एक समय शक्तिस्थान नामक एक गाँव में सोमदत्त नाम का एक धनाढ्य वणिक पुत्र रहा करता था. वह अत्यंत सुचरित, दयालु, परोपकारी और नेक-नियत तथा दानी ...
एक समय शक्तिस्थान नामक एक गाँव में सोमदत्त नाम का एक धनाढ्य वणिक पुत्र रहा करता था. वह अत्यंत सुचरित, दयालु, परोपकारी और नेक-नियत तथा दानी था. वह समय का पाबंद भी बहुत था, प्रत्येक कार्य समय पर निपटाना उसे अच्छी तरह आता था. प्रतिदिन सर्वप्रथम वह सुबह सुबह जगता और नित्य-क्रिया से निवृत्त होता फिर स्नानादि के लिये गाँव के निकट अवस्थित निर्मल सरोवर को जाता. पुनः स्नानादि के पश्चात सरोवर के बगल में अवस्थित मंदिर में जाकर कुछ पुष्प अपने आराध्य को समर्पित करता.
घर से सरोवर तक आने-जाने के क्रम में उसका गाँव के अन्य लोग से मेल-मिलाप भी हो जाता और उसी क्रम में वह निहायत जरूरतमंद लोगबाग के कुछ सहायता भी कर पाता. फिर जतन पूर्वक पूरा दिन अपने व्यापार-कार्य में मेहनत करता.उसके दिनचर्या का शुरुआत इसी प्रकार प्रतिदिन सकारात्मकता और नियमबद्ध तरीके से होता. उसके कुशल कार्य-व्यवहार और कड़ी मेहनत से उसके व्यापार में अधिकाधिक प्रगति हो रही थी.यद्यपि वह सब उसके उत्तम चरित्र और कड़ी मेहनत से संभव था, तथापि गाँव के कुछ लोग उसके प्रति ईर्ष्या रखते थे.
वह छिप-छिपकर सोमदत्त के अवनति हेतु अनेक जतन करते. किंतु उनके अकर्म से सोमदत्त के कार्य-व्यवहार, नियमबद्धता और कड़ी मेहनत करने की प्रवृत्ति में कोई कमी नहीं आती थी, जिससे उसका अहित होता. तब वे ईर्ष्यालु लोग आपस में मेलकर सोमदत्त के विरुद्ध उसकी नियमबद्धता भंग करने हेतु एक षड्यंत्र किया, जिससे उसका अहित सुनिश्चित था. अब सोमदत्त सुबह में जब स्नानादि हेतु सरोवर के तरफ निकलता तो वह सब एक समूह बनाकर उसके वहाँ से गुजरने की प्रतीक्षा कर रहे होते.
सोमदत्त जब उसके पास से गुजरता तब उनमें से एक सोमदत्त के कान फूँकने निमित्त ऊँची आवाज में कहता,"देखो, ईश्वर ने उसे कितना कुछ दिया, किंतु वह कहीं आने-जाने, सैर-सपाटा और यात्रा करने के लिये एक घोड़े का पालन-पोषण भी नहीं कर सकता."
इस पर दूसरा व्यक्ति ऊँचे स्वर में जवाब देता," अरे जानते नहीं कि एक कंजूस और एक कुत्ता में कितना अंतर होता है! एक प्यासा कुत्ते को यदि प्यास बुझाने निमित्त किसी नदी का तट भी नसीब हो जाये तब भी वह अपनी प्यास जीभ से चाट-चाटकर ही बुझाता है."
इस पर उन षड्यंत्रकारी लोगों से थोड़ा दूर खड़ा तीसरा षड्यंत्रकारी (व्यक्ति) सोमदत्त को आवाज देकर अपने पास बुलाता और कहता,"तुम्हें इस तरह पैदल चलना सचमुच शोभा नहीं देता. तुम्हें एक घोड़ा आवश्य ही पलना चाहिये था, जिससे तुम्हारे सम्मान में वृद्धि होती और तुम्हारा सैर-सपाटा करना भी अधिक आरामदेह और बेहद आनंद दायक होता.फिर उससे व्यापार का सामान ढुलाई का बहुत सारा काम भी ले सकते थे."
कई सुबह भिन्न-भिन्न व्यक्ति (षड्यंत्रकारी) से ठीक वही प्रतिकृति (घटनाओं का दुहराव) प्राप्त होने से सोमदत्त ने मन में यह निश्चय किया कि उसे सचमुच एक घोड़ा का पालन करना चाहिये. जब उन दुष्टों को सोमदत्त का घोड़ा-पालन करना स्वीकार करने से संबंधित खबर प्राप्त हुई तो उन्होंने सोमदत्त को यह सुक्षाव दिया कि उसे घोड़ा पालन करने से अधिक उपयुक्त हाथी का पालन करना रहेगा. हाथी पालन करने से उसे सैर-सपाटा करने में अधिक आनंद और अत्यधिक सम्मान की प्राप्ति होगी. फिर हाथी से सामान की अधिक ढुलाई भी संभव है."
उस षड्यंत्र में फँस कर अंततः सोमदत्त हाथी पालन करने हेतु भी तैयार हो गया. जब वह हाथी खरीदने गया तो एक वयस्क हाथी का कीमत उसके क्रय-शक्ति से कहीं अधिक थी. तब उसने वैसा सोचकर कि कुछ दिन अधिक सावधानी से पालने के पश्चात वह एक अच्छा वयस्क बन ही जायेगा, हाथी का एक बच्चा ही खरीद लिये. वह उस नन्हे हाथी का अधिक जतन से पालन करने लगा. हाथी बुद्धिमान प्राणी होता है और वह नन्हा और कोमल हाथी भी वैसा ही था.धीरे-धीरे वह नन्हा सा कोमल हाथी सोमदत्त के साथ बिलकुल घुल-मिल गया.
अब सोमदत्त स्नानादि के लिये सरोवर जाता तो अपने साथ उस नन्हे से कोमल हाथी को भी ले जाता. नन्हा हाथी भी सरोवर में स्नान कर अधिक प्रसन्न होता और सोमदत्त से प्यार से लिपट जाता. फिर दोनों एक-दूसरे से प्यारी-प्यारी बातें कहता. नन्हा हाथी सोमदत्त की सारी बात और संकेत अच्छी तरह समझने लगा था.अब सोमदत्त नित्य सुबह नन्हे हाथी के साथ सरोवर जाता तो वे दुष्टजन सोमदत्त की भूरी-भूरी प्रशंसा करते, जिससे सोमदत्त की छाती गर्व से फूल जाता.
कुछ दिन तो वैसा ही सब कुछ ठीक-ठीक चलता रहा. किंतु थोड़े दिन में हालात बिलकुल बदल गये. अब वे दुष्टजन अपने वास्तविक स्वभाव के अनुरूप पुनः कार्य-व्यवहार करने लगे. वह लठ लेकर अपने-अपने घर के छप्पड़(मँड़ई का छत) पर बैठे रहते और बेसब्री से सोमदत्त का स्नानादि से निवृत होकर उस रास्ता से वापस लौटने की प्रतीक्षा करते. सोमदत्त जब स्नानादि से निवृत होकर अपने नन्हें हाथी के साथ उन दुष्ट के घर के सामने से गुजरते तो वह अपने छप्पड़ पर अंधाधुंध लठ बरसाने लगते.
वैसा करने से छप्पड़ का कूड़ा-कचरा सोमदत्त के शरीर पर गिरता जिससे उसका शरीर गंदा हो जाता.यदि सोमदत्त उसे वैसा करने से मना करता तो वह जवाब देता कि उसे क्या, वह तो अपने घर की छप्पड़ उजाड़ रहा है. उसके घर के छप्पड़ उजड़ने से सोमदत्त के क्या परेशानी? यदि सोमदत्त कभी उसके कृत्य को नजर-अंदाज कर बिना प्रतिरोध किये निकल जाता तो वे दुष्टजन स्वयं ही उसका रास्ता रोककर कहते कि हाथी तुमने पाला है और उसे भूखा रखकर छप्पड़ औरों का उजड़वाता है? इस प्रकार प्रतिदिन वे दुष्टजन सोमदत्त से बेवजह झगड़ने लगे.
नित्य-प्रति की बेवजह झगड़ा से सोमदत्त का धैर्य कमजोर पड़ने लगा. पुनः काफी प्रयत्न करने के वावजूद उन दुष्टों के कृत्य का प्रतिरोध करने हेतु वह सामाजिक मध्यहस्ता पाने में भी असफल रहा.इससे वह अत्यधिक हताश हुआ. हताशा और धैर्य में निरंतर होती कमी की वजह से अब वह यदाकदा थोड़ी सी बात पर अन्य ग्रामीण से भी उलझ जाता और सामने पड़ने वाले पर अपने मन की भड़ास निकालता. इससे धीरे-धीरे अन्य ग्रामीण भी उससे खफा रहने लगे और समाज में उसकी बदनामी होने लगी. इससे उसका व्यापार भी प्रभावित हुआ.
हताशा, निराशा, धैर्य की कमी और आर्थिक स्थिति निरंतर कमजोर होने से वह बिलकुल परेशान रहने लगा. अब मौका पाकर कुछ पाखंडी भी अपना उल्लू-सीधा करने निमित्त उसे अंधविश्वास में ढकेलने का प्रयत्न करने लगे. उनलोगों ने सोमदत्त को बारंबार यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि वह नन्हा हाथी जो अब वयस्क हाथी में रूपांतरित हो चूका था, उसके लिये शुभ नहीं हैं. कारण पूछने पर वह सोमदत्त को केवल इतना बताते कि उस हाथी के कुछ आचरण ठीक नहीं हैं और धीरे से वहाँ से खिसक लेते. किंतु धीरे-धीरे वह बातें सोमदत्त के मन में कठिन शंका उत्पन्न कर दिये.
एक सुबह जब सोमदत्त अपने हाथी के साथ स्नानादि हेतु सरोवर गया तो सरोवर का शीतल जल देखकर हाथी प्रसन्न होकर शीघ्र ही सरोवर में प्रवेश कर गया. किंतु चिंतातुर सोमदत्त सरोवर किनारे ही बैठा रह गया. हाथी सरोवर के शीतल जल में स्नान करते हुये अति-आनंदित हो रहा था कि उसकी नजर सोमदत्त पर पड़ा जो सरोवर किनारे अभी तक चिंतातुर ही बैठा था. तब वह शीघ्र ही जल से बाहर आया. उसने सरोवर किनारे की धूलि अपने सिर पर रखे ततपश्चात अपने स्वामी को चिंता से उबारने हेतु यथायोग्य विभिन्न उपाय करने लगा.
किंतु सोमदत्त यह देख लिया था कि हाथी स्नान करने के पश्चात अपने सिर पर धूल रखा. अब उसे यकीन हो गया कि उसके हाथी के आचरण में यही त्रुटि है जो उसके सौभाग्य में अवरोध उत्पन्न करता है. अब उसने किसी योग्य पात्र को हाथी-दान करने का निश्चय किया, जिससे इस हाथी का त्याग करना संभव हो और हाथी-दान का पूण्य-लाभ भी प्राप्त हो. उसने प्रसन्न होने का स्वांग रचते हुये हाथी को अपनी प्रसन्नता का भरोसा दिलाया और स्वयं स्नान करने चला गया. स्नानादि पश्चात वह दोनों वापस लौट गये.
अगले दिन सोमदत्त अपने निश्चयानुरूप एक ब्राह्मण को अपना हाथी दान किया. हाथी दान के पश्चात उसे मानसिक शांति का अनुभव हुआ कि अब दान के पूण्य लाभ और कुसंस्कारी हाथी का त्याग करने से उसका सौभाग्य वृद्धि होगा. किंतु वैसा न होना था और ना हुआ. उधर हाथी का हालात भी अब बिलकुल वैसा ही था, जैसा दान में प्राप्त अन्य वस्तुओं की होती है. मुफ़्त, उधार और दान इन तीन चीज से प्राप्त वस्तु-संपदा की बिलकुल एक ही गति होती है. उपेक्षित हाथी सोमदत्त का प्यार पाने हेतु बिलकुल बेचैन था, किंतु बदले में उसे प्रताड़ना-स्वरूप अंकुश से गहरा जख्म प्राप्त हो रहा था. इस तरह हाथी बिलकुल अस्वस्थ हो गया.
हाथी के अस्वस्थता के सम्बंध में जब सोमदत्त को पता चला तो उसके हृदय के किसी कोने में छिपी हाथी के प्रति उसका प्रेम पुन: अंकुरित हो गया. अतंत: उस ब्राह्मण के घर जाकर उसने हाथी से मिलवाने का आग्रह किया. इतना सुनते ही सर्वप्रथम तो ब्राह्मण ने उसे झिड़की दिया कि दान में बीमार हाथी देकर उसने "कानी गाय ब्राह्मण को दान करने" सा समचरितार्थ कृत्य किया है.तदुपरांत उसे हाथी के निकट ले गया. हाथी भूमि पर बिकल पड़ा था. किंतु उसने सोमदत्त के पदचाप सुनकर अपना सूड़ हवा में लहराते हुये आवाज लगाई.
हाथी बिलकुल अस्वस्थ था और अपना शरीर तनिक भी हिला नहीं पा रहा था. जब सोमदत्त हाथी के सामने आया तो हाथी के आँखों से अविरल अश्रु धारा बह चली. जंजीर से बंधे हाथी के शरीर और सिर पर अनेक गहरे जख्म थे. सोमदत्त दौड़कर हाथी से लिपट गया और रोते हुये पूछा,"तुम्हारे साथ यह सब क्या हुआ!"
"सब कुछ वही हुआ जो विवेकशीलता त्यागने और अतिशय प्रेमरूपी मोह में पड़ने से प्रत्येक जीव का प्रारब्ध होता है."हाथी धीमे स्वर में बोला.
"नन्हे (हाथी) मुझे क्षमा करो. मेरी गलती की वजह से तुम्हारी यह हालात हुई. किंतु मैं मजबूर था. काश, स्नान करने के पश्चात न तुम अपने सिर पर धूल रखते और ना तुम्हारा वह कृत्य मेरे सौभाग्य हेतु अवरोधक होता जिससे मैं तुम्हारा त्याग करने हेतु विवश हुआ. तब तुम्हें यह कुदिन भी शायद देखने न होते." सोमदत्त व्याकुल होकर बोला.
"क्या तुम्हें तुम्हारा सौभाग्य पुनः प्राप्त हुये?" हाथी दर्द से कड़ाहते हुये पूछा. किंतु सोमदत्त के पास उसके प्रश्न के कोई समुचित जवाब न थे. तब हाथी पीड़ा-युक्त हँसी-हँसते हुये बोला,"सचमुच,प्रतीत होता है कि अंधविश्वास में फँसा पड़ा व्यक्ति अपने प्राण संकट में देखकर भी स्वयं उससे निवृति नहीं पा सकते."
थोड़ा ठहर कर हाथी पुनः भाव विह्वल होकर कहने लगा,"कदाचित इसमें अकेला तुम्हारी कोई गलती नहीं है. बल्कि प्रत्येक वह संसारिक प्राणी यह गलती कर बैठते हैं, जिसमें विवेक की मात्रा अल्प होती हैं. वास्तव में किसी प्राणी में क्षमा, दया, तप, त्याग, बल-पौरुष एवं धैर्य भले ही सीमित हों, किंतु प्रत्येक प्राणी के जीवन में असीमित विवेक होना ही चाहिये. परंतु दुर्भाग्यवश सभी में सबसे कम मात्रा में विवेक ही होते हैं."
"नन्हे, यह तुम क्या कहते हो? भला उस सम्बंध में मेरी क्या विवेकहीनता थी?" सोमदत्त अकुलाहट में पूछा.
"जिस प्रकार स्नानादि पश्चात सर्वप्रथम एक आस्तिक अपने आराध्य की उपासना करना और कर्मवादी अपना कर्म करना जैसे अधिक उपयुक्त समझते हैं, उसी प्रकार हाथी अपने मातृ भूमि के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने और उसकी आराधना करने निमित्त वैसे ही सर्वप्रथम अपने सिर पर धूल धारण करता है. जिस प्रकार कुछ असफलता प्राप्ति के पश्चात भी एक कर्मवादी अपने कर्म का त्याग नहीं करते, अनेक संसारिक कष्ट पाने के वावजूद एक आस्तिक अपने आराध्य से विमुख नहीं होते और वे कभी संसार में विद्यमान दुष्टजन के प्रति भी प्रतिशोध की भावना नहीं रखते अर्थात दुष्ट के प्रति सदैव उदासीन रहते हैं, वैसा ही सम्बंध हाथी और मातृ भूमि के चरण स्वरूप धूल का है. भले उस क्रम में धूल में विद्यमान दुष्टरूपी चींटी और दीमक उसके सूड़ में प्रवेश कर उसे व्याकुल क्यों न कर दे."हाथी बोला.
"नन्हे, मुझ पर विशेष कृपा करते हुये मुझे माफ़ कर दो. मुझसे सचमुच तुम्हारे प्रति बहुत बड़ी गलती बन गयी है." सोमदत्त गिड़गिड़ाया.
"मित्र, तुम्हारी कुछ गलती बनती तब तो तुम्हें क्षमा चाहिये होता? किंतु यह सब तो अल्प विवेक की वजह से हुई है. कदाचित अल्प विवेक की वजह से ही धूल धारण करने से सम्बंधित तुम्हारे शंका का समाधान स्वतः नहीं हुये, पुनः अल्प विवेक ही तुम्हें उस समय तक अपना शंका मेरे समक्ष रखने से रोकता रहा और अंततः मेरे विदाई के समय तक भी वही स्थिति बनी रही." हाथी गहरी साँस लेता हुआ बोला.
"नन्हे, अभी जो तुमने यह कहा कि वास्तव में प्रत्येक प्राणी के जीवन में असीमित मात्रा में विवेक ही होना चाहिये और क्षमा, दया, तप, त्याग, बल-पौरुष एवं धैर्य भले ही सीमित मात्रा में हो, उससे क्या आशय है?" सोमदत्त पूछा.
हाथी लंबी साँस लेता हुआ बोला,"वास्तव में विवेक के अतिरिक्त अति अर्थ का संक्रमण करने वाला प्रत्येक संसारिक वस्तु अनिष्टकारी होते हैं. अत्यधिक क्षमाशीलता से दुष्टता के बीज का संरक्षण होता है और वह अविवेक अथवा कायरता के विशेष लक्षण हैं. क्षमाशीलता की अल्प मात्रा भी अविवेक और दुष्टता के लक्षण हैं. इसी प्रकार ईश्वर के सम्बंध में अत्यधिक समय चिंतन करनेवाला मनुष्य लक्ष्य से भटक कर वहमी-नैराश्य और उसकी अल्पता से क्रूर और दंभी बन जाते हैं. अत्यधिक दया दूसरे को कर्महीन और उसकी अल्पता स्वयं को निरंकुश बना देता है. अत्यधिक तप चेतनाहीन खारे समुद्र का निर्माण करता है और अल्पता चेतना रहित छिछली तलैया का."
थोड़ा ठहर कर हाथी पुनः बोला,"अत्यधिक त्याग दूसरे को लापरवाह बनाता है उसकी अल्पता स्वयं के नाश का कारण बनती है. अत्यधिक प्रेम जीव को मोह पाश में बांधता है और अल्पता जीवन की सार्थकता छीन लेती है. अत्यधिक दान संसार में पाप वृद्धि कराता है और अल्पता संसार के शुभ कर्म में अवरोधक होता है. इसी प्रकार अत्यधिक धैर्य सुअवसर का हरण करता है और अल्पता जीवन की ऊर्जा शक्ति छीन लेती है. किंतु इन सभी चीजों का नियंत्रण गंभीर विवेक ही से संभव है. इसीलिये प्रत्येक प्राणी के जीवन में असीमित मात्रा में विवेक ही होना चाहिये."
"नन्हे, मैं ने तुम्हारा त्याग कर बहुत बड़ा अपराध किया है. अब मैं तुम्हें यहाँ से निश्चय ही मुक्त करवाकर अपने साथ ले जाऊँगा." सोमदत्त अब विकल हो गया था.
हाथी अपना सूड़ हवा में लहराते हुये ऊपर की तरफ इशारा करते हुये बोला,"मित्र, ईश्वरांश यह जीव मोहादि में लिप्त इस भाग्यहीन शरीर से कब तक बंधा रहेगा? यह जीव इस शरीर से बंधकर पहले तो अपने प्रभु से दूर हुआ, जन्म पश्चात शिकारी के हाथ पड़कर अपने वनजीव समाज और गृह-स्थल जंगल से दूर रहा.फिर तुम्हारे जैसे परम् मित्र की असहनीय दूरियाँ भी सहन किये. किंतु तुम्हारे प्रति अत्यधिक प्रेम के मोह पाश में बंधे इस जीव को नेत्राभिलाषार्थ तुम्हारे दर्शन हेतु अभी तक इस शरीर ने मुक्त नहीं किये थे. अब तुम्हारे दर्शन हुये और यह अधम शरीर इस ईश्वरांश को मुक्त करता है." इतना कहते ही हाथी ने अपना प्राण त्याग दिया.
सोमदत्त अत्यंत नैराश्य भाव से वापस लौट गया. उक्त घटना ने उसके मनो-मष्तिष्क पर गहरा आघात पहुँचाया. उसका स्वास्थ्य तेजी से गिरने लगा और कुछ ही दिन में उसके प्राणांत हो गये. उसके अल्प विवेक ने उसके पीछे रोते-बिलखते और सहारा रहित होते उसके वृद्ध माता-पिता, पत्नी तथा छोटे-छोटे बच्चों को पितृ छत्र-छाया रहित होते छोड़ गया.(समाप्त)
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