सामाजिक समरसता के कवि नज़ीर अकबराबादी सालिम मियाँ, शोधार्थी, एएमयू अलीगढ़ मोबा.-812690039 ईमेल-smiyan786@gmail.com मनुष्य एक विवेकशील सा...
सामाजिक समरसता के कवि नज़ीर अकबराबादी
सालिम मियाँ, शोधार्थी, एएमयू अलीगढ़
मोबा.-812690039
मनुष्य एक विवेकशील सामाजिक प्राणी है जिसमें चिन्तन और अभिव्यक्ति की शक्ति सबल है। मानव अस्तित्व के अभाव में समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती । मनुष्य और समाज एक दूसरे के लिये आवश्यक हैं और एक दूसरे के पूरक भी । मनुष्य समाज की महत्त्वपूर्ण इकाई होने के कारण समाज का अभिन्न अंग है। ''मानव को समाज का निर्माता कहा जाता है तो दूसरी ओर उसे समाज की उपज कहने में भी कोई संकोच नहीं होना चाहिए। समाज मानव के लिये स्वाभाविक भी है और कृत्रिम भी क्योंकि मानव स्वभाववश समाज में रहता है वह सामाजिक प्राणी है। समाज में उसके व्यक्तित्व का विकास भी सम्भव है। आवश्यकताओं की पूर्ति एवं भाषा, शिक्षा और संस्कृति के आधार पर समाज को व्यक्ति के साधन के रूप में स्वीकार किया जाता है।''1
विश्व साहित्य को ध्यान से देखने पर ज्ञात होता है कि सभी महान साहित्यकारों के साहित्य में उनके अपने समय का समाज प्रतिबिम्बित होता है। साहित्य एक ऐसा महत्त्वपूर्ण साधन है जिसमें समाज विशेष की प्रगति तथा पतन की मनोस्थिति सभी कुछ देखी जा सकती है। जिन्सवर्ग के अनुसार -''समाज व्यक्तियों का वह समूह है जो किन्ही सम्बन्धों या तरीकों द्वारा संगठित है और जो कि उन्हें उन दूसरे लोगों से अलग करता है जो इन सम्बन्धों में शामिल नहीं होते अथवा जो उनसे व्यवहार में भिन्न हों।'' नज़ीर अकबराबादी एक श्रेष्ठ कवि होने के साथ साथ प्रतिभाशाली गद्य लेखक भी थे। इनके काव्य की आधारभूमि तत्कालीन मानव समाज ही है। इनके काव्य में मानव और समाज का चित्रण पूर्ण रूप से कलात्मक भाषा में हुआ है।
कविवर नज़ीर ने अपने युग के समाज का आर्थिक और सामाजिक चित्रण बहुत ही प्रत्यक्ष और मर्मस्पर्शी रूप में किया है । इनको संसार की निस्सारता और स्वार्थपरता का गहरा अनुभव था। वह जीवन को सरलता और सादगी से जीने के पक्षधर थे। उस समय भारतीय समाज के दो बड़े वर्ग हिन्दू और मुस्लिम अभावमयी परिस्थितियों में अपना जीवन निर्वाह कर रहे थे। नज़ीर ने हिन्दू और मुस्लिम समाज की अपेक्षा केवल भारतीय समाज की विचारधारा को स्वीकार किया । आर्थिक दृष्टि से समाज उस समय उच्च मध्य और निम्न वर्गों में बंटा हुआ था। ''नज़ीर ने सामान्य वर्ग के साथ संवेदना के स्तर पर एक होकर जीवन-यापन किया था। अतः नज़ीर की दृष्टि जनसामन्यपरक दृष्टि थी।''2 जो जनसाधारण को उन्हीं की ज़मीन पर खडे होकर देखती है और उनके अभावों आवश्यकताओं का यथार्थ स्वरूप प्रस्तुत करती है।
नज़ीर की जो रचनाएँ समाज से सम्बन्धित हैं वे उनके यथार्थबोध की परिचायक हैं । इस समाज में रहकर मनुष्य एक दूसरे के निकट आता है किन्तु परस्पर सामाजिक बंधनों के जाल में फँसकर यह भूल जाता है कि सामाजिक उपाधिंया और उपलब्धियां विश्वास करने योग्य नहीं हैं। मनुष्य को यह नहीं विस्मृत करना चाहिये कि उसके तन का झोपड़ा अजर-अमर नहीं है। इस विचार की पुष्टि नज़ीर की 'दुनिया के मरातिब काबिले ऐतवार नहीं' 'मरातिबे दुनिया महज बेसबात है' 'दुनियाँ के तमाशे' और 'तन का झोपड़ा' आदि रचनाओं में फलीभूत होती है। समाज की कुरूपता ही समाज का यथार्थ नहीं होती अपितु समाज में प्रसन्नता एवं सुन्दरता के भी आयाम होते हैं। नज़ीर की सामाजिक दृष्टि समाज के उस सुन्दर आनन्दमयी स्वरूप पर टिकी रही और इसे उन्होंने यथार्थ सामाजिक चेतना के साथ प्रस्तुत किया।
नज़ीर ने अपनी वयस्क बु़द्धि के आधार पर मानव-प्रकृति के संबंध में इस यथार्थ का बोध ग्रहण किया कि मनुष्य की प्रवृत्ति में साधुता और दुष्टता जन्मजात हैं। नज़ीर ने साधुता से संबंधित चित्रण करके युगीन समाज में मानवतावादी दृष्टिकेाण की पुष्टि की-
''जो और की बस्ती रखे, उसका भी बसता है पुरा।
जो और के मारे छुरी, उसके भी लगता है छुरा।
जो और की तोड़े छुरी, उसका भी टूटे है छुरा।
जो और की चीते बदी, उसका भी होता है बुरा।
कलजुग नहीं, करजुग है यह, यां दिन की दे और रात ले।
क्या खूब सौदा नक्द है, इस हाथ दे उस हाथ ले।''3
नज़ीर ने मानव जीवन के विभिन्न संदर्भ एवं पक्षों यथा सामाजिक, धार्मिक, एवं सांस्कृतिक स्तर पर किया। इनके अंतर्गत मानव प्रकृति, परिवार, मानवता, दुष्टता, साधुता, विरोध, अन्योन्याश्रण, रीति-रिवाज, ईश्वर का स्वरूप, अस्तित्व, भक्ति, स्तुति, विश्वास, स्थूल उपकरण, नमाज़-पूजा, रोज़ा-व्रत, मंदिर-मस्जिद, ज़ियारत-तीर्थ जीवन से लेकर मृत्यु तक के समस्त संस्कार जन्मजात संस्कार, अंत्येष्टि संस्कार, अर्थ की महत्ता, अर्थ-अर्जन, अर्थ-व्यय, आमोद-प्रमोद संस्कार, क्षणिकता, निर्धनता, प्रकोप एवं आर्थिक संपन्नता तथा विपन्नता इत्यादि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ''समाज की आर्थिक विपन्नता सामाजिक प्रवृत्तियों को कई रूपों में प्रभावित करती है। एक तरफ समाज में सामाजिक मूल्यों का हृास होता है तो दूसरी ओर सामाजिक चेतना से स्वाभिमान गौरव आदि जैसे नियामक तत्वों का लोप हो जाता है।''4 सूक्ष्मदर्शिता एवं पारदर्शिता जैसे गुणों से ओत प्रोत नज़ीर का विरोध संबंधी यथार्थबोध वास्तव में सहयोग और विकास का आधार है। नज़ीर ने सामाजिक विषमताओं और पारस्परिक अवगुणों का विरोध कर यह दर्शाने का प्रयास किया कि मनुष्य को दुर्भावना और बुराइयों को त्यागकर सद्भावना और अच्छाइयों को स्वीकारना चाहिए । कहीं उन्होंने मुफ़लिसी का विरोध किया तो कहीं दार्शनिक दृष्टिकोण के माध्यम से अपनी भावनाओं और विचारों का काव्यात्मक चित्रण किया यथा-
''चिड़िया ने देख ग़ाफ़िल, कपड़ा उधर घसीटा ।
कौए ने वक्त पाकर, चिड़या का पर घसीटा ।
चीलों ने मार पंजे, कौए का सर घसीटा ।
जो जिसके हाथ आया, वह उसने घर घर घसीटा।
हुशियार यार जानी, यह दश्त है ठगों का ।
या टुक निगाह चूकी, और माल दोस्तों का।''5
आदमी के रूप में समाज के पतन का जो चित्र नज़ीर ने प्रस्तुत किया उसमे तत्कालीन समाज में विषमता और अराजकता की स्थिति स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। नज़ीर ने एक दूसरे की निर्भरता एवं आवश्यकता का चित्रण विभिन्न कविताओं के माध्यम से किया । 'आदमीनामा' कविता तो अन्योन्याश्रित समाज की पूर्ण रूप से अनुपम एवं अतुलनीय चित्रवती है। कवि नज़ीर कहते हैं-
''बैठे हैं आदमी ही दुकाने लगा-लगा ।
और आदमी ही फिरते हैं रख सर पे खोमचा।
कहता है कोई लो कोई कहता है ला रे ला।
किस किस तरह की बेचे हैं चीज़े बना बना।
और मोल ले रहा है सो है वह भी आदमी।''6
कवि नज़ीर ने विवाह की महत्ता एवं सार्थकता को स्वीकारते हुए प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से मनुष्य के दाम्पत्य जीवन का वर्णन किया । उन्होंने विभिन्न सामाजिक एवं पारिवारिक सन्दर्भों यथा बालक के जन्म पर माता-पिता का सुख चैन प्राप्त करना, आत्म विभोर और आन्दोलित हो जाना घर परिवार में अनेक ऐसे रीति रिवाजों के माध्यम से आनन्दोल्लास को प्रकट करना भारतीय समाज में सदा सर्वदा दर्शनीय रहा है। नज़ीर ने 'जन्म कन्हैयाजी' नामक कविता में यह तथ्य प्रस्तुत किया है। जिस घर में बालक का जन्म होता है वहाँ प्रत्येक वाणी का सुख चैन दोबाला हो जाता है-
''है रीत जन्म की यों होती जिस घर में बाला होता है ।
उस मंडल में हर घर भीतर सुख चैन दोबाला होता है ।
सब बात विथा की मन भूले है जब भोला भाला होता है ।
आनन्द मदीले बाजत हैं नित भवन उजाला होता है।''7
युवावस्था के आमोद-प्रमोद का वर्णन करते हुए कवि नज़ीर ने 'जवानी के मज़े' कविता का शुभारम्भ कया । उन्होंने जवानी को एक ऐसी अवस्था की संज्ञा दी जिसे देखकर बहारें भी आश्चर्यचकित रह जाती है-
''क्या ऐश की रखती है सब आहंग जवानी
करती है बहारों के तई दंग जवानी
हर आन पिलाती है मैं और बंग जवानी
करती है कहीं सुलह कहीं जंग जवानी।''8
नज़ीर का समय आर्थिक दृष्टि से पूर्णता उथल पुथल और आर्थिक विपन्नता का समय था। यदि आर्थिक विकास की दृष्टि से देखें तो इस सामन्तवादी काल में समाज के सामान्य सदस्यों की स्थिति गंभीर दयनीय एवं सोचनीय थी। डॉ.अब्दुल अलीम के अनुसार-''नज़ीर अकबराबादी का काव्य आर्थिक विकास की दृष्टि से सामंतवादी काल का था। सामंतवादी समाज में मुख्यतः दो वर्ग होते हैं एक शासक वर्ग, दूसरा शासित वर्ग। इन दोनों के जीवन की परिस्थितियों के दो छोर होते हैं एक के जीवनयापन के लिये अगणित अपार साधनों की आवश्यकता होती है और दूसरे के लिये आवश्यकता की पूर्ति करना भी मुश्किल होता है।''9
जनसामान्य से जुड़े होने के कारण नज़ीर ने आर्थिक विपन्नता से ग्रस्त एवं अभिशप्त लोगों की आह और कराह को किसी चैतन्य पुरूष के समान सुना और इसके कठोर आघात को आत्मिक धरातल पर अनुभव किया इस संबंध में इनकी 'रोटियाँ', 'पेट की फिलासफी', 'पेट', 'खुशामद', 'आदमीनामा', 'कौड़ी', 'पैसा', 'रूपये की फिलॉसफी', 'जर'े, 'मुफलिसी' इत्यादि रचनाएँ प्रस्तुत की-
''जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ।
फूले नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ।
आँखें परी-रूखों से लड़ाती हैं रोटियाँ।
सीने ऊपर भी हाथ चलाती हैं रोटियाँ।''10
वास्तव में रोटी की समस्या मानव जीवन के संघर्ष की समस्या है। इस समस्या से जूझता समाज नज़ीर के मन-मस्तिष्क को झकझोर देता है। ''नज़ीर ने अपनी कविता में दरिद्रता का जो जीता-जागता, मर्मस्पर्शी, हृदयविदारक तथा यथार्थ च़ित्र प्रस्तुत किया है वह निश्चित रूप से उनके द्वारा अपने समाज का अनुभूत यथार्थ है व कवि के हृदय के भावों का स्वाभाविक स्फुरण है।''11 नज़ीरकालीन समाज में सबसे अधिक दरिद्रता कलाकारों को प्रभावित कर रही थी। मुगल साम्राज्य के पतन के साथ साथ विभिन्न रजवाड़ों में भी कलाकारों को शरण देने की सामर्थ्य नहीं थी । कलाकारों की उस स्थिति का चित्रण नज़ीर की कविताओं में स्पष्ट मिलता है। उस समाज में दरिद्रता की बेड़ियों में जकड़ा सगींतज्ञ अपने पेट की भूख शान्त करने के लिये एक पाव आटे के लिये तमूरे को अपने पास रखता है किन्तु मन स्वस्थ ना होने के कारण उस समय असमय का ध्यान नहीं रहता और गाने के वक्त समय की माँग का ध्यान नहीं रखता-
जब मुफलिसी से होवे कलावन्त का दिल उदास।
फिरता है ले तंबूरे को हर घर के आस पास।
एक पाओ सेर आटे की दिल में लगा के आस।
गेरी का वक्त होवे तो गाता है वह विभास ।
यां तक हवास उसके उड़ाती है मुफलिसी ।
वर्तमान समय में योग्यता और कुशलता का कोई महत्त्व नहीं रह गया है समाज में चापलूसी और खुशामद के ज़रिये कोई भी उन्नति प्राप्त की जा सकती है। व्यक्ति अपनी स्वार्थपूर्ति के लिये अपने व्यक्तित्व को खोकर सब कुछ खुशामद से ही प्राप्त करेगा तो उस समाज का क्या होगा । खुशामदी लोगों की बाढ़ आ जाएगी खुशामद का साम्राज्य होगा ईमानदारी और योग्यता का कोई मूल्य नहीं रहेगा। नज़ीर ने तत्कालीन समाज का सूक्ष्म निरीक्षण किया था । वे वास्तविक `स्थिति से परिचित थे। नज़ीर के काव्य का संभवतः यही रूप हो गया था जो उनकी कविता 'खुशामद' की निम्न पंक्ंतियों से स्पष्ट होता है-
''चार दिन जिसको किया खुशामद से झुक के सलाम
वह भी खुश हो गया अपना भी हुआ काम में काम ।
बड़े आकिल बड़े दाना ने निकाला है यह दाम।
खूब देख तो खुशामद ही की आमद है तमाम।''12
नज़़ीर का समय राजनीतिक उथल-पुथल और विदेशी आक्रमण का समय था। शासकों पर विलासिता का रंग चढ़ा हुआ था। सामाजिक अर्थव्यवस्था चरमरा उठी थी। समाज के सभी वर्ग बेरोज़गारी के शिकार हो रहे थे। समाज के पूजीपति और भूमिपति भी इस समस्या से जूझ रहे थे। बेरोज़गारी का यह प्रभाव केवल सामान्य जनता ही पर नहीं था अपितु सत्ता के रक्षक सैनिकों पर भी था। सैनिक दरिद्रता से तंग आकर अपने घोड़े बेंच रहे थे। समय से वेतन और खाने-पीने का भी गंभीर संकट उपस्थित हो गया था। एक ओर समाज में सामाजिक मूल्यों का हृास हो रहा था दूसरी ओर सामाजिक चेतना से स्वाभिमान, गौरव एवं आत्मसम्मान अगोचर हो रहे थे। समाज की आर्थिक विपन्नता स्वास्थ्य को भी प्रभावित करती है।
व्यक्ति के पास स्वास्थ्य और आत्मसम्मान दो ही अमूल्य निधियाँ होती हैं किन्तु यह खतरे में थीं। नज़ीर एक मानवतावादी कवि थे । वह समाज का निर्माण मानवतावादी विचार धारा के अनुरूप चाहते हैं। डॉ.अबुल्लेस सिद्दीकी के अनुसार -''उर्दू शायरी की तारीख में शायद ही दूसरा व्यक्ति इंसानियत का इतना बड़ा अलम्बदार हुआ है जितना नज़ीर था।''13 किसी स्वस्थ समाज के निर्माण में धार्मिक समन्वय आवश्यक है। भारत में विभिन्न धर्म और सम्प्रदायों के लोग रहते हैं। बिना धार्मिक समन्वय के भारतीय समाज स्वस्थ और उन्नतशील दिशाओं की ओर अग्रसर नहीं हो सकता यही कारण है कि नज़ीर के काव्य में समाज का रूप धार्मिक समन्वयवाद की आधारशिला पर खड़े हुए समाज का रूप ही हैं। मानवतावाद हर प्रकार की भेदबुद्वि को दूर करके संपूर्ण समाज को मानव-मानव में अद्वैत भाव की स्थापना करके एक स़ूत्र में बांध देता है। कवि नज़ीर कहते हैं-
''झगड़ा ना करे मिल्लतो -मज़हब का कोई यां।
जिस राह पे जो आन पड़े खुश रहे हरआं।
जुन्नार गले या कि बगल बीच हो कुरां।
आशिक तो कलन्दर है न हिन्दू न मुसलमां।''14
अतः संक्षेप में कहा जा सकता है कि नज़ीर की कविता अपने समय से आगे की कविता थी। यह उनकी दूरदृष्टि ही कही जा सकती है कि उन्होंने भविष्य की परिस्थितियों को पहले भांप लिया था और उस समय ही हिंदू-मुस्लिम एकता पर काव्य रचना की। अपने काव्य के माध्यम से जनसामान्य को जागरूक करने का प्रयास भी किया।
संदर्भ-सूची
1-डॉ.मुहम्मद इलियास, मध्य युगीन सूफ़ी प्रेमाख्यानक काव्यों का समाज-दर्शन, पृष्ठ 149
2-डॉ.अब्दुल अलीम, नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचारधारा, वााणी प्रकाशन,
दरियागंज, नई दिल्ली, संस्करण 1992, पृष्ठ 157-158
3-सं॰ प्रो॰ नज़ीर मु॰, नज़ीर ग्रन्थावली, हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश, लखनऊ, संस्करण
1992, पृष्ठ 110
4-डॉ. अब्दुल अलीम, नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचारधारा, वााणी प्रकाशन,
दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 1992, पृष्ठ 166
5-सं॰ प्रो॰ नज़ीर मु॰, नज़ीर ग्रन्थावली, हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश, लखनऊ, संस्करण
1992, पृष्ठ 237
6-वही, पृष्ठ 241
7-वही, पृष्ठ 554
8-वही, पृष्ठ 283
9-डॉ.अब्दुल अलीम, नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचारधारा, वााणी प्रकाशन,
दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 1992, पृष्ठ पृष्ठ 159
10-सं॰ प्रो॰ नज़ीर मु॰, नज़ीर ग्रन्थावली, हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश, लखनऊ, संस्करण
1992, पृष्ठ 214
11-डॉ.अब्दुल अलीम, नज़ीर अकबराबादी और उनकी विचारधारा, वााणी प्रकाशन,
दरियागंज नई दिल्ली, संस्करण 1992, पृष्ठ 163
12-सं॰ प्रो॰ नज़ीर मु॰, नज़ीर ग्रन्थावली, हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश, लखनऊ, संस्करण
1992, पृष्ठ 231
13-डॉ.अबुल्लेस सिद्दीकी, नज़ीर अकबराबादी : उनकी शायरी और एहद, उर्दू एकेडमी
कराची, संस्करण 1959 पृष्ठ 61
14-सं॰ प्रो॰ नज़ीर मु॰, नज़ीर ग्रन्थावली, हिंदी संस्थान उत्तर प्रदेश, लखनऊ, संस्करण
1992, पृष्ठ 180
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