संपादकीय / प्राची - जुलाई 2016 / राकेश भ्रमर

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  संपादकीय सावन फिर रुलाएगा राकेश भ्रमर आ षाढ़ आ गया. इसके बाद सावन भी आ जाएगा. इसी तरह महीने-दर-महीने आते रहते हैं. मौसम बदलते रहते हैं. ...

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संपादकीय

सावन फिर रुलाएगा

राकेश भ्रमर

षाढ़ आ गया. इसके बाद सावन भी आ जाएगा. इसी तरह महीने-दर-महीने आते रहते हैं. मौसम बदलते रहते हैं. परन्तु मौसम के अनुरूप न तो सर्दी, गर्मी और वर्षा होती है, न आदमी के जीवन में कोई उल्लेखनीय परिवर्तन...

आदमी की स्थिति 'जैसे सूखे सावन, वैसे भरे भादों' जैसी हो गयी है. वर्षा ऋतु आती है, बादल भी आते हैं, कुछ बूंदाबांदी भी होती है, परन्तु जितनी अपेक्षा होती है, उतनी वर्षा नहीं होती है. कहीं-कहीं होती है, जहां उसकी उतनी आवश्यकता नहीं होती है. पहाड़ों में बादल फट जाते हैं, रेगिस्तान में बाढ़ आ जाती है; परन्तु मैदानी खेतों में, जहां वर्षा की सबसे अधिक आवश्यकता होती है, वहां वर्षा ऋतु में बादल किसानों से आंख-मिचौली खेलते रहते हैं. वहां बादल तो नहीं रोते, परन्तु किसान और मजदूर के रोने के लिए आंसुओं के कुएं खोदकर चले जाते हैं.

सावन में स्त्रियों को विरह भी बहुत सताता है. विरह की मारी स्त्रियों के लिए वर्षा से कोई लेना-देना नहीं होता. वह तो बस बादलों को उमड़ता देखकर अपने प्रिय की यादों में खो जाती हैं. बादल जब उड़ते हुए धरती के नजदीक आते हैं तो वह उनमें अपने प्रियतम का प्रतिरूप देखती हैं, और सोचती हैं, काश, उनके साजन इन्हीं बादलों में कहीं छिपे बैठे हों और अचानक वर्षा की बूंदों की तरह उनके आंगन में टपक पड़ें और वह लपककर उन्हें अपने आलिंगन में समेट लें. फिर कहीं जाने न दें.

परन्तु ऐसा नहीं होता...न वर्षा होती है, न उनके साजन का आगमन...ऐसे में किसान अपने सूखे खेतों में बैठकर रोता है, तो विरहणियां सूनी सेज पर लेटकर...एक की आंखों में आंसू सूख जाते हैं, तो दूसरी की आंखों में गंगा-जमुना की धाराएं उमड़-उमड़कर बहने लगती हैं. काश, कोई ऐसा उपाय होता, जिससे विरहणियों की आंखों से बहने वाले आंसुओं से हम खेतों को सींच सकते या उनका संचयन करके बाद में उपयोग में लाते.

परन्तु ऐसा कैसे हो सकता है? मनुष्य तो अपने प्राकृतिक जल ोतों को ही बचाकर नहीं रख सका. नदियों को नाला बना दिया और नालों के ऊपर उसने बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दीं. तालाबों को पाटकर वह खेती कर रहा है और कुएं तो गधे के सिर से सींग की तरह गांव-शहर, हर कहीं से गायब हो गये हैं. उनको ढूंढ़ने के लिए पुरातत्व विभाग की सेवाएं प्राप्त करनी पड़ेंगी. किसी आम आदमी के वश की बात नहीं है, कि वह धरती से विलुप्त हुए कुएं-तालाबों को खोज निकाले. परन्तु मुझे विश्वास है, आज हम भले की अपनी कुएं-तालाब की विरासत को भूल गये हों, परन्तु एक दिन इतिहास हमारी इस महान संस्कृति को खोज निकालेगा और भावी पीढ़ियां उसे पढ़-पढ़कर हमें याद नहीं करेंगी, बल्कि कोसेंगी कि हमने धरती से प्राप्त होनेवाले जल नाम के अमृत को कैसे नष्ट कर दिया.

कहीं, विषयांतर तो नहीं हो रहा? सुधी पाठक माफ करें, मैं पुनः अपनी बात पर आता हैं. हां, तो मैं कह रहा था कि सावन में विरह की मारी विरहणियां अपने प्रियतम की याद में विरह गीत गाती हैं. यहीं विरह गीत अब बिरहा के नाम से पूरे उत्तर भारत, विशेषकर पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के भोजपुर अंचल में बहुत प्रसिद्ध हैं. बिरहा गीत सुनकर विरहणियों को और अधिक दुःख होता है. उनका कष्ट बढ़ जाता है. नाग की तरह काली रातें उनको नागिन की तरह डसती हैं, वह ठीक से सो नहीं पाती और फिर दिन भर वह बौरायी हुई दरवाजे की चौखट पर बैठी एकटक पूरब की ओर ताकती रहती हैं. क्या पता उनके साजन कब लौटकर आ जाएं और सचमुच उनके साजन तो एक दिन लौटकर आ जाते हैं, परन्तु वर्षा निगोड़ी कभी नहीं आती. साल-दर-साल वह धोका देती रहती है. किसानों की तरसाती रहती है. प्रति वर्ष वर्षा ऋतु में वह आसमान से कुछ बूंदें गिराकर किसानों के मन में आशाओं के बादल उड़ाती है, परन्तु उनके मन के बादल भी आकाश के बादलों की तरह चुपचाप खिसक जाते हैं और फिर पूरे साल वह किसान को तरसाते रहते हैं.

कोई माने या न माने, परन्तु मेरा मानता है कि वर्षा के जो तथाकथित भगवान हैं- जैसे इन्द्र और वरुण. इनको हम बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ पूजते हैं. हमारी भक्ति और पूजा से वह हमारे ऊपर दयावान भी हो जाते हैं. हमारे मन की बात वह अच्छी तरह समझ जाते हैं. वह अच्छी तरह जानते हैं कि भारतवर्ष के लोगों को थोड़ी-सी वर्षा होते ही किन-किन कठिन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है और उनको कितने कष्ट झेलने पड़ते हैं. थोड़ी-सी वर्षा होते ही आम नागरिक रोने लगता है. सड़क में दो लीटर पानी गिरते ही लंबे-लंबे जाम लग जाते हैं. गाड़ियां रेंग-रेंगकर चलती हैं और हजारों लीटर पेट्रोल और डीजल जाम की भेंट चढ़ जाता है.

इसके अतिरिक्त टूटी सड़कों में जगह-जगह गड्ढे होने के कारण उनमें पानी भर जाता है. उनमें गाड़ियां फंस जाती है या दुर्घटनाग्रस्त हो जाती हैं. छोटे बच्चों के उनमें डूबने की आशंका बनी रहती है. वैसे तो आदमी चुल्लू भर पानी में ही डूबकर मर जाता है, फिर सड़क के गड्ढों में तो उससे ज्यादा पानी होता है. उसमें दुर्घटनाग्रस्त होकर मरने का उसका रास्ता बड़ा आसान हो जाता है. परन्तु चूंकि मनुष्य के असमय स्वर्ग जाने की कोई अग्रिम बुकिंग नहीं होती, इसलिए भगवान ज्यादा तो क्या थोड़ी-सी भी वर्षा नहीं करते. न सड़क पर पानी रुकेगा, न जाम लगेगा, न गाड़ियों का एक्सीडेंट होगा, न लोग मरेंगे, न स्वर्ग की जनसंख्या में वृद्धि होगी. देवता वैसे भी मनुष्यों का स्वर्ग में आना पसंद नहीं करते. उसने देख लिया है कि वह धरती पर किस तरह झूठ बोलकर और साम, दाम, दंड भेद से सत्ता की कुर्सी पर विराजमान हो जाता है और फिर मरणोपरांत वहां से नहीं उतरता. उसी प्रकार अगर उसने स्वर्ग लोग में दांव-पेंच से भगवान की गद्दी हड़प ली, तो भगवान कहां जायेंगे. धरती पर उनकी मूर्तियों को लोग भले ही पूजते हों, परन्तु उन्हें जिन्दा देखकर उन्हें पीट-पीटकर मार डालेंगे, क्योंकि उनके कारण पण्डे-पुजारियों की दक्षिणा बंद हो जाएगी. जब जिन्दा भगवान मंदिरों में विराजमान हो जायेंगे तो दक्षिणा सीधे भगवान के पास जाएगी, पण्डे-पुजारियों को कौन पूछेगा. इसी आशंका से आज तक भगवान धरती पर उतरकर नहीं आए. मनुष्य उनके दर्शनों को तरस रहा है.

खैर, बात भटक न जाए, इसलिए मैं फिर सड़के पानी पर आता हूं. वर्षा ऋतु में सड़क का पानी बहकर कहीं नहीं जाता. वह जा भी नहीं सकता, क्योंकि नगर निगम की कृपा से सड़क के किनारे बनी नालियां बंद होती हैं. उनमें से चुल्लू भर पानी भी नहीं निकल पाता, तो वर्षा का 'इतना-सा' पानी कैसे निकल पाएगा. और अगर भगवान की किसी गलती से हजारों गैलन पानी बरस गया तो वह कहां से निकलेगा. इसीलिए भगवान मनुष्यों के कष्ट-निवारण हेतु वर्षा की बूंदों को आसमान में ही रोक लेते हैं, ताकि मनुष्य कंटकहीन जीवन व्यतीत करता हुआ उनको सदा याद करता रहे, और अपनी गाढ़ी कमाई के लाखों-करोड़ों रुपये उनकी मूर्तियों पर अर्पित करता हुआ सुख को प्राप्त हो.

भगवान अपने भक्तों का इतना ख्याल रखते हैं, फिर भी बहुत-से भक्त उन्हें कोसते हुए दिखाई देते हैं. कभी कम वर्षा का रोना रोते हैं, तो कभी अति वर्षा के लिए भगवान को कोसने लगते हैं. जब वह कम वर्षा का रोना रोते-रोते अपनी आंखों में बबूलों के जंगल उगा लेते हैं और उनके रात-दिन कोसने से भगवान की रातों की नींद उड़न छू हो जाती है, तो वह अपने बादलों को फाड़ कर धरती पर भारी वर्षा कर देते हैं, जिससे नदी-नालों, मैदानों-पहाड़ों से लेकर गांव-शहर की गली-कूचे, सभी जलमग्न हो जाते हैं. इस अति वर्षा से मनुष्य को अति कष्ट होता है. किसानों की खड़ी फसल बह जाती है, तो मजदूरों की दैनिक मजदूरी मारी जाती है. बड़ी-बड़ी इमारतें ढहने लगती हैं, तो मनुष्य फिर अपनी औकात में आ जाता है. एक तरफ वह भगवान की पूजा करके उन्हें मनाने का प्रयास करता है, तो दूसरी तरफ उन्हें कोसता हुआ कम वर्षा की मिन्नतें करता है.

हर परिस्थिति में हम भगवान को कोसने का काम भी करते हैं तो साथ-ही-साथ उनकी पूजा भी करते हैं. एक साथ भगवान को कोसने और उनकी पूजा करने से वह अनिश्चितता की स्थिति में आ जाते हैं. उनकी समझ में नहीं आता कि उनके भक्त वास्तव में उनसे चाहते क्या हैं? इसी अनिश्चितता की स्थिति में भगवान धरती पर कभी सूखा परोस देते हैं, तो कभी गुस्से में आकर बादलों को पीट-पीटकर इतना रुलाते हैं, जितना कोई दुष्ट शराबी नशे के अतिरेक में अपनी पत्नी को भी नहीं रुलाता होगा. तब बादल किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति के टूटे-फूटे शरीर की तरह फट जाते हैं और वह धरती पर रो-रोकर इतना पानी बहा देते हैं कि उसमें मनुष्य क्या, सारे जीव-जंतु बहने लगते हैं. मकान धराशायी हो जाते हैं, पेड़ उखड़ जाते हैं, परन्तु फिर भी निर्दयी इन्द्र और वरुण देवता को मनुष्यों पर दया नहीं आती. वह या तो अतिवृष्टि से मनुष्य का जीना मुहाल कर देते हैं या सूखे से उसे इतना रुलाते हैं कि उसकी आंखों के आंसू भी सूख जाते हैं.

यह सावन बड़ा निर्दयी होता है. सभी को हर हाल में रुलाता है, चाहे अतिवृष्टि हो, या चारों तरफ सूखा पड़ा हो. वह किसी के साथ भेदभाव नहीं करता.

सावन में वर्षा हो चाहे न हो, विरहणी केवल बादल देखकर ही उदास हो जाती है और कुछ बूंदें टपकते ही वह रोने लगती है. उसके आंसुओं का सैलाब थामे नहीं थमता. वह तभी थमता है, जब ''सूखे सावन या भरे भादों'' उसके साजन लौटकर उसकी बांहों में आ जाते हैं. विरहणी का दुःख तो एक दिन खुशियों में बदल जाता है, परन्तु किसान सदा रोता ही रहता है- कम वर्षा होती है, तब भी और अतिवृष्टि होती है, तब भी. हर जगह किसान की यही दशा है. उसके रोने से आंसुओं का सैलाब नहीं आता, कोई उसके आंसुओं से नहीं पिघलता, परन्तु उसका परिवार एक अनजान सैलाब में अवश्य बह जाता है.

सत्य तो यह है कि सावन ने सदा मनुष्य को दुःखों के सागर में डुबो-डुबो कर ही मारा है. नगर में रहने वाला आम नागरिक अपने तरीके से रोता है और किसान अलग तरीके से रोता है...रोते सभी हैं. हां, सबके रोने के कारण अलग-अलग होते हैं.

इस बार भी सावन आएगा. सभी को उसका इंतजार है. अब देखना यह है, कि सावन किसको कितना रुलाता है. मौसम विभाग सदा मनुष्यों को खुशियां प्रदान करने वाली भविष्यवाणियां करता है, परन्तु मैंने कभी नहीं देखा कि उन भविष्यवाणियों से कोई सुखी हुआ हो. देखते रहिए, सावन में कौन क्या गाता है?

क्या विरहणी इस तरह गाएगी-

''रिमझिम बरसै बदरिया, घरवा ना श्याम संवरिया,

जबसे चढ़ल सखी सावन महिनवा, घरवा ना श्याम संवरिया

रहि रहि पड़ेला फुहरवा, घरवा ना श्याम संवरिया.''

(साभारः हीरालाल यादव बिरहा)

या किसानों की आंखों में यह भाव होंगे-

''आंखों में आसमां है, नीचे जमीं नहीं है,

इस जिन्दगी को लेकर, आखिर कहां जियेंगे?''

और हमारे शहर का व्यक्ति इस तरह सोचेगा-

''दो बूंद क्या गिरीं, कि सब हैरान हो गए,

ठहरी सी जिन्दगी है, सब हलकान हो गए.''

सावन में केवल दुःखों की झड़ियां ही नहीं लगतीं. ऊपर जितना मैंने लिखा है, वह जीवन का मात्र एक पहलू है. जीवन के दूसरे पहलू में घुसकर देखिए तो आप सभी को वहां खुशियां ही खुशियां दिखाई पड़ेंगी. आम आदमी से अज्ञात इस सुखी संसार में कोई दुःखी व्यक्ति नहीं मिलेगा. यह संसार है, हमारे देश के व्यापारियों का...जो किसान के खेतों की उपज की दलाली करते हैं. सूखे और बाढ़ से इन व्यापारियों को कोई अंतर नहीं पड़ता. ये व्यापारी हर हाल में फलते-फूलते हैं. इनको किसी ''सूखे सावन और भरे भादों'' से लेना-देना नहीं ह़ोता. बल्कि जब कोई प्राकृतिक आपदा आती है, तो खुशियों के अतिरेक में इनके गाल टमाटर की तरह लाल हो जाते हैं. इनके पेट गर्भवती महिला की तरह आजीवन फूले ही रहते हैं.

लेकिन ऐसे खुश होने वाले व्यक्ति आम आदमी की श्रेणी में नहीं आते, इसलिए मैं तो यहीं कहूंगा कि सावन फिर रुलाएगा. जरा, सावधान रहिएगा.

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रचनाकार: संपादकीय / प्राची - जुलाई 2016 / राकेश भ्रमर
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