जयंत, विजयत्त और ज्वलन्त ने अपने युद्ध कौशल से मकर-ग्रहवासियों को, अन्तर-तारकीय संग्राम में पराजित कर दिया था । वे घायल भी हुए थे, इस कारण ...
जयंत, विजयत्त और ज्वलन्त ने अपने युद्ध कौशल से मकर-ग्रहवासियों को, अन्तर-तारकीय संग्राम में पराजित कर दिया था । वे घायल भी हुए थे, इस कारण उन्हें अन्य अभियानों पर न भेज कर, उस अभियान दल के प्रमुख ने पृथ्वी पर रिटायरमेन्ट देकर, वापस भेज दिया था ।
वे अपने-अपने नगरों में पृथ्वी पर आकर, भविष्य की योजनाओं को मूर्त स्वरूप देने में लग गए परन्तु जयंत ने एकाकी रहकर जीवन बिताना, उचित समझा । इसकी पृष्ठभूमि में था विशेष कारण ।
उसने उड़ीसा के समुद्र तट के एक सुरम्य नगर के होटल की आठवीं मंजिल में अपना आवास बनाया । वहीं से बैठकर वह ऊँचाई से, उठती समुद्री लहरों को देखता और शाम को नीचे उतर कर समुद्री बीच पर गुनगुनाता, काला चश्मा लगा कर, कुछ लंगड़ाता हुआ, दो तीन मील दूर तक टहल आता ।
उसकी आँखें बदल दी गयीं थी तथा दाहिने कटे पैर को भी स्टेम-सेल प्रवर्धन तकनीक से विकसित पैर द्वारा बदल दिया गया था ।
वह कभी लिफ्ट से तो कभी सीढ़ियों से धीरे-धीरे उतरता हुआ रेस्ट्रां में आता । अपनी प्रिय ब्लैक कॉफी पीता हुआ भुनी हुई स्वादिष्ट मछली के इच्छानुसार सेवन के उपरान्त, समुद्री तट पर घूमता ।
दोपहर का भोजन कर वह लिपट से ऊपर, अपने रूम तक जाता-आराम करता और शाम को उसी रेस्ट्रां या कभी-कभी बीच पर बने अस्थायी रेस्ट्रां में चाय पीकर थोड़ी दूर धूम आता । यह उसका नियमित क्रम था । आसपास तथा उस होटल के कर्मचारीगण उसे पहचान गए थे ।
परन्तु उस घटना ने उसके प्रोग्राम में गतिरोध उत्पन्न कर दिया था ।
बीच में घूमते हुए उसने एक घने शैवाल के समूह को देखा । जो दूर तो था, परन्तु वह तेजी से बढ़ता हुआ समुद्र तट तक पहुँचना चाहता था । उससे तेज दुर्गन्ध उठ रही थी । वह धीरे-धीरे घूमता हुआ होटल के लीन में लगी कुर्सियों पर आकर बैठ गया । एकाकए उसे लगने लगा कि वह कितना एकाकी है । इस कल्पना से वह घबरा गया । वह खो को बन्द कर जड़वत बैठकर मन को एकाग्र करने का प्रयास करने लगा । इस प्रयास में वह सफल न हो सका, क्योंकि समुद्र की ओर से आ रही हवा, उसकी नाक में, न चाहते हुए भी शैवाल की दुर्गन्ध भरती जा रही थी । घबराकर वह उठ गया और चल पड़ा होटल की लॉबी की तरफ वहीं दुर्गन्ध नहीं थी । उसने ब्लैक काफी और फ्राइड-फिश का आर्डर दिया । अपनी छड़ी को उसने धीरे से अपनी कुर्सी के पीछे टिका दिया । मसालेदार फ्राई-फिश, काफी अच्छी थी । वह स्वाद लेकर धीरे-धीरे उसे खाता और काफी का सिप लेता जाता । आज उसे डिनर की आवश्यकता नहीं रही ।
प्रात: पाँच बजे वह उठ गया और वायु सेवन की दृष्टि से टहलता हुआ बीच की तरह चल पड़ा । धीरे-धीरे उसी नाक में विषाक्त, सड़ी दुर्गन्ध, जो किसी खाद्य पदार्थ के सील्ड प्लास्टिक बैग में सड़ने से उत्पन्न होती है, घुसने लगी । घबराकर कर बीच की तरफ बढ़ आये शैवाल राशि को उससे निलकती हुयी दुर्गन्ध से बचने के लिए वह विपरीत दिशा में चल पड़ा ।
उसे कुछ आराम मिला ।
होटल की लाबी में लोगों का आना जाना शुरू हो गया था । उसको देखकर उसके काले चश्मे, पैरों को घसीट कर लंगड़ाते छड़ी के सहारे आते देखकर लोग धीरे-धीरे कह रहे थे, इस अंधे को निकल जाने दो । इस वाक्य का वह अभ्यस्त हो चुका था । उसे इसकी चिन्ता थी ही नहीं थी वह धीरे-धीरे चलता हुआ रेस्ट्रॉ में आ गया । कुर्सियों पर बैठे हुए युवा, उस दुर्गन्धदायी शैवाल की, उसके तेजी से समुद्र तट पर फैलने की गति की, उसमें विकसित हुयी पाँच बड़ी हरी कलियों की बातें तो कर रहे थे, पर वे दुर्गन्ध से प्रभावित नहीं लग रहे थे ।
उसने अनुमान लगाया कि यह दुर्गन्ध कल तक सभी को सोचने के लिए बाध्य कर सकती है, उसका अनुमान गलत साबित नहीं हुआ ।
दूसरे दिन उसने समुद्र के सामने की खिड़की खोली ही थी कि उस शैवाल से निकलती हुयी बदबू उसकी नाक में भर गयी । घबराकर उसने खिड़की बन्द कर दी । आज उसकी इच्छा प्रात: समीर सेवन की नहीं थी । उसने मन में सोचा प्रदूषित वायु को, सल्फर-डाई-आक्साइड, या हाइड्रोजन सल्फाइड, या हाइड्रोजन सायनाइड को फेफड़े में भरने से क्या लाभ । वह अन्तर-तारकीय युद्ध में तो घायल ही हुआ था, पर अपनी धरती पर इन विषाक्त गैसों के कारण प्राणों की आहुति देना, तर्क संगत नहीं लगा उसे ।
एक घण्टे के बाद वह होटल के रेस्ट्रॉ में आ गया । उसे होटल के रेस्ट्रॉ में भी उस शैवाल की उठती हुयी बदबू की अनुभूति हुयी । वह काफी पीने लगा । बगल की टेबिल पर बैठे दम्पति भी उस दुर्गन्ध की चर्चा के साथ, नाक भौं सिकोड़ कर किसी प्रकार नाश्ता कर रहे थे ।
परन्तु दोपहर होते-होते सारा वातावरण उस दम घोटने वाली दुर्गन्ध से भर उठा । वह होटल, उसके प्रत्येक कमरे भी इस के प्रभाव से अप्रभावित न रह सके । अगल बगल की कालोनी के लोग भी घबरा गए थे । सूचना जिलाधिकारी को प्राप्त हुयी । वे दलबल सहित भारतीय परम्परानुसार समुद्र तट पर शाम के धुंधलके में आ धमके । सारा का सारा क्षेत्र दुर्गन्ध से भरा था । कोई अपनी कारों से बाहर निकलने का साहस न जुटा सका । पर पुलिस को तैनात कर दी गयी । जैसे पुलिस उस बदबू को नियंत्रित कर लेगी । बहादुर नौकरशाह कारों के काफिले सहित भाग खड़े हुए । पुलिस गैस मास्क लगाकर, उस समुद्र तट को प्रतिबंधित क्षेत्र घोषित कर, पहरा देने लगी । इससे अधिक पुलिस कर ही क्या सकती थी । वह दिनोंदिन बढ़ती हुयी दुर्गन्ध को, बदबू को उसके प्रभाव से विषाक्त होती वायु को रोक तो सकती नहीं थी । हां इसकी सूचना वह उच्च अधिकारियों को देती थी । इसके परिणाम स्वरूप समुद्र तट से आधे किलोमीटर दूर बसी कालोनी के लोग, खाँसी, घुटन और बेचैन कर देने वाली विषाक्त वायु से घबरा गये थे । वे ठीक से साँस भी नहीं ले पा रहे थे । अन्ततोगत्वा इन लोगों ने अपने कालोनी को मकानों को खाली करना प्रारम्भ कर दिया । देखा देखी कालोनी ही क्यों वह पांच सितार होटल भी खाली हो चला था ।
कुछ लोग बच रहे थे वे एक स्पेशल रूम में एकत्र होकर अपनी गैस मास्कों को हटाकर, आक्सीजन मास्क लगाकर अपने फेफड़ों में आक्सीजन भर कर वायु का विषाक्त प्रभाव दूर कर लेते थे ।
पुलिस वाले भी यही कार्य, उनके लिए अस्थायी रूप से निर्मित कक्ष में जाकर करते, स्वस्थ होकर मास्क लगाकर अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद हो जाते ।
इस बदबू को फैलते हुए चार दिन बीत गए थे । जयंत भी आक्सीजन मास्क का उपयोग कर अपने रूम में जाता वह जा ही कहाँ सकता था । तथ्यत: जयंत नितान्त एकाकी हो गया था ।
शैवाल के विस्तार की गति को टी. वी. चैनलें उपग्रह के माध्यम से दर्शकों को नमक मिर्च लगाकर दिखाने में लगीं थीं समाचार सुनकर देखकर लोग घबरा रहे थे । यही भय, संत्रास उत्पन्न करना ही टी. वी. चैनलों का उद्देश्य था । जयन्त का संवेदी अचेतनमन का शैवालीय लीला को बहुत कुछ समझ चुका था । इस कारण उसने उस प्रतिबंधित क्षेत्र (भारतीय संदर्भ में, जिसमें कोई चुपके से रात्रि में चला जाये, और पुलिस आराम फरमाती रहे) में जाने का निश्चय कर लिया ।
अर्धरात्रि में वह चुपके से उस क्षेत्र में प्रविष्ट हो गया । अनुमान से उसे ५०० मीटर चलने के बाद, बीच पर दूर दूर तक कोई दिखा नहीं ।
दबे पांव वह शैवाल के पास, उससे, समुद्र तट से एक मीटर की दूरी पर पहुँचा ही था कि एक हल्के पटाके की ध्वनि के साथ वे शैवाल की पांचों कलियां फट गयीं और निकल आये उसके मकर ग्रह के पुराने प्रतिद्वन्द्वी ।
वे कूद कर उसको चारों तरफ से घेर लिए । उसके हाथों में छोटी छूरियाँ थीं । जयन्त की छड़ी से एक बटन प्रेस करते ही, एक तेज पतली तलवार निकल आयी । उस प्राचीन पद्धति से हो रहे युद्ध से उसके हस्त लाघव के परिणाम स्वरूप शत्रुगण उस पर प्रभावी नहीं पड़ रहे थे ।
एकाएक वह लड़खड़ा गया । जमीन पर गिरा ही था कि उसकी दाहिनी आँख के नीचे एक तेज चाकू घुस गया । उसके बायें पैर से तेज पीड़ा हुयी । वह तड़प उठा । खून उसके चारों ओर फैला हुआ था । वह प्रात: होने तक अचेतन अवस्था में पड़ा रहा ।
सूर्य की प्रथम रश्मि के साथ कुछ पुलिस वाले आ गये । वे चकित भाव से खून से लथपथ जयन्त को अस्पताल में लाये । उपचार चलता रहा ।
इस घटना के बाद, वह शैवाल अदृश्य हो गयी । वह दुर्गन्ध समाप्त हो गयी । लोग चकित थे । वे कारण जानने के लिए उतने सचेष्ट नहीं थे, जितना अपने अपने घरों में वापस आने के लिए ।
होटल में भी लोगों का आना प्रारम्भ हो चुका था । टी. वी. चैनलों पर तर्क-वितर्क-कुतर्क चल रहे थे । पर एक न्यूज चैनल के समाचार ने सबका, विशेष रूप से प्रबुद्ध वर्ग के ध्यान को आकृष्ट किया । उद्घोषिका कह रही थी किसी अज्ञात, अनाम ग्रह से पदार्थ पारण की तकनीक द्वारा यह शैवाल, दुर्गन्ध उत्पन्न करने वाली शैवाल यहाँ के समुद्र तट पर आयी थी । किस हेतु पता नहीं पर अब वह अदृश्य हो गयी । समुद्र में दूर-दूर तक उसका कहीं कोई चिन्ह दिखायी नहीं दे रहा है और न कोई दुर्गन्ध ही वातावरण में व्याप्त है ।''
जयंत ने अस्पताल की बेड पर लेटे लेटे, इस समाचार को देखा सुना था । वह मकर वासियों के द्वारा लिये गये प्रतिशोध को कैसे भूल सकता था जिसे वह किसी को बताना नहीं चाहता था ।
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परिचय:
डॉ. राजीव रंजन उपाध्याय; जन्म; ४ मार्च १६५२, शिक्षा: एम-एस-सी. लखनऊ विश्वविद्यालय), पीएच.डी. (काशी हिन्दू विश्वविद्यालय-वाराणसी, नोराड (नारवे) एव अलैक्जैंडर-फान हनवोल्ट-फेलो (जरमनी), पूर्व प्रोफेसर कैंसर शोध, तबरीज़ विश्वविद्यालय, ईरान । विज्ञान कथाओं की दशाधिक पुस्तकें एवं अखिल भारतीय स्तर के प्रतिष्ठित पत्रों एवं पत्रिकाओं में अनेक विज्ञान कथाएँ प्रकाशित तथा कुछ हिब्रू बंगला में अनुवादित, पुरस्कार-सम्मान : ईरान का कैंसर शोध पुरस्कार 1978, अमेरिकन बायोग्राफिकल इंस्टीट्यूट के रिसर्च बोर्ड का सम्मान 1991 विज्ञान-वाचस्पति मानद उपाधि 1996, विज्ञान-कथा-भूषण सम्मान 2001, पद्मश्री सोहनलाल द्विवेदी जन्मशती हिन्दी-सेवी सम्मान 2005, अम्बिका प्रसाद दिव्य स्मृति प्रतिष्ठा पुरस्कार रजत अलंकरण 2006, साहित्य दिवाकर ( २००७, सम्पादक सरताज २००७, भारत गौरव २००७, सम्पादकश्री २००८, शान्तिराज हिन्दी गौरव अलंकरण 2008, सम्पादक सिद्धहस्त 2008, सम्पादक शिरोमणि 2011, वितान-परिषद प्रयाग सम्मान 2013, गणेशदत्त सारस्वत सम्मान (२०१३), विज्ञान परिषद् प्रयाग : सारस्वत-सम्मान 2015 आदि । सम्प्रति स्वतंत्र रूप से विज्ञान कथा लेखन ।
संपर्क:
ईमेल : rajeevranjan.fzd@gmail.com
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(विज्ञान कथा - जुलाई - सितम्बर 2016 से साभार)
Delighted to see the reapearence of the story.
जवाब देंहटाएंThanks for coperation
Dr.Updhyay