीं-कहीं दियों का क्षीण प्रकाश भी झलक जाता था ।

और जेलखाने और पगली घण्टी । और हथकड़ियां, बेड़ियां और पैसे की कमी ।

और

छटकारा । छुटकारा ।

यशोदा वहां है- थी । है या थी इससे मुझे क्या? सकता हूँ, उसके लिए कुछ नहीं कर सकता हूँ ।

क्यों जी रहा हूँ मैं?

और उसे लगा, जमुना भी अपनी बड़ी-बड़ी काली आंखें खोले उसकी ओर विस्मय से देख रही है, मानो कह रही है, हाँ मैं भी तो पूछ रही- हूँ कि क्यों जी रहे हो तुम

छुटकारा

रतन उठकर दो सीढ़ी और उतरा । अगली सीढ़ी पर पानी था । वह- अपना फटा जूता उतारने को हुआ कि पानी में पैर डाले, फिर एकदम से उसे जूता उतारने के मोह पर हँसी-सी आई और वह जूतों समेत दो सीढ़ियां- और उतर गया ।

बहुत ठण्डा था पानी । लेकिन रतन का ध्यान उधर गया ही नहीं । वह घण्टा-नाद सुनता जाता था और प्रत्येक चोट पर उस एक आकर्षक शब्द- को दुहराता जाता था-छुटकारा, छुटकारा ।

एक सीढ़ी और उतरकर वह ठिठक गया । क्या यह छुटकारा है- सचमुच छुटकारा है? किस चीज से छुटकारा है? कैसे छुटकारा है? रतन- कौन है?

क्या मेरे मरने से मेरी समस्या हल हो जायगी? यशोदा की समस्या- हल हो जायगी? मेरी चोरी की सजा धुल जायगी? किसी का भी कोई: भी बन्धन ढीला हो जायगा?

मुझे किसी के बन्धन से क्या? मरना तो है ही मुझे। -डूब मरूँगा, तो कोई पूछेगा नहीं । किसी को क्या? पूछेगा तो । हाजिरी नहीं दूंगा, तब

खोज होगी । तब-

एकदम से उसे याद आया, जब वह जेल से छूटा था, तब उसे आज्ञा दी गई थी कि पुलिस में नाम लिखाये और हफ्ते में एक दिन रिपोर्ट दिया करे वह थाने गया था । बाहर ही एक मुटियल बूढ़े सिपाही ने उसे टोका था, और यह जानकर कि रतन अपना नाम दस नम्बर में लिखाने आया है; उसे नसीहत देनी शुरू की थी । रतन वह नहीं सह सका था, और, और झल्लाये स्वर में कह उठा था, ''तुम्हें मतलब? तुम अपना काम देखो । मैं' रिपोर्ट न दूँ, तब जी में आये सो करना । अभी अपनी नसीहत रखो अपने पास ।'' इस गुस्ताखी से कुछ चकित और कुछ क्रुद्ध कान्स्टेबल ने अपनी बुच्ची दाढ़ी हिलाकर अनुभव से भारी स्वर में कहा था, ऐं हें! तब तो जल्द ही; आओगे, जल्दी ।''

पहले तो घण्टानाद रतन को बहुत खटका था । लेकिन धीरे-धीरे वह: कुछ आवृष्ट-सा हुआ-उसे उस स्वर में एक विचित्र चीज मालूम हुई । ये घंटे, दिन और रात न जाने कब से ऐसे ही बजते आते हैं, इसी स्वर से, इसी गूँज से, इसी सम्पूर्ण तन्मयता से और इसी उपेक्षा से कोई मरता है, कोई पैदा होता है; कोई मिलता है, कोई बिछुड़ता इनमें कोई फर्क नहीं होता, ये वैसे ही गूँजते रहते हैं ये प्रार्थना के घण्टे हैं-और प्रार्थना के जो, मन्त्र कभी गये जमाने में दुहराये जाते थे वही आज भी दुहराये जाते हैं- उसी ईश्वर के प्रति! हमारी प्रार्थना क्यों नहीं बदली है? हमारी जरूरतें- क्यों नहीं बदली हैं? ईश्वर क्यों नहीं बदलता है?

लेकिन यशोदा वहाँ बैठी है । और मैं यहाँ हूं-मैंने उसके लिए चोरी- भी की थी, लेकिन मिलता हुआ रुपया नहीं लिया । और यहाँ बैठा हुआ ईश्वर की बात सोच रहा हूँ । क्या मैं यशोदा के पास जाना नहीं चाहता?' क्या मैं ईश्वर के पास जाना चाहता हूं?

ये घण्टे जड़ हैं, मैं जीता हूं । तभी इनका स्वर नहीं बदलता ।

मैं क्यों जीता हूँ? यशोदा के लिए मैं जेल गया था, लेकिन अब- यहाँ बैठा हूँ, दिन भर में एक बार भी मैंने नहीं सोचा है कि उसके पास- लौटूँ । क्या यह जीना है!

? मैं स्वाधीन कहाँ हूँ? अब भी जेल में हूँ । चाहकर भी मैं नहीं जा सकता उसके पास । रेल में पकड़ा जाऊँगा, तो फिर वही जेल । मैं जेल से डरता नहीं, मैं अपराधी नहीं हूँ । पर

जीना । घण्टे । जड़ता । मैं भी जीता न होता, तो इतना निकम्मा न- होता । इतना परवश, विवश । मरना छुटकारा है ।

इस एक शब्द पर आकर रतन का मन अटक गया । छुटकारा । छटकारा ।

जहाँ वह बैठा था, वहां धुन्ध घनी हो चली थी । आकाश में किसी तरह का प्रकाश नहीं था, इसलिए नदी का पानी भी अब तक नहीं दीख रहा 'था । रतन धीरे-धीरे घाट की सीढ़ियाँ उतरने लगा । पानी के तल से दो-तीन सीढ़ी ऊपर ही, जब उसे सील-सी मालूम हुई, तब उसने ध्यान से नीचे देखा और जाना कि कुछ ही आगे जमुना का पानी बहा चला जा रहा है । घाट 'को निःशब्द स्वर से छूता है और आगे बढ़ जाता है । मानो कह जाता है, ' 'लो मैं मेहमान बनकर आया तो हूँ, लेकिन तुम्हारी शान्ति भंग नहीं करता, मिल तो लिया ही, अब जाता हूँ ।'' और प्रणत-प्रणाम करता हुआ चल देता है ।

और एक हम हैं कि आते हैं तब रोना, चिल्लाना, और दर्द; जाते हैं तब रोना, पीटना और तड़पन; रहते हैं तब झींकना, कलपना और होहल्ला ।

जल्दी । कहाँ आऊँगा ।

डूबकर मर जाऊँगा, तो खोज होगी । लाश मिलेगी, तो किसी के दिल में दर्द होगा? दुनिया जानेगी तो कहेगी, अजी होगा । दस नम्बरिया बदमाश था साला । मर गया अच्छा हुआ । कहीं इधर-उधर आँख लड़ गई होगी, काम नहीं बना होगा, बस ।' बदमाशों के दिल थोड़े ही होता है ।' इतना भर दुनिया उसे देगी । इतना भी खूसट कंजूस की तरह, घिस-धिस करके ।

इसी दुनिया के लिए मैं इतनी फिकर में पड़ा हूं-इसी के लिए मर रहा हूँ? इसी हृदयहीन दुनिया के लिए मैं अपने जिगर का खून दे रहा हूं ? ऐसी की तैसी दुनिया की । सोच ही सब रोगों की जड़ है, वही तो है जिससे छुटकारा लेना चाहिये । पाप-पुण्य क्या है? सोचें तो चोरी है, सोचें तो ठीक है । सब चोर हैं, सब भले हैं ।

आज मैंने दस चोरियां और की होतीं--कौन कह सकता है कि पकड़ा ही जाता? घर भी जाता, यशोदा से भी मिलता जो जी में आता करता-

न होता तो जेल ही' तो जाता, जहां हो आया हूँ? जैसा अब हूँ, इससे जेल

'क्या बुरी है

रतन दृढ़ कदमों से घाट की सीढ़ियां चढ़ने लगा । मन का बोझा इतना -हल्का हो गया था कि वह अपने पैरों की चाप के साथ-साथ ताल देकर कहने लगा, ऐसी-तैसी-दुनिया-की

घाट के ऊपर तक पहुंचते-पहुंचते उसने तय कर लिया था कि वह फिर चोरी करेगा, और फिर जेल जायेगा । पहली बार चोरी करने के लिए जेल रोया था, अबकी बार जेल जाने के लिए चोरी करेगा ।

( २)

तब शायद साढ़े बारह बजे थे । रतन अपने गाढ़े की धोती से फाड़े हुए एक टुकड़े में कुछ नोट और कुछ रुपये बांधे उस छोटी सी पोटली को एक मुट्ठी में मजबूती से थामे हुए, दूसरे हाथ में जूते उठाये, एक ऊँचे घर की दीवार के साथ सटता हुआ दबे पैर एक ओर को हट रहा था ।

दूर कहीं आधा घण्टा खड़का, टन डम् । सरदी की धुन्धली रात में उस स्वर ने रतन को चौंका दिया । उसके बाद ही उसे लगा कि पास कहीं खटका हो रहा है । शायद लोग जाग उठे है । शायद अभी उसकी चोरी पकड़ी जायेगी । शायद

वह लपककर सड़क के पार हो लिया । वहां एक छोटी-सी झोपडी थी, जिसके छोटे से झरोखे से टिमटिमाती-सी रोशनी बाहर झांकने की कोशिश कर रही थी । रतन जानता था कि प्रकाश की ओट में अन्धेरा अधिक मालूम होता है, वहां पड़ी चीज दिखती नहीं; इसलिए वह उस झरोखे से जरा आगे बढ्‌कर ही, फूस के छप्पर के नीचे दबककर, बैठा रहा ।

पहले तो उसे लगा कि वह यों ही डर गया । अपने हृदय की धक् धक् के सिवाय कोई स्वर उसे नहीं सुन पड़ा । लेकिन बैठे-बैठे जब तक धड़कन जरा कम हुई, तब उसे जान पड़ा कि सचमुच कहीं कोलाहल हो रहा है । पर वह बहुत दूर पर है, जिस मकान में रत्‌न ने चोरी की है उससे बहुत आगे कहीं । उस शोर का रतन से कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता ।'

पर-यह स्वर तो बहुत पास कहीं है! रतन ने सुनने की कोशिश की कि वह किधर से आ रहा है, पर ऐसा लगता था, मानो सभी ओर से धीरे-धीरे की जा रही बातचीत का स्वर आ रहा हो-कोई खास दिशा उस को जान नहीं पड़ रही थी

क्या मैं सो तो नहीं रहा-स्वप्न तो नहीं देख रहा? रतन ने अपने को कुछ हिलाया, जरा आगे बढ्‌कर झरोखे के बिल्कुल पास आकर आगे देखने की कोशिश करने लगा ।

आगे झुकते ही स्वर साफ हो गया, रतन ने जान लिया कि वह झरोखे में से होता हुआ झोपड़े के भीतर से आ रहा है । और वह बिना खास चेष्टा किए हुए भी उसे ध्यान से सुनने लगा ।

एक पुरुष का स्वर, जो अपने से ही बात करता मालूम होता है । उस स्वर में दुःख है, निराशा है, थोड़ी-सी कुढ़न भी है ।

'मैं और क्या करूं अब । अब तो उधार भी नहीं मिलता । ताने- मिलते हैं सो अलग ।'

थोड़ी देर बाद एक दूसरा स्वर-क्षीण, कुछ उदास, लेकिन साथ ही जैसे एक वात्सल्य भाव लिये--

'तुम भी क्यों फिक्र किये जाते हो ? ऐसे तो तुम भी बीमार हो जाओगे । मेरी दवा का क्या है? सरकारी अस्पताल से ले आया करो-वहाँ' तो मुक्त मिल जाती है ।'

'पिछली बार वहीं से तो लाया था । पर फायदा नहीं होता । हो कैसे, डाक्टर देखे मरीज को तब न दवा हो? वह यहाँ आता नहीं, बुलाने को पैसे नहीं हैं ।' 'डाक्टर को बुलाकर क्या होगा । अब तो मुझे मरना ही है । मेरे करम ही खोटे थे-तुम्हारी सेवा तो की नहीं, उलटे दुःख इतना कर दिया । यही था, तो पहले ही मर जाती, तुम्हें इतना तंग भी न करती और-'

'ऐसी बात न करो, प्रेमा! मैं-'

काफी देर तक मौन रहा । आगे कुछ बात हो, उसकी प्रतीक्षा में बैठे- बैठे रतन ऊब गया, तब उसने झरोखे के पास सरककर भीतर झाँका । एक,

ही झाँकी में भीतर का दृश्य देखकर वह एक दम पीछे हट गया-डरकर नहीं, कुछ सहमा हुआ-सा ....

एक टुटियल चारपाई पर एक स्त्री लेटी हुई थी । उसका सारा शरीर और चारपाई का भी काफी-सा हिस्सा, एक मैली लाल गाढ़े की रजाई से ढंका हुआ था; केवल नाक और सिर बाहर दीखते थे । नाक की पीली पड़ी हुई त्वचा प्रकाश में अजब तरह से चमक रही थी । पीछे हटाये हुए बहुत रूखे और उलझे हुए बालों के भूरेपन के कारण माथा बहुत सफेद और बहुत चौड़ा लग रहा था । और आँखें-आँखें एक स्थिर, खुली, अर्थभरी दृष्टि के सिरहाने' बैठे पुरुष के मुँह पर लगी हुई थीं ।

और पूरुष उस स्त्री के सिर के पास, दोनों पैर समेट कर चारपाई की बाँहीं पर बैठा हुआ था । एक हाथ उसका घुटनों पर था जिस पर उसने ठोडी टेक रखी थी; दूसरा जैसे निरुद्देश्य, भूला हुआ-सा, स्त्री के सिरहाने पड़ा हुआ था ।

रतन सहमा हुआ-सा बैठा था । उसका मन न जाने कहां-कहाँ दौड़ने लगा था, बिजली के तीव्र वेग से; पर बाहर से वह बहुत शान्त स्तब्ध-सा हो गया था । जैसे लट्‌टू जब बहुत तेजी से घूमता है तो झुरी पर बिल्कुल स्थिर हो जाता है, वैसे ही रतन का मन अतीत और भविष्य में पागल-सा भटकता हुआ एक धुरी पर स्थिर हो गया था-उस स्त्री प्रेमा की आखों पर, जिनमें मानो सरस्वती बस रही थी-इतनी अर्थपूर्ण हो रही थीं वे..

उस सारगर्भित मौन में रतन ने एक-एक लम्बी साँस की आवाज सुनी । उसके बाद फौरन ही पुरुष का स्वर आया-अब पहले-सा शिथिल नहीं, अब जैसे प्रबल आवेग से भरा हुआ, गूंजता हुआ सा-

'प्रेमा, कभी जी में आता है, कहीं डाका डालूँ -ये जो पड़ोस में मोटे-मोटे खाला लोग रहते हैं, इनको मार डाल और इनकी हवेलियां! लूट लूँ -या उस सरकारी डाक्टर को चुटिया पकड़ कर घसीट लाऊँ।? जिसने आने की बात पर अकड़- कर कहा था कि सरकारी डाक्टर कोई रास्ते की धूल नहीं है जो हर कोई उठा' ले जाये । कभी सोचता हूं कि... लेकिन फिर ख्याल आता है, जो लोग सरकारी डाक्टर को बुला सकते हैं, वे भी तो कभी कुढ़ते होंगे कि विलायत से डाक्टर बुलाकर शायद इलाज ठीक हो सकता! यह रोग तो ऊपर से नीचे तक लगा है, मैं एक लाला को लूटकर क्या कर लूँगा? पर प्रेमा, किसी तरह तुम्हें अच्छा कर सकूँ तो-

पुरुष एकदम चुप हो गया । रतन ने फिर झांककर देखा-प्रेमा का एक हाथ पुरुष के कन्धे पर था और दूसरा शायद उसके ओठों को छूने की कोशिश कर रहा था । रतन फिर पीछे को हट गया, और शून्य की ओर देखने लगा ।

पुरुष का स्वर फिर बोला-'प्रेमा, अगर चोरी करके, या लूटकर तुम्हें अच्छा भी कर लूंगा तो भी सुखी नहीं होऊंगा । मुझे लगता है-'

थोड़ी देर रुककर फिर-'शायद हमारे मन में पाप का झूठा डर होता है-डर ही से पाप बनते हैं । पर जाता भी नहीं वह! मैं जा न देकर तुम्हें अच्छा कर -दूँ' इस बीच में स्वर फिर रुक गया, मानों किसी के मुँह के आगे हाथ रख दिया हो-पर एक छोटी-सी चोरी नहीं होती ।'

एक शब्द सुनकर रतन ने फिर भीतर झाँककर देखा । पुरुष उठकर खड़ा हो गया था । एक हाथ से सिरहाना पकड़ते हुए, दूसरे से अपना माथा, वह सिर उठाकर छत की ओर देख रहा था । एकाएक उसने कहा-'भगवन् ।' उसके हाथ शिथिल-से हो गये, कन्धे लटक गये और वह एक ओर को हटने, लगा । तभी प्रेमा ने हाथ बढ़ाकर, गर्दन जरा मोड़कर, आर्द्रस्वर से पुकार कर कहा-मेरे पास आओ ।' गर्दन मोड़ने से दिये का पूरा प्रकाश उसके मुंह पर चमक उठा ।

एक जरा-सी बात से मानो रतन का हृदय हजारों और करोड़ों बरसों का व्यवधान पार कर गया-एक ही बहुत बड़ी-सी धड़कन में वह रतन का हृदय न रहकर उस आदम का हृदय हो गया, जो अपने पाप के लिये दण्ड पाकर अंधियारे में अपनी आदिम प्रेयसी को खोज रहा था-और उसे लगा कि सारा संसार उस स्त्री की आवाज में चीख कर पुकार उठा है, 'मेरे पास आओ -उस स्त्री की, जो सुन्दरी नहीं है, लेकिन जिसकी उस दृष्टि के लिए रतन एक बार नहीं - हजार बार चोरी कर सकता और दण्ड भी भुगत सकता!

रतन ने अपने को संभालने के लिए झरोखे का चौखटा पकड़ लिया- और फौरन ही छोड़ दिया । जिस हाथ से उसने चौखटा पकड़ा था, उसी में नोटों और रुपयों की पोटली थी ।

रतन ने एक बार उस पोटली की ओर देखा, एक बार प्रेमा की ओर, एक बार उस पुरुष की ओर, फिर धीरे से कहा-'नालायक!'

फिर उसने पोटली झरोखे में रख दी । एक बार चारों ओर झांक कर देखा, और लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ वहाँ से हट गया ।

( ३)

रतन का शरीर ढीला पड़ गया । वह इस हद तक खुश भी हो गया कि किसी किस्म की कोई फिक्र उसके मन में न रही । एक हलवाई की दूकान के बाहर पड़ा तख्त देखकर वह रुक गया । तख्त पर बैठकर उसने अपने गीले जूते उतारे, उन पर अपनी चादर का एक छोर रखकर, इस तकिये पर सिर रखकर लेट गया । बाकी चादर अपने ऊपर ओढकर वह अकाश की ओर देखने लगा ।

तारे थे । बहुत साफ नहीं दिखते थे, धुन्ध के कारण कभी छिप भी जाते थे, पर थे । कभी पांच, कभी चार, कभी आठ दस-वे दिखते और मिट जाते थे । मिटते और फिर: दिखने लगते । धुन्ध के इस खेल में मानो रतन भी घुलने लगा । उसकी आंख लग गई ।

नालायक वह?

चौंककर रतन उठ बैठा । क्या उसने कुछ देखा, या कुछ सोचा, या, कुछ याद आ गया? कोड़े की मार से आहत-सा वह उठ बैठा ।

नालायक वह? और मैं नहीं नालायक, जिसने एक तो चोरी की, दूसरे अपनी बहन को भुलाया और तीसरे हाथ आई हुई दौलत फेंक दी?

चोर । दस नम्बर का बदमाश । और-बेवकूफ !

चोरी मैंने किसलिए की थी? क्या यशोदा के लिये? क्या चोरी करने ही के लिए नहीं की मैंने चोरी? और फिर रुपये वहां क्यों पटक आया? उस आदमी को दे आया जो-जो प्रेमा को मरती देख सकता है और हाथ पैर नहीं हिलाता?

उसका कुछ उसूल तो था । नहीं करता चोरी, तो नहीं करता । फिर चाहे

कोई मर जाय । कुछ बात तो हुई ।

प्रेमा की शक्ल यशोदा से मिलती थी । झूठ-प्रेमा तो ऐसी कुरूप थी । लेकिन उसका गर्दन मोड़कर पुकारना-यशोदा भी तो ऐसे पुकार उठती थी जब मैं पास नहीं होता था!

मेरे पास फिर रुपये आते, मैं फिर दे देता-सौ बार दे देता । हाँ, क्यों नहीं दे देता । चोरी के ही तो थे रुपये । चोरी के रुपये से पुण्य कमाना चाहता हूँ । कुछ कमाकर दिये होते, तब भी बात होती ।

दिये भी कब मैंने यशोदा की याद को? मैंने प्रेमा को दिये, प्रेमा की आंखों को दिये, उस प्रेमा को, जो मेरी बहन नहीं, किसी दूसरे की घरवाली है । पाप को दिये ।

लेकिन प्रेमा सुन्दरी कब थी? पाप करने में भी अक्ल खर्च होती है । मैंने रुपये फेंक दिये । नालायकी की । बेवकूफी की । चोरी तो की थी, पकड़ा भी नहीं गया था । रुपये काम आते । अच्छी तरह रहता, मौज करता, दुनिया को दांत दिखलाता, उस बुच्ची दाढ़ी वाले सिपाही को दांत दिखाता, सब की ऐसी की तैसी करता, जो मुझे दस नम्बर का बदमाश समझते हैं । और जब चुक जाते तब जेल तो कहीं गया ही नहीं था। शायद बच भी जाता ।

लेकिन प्रेमा की आँखें वैसी क्यों थीं?

नहीं थीं आँखें। रतन ही अन्धा था, अन्धा है । लेकिन...

गलियों में चक्कर काटते हुए रतन ने फैसला कर लिया कि वह लौटकर जायेगा और अपनी पोटली वहाँ से उठा लायगा जहाँ उसे छोड़ आया था । अभी रात खत्म नहीं हुई थी-अभी पोटली किसने उठा ली होगी? दिन निकलने के बाद, बल्कि और भी देर से, जब घर की सफाई होने लगेगी, तभी कोई उसे उठायेगा, यही सोचकर वह उल्टे पांव लौट पड़ा ।

 

लेकिन इन पिछले दो घण्टों में वह कितनी गलियों में से होता हुआ भटक आया था, इसका उसे कुछ अनुमान नहीं था । वह याद करने की कोशिश करता, कहाँ से वह किधर को मुड़ा था, ताकि उसी रास्ते लौटे, लेकिन जिस भी गली को वह कुछ पहचान कर आगे बढ़ता, उसी में थोड़ी -दूर जाकर पाता कि वह तो कोई और ही रास्ता है, दाईं ओर को जो हरे किवाड़ हैं वे तो उसके रास्ते में नहीं आये थे, या बाईं ओर को जो बहुत बड़ा-सा साइनबोर्ड किसी वैद्य का लगा हुआ है वह तो उसने नहीं देखा था, और सामने की दीवार से जो बड़े-बड़े अक्षर मानो मुंह बाए अपने काले हलक से यह सूचना उगले दे रहे हैं कि अमुक तेल सब चर्मरोगों की अचूक दवा है, उसे देखकर कोई क्या भूल सकता? फिर भी मुट्ठियां भींच कर अपनी थकान को वश में कर लेने की कोशिश करता हुआ रतन चलता जा रहा था और सोच रहा था कि कभी तो वह झोपड़ी मिलेगी ही ।

धीरे-धीरे रात का रंग बदल चला । हवा में एकाएक शीतलता भी बढ़ गई और नमी भी, उस गीले स्पर्श से मानो एकाएक रात ने जान लिया कि वह नङ्गी है और लज्जित होकर, कुछ सिहरकर धुन्ध के आवरण में छिप गई । मैला-सा कुहासा रतन की नासाओं में भरने लगा, आखों में चुभने लगा, उसने एक बार आँख मलकर सामने देखा, फिर यह समझकर कि अब सवेरा होने वाला है और उस झोपड़े की तलाश बेकार है, वह एक ओर मुड़ने को हुआ ही था कि उसने देखा, उसकी बगल में वही मकान है जिसमें से उसने चोरी की थी।

वह अब पहचाने हुए पथ पर जल्दी-जल्दी झोपड़ी की ओर बढ़ने -लगा । चारों ओर कुछ अस्पष्ट-सा शोर था-शहर जाग रहा था । ऐसे समय कोई आता-जाता किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं करेगा, यह सोचकर रतन चढ़ा जा रहा था ।

झोंपड़ी से कुछ दूर पर ही कोलाहल सुनकर रतन ठिठक गया । आँखें सिकोड़कर सामने देखकर उसने पहचाना । आगे' भीड़ लग रही है ।

चोरी का पता लग गया है और चोर भी पकड़ा गया है ।

रतन स्तंभित रह गया ।

लेकिन फौरन ही एक विद्रूप की लहर-सी उस पर छाई-बहुत: ठीक हुआ । यही होना चाहिए था । साले में इतनी हिम्मत नहीं थी प्रेमा की जान बचाये-चोरी करने से डरता था! मेरी चोरी का माल उसे पचता कैसे-भुगते अब!

प्रेमा की आँखें-मैंने चोरी करके अपनी जान जोखिम में डाली थी, उसका फल वह कैसे लेता? वह तो नालायक है, बेवकूफ है-हिजडा है! चोर पकड़ा गया है, चोरी की सजा काटे । प्रेमा का पति होने का दावा करता है-प्रेमा-का पति? यह?

रतन ने लपककर चौकी के सिपाही के हाथ से उस आदमी का हाथ छुड़ाकर, सिपाही को पीछे धकेलते हुए उद्धत और कर्कश स्वर में कहा, 'हटो तुम! चोरी मैंने की थी । वह पोटली मैं यहाँ भूल गया था और अब: लेने आया हूँ ।'

सिपाही हक्का-बक्का-सा हो गया । रतन की बाँह पकड़ने की कोशिश करते हुए किसी तरह उसने कहा-'तुम पागल हो क्या ?' लेकिन इससे पहले कि रतन अपने भिचे हुए दाँतों में से पीसकर कहे-'हां, हूँ पागल !' उस सिपाही की आंखों में पहचान की एक बिजली-सी दौड़ गई और उसने एकदम से अपनी' बुच्ची दाढ़ी लटकाकर ढीले मुंह से कहा- 'अच्छा, तुम !'

--

(डिजिटल लाइब्रेरी ऑफ इंडिया से साभार)

COMMENTS

BLOGGER
नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: कहानी / नम्बर दस / सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन
कहानी / नम्बर दस / सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwxVeWCS2RnFRKK4hqRDrEoXgAYv_OCfgwhlunkGbd1XtUKwsFcynAEyRp6El_pk-AwBRPKQetBUsm0y312Ay5KWAMRR471P3eOgWA02vdOJwiYkcQp3087Jr0-OJ7_Segv3zM/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhwxVeWCS2RnFRKK4hqRDrEoXgAYv_OCfgwhlunkGbd1XtUKwsFcynAEyRp6El_pk-AwBRPKQetBUsm0y312Ay5KWAMRR471P3eOgWA02vdOJwiYkcQp3087Jr0-OJ7_Segv3zM/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/07/blog-post_32.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/07/blog-post_32.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content