यहां वहां की वृक्षारोपण होने न होने के बीच दिनेश बैस 'दि ल हूम-हूम करे' और न जाने क्या-क्या करे. 'आज मदाहोष हुआ जाये रे, मे...
यहां वहां की
वृक्षारोपण होने न होने के बीच
दिनेश बैस
'दिल हूम-हूम करे' और न जाने क्या-क्या करे. 'आज मदाहोष हुआ जाये रे, मेरा मन-मेरा मन.' यह जुलाई का महीना होता ही कुछ ऐसा है कि दिल बेकाबू होने लगता है. दिल मचलने लगता है और अनेक मामलों में दहलने भी लगता है. मई और जून की गर्मी के गर्म तवे पर पानी की कुछ खेपें बरस जाती हैं, छन्न से. शहर के नदी-तालाब भले ही तरस रहे हों भरने के लिये. मगर नालियां आवारा लड़कियों की तरह उमड़ने लगती हैं. साल भर सफाई के लिये तरसती नालियों की जवानी सड़कों पर उछलने लगती हैं. सड़कों के गड्ढे उफनने लगते हैं. मच्छर उनमें अवतार लेने लगते हैं. शहर हरा-भरा सा लगने लगता है. महसूस होता है कि शहर में स्वीमिंग पूल्स की संस्कृति विकसित हो गई है. वे पूल्स भले ही आदमियों के लिये न हों मेंढकों के लिये हों. मेंढकी समाज को छूट रहती है कि वे उनमें टू पीस बिकनी में गोते लगायें या वैसे ही डूबती उतराती रहें. आखिर मेंढक समाज को भी सनी लियोनी प्रेरणादायक ही लगती हैं. उनके एक संकेत पर वे अपने चरित्र का सर्वस्व त्यागने के लिये तत्पर रहते हैं. आदमी चाहे तो उन गड्ढों के सहयोग से आत्महत्या करने की योजना बना सकता है. सड़कों में गड्ढे, गड्ढों में बरसात का, देष की मिट्टी में रचा-बसा पानी- मां तुझे प्रणाम- पानी में उमड़ते-घुमड़ते मच्छर-मेंढक. बस और क्या चाहिये एक दुर्घटना अनुकूल आदर्ष सड़क बनने के लिये. ऐसे अवसरों के लिये ही सम्भवतः दुष्यंत कुमार ने कहा है-
'हो गई हर घाट पर पूरी व्यवस्था,
शौक से डूबे जिसे भी डूबना हो.'
देश के हर उत्पातकालीन नागरिक की भांति आप स्वतंत्र हैं. आप जिस संदर्भ में लें. कवि साधारण सी घटना पर मिसाइल छोड़ जाता है. सुनने-पढ़ने वाले अपनी-अपनी तरह से उसके मतलब निकालते रह जाते हैं. चतुर सयाने इन्हीं पर पी एच डी वगैरह फटकार लाते हैं. फिर शिक्षा के बुलडोजर पर सवार होकर ज्ञान को ध्वस्त करने में जुट जाते हैं. आदिकाल से अब तक यही सिलसिला चल रहा है. क्रौंच की बोली समझ कर वाल्मीकि आदि कवि माने जाने लगे. दिवंगत मुकुट बिहारी सरोज ने हाथ पर बैठे मच्छर की सरेआम हत्या कर दी. फिर उसकी शोक स्मृति में लिखा- उसने काटा/मैंने मारा/मेरा हाथ रंगा था अपने ही खून से- गुण ग्राहकों ने इसे क्रान्तिकारी जनवादी कविता स्वीकार कर लिया. हालांकि निर्विवाद है कि एक तुच्छ प्राणी, मनुष्य द्वारा किसी मच्छर की हत्या कर देना एक क्रान्तिकारी परिघटना ही होती है.
लेकिन जुलाई का महीना बरसात के पानी से सड़कों पर उमड़ती नालियों, सड़कों पर बने गड्ढों, उनमें भरा गंदा बरसाती पानी, उसमें किल्लोल करते मच्छर-मेंढक, गिरते पड़ते लोगों के लिये ही सुखद नहीं होता है. अन्य कारणों से भी इस महीने की प्रतीक्षा रहती है.
मेरे जैसे हमेशा इस संदेह में गर्मी झेलते रहते हैं कि पता नहीं जुलाई आयेगा या नहीं आयेगा. जुलाई नहीं आयेगा तो राष्ट्र वृक्षारोपण के प्रति जागरूक कैसे होगा. वृक्षारोपण नहीं होगा तो प्रकृति हमें वृक्ष हनन के पाप से मुक्त कैसे करेगी. हमारे अंधेपन के लिये हमें माफ कैसे करेगी. साल भर हम वृक्ष काटते रहते हैं. किसी की कुछ नहीं सुनते हैं. कम से कम जुलाई के महीने में तो हमें धूमधाम से वृक्ष लगाने का अवसर मिले. हम पाप करने और फिर उससे मुक्त होने में विश्वास करते हैं. पाप करना हमारा कर्म है. पापमुक्त होना हमारा धर्म है. कर्म हम चुपचाप करते रहते हैं. धर्म धूमधाम से सम्पन्न करते हैं. साल भर में भरपूर पाप करते हैं. गंगा दशहरा पर उन्हें गंगा में बहा आते हैं- नमामि गंगे- ग्यारह महीने भरपूर वृक्ष काटते हैं. जुलाई के महीने में हमारा कुम्भकर्ण वृक्ष लगाने के लिये भड़भड़ा कर जाग जाता है. इसलिये जुलाई का महीना आता है. नहीं आता है तो उसे जबर्दस्ती ले आया जाता है. खींच कर ले आया जाता है.
गये सालों में मेरे क्षेत्र में जुलाई आया. बरसात नहीं आयी. हम तड़पते रहे 'कारे मेघा कारे मेघा पानी तो बरसाओ'. गाना गाने से पानी आता तो दुनिया का कोई नल सूखा नहीं रह पाता. गाने के झांसे में हमारे यहां बरसात भी नहीं आयी- पानी नहीं बरसा- पानी नहीं बरसा, मगर वृक्षारोपण धूमधाम से हुआ. संतुलित कार्य करने की नीति के अंतर्गत एक ओर सूखा पैकेज घोषित हो रहे थे. दूसरी ओर वृक्ष लगाने के लक्ष्य निर्धारित किये जा रहे थे. एक-एक विभाग के पास इतने-इतने वृक्ष लगाने के लक्ष्य थे कि डर लगने लगा कि अगर सचमुच इतने वृक्ष लग गये तो...तो जंगल राज आने से कौन रोक सकेगा? हमारे देश पर भगवान की ऐसी कृपा है कि लक्ष्य भी भगवान की तरह हो जाते हैं. वे घोषित होते हैं मगर पूरे कभी नहीं होते हैं. इसी कार्य संस्कृति के अंतर्गत वृक्षारोपण कार्यक्रम भी सम्पन्न होते हैं.
यह नीति हमारा मनोबल बहुमंजिला भवन की तरह बढ़ाये रहती है. हमें किसी प्रकार के जोश या मस्ती जैसी औषधियां लेने की आवश्यकता नहीं महसूस होती है. वह जापान की हो या हिन्दुस्तान की.
जुलाई आते ही वृक्षारोपण की तैयारियां आरम्भ हो जाती हैं. प्रतिष्ठानों का चापलूस समुदाय अचानक सक्रिय हो उठता है. वह कन्विंस करने में जुट जाता है कि सर किस एंगल से पेड़ के बगल में खड़े होकर स्माइल देंगे तो फोटो धांसू आयेगी. जाहिर है, इस अवसर को यादगार बनाने के लिये मैम तो बगल में होंगी ही. आलिंगन करते हुये. नहीं-नहीं, सर को नहीं, वष्क्ष को. डॉन्ट वरी, सर. मीडिया में अपने लायजन हैं. वह हम पर छोड़ दिया जाये. हां, उन्हें थोड़ा इंटरटेन करना होगा. प्रबंध कुशल कर्मचारी चाय समोसों का बजट पास करवाने में जुट जाते हैं. चपरासीनुमा लोगों पर सबसे बड़ा दायित्व रहता है. वृक्षारोपण समारोह के अवसर पर साहबों और राजपुरुषों के कुत्तों-बच्चों की रक्षा का दायित्व उन्हीं के कंधों पर होता है. अकाउंट और ऑडिट जियो और जीने दो के सद्भावनापूर्ण विचार से वृक्षारोपण होने न होने के अंतर को समाप्त करने की विधियां विकसित करने बैठ जाते हैं.
जुलाई का महीना बेहद रंगीन होता है. लग चुके या लगाये जाने वाले वृक्षों से नहीं, उन्हें लगाये जाने के समारोहों में रोपित नर-नारियों के कारण. कैसी-कैसी सुगंध और कैसे-कैसे रंग वातावरण में बरस रहे होते हैं. यह गंध फूल पत्तियों की न सही, खटिया की अदवायन की तरह कसी हुई ब्यूटीपार्लित देहों पर बरसे डीओज की हों, रंग लिपिस्टक्स के अनेकानेक शेड्स के हों. ठीक है कि हर देह और हर ओंठ तक आपकी पहुंच नहीं हो सकती है. तो पेड़ ही लग जाते तो क्या हर पेड़ पर आप चढ़कर बैठ जाते?
सम्पर्कः 3-गुरुद्वारा, नगरा, झांसी-28003
मो. 08004271503
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