साक्षात्कार "व्यंग्य बहुत समर्पण मांगता है, यह आसान विधा नहीं है" (सुभाष चंदर से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश) सुभाष चंदर...
साक्षात्कार
"व्यंग्य बहुत समर्पण मांगता है, यह आसान विधा नहीं है"
(सुभाष चंदर से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश)
सुभाष चंदर हिन्दी के वरिष्ठ रचनाकार हैं. व्यंग्य कथाओं के क्षेत्र में विशेष रूप से ख्याति अर्जित करने वाले इस व्यंग्यकार ने निबंध और उपन्यास के अलावा व्यंग्यालोचना पर भी महत्वपूर्ण काम किया है. ''हिन्दी व्यंग्य का इतिहास'' जैसा विशाल ग्रन्थ इसका प्रमाण है. उनके खाते में जहां व्यंग्य की ग्यारह पुस्तकें हैं, वहीं कुल पुस्तकों की संख्या इकतालीस तक पहुंच गयी है. इस पुस्तक में विलान, राजभाषा, बाल साहित्य, जीवनी आदि अनेक विविध विषयों की कृतियां शामिल हैं. इसके अलावा उन्होंने टी.वी. एवं रेडियो के लिए अस्सी धारावाहिक भी लिखे हैं. इंदिरा गांधी राष्ट्रीय पुरस्कार, भारत सरकार, डॉ. मेघनाथ साहा पुरस्कार, शरद जोशी पुरस्कार, अट्टहास पुरस्कार, सर्जना पुरस्कार जैसे अनेक पुरस्कार उन्हें मिल चुके है. हाल ही में उन्हें व्यंग्य का सर्वोच्च पुरस्कार 'व्यंग्य श्री' प्राप्त हुआ है. उनसे व्यंग्य और समाज से जुड़े विभिन्न मुद्दों पर डॉ. भावना शुक्ल की एक बेबाक बातचीत यहां प्रस्तुत हैः
डॉ. भावना शुक्लः व्यंग्य को आप किस दृष्टि से देखते हैं?
सुभाष चंदरः मेरी दृष्टि में व्यंग्य वह गंभीर रचना है जिसमें व्यंग्यकार विसंगति की तह में जाकर उस पर विट, आयरनी आदि भाषा शक्तियों के माध्यम से प्रहार करता है. उसका लक्ष्य पाठक को गुदगुदाना न होकर उससे करुणा, खीज अथवा आक्रोश की पावती लेना होता है. इस प्रक्रिया में हास्य का
सावधानी से प्रयोग किया जाना जरूरी है, ताकि वह रचना की पठनीयता में वृद्धि करके, उसकी ग्राह्यता को तो बढ़ाए पर उसके प्रहार के लक्ष्य को विचलित न करे. वैसे मैं व्यक्तिगत रूप में व्यंग्य में हास्य के संतुलित प्रयोग को पसंद करता हूं?
डॉ. भावना शुक्लः लेखन शौक कैसे जागृत हुआ? इतना सुंदर लेखन कैसे लिखते हैं, विचार कैसे आते हैं?
सुभाष चंदरः घर में शुरू से ही लिखने पढ़ने का माहौल था. दादाजी पं. उमाशंकर शर्मा पढ़ने के बहुत शौकीन थे. घर में दुनिया भर की पत्रिकाएं और किताबें आती थीं, विशेषकर
धार्मिक साहित्य. धीरे-धीरे ये शौक मुझमें भी आ गया और अब तो यह व्यसन बन चुका है, बिना पढ़े नींद ही नहीं आती. मेरे पास आज भी हजारों की तादाद में किताबें हैं. लिखना शुरू होने की भी मजेदार कहानी है. एक बार माता जी ने किसी शरारत पर मेरी पिटाई कर दी. बस आंसुओं के साथ ही कविता फूट पड़ी, कविता के बोल थे- मम्मी तुमने मारा क्यों? आगे चलकर बिना पिटे भी लेखन चल निकला. जहां तक बात लेखन के लिए विचारों की है तो समाज में इतनी विसंगतियां, अव्यवस्थाएं बिखरी पड़ी हैं कि व्यंग्य लिखने के लिए ज्यादा सोचना नहीं पड़ता. राजनीति, समाज, बाजार, साहित्य, संस्कृति आदि हर क्षेत्र में इतने गड़बड़झाले हैं कि व्यंग्यकार को बस अपने आंख-कान खुले रखने पड़ते हैं. बाकी काम शिल्प संभाल लेता है. हां, बड़े काम जैसे उपन्यास वगैरह के लिए जरूर पहले से लम्बी तैयारी करनी पड़ती है.
डॉ. भावना शुक्लः आपने व्यंग्य, आलोचना और बाल साहित्य जैसी कई विधाओं में काम किया है. एक साथ तीनों पर काम करना कितना आसान है?
सुभाष चंदरः यह मानसिक स्थिति पर निर्भर करता है. जब किसी विसंगति से टकराता हूं, कुछ होंट करता है तो व्यंग्य लिखा जाता है, जब मन शरारती होता है तो हास्य कहानियां उतरती हैं और जब दिमाग बिलकुल खाली होता है तो आलोचना. हां, बाल साहित्य की सारी किताबें आने के पीछे का कारण मेरे छोटे बेटे की रोज कहानियां सुनने की लत रही. उसे रात को कहानियां सुनाता था. सुबह उनमें से जो याद आता था, उसे कागज पर उतार लेता था. बाकी रहा टी.वी. और रेडियो का पटकथा लेखन तो यह अधिकांशत मजबूरी में किया या किसी निर्माता मित्र ने जबर्दस्ती करा लिया. आपको आश्चर्य होगा कि मैंने आज तक अपना लिखा कोई भी सीरियल देखा-सुना नहीं है. मेरी आत्मा तो मुद्रित अक्षर में बसती है.
डॉ. भावना शुक्लः आप ने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत कविताओं से की. फिर यकायक आपकी गाड़ी व्यंग्य के स्टेशन पर कैसे मुड़ गयी?
सुभाष चंदरः यह सच है कि शुरुआती दौर में मैंने कविताएं ही लिखीं, बल्कि कभी-कभी अब भी लिखता हूं. पर नियमित रूप से नहीं. रही बात व्यंग्य के क्षेत्र में आने की तो आज समाज में इतनी विसंगतियां, इतने विद्रूप हैं कि आप व्यंग्य से बच नहीं सकते. व्यंग्य इनसे लड़ने के लिए आपको हाथ में हथियार की तरह है. यही कारण है कि कविता हो या कहानी, नाटक हो या उपन्यास, उसमें आपको कहीं ना कहीं व्यंग्य दिख ही जाता है. खांटी व्यंग्यकार होने के लिए आपको विसंगति की सही समझ, उपयुक्त भाषा का चुनाव, शैलीय उपकरणों का प्रयोग और प्रहारात्मकता की आवश्यकता होती है. वैसे भी व्यंग्य की प्रवृत्ति मनुष्य के अंदर होती है. अगर वह आसपास की विसंगतियों पर गहरी दृष्टि रखता है, उनके खिलाफ लड़ने के लिए अन्दर से कसमसाता है और इस बैचैनी को व्यक्त करने की भूख उसके अंदर है, अपने अन्दर खौलते हुए उस ''कुछ'' को शब्द देने की क्षमता उसके अन्दर है तो उसे व्यंग्यकार बनना ही पड़ेगा. मुझे भी जल्द ही लग गया था कि बाकी मेरे अंदर कुछ हो ना हो, वह बैचैनी और उसे व्यक्त करने की छटपटाहट तो जरूर है, सो मैंने केन्द्रीय विधा के रूप में व्यंग्य को चुन लिया.
डॉ. भावना शुक्लः आपको सर्वाधिक ख्याति अपनी आलोचना कृति ''हिन्दी व्यंग्य के इतिहास'' से मिली. आप स्वयं को व्यंग्य में अधिक सहज पाते हैं या आलोचना में?
सुभाष चंदरः देखो भावना, व्यंग्य मेरे मन की चीज है. उसने मुझे सर्जना का सम्पूर्ण सुख मिलता है. मानता हूं कि मैंने आलोचना कर्म भी किया है. इसके पीछे का एकमात्र सच यह है कि चूंकि व्यंग्य में आलोचना को लेकर, उसके इतिहास को लेकर व्यवस्थित काम नहीं हुआ था. व्यंग्य के बारे में जानने को उत्सुक लोग, शोधार्थी आदि के लिए, एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता थी जहां उन्हें एक ही स्थान पर गद्य व्यंग्य की प्रवृतियों से लेकर क्रमबद्ध इतिहास तक सब मिल जाए. फिर किसी न किसी को तो यह काम करना था, मैंने कर दिया. मेरी इतनी ही गलती है हा...हा..., तुम्हारे प्रश्न का अन्तिम हिस्सा टूट गया. मै स्वयं को सचमुच सहज व्यंग्य लेखन में ही पाता हूं. व्यंग्य मैं अपने मन से लिखता हूं और आलोचना मेरी विवशता मान सकती हो.
डॉ. भावना शुक्लः आपने व्यंग्य और हास्य दोनों में ही प्रचुर मात्रा में लेखन किया है. व्यंग्य छटपटाहट की अभिव्यक्ति है और हास्य मन की गुदगुदाहट दोनों के बीच संतुलन कैसे बैठा लेते हैं?
सुभाष चंदरः इस प्रश्न का उत्तर तो आपने ही दे दिया. बेचैनी होगी तो व्यंग्य और मस्ती होगी तो हास्य! हिन्दी में हास्य लेखन को वैसे भी बहुत गंभीर रचनाकर्म नहीं माना जाता. एक समय था जब हमारे वरिष्ठ रचनाकारों ने हास्य लेखन पर भी महत्वपूर्ण काम किया था. अन्नपूर्णानन्द वर्मा, जी.पी. श्रीवास्तव, श्री नारायण चतुर्वेदी, गोपाल प्रसाद व्यास आदि की ख्याति उनके हास्य लेखन को लेकर अधिक थी. बाद में केशवचंद्र, शरद जोशी, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि ने व्यंग्य के साथ-साथ सुरुचिपूर्ण हास्य लेखन को भी समृद्ध किया. उसके बाद हमारे समय के महान व्यंग्यकार ज्ञान चतुर्वेदी ने भी हास्य लेखन को उसकी खोई गरिमा दिलाने की कोशिश की. हरीश नवल, श्रवण कुमार उर्मलिया आदि के खाते में भी कुछ अच्छी हास्य रचनाएं हैं. लेकिन यह संख्या बहुत कम है. व्यक्तिगत स्तर पर मुझे हास्य कहानियां लिखने में मजा आता है. आपको आश्चर्य होगा कि हास्य कहानियों की मेरी किताब ''थोड़ा हंस ले यार'' से पहले तीसियों वर्षों तक हिन्दी में हास्य कहानियों की किताब ही नहीं थी. हास्य को दोयम दर्जे का समझने की यह प्रवृति सिर्फ हिन्दी में है, अन्य भाषाओं में ऐसा नहीं है.
डॉ. भावना शुक्लः एक प्रश्न और यह देखा गया है कि आज के अधिकांश व्यंग्यकारों के संग्रहों में व्यंग्य लेखों की बहुतायत है. बहुत से रचनाकार तो ऐसे हैं जो जानते हैं कि वे व्यंग्य कथा लिख ही नहीं सकते. जबकि आपके जितने संग्रह मैंने देखे हैं, उनमें व्यंग्य कथाओं की तादाद ज्यादा है, इसका क्या कारण है?
सुभाष चंदरः दरअसल कहानी से मेरा लगाव बचपन से है. मेरी दादीजी हमें बचपन में रोज कहानियां सुनाती थी. कहानियां सुने बिना हम सोते ही नहीं थे. आगे जाकर जब पढ़ने का संस्कार बना तो कहानी और फिर उपन्यास आकर्षण का केन्द्र बने. लिखते समय भी इसी कहानी ने फिर से आकर्षित किया. वैसे भी मेरा मानना है कि कथा के माध्यम से आप व्यंग्य को कहीं सहज अभिव्यक्ति दे पाते हैं. पाठक तक उनका
साधारणीकरण आसानी से हो जाता है. वैसे व्यंग्य कथा लिखने के पीछे का एक सच यह भी है कि हम जब भी शाश्वत व्यंग्य की बात करते हैं तो उसमें कहानी सबसे ऊपर आती है. परसाई हों या शरद जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी हों या गोपाल चतुर्वेदी हो, जब भी उनकी श्रेष्ठ रचनाओं की बात आती है तो हम उनकी व्यंग्य कथाओं को ही गिनाने लगते हैं. परसाई की भोलाराम का जीव, इन्सपेक्टर मातादीन चांद पर, शरद जोशी की जीप पर सवार इल्लियां, वर्जीनिया वुल्फ से कौन डरता है, रवीन्द्रनाथ त्यागी की चन्द्रमा की सच्ची कथा, गोपाल चतुर्वेदी की पुल के नीचे की धरती इसका सशक्त उदाहरण हैं. मैं अपने बारे में भी यह मानता हूं कि मेरी यूएसबी तो मेरी व्यंग्य कथाएं ही हैं. निबंध मैं लिख लेता हूं पर मुझे जो आनंद ''कबूतर की घर वापसी'', ''काफिर और म्लेच्छ की कहानी'', ''सच्ची-मुच्ची की प्रेम कहानी'', ''अकाल भोज'', ''थाने में बयान'' जैसी व्यंग्य कथाएं लिखकर मिला, वह आनंद व्यंग्य निबंध में कभी नहीं आया. इसे आप मेरी कमजोरी मान सकती हैं.
डॉ. भावना शुक्लः पिछले दिनों आपका व्यंग्य उपन्यास अक्कड़-बक्कड़ बहुत चर्चा में रहा. एक डेढ़ साल में उसके कई संस्करण भी आये. उस पर कई आरोप भी लगे कि उसकी भाषा भदेस है, उसके कुछ प्रसंगों को अश्लील भी माना गया. इन आरोपों पर कुछ कहना चाहेंगे?
सुभाष चंदरः हम्म...यह सच है. ये आरोप काफी हद तक सही हैं. होता क्या है कि हम कई बार वास्तविकता को सामने लाने और सहज वातावरण निर्मित करने के चक्कर में कुछ छूट ले लेते हैं. पात्रों के मुंह से अवसरों के अनुकूल भाषा भी देते हैं, इससे सहजता आती है, देशकाल के हिसाब से वास्तविकता भी आती है, पर कहीं-कहीं शुचिता के समर्थक पाठकों को यह खलता भी है. जहां तक अक्कड़-बक्कड़ की बात है. यह एक गांव के कुछ बिगड़े हुए बेरोजगार युवकों की कथा है जो येन-केन प्रकारेण अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हैं. प्रेम से लेकर नौकरी तक सब में उनका सही दृष्टिकोण चलता है. उनकी भाषा भदेस तो होनी ही थी. फिर ब्रज क्षेत्र के ग्रामों में अगर आप जायें तो देखेंगे कि एक अलग किस्म की मस्ती, भदेसपन, गालियां वहां की मिट्टी में घुली हुई है. फिर भी मैं मानता हूं कि मुझे थोड़ा संगत होना चाहिए था. साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि अगर मेरे अगले उपन्यास के पात्रों और उनके चरित्र की मांग होगी तो शायद मैं यही गलती फिर दोहराऊंगा. अपने पात्रों के साथ अन्याय करने की मुझमें हिम्मत नहीं है. हां, आरोप जो झेलने ही पड़ेंगे, उनके लिए हमेशा तैयार हूं.
डॉ. भावना शुक्लः युवा व्यंग्यकारों के लेखन से आप संतुष्ट हैं? क्या आपको लगता है कि वे व्यंग्यधर्मिता के साथ न्याय कर रहे हैं?
सुभाष चंदरः इस संबंध में मेरी प्रतिक्रिया सामान्यीकृत हो सकती है. युवा रचनाकारों में ऐसे बहुत से लोग हैं जो व्यंग्य के प्रति पूर्ण समर्पित हैं. वे अपने सरोकारों के प्रति गंभीर है, उनके प्रयोग करने की क्षमता है, जो शैली के यथेष्ट प्रयोग को लेकर बहुत सजग हैं, जिन्हें विषयों की अच्छी समझ है, जो बहुत तैयारी के बाद, बहुत अध्ययन के बाद इस क्षेत्र में आये हैं. वे व्यंग्य के सुनहरे भविष्य के लिए आशान्वित करते हैं. वहीं कुछ ऐसे भी हैं जो राजनीति पर चटखारेदार टिप्पणियों को व्यंग्य समझ लेते हैं जिन्होंने ना अपने वरिष्ठों को पढ़ा है ना समकालीनों को. उनसे मुझे सिर्फ इतना ही कहना है कि व्यंग्य बहुत समर्पण मांगता है, यह आसान विधा नहीं है. ठीक है आज तुम येन केन प्रकारेण अखबारों के स्तंभों में जगह पा लोगे, पर इतिहास तुम्हें कभी याद नहीं रखेगा. सो व्यंग्य में आओ तो तैयारी के साथ. सौ पढ़ो, दस गुनो, तब एक लिखो का सिद्धान्त हर विधा के साथ-साथ व्यंग्य के लिए भी जरूरी हैं.
डॉ. भावना शुक्लः आप हमारे पाठकों और नये व्यंग्य रचनाकारों को क्या सन्देश देना कहेंगे?
सुभाष चंदरः मैं बस इतना ही कहना चाहूंगा की साहित्य हमारे जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. इसी के माध्यम से हम सभी स्वयं को अभिव्यक्त करते हैं. पाठकों का स्नेह ही हम रचनाकारों का पारिश्रमिक है. और युवा व्यंग्य रचनाकारों को हमेशा अध्ययनशील होना चाहिए. जितना अध्ययन वे करेंगे उतना ही बेहतर वे अभिव्यक्त भी कर पाएंगे.
संपर्कः सह संपादक प्राची
डब्ल्यू जेड 21, हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर,
पष्चिम विहार, नई दिल्ली- 110056
मोबाइलः 09278720311
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