आलेख सातवें वेतन-आयोग के व्याज से डॉ. रामवृक्ष सिंह खबर है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर इस वर्ष के आरम्भ से, पूर्व-व्यापी प्रभाव ...
आलेख
सातवें वेतन-आयोग के व्याज से
डॉ. रामवृक्ष सिंह
खबर है कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों पर इस वर्ष के आरम्भ से, पूर्व-व्यापी प्रभाव से अमल होगा। अगस्त माह का वेतन नये वेतनमान के अनुसार मिलेगा। इस समय देश में केन्द्र सरकार के कर्मचारियों और पेंशन-भोगियों की सम्मिलित संख्या लगभग एक करोड़ है। देश के लगभग सभी राज्य इसी तर्ज़ पर वेतन-संशोधन करेंगे। लिहाज़ा लाभग्राही सरकारी कर्मचारियों की संख्या कई करोड़ हो जाएगी। आयोग की सिफारिशों में अन्य बातों के साथ-साथ यह भी कहा गया है कि कर्मचारियों की पदोन्नति और वेतन-वृद्धि अब ‘अच्छा’ नहीं, बल्कि ‘बहुत अच्छा’ काम करने पर ही मिलेगी।
अपने निजी अनुभव के आधार पर हम कह सकते हैं कि सरकारी विभाग जो सेवाएं देते हैं, वे प्रायः निम्नस्तरीय और अकुशलता-युक्त होती हैं। सरकारी विभागों में व्यापक पैमाने पर भ्रष्टाचार, कामचोरी और अदक्षता का बोलबाला है। आलम यह है कि आज अच्छे घरों के ज्यादातर सुरुचि-संपन्न, प्रतिभावान बच्चे सरकारी नौकरी के बजाय प्राइवेट नौकरी को तरज़ीह देते हैं। यह भी सच है कि जन-सेवाओं में संलग्न बहुत-से सरकारी विभाग केवल इसलिए कायम हैं, क्योकि उन सेवाओं में सरकार की मोनोपॉली है। यदि उपभोक्ताओं को कोई और विकल्प उपलब्ध करा दिया जाए तो वे सरकारी विभाग से सेवा लेना बंद कर दें।
बीएसएनएल, एमटीएनएल और कुछ राज्यों के बिजली विभाग इसका ज्वलन्त उदाहरण हैं। एक ज़माना था जब सरकारी टेलीफोन कनेक्शन के लिए बरसों लम्बी लाइनें लगती थीं। लाइनमैन लोग उपभोक्ता के साथ मनमानी करते थे। उनकी ऊपरी कमाई खूब थी। स्व. जसपाल भट्टी ने तो टेलीफोन सेवा और लाइनमैन की अक्षमता व भ्रष्टाचार पर पूरा एक टीवी-एपिसोड ही तैयार कर दिया था। जैसे ही दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों का आगमन हुआ, दूरसंचार सेवाएं न केवल सस्ती हो गईं, बल्कि उनमें कार्य-कुशलता भी बढ़ गई। अहमदाबाद के अपने छह वर्ष के प्रवास में इन पंक्तियों के लेखक को केवल एक बार बिजली जाने जैसी स्थिति का सामना करना पड़ा, वह भी राष्ट्रीय ग्रिड के विफल होने के कारण। वहाँ इन्वर्टर का कोई बाज़ार नहीं है, क्योंकि बिजली जाती ही नहीं। उन दिनों अहमदाबाद की विद्युत आपूर्ति-सेवा टाटा की कंपनी टॉरेंट के पास थी। मुम्बई में टेलको को यह जिम्मा मिला है। इन निजी कंपनियों की सेवा और देश के अन्य शहरों में सेवारत सरकारी कंपनियों की सेवा का अन्तर उपभोक्तागण खुद देख सकते हैं।
रेलवे का उदाहरण देकर इस धारणा की और भी भली भांति पुष्टि हो सकती है कि सरकारी सेवाएं अकुशलता, भ्रष्टाचार, बेईमानी और अक्षमता का पर्याय हैं, केवल कुछ अपवादों को छोड़कर। रेलवे की टिकटें अब 120 दिन पहले से बुक होना शुरू हो जाती हैं। देश के बहुत-से नागरिक अब भी इस नियम से परिचित नहीं हैं। हमारे नेता लोग अख़बार के पहले पेज पर अपनी बड़ी-बड़ी तस्वीरें छपवाते हैं, गोया देश की जनता उन्हें पहचानती नहीं और तस्वीर छपने पर और अच्छे से पहचानने लगेगी। नेताजी की तस्वीर पहले पेज पर छपने से उपभोक्ता को क्या लाभ होता है? क्यों नहीं रेल मंत्रालय अपने इस नए बुकिंग नियम के लिए देश के सभी अखबारों के पहले पेज पर विज्ञापन देता? बल्कि होना तो यह चाहिए कि समाचार पत्रों, टेलीविज़न आदि पर हर दिन यह सूचना रेलवे द्वारा दी जाए कि यात्रीगण यदि अमुक-अमुक तारीख को (यानी आज से 119 दिन बाद) रेल यात्रा करने की योजना बना रहे हों तो आज से आरक्षण की सुविधा का उपयोग कर सकते हैं। किन्तु ऐसा कोई प्रयास रेलवे की ओर से नहीं होता। यात्री 120 दिन यानी चार महीने पहले से टिकट कटाकर बैठ जाए। इस बीच उसकी योजना बदलेगी तो टिकट निरस्त कराना होगा, जिसके लिए अब मोटा शुल्क वसूला जाता है। सेवा का उपयोग 120 दिन बाद होगा, किन्तु हमने दाम आज ही चुका दिया। इस अवधि के लिए रेलवे क्यों नहीं संबंधित उपभोक्ता को कुछ रियायत/ ब्याज देता?
बहुत-सी रेलगाड़ियाँ सुपर-फास्ट की श्रेणी में रखी गई हैं। इस नाते उनमें यात्रा करने पर ज्यादा राशि किराए के रूप में अदा करनी होती है। किन्तु प्रायः ये गाड़ियाँ लेट होती हैं। रेलवे स्टेशन पर बड़े अजीब-अजीब तरीके की उद्घोषणाएं होती हैं, जिनमें यही पता नहीं चलता कि कौन-सी गाड़ी के बारे में क्या बताया जा रहा है। गाड़ी पाँच घंटा लेट होती है, किन्तु उद्घोषणा में कभी यह खुलासा नहीं किया जाता। हर बार लेट होने की अवधि आधा-आधा घंटा बढ़ाते चलते हैं। यात्री बुद्धू की तरह इन्तज़ार करता रहता है। अपनी इस अक्षमता और अकुशलता के बावज़ूद रेलवे कभी भी सुपर-फास्ट प्रभार यात्रियों को लौटाता नहीं। लखनऊ से नई दिल्ली के बीच चलनेवाली गोमती एक्स्प्रेस अकसर दो-तीन घंटे और कभी-कभी पाँच-छह घंटे लेट रहती है। ऐसी सैकड़ों गाड़ियाँ इस देश में चल रही हैं। तब भी इन्हें सुपर-फास्ट की श्रेणी में रखा जाता है। इस तथ्य को जानते हुए भी रेलवे अपने यात्रियों से इन लेट होनेवाली गाड़ियों के लिए सुपरफास्ट प्रभार क्यों वसूलता है?
बहुत-से सरकारी विभागों के पास कोई नियमित काम नहीं होता। जनगणना विभाग, निर्वाचन आयोग आदि ऐसे ही विभाग हैं। मेरे मुहल्ले में कुछ लोग रात-दिन ताश खेलते थे। एक दिन उत्सुकता-वश मैंने किसी से पूछा कि ये लोग कहीं काम करने नहीं जाते तो इनका घर कैसे चलता है। पता चला कि वे लोग जनगणना विभाग में हैं। ज़ाहिर है, जनगणना का काम तो दस वर्ष में एक बार ही होता है। भोपाल प्रवास के दौरान मुझे पता चला कि वहाँ का जनगणना निदेशालय आस-पास के राज्यों की जनगणना रिपोर्टें मँगाकर उनसे कई प्रकार के निष्कर्ष निकालता है, और बहुत-से सांख्यिकीय आँकड़े देश को उपलब्ध कराता है। लेकिन क्या सभी राज्यों के निदेशालय यही करते हैं?
लखनऊ में एक प्राधिकरण है। उसने हजारों की संख्या में फ्लैट तैयार कराए हैं। किन्तु इनमें से लगभग 60-70 प्रतिशत फ्लैटों के खरीददार ही नहीं मिल रहे। कारण? सरकारी प्राधिकरण के बनवाए फ्लैटों का क्या भरोसा, कब धराशायी हो जाएँ! यहाँ पोलिटेक्नीक के पास एक उड़न-पुल यानी फ्लाइ-ओवर है। (उड़न-पुल शब्द मैंने ममता कालिया की एक पुस्तक में हाल ही में पढ़ा)। उस पुल पर एक ट्रक खराब हो गया। पहिया बदलने के लिए ड्राइवर ने ट्रक के नीचे जैक लगा दिया। देखते क्या हैं कि जैक के आसपास के काफी बड़े हिस्से का कंक्रीट टूट गया, जिससे सड़क में बहुत बड़ा छेद हो गया। मजबूरी में पूरा पुल बन्द करके मरम्मत करानी पड़ी। सरकारी काम और सरकारी विभागों का यही हाल है।
अब हम मूल बात पर आते हैं कि सातवें वेतन आयोग की सिफारिशों के अनुसार अब सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति और वेतन-वृद्धि बहुत अच्छी रिपोर्ट मिलने पर भी मयस्सर होगी। हमारा विनम्र निवेदन है कि इसमें एक व्यवस्था और जोड़नी चाहिए। वस्तुतः किसी सरकारी कर्मचारी, विभाग अथवा प्राधिकरण ने अच्छी सेवा दी, बहुत अच्छा काम किया, इसका आकलन तो वास्तविक उपभोक्ता ही कर सकता है। ऊँट और गधे की तरह यदि हम आपस में ही एक-दूसरे के रूप और स्वर का संधान करने लगे तो ‘अहो रूपं-अहो वाणी’ वाला दृष्टान्त बार-बार दुहराया जाएगा। किसने अच्छी सेवा की, किसने नहीं, इसका आकलन उपभोक्ता को करने दीजिए। इस आकलन के लिए कोई व्यवस्था कीजिए।
मसलन बैंकों में काउंटर पर बैठे क्लर्क/कैशियर और उसके पीछे बैठे अधिकारी की सेवा की गुणवत्ता, पटुता, दक्षता उनकी सेवा-परायणता के सबसे प्रामाणिक आकलन-कर्ता उनके ग्राहक ही हो सकते हैं, न कि केबिन में बैठने वाले उनके उच्चाधिकारी अथवा नियंत्रक कार्यालयों में बैठनेवाले कार्यपालक। कोई रेल समय से आई या नहीं, समय पर पहुँची या नहीं, अटेंडेंट ने जो बेडरोल दिया वह धुला था या नहीं, टॉयलेट साफ था या नहीं, एसी ठीक से चला या नहीं, टिकट काउंटर पर बुकिंग क्लर्क ने तत्परता से सेवा दी या नहीं, यह सब तो यात्री ही सही-सही बता सकते हैं। ये सब सेवाएं देने वाले जो-जो कर्मचारी हैं, उनकी रिपोर्टें यात्री नहीं भरते। रिपोर्टें भरते हैं कर्मचारियों के बॉस। और अच्छी रिपोर्टें केवल कार्य-निष्पादन पर आधारित नहीं रहतीं। प्रायः चापलूस, बेईमान और कामचोर कर्मचारी अपनी रिपोर्ट अच्छी लिखवाने में कामयाब रहते हैं, जबकि वास्तव में अच्छा काम करनेवाले लोग काम ही करते रह जाते हैं। क्यों नहीं, रेलवे हर यात्री से यात्रा-उपरान्त फीडबैक लेने की व्यवस्था करता? इससे रेलवे को अपनी सेवाएं सुधारने में बहुत मदद मिलेगी। साथ ही, किसे पदोन्नति और वेतन-वृद्धि देनी है, इसका आकलन करने में भी सुविधा हो जाएगी। यही व्यवस्था सभी सरकारी विभागों के संबंध में लागू की जा सकती है।
अतः हमारा विनम्र मत है कि प्रत्येक सरकारी विभाग और सेवा-प्रदायगी संस्थान में इस प्रकार की व्यवस्था होनी चाहिए। जो कर्मचारी सीधे-सीधे जन-सेवा में संलग्न हैं, उनकी कार्य-निष्पादन रिपोर्ट का अस्सी प्रतिशत हिस्सा ग्राहकों के फीडबैक पर आधारित होना चाहिए, और केवल 20 प्रतिशत आन्तरिक मूल्यांकन पर। जो सरकारी कर्मचारी सीधे तौर पर जनता की सेवा नहीं कर रहे, और साथी कर्मचारियों को सेवा दे रहे हैं, उनके काम का मूल्यांकन उन सभी साथी कर्मचारियों द्वारा किया जाए, जिनकी वे सेवा करते हैं। बॉस को अपने अधीनस्थों के कामकाज के मूल्यांकन में केवल बीस प्रतिशत का अख्तियार होना चाहिए। मास्टरों की रिपोर्ट छात्र और उनके अभिभावकों के फीडबैक पर आधारित हो। डाक विभाग, पुलिस, बिजली विभाग, नगर निगम आदि जन-सेवा-केन्द्रित कार्यों से जुड़े कर्मचारियों की रिपोर्ट वहाँ के नागरिकों से ली जाए।
प्रजातंत्र में अच्छे-बुरे, कुशल-अकुशल सबका गुजारा हो जाता है। सरकारी तंत्र पर तो यह बात और भी अच्छी तरह लागू होती है। किन्तु जो लोग ईमानदार, मेहनती और कुशाग्रबुद्धि हैं, जो पूरे मनोयोग से अपना काम करते हैं, तन-मन-धन से जन-सेवा में जुटे रहते हैं, अपनी डेस्क, विभाग और संस्था का काम पूरी तन्मयता से करते हैं, अच्छे परिणाम लाते हैं, उन्हें पदोन्नति, पारिश्रमिक और वेतन-वृद्धि के मामले में उन लोगों के ऊपर वरीयता दी जानी चाहिए जो पूरी व्यवस्था के ऊपर बोझ हैं, न काम करते हैं, न किसी को करने देते हैं। इस मायने में सातवें वेतन-आयोग की सिफारिशें निश्चय ही स्वागत-योग्य हैं।
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