माह की कविताएँ

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सुशील शर्मा आशुतोषी माँ नर्मदा (एक भक्त की क्षमा याचना ) आशुतोषी माँ नर्मदा अभय का वरदान दो। शमित हो सब पाप मेरे ऐसा अंतर्ज्ञान दो। विषम ...

सुशील शर्मा

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आशुतोषी माँ नर्मदा

(एक भक्त की क्षमा याचना )

आशुतोषी माँ नर्मदा अभय का वरदान दो।

शमित हो सब पाप मेरे ऐसा अंतर्ज्ञान दो।

विषम अंतर्दाह की पीड़ा से मुझे मुक्त करो।

हे मकरवाहनी पापों से मन को रिक्त करो।

मैंने निचोड़ा है आपके तट के खजाने को।

आपको ही नहीं लूटा मैंने लूटा है ज़माने को।

मैंने बिगाड़ा आवरण ,पर्यावरण इस क्षेत्र का।

रेत लूटी और काटा जंगल पूरे परिक्षेत्र का।

मैंने अमित अत्याचार कर दुर्गति आपकी बनाई है।

लूट कर तट सम्पदा कब्र अपनी सजाई है।

सत्ता का सुख मिला मुझे आपके आशीषों से।

आपको ही लूट डाला मिलकर सत्ताधीशों से।

हे धन्यधारा माँ नर्मदे अब पड़ा तेरी शरण।

माँ अब अनुकूल होओ मेरा शीश अब तेरे चरण।

उमड़ता परिताप पश्चाताप का अब विकल्प है।

अब न होगा कोई पाप तेरे हितार्थ ये संकल्प है।

आशुतोषी माँ नर्मदा अभय का वरदान दो।

शमित हो सब पाप मेरे ऐसा अंतर्ज्ञान दो।

--.

छूट गए सब

जो छोड़ा उसे पाने का मन है।

जो पाया है उसे भूल जाने का मन है।

छोड़ा बहुत कुछ पाया बहुत कम है।

खर्चा बहुत सारा जोड़ा बहुत कम है।

छोड़ा बहुत पीछे वो प्यारा छोटा सा घर।

छोड़ा माँ बाबूजी के प्यारे सपनों का शहर।  

छोड़े वो हमदम वो गली वो मौहल्ले।

छोड़े वो दोस्तों के संग दंगे वो हल्ले।

छोड़े सभी पड़ोस के वो प्यारे से रिश्ते।

छूट गए प्यारे से वो सारे फ़रिश्ते।

छूटी वो प्यार वाली मीठी सी होली।

छूटी वो रामलीला छूटी वो डोल ग्यारस की टोली।

छूटा वो राम घाट वो डंडा वो गिल्ली।

छूटे वो 'राजू 'वो 'दम्मू 'वो 'दुल्ली '.

छूटी वो माँ के हाथ की आँगन की रोटी।

छूटी वो बहनों की प्यार भरी चिकोटी।

छूट गई नदिया छूटे हरे भरे खेत।

जिंदगी फिसल रही जैसे मुट्ठी से रेत।

छूट गया बचपन उस प्यारे शहर में।

यादें शेष रह गईं सपनों के घर में।

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विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

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नारी उवाच: (दोहे)
***************
घर का बाहर का करूं, मैं महिला सब काम |
फिर अबला कहकर मुझे, क्यूं करते बदनाम ||

मैं नाजुक सी कामिनी, मैं चंडी विकराल |
मुझसे लाजे कुसुम सब, मैं कालों की काल ||

कुदृष्टि मुझ पर तेरी, क्यूं करता ये भूल |
माता बहना प्रेयसी, हूँ मैं तेरा मूल ||

मैं तेरी सहचरणी हुँ , तू मेरा हमराज |
चिड़िया समझे तू मुझे, क्यूॉ अपने को बाज ||

तेरे मेरे मिलन से, ये जग है गुलजार |
मुझसे तेरी जीत है, मुझ बिन तेरी हार ||

मै अब अबला ना रही, सबला समझो मोय |
छोड़ दम्भ झूठे सभी, मैं समझाऊँ तोय ||

प्रकृति-पुरुष संसार के, हैं दो तत्व विशेष |
हटा दे गर इन्हें तो, नहीं बचे कुछ शेष ||

                     - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,
जिला- स.मा. (राज.)322201
मोबा:- 9549165579
Email ld
Vishwambharvyagra@gmail.com

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निसर्ग भट्ट


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“आँखोंदेखी"

गरीबों की गरिमा को कानून की चौखट पर बेबसी से बिकते देखा है हमने,
अमीरों के आँगन में ईमानदारी को नीलाम होते देखा है हमने,
देश के अन्नदाता को कर्ज के “कहर" से “जहर" के घूँट पीते देखा है हमने,
गायों को कत्लखानों में कटते और कुत्तों को महलों में संवारते देखा है हमने।

शहीदों के सम्मान की जगह कोफिनों पे करप्शन करते देखा है हमने,
वीरों की उन विधवाओं को दफ्तरों के चक्कर लगाते देखा है हमने,
मैकाले के मानसपुत्रों के हाथों इतिहास को विकृत करते देखा है हमने,
और आजाद-भगत जैसे क्रांतिवीरों की आतंकियों से तुलना करते देखा है हमने ।

आरक्षण की आगजनी से प्रतिभाओं को जलते देखा है हमने,
भ्रष्टाचार की भीषणता से कौशल्य को कुचलते देखा है हमने,
दहेज की अंधी प्यास में अपनी पुत्रवधू को जलाते देखा है हमने,
और भुखमरी से बेहाल मजदूर को मजबूरी से मिट्टी खाते देखा है हमने।

अंग्रेज़ियत की इस आँधी में हिंदी को बेबस बेवा बनते देखा है हमने,
पाश्चात्यकरण के इस प्रवाह में अपनी संस्कृति की शर्म को देखा है हमने,
मानवता के मंत्र देने वालों को साम्प्रदायिकता के शूली पे चढ़ते देखा है हमने,
और अपने आराध्य श्रीराम को तंबू में तड़पते देखा है हमने ।

जुनून के उस जज़्बात से झेलम को लाल होते देखा है हमने,
धर्म की धर्मान्धता में इंसान को हैवान बनते देखा है हमने,
कश्मीर में काफिरों के नाम से पंडितों को कटते देखा है हमने,
औरतों की अस्मिता को नंगे बदन लटकते देखा है हमने ।

सत्ता के उन दलालों के हाथों सीमाओं को बेचते देखा है हमने,
राजनीति के इस रण में लाशों को सीढ़िया बनाते देखा है हमने,
संसद के उन सदनों में शालीनता का नंगा नाच देखा है हमने,
और खादी पहनने वालों के हाथों गांधी को बिकते देखा है हमने ।
                                                  - निसर्ग भट्ट

वर्तमान निवास - अहमदाबाद
अभ्यास - Bsc. With biochemistry
जन्मतिथि - १२-८-१९९७
Email address - nisarg1356@gmail.com

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मुकेश कुमार

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हमें भी चाहिए....

हमारी ज़िन्दगी टुकड़ों में इधर-उधर भागती हैं
हमें भी चाहिए ज़िन्दगी में ठहराव....
सुकून-ओ-चैन, पल दो पल आराम ज़िन्दगी का
हां कब तक भागते रहेंगे कोल्हू के बैल की तरह
हमें भी चाहिए आराम ज़िन्दगी का
दर-बदर-दर की ख़ामोशी की ठोकरों में क्यों जीये
हमें भी गाना है ज़िंदगी तराने के
मुसाफ़िर को आराम चाहिए वहां तक पहुंचने के लिए
हमें भी चाहिए ज़िन्दगी की छाँव
कब तक आँसुओं को पीते रहेंगे पानी समझकर
हमें भी चाहिए दो घूँट हलक से उतारने को
हर दम टूट कर सितारों की तरह चले जाते हैं सपनों को पूरा करने को
हमारे भी कुछ अरमान दिलों में पूरा करने को

नाम:- मुकेश कुमार
Mob. +91884727473
E-mail:- mukeshkumarmku@Gmail. com
पता:- राधाकिशन पूरा, सीकर,
राजस्थान (332001),भारत.

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सुरेन्द्र अग्निहोत्री

मैं कराना हॅूं,

संगीत का घराना नहीं !

जीता जागता शहर

नफरत गलियों में बही।

विलंबित ताल,

हूं मैं किस हाल।

रोशनी बन गयी,

अपनों का काल।

मैं कराना हूं,

चबा रहा हूं पूरी हंसी

राजनीति के आगंन में फंसी !

पलायन को विवश

धर्मनिरपेक्ष अब चुप है

लंगडी हो गयी यहां खुशी।

डर से है सभी खामोश

लंगडे हो गये कानून

रतजगों में जिन्दगी फंसी

निरर्थक है शब्द

फिजा में कश्मीर की गंध

गंगा जमुनी नहीं रही मकरंद

अलविदा हो गये सभी संबंध।

मौन और चुप्पी नींद तोडेगी

खामोशी का रहस्य खेलेगी

उखड़ती सांसों से भी

रूकने सल्तनत में कील ठोकेगी।

वजीर और हुक्काम की चालाकी,

स्तब्ध विकल मन,सजा देना बाकी।

सुरेन्द्र अग्निहोत्री

ए-305, ओ.सी.आर.

बिधान सभा मार्ग;लखनऊ

मो0ः 9415508695

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ललित साहू "जख्मी"

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"जख्मी धारा 370"

सोचा था अपना मुंह ना खोलूंगा
बेमतलब  370  पर कुछ ना बोलूंगा

पंचायती राज जैसा जहां कोई विधान नहीं
भारत में होकर भी भारत का संविधान नहीं

न्यायालय की बात मानने भी कोई तैयार नहीं
स्वतंत्र अभिव्यक्ति का जहां हथियार नहीं

राष्ट्र ध्वज का अपमान जहां अपराध नहीं
मर्यादा पुरुषोत्तम राम जहां आराध्य नहीं

सूचना मांगने का भी जहां अधिकार नहीं
बोलो तुम इसका करते क्यों प्रतिकार नहीं

क्यों उपेक्षित, क्यों वंचित आरक्षण से
कश्मीरी अल्प संख्यक रह जाते है

क्यों फकत शादी से नागरिकता
पाकिस्तानियों को मिल जाते हैं

बताओ किसके हाथों तिरंगे फाडे जाते हैं
जाने किस द्वेश में नर जिंदा गाडे जाते हैं

क्यों मातम का माहौल स्वर्ग जैसी घाटी में
क्यों बिखरा रक्त भारत की पावन माटी में

जाने किस मंशा से चाचा ने टांग अडाई थी
कर हस्तक्षेप संविधान पर धारा 370 बनवाई थी

क्यों महिलाएं मजबूर सरिया कानून मानने को
"जख्मी" सदियों से बेचैन ऐसे तथ्य जानने को

एकता , अखंडता की शत्रु यह धारा
सच्चाई यह जग में सर्व विदित है

फिर क्यों जीवित , फलित है यह धारा
बोलो किसका स्वार्थ इसमें निहित है
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"आजादी कितनी सच्ची"

सचमुच आजाद है हम ?
या ये ढ़ोंग आजादी का है
बढ़ रहा भ्रष्टाचार, पापाचार
ये इशारा हमारी बर्बादी का है

रोटी के लिए मरते गरीब कई
कहते हो दोष बढ़ती आबादी का है
कचरे में पडे मिलते हैं अनाज
ये उंचे महलों में हुई शादी का है

राम के मुखौटों के पीछे
है बहरुपिया रावण खडा
लालच की महक से भरा
ये लिबास जरुर खादी का है

बहनों को तार-तार करता भेडिया
देखता ख्वाब शहजादी का है
कोख में बेटियों की होती मौतें
ये करतूत इंसानी जल्लादी का है

हो जाती है रौशनी चिरागों से भी
बारुद का शौक भटके जेहादी का है
भरे चौंक कुचली जाती मानवता
ये किस्सा अमीरों की उन्मादी का

मैंने देखा "जख्मी" आंखों से
आंसू बनकर टपकाता लहू
लाशों पर नाचता बेसुध राक्षस
हमारी ही सांप्रदायिकतावादी का है

कांक्रीटों का घनघोर जंगल
उद्घोषक हमारी नाँदी का है
जरा सुनो बगावत की सरसराहट
ये शोर सिसकियों की आंधी का है
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लौट ना जाना.....

हम नाराज भले हैं आपसे
पर राहों में पलकें अब भी बिछाते हैं
हमें खुश देखकर लौट ना जाना
हम तो दर्द हंसकर ही छुपाते हैं

मुद्दत हो गई मुलाकात किये
ना खुद आते हैं ना हमें बुलाते हैं
मालूम भी कैसे हो तड़प क्या है
आपके नाज जाने कितने ही उठाते हैं

हमने अपना जख्म ढंक तो लिया मगर
अश्क आंखों से छलक ही आते हैं
हमने ना खोली कभी यादों की किताब
वक्त-वक्त पर पन्ने खुद ही पलट जाते हैं

आपसे दूर ना रह सकते थे ना रह सकते हैं
ख्याल-ए-फासले से हम तड़प ही जाते है
गुजार लेंगे जिंदगी फकत खैरियत जान कर
आपकी परवाह में आंखें अब भी फड़क जाते हैं
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"सावधान देशद्रोहियों"

भाई समझ लगाया गले
कंधे पर भी तुझे बिठाऊंगा
बस एक बार कह दे तू
मैं भारत माँ की जय गाऊंगा

खाओ निवाला प्रेम से
तुम्हें छप्पन भोग खिलाऊंगा
जो छेद करोगे तुम थाली
एक बूंद को भी तरसाऊंगा

इंसानियत होती तार-तार
बंदूकों पर उंगलियों के इशारों से
मानवता होती शर्मसार
तुम्हारे देश द्रोही नारों से

मैंने फाडे नफरत के परदे
नकाब दोगले चेहरों से उतारुंगा
जिसने उठाई भारत माँ पर नजर
उसे घसीट- घसीट के मैं मारुंगा
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"कलयुग की छाप"

आज मैंने कई दोगले
चेहरे एक साथ देखे
अपनों को ही डसते
आस्तीन के सांप देखे

मासूम रक्तों से सने
शरीफों के हाथ देखे
लालच में लोगों को
गधे को बनाते बाप देखे

मक्कारों को बैठकर
करते मैंने जाप देखे
पापी पेट की खातिर
होते मैंने कई पाप देखे

बेटे की लाश पर मां की
रुदन और विलाप देखे
देखे अनाथ होते बच्चे और
मैंने विधवाओं के संताप देखे

लड़ते देखे भाई-भाई
बंटवारे में होते नाप देखे
जब झांका मानव के भीतर
मैंने कलयुग के छाप देखे
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** असहाय पिता **

होती होंगी कई मौतें पेटों में
पर मैंने तो तुम्हें मारा नहीं
सबने टोका तुम्हें धरा पर लाने से
पर मैं तो जमाने से हारा नहीं

ना मैंने बुढ़ापे की चिन्ता की
ना ही की वंश की खोखली बातें
तेरी परवरिश की चिंता में बेटी
बिना सोये गुजारी मैंने कई रातें

जब तू रोती थी बेटी
खिलौने मैं ले आता था
तेरी मुस्कुराहट की खातिर
घोड़ा मैं बन जाता था

तुझे पढाने से पहले ही
तेरी किताबें मैं रट लेता था
तुझे सुलाने मैं हर रोज कोई
परी कहानी गढ़ देता था

बोल बेटी तुझे कब मैंने
कमजोर का अहसास कराया है
जब- जब तेरा नाम आया
मैंने गर्व से सिर उठाया है

सोलहवें बसंत की दहलीज पर
तुमने गौर सारा संस्कार किया
अजीब समानों और तंग कपड़ों से
तुमने अपना साज श्रृंगार किया

उस पल ना टोका मैंने ये सोचकर
की तुम स्वछंद उड़ान भर पाओगी
लड़कों से भी आगे बढ़कर
तुम दुनिया में नाम कमाओगी

जाने किसकी पडी परछाई
की अब दुश्मन मुझे समझती हो
छोटी- छोटी बेतुकी बातों पर
अपनी मां से तुम उलझती हो

मेरे इन कानों तक पहुंची
तेरे प्रेम प्रसंग की कड़वी बातें
भरोसा किन्तु भय पितृ हृदय में
चूंकि देखी है कलयुग की वारदातें

मेरा एक ही तो सपना था बेटी
काबिल बना तेरा विवाह करने की
वो भी तोड़ तुमने कसमें खा ली
किसी और से निबाह करने की

उंगली थाम चलना सिखाने वाला
क्या अब जरा भी काबिल ना रहा
तेरे जीवन के अहम फैसलों में बेटी
क्यों अब मैं शामिल ना रहा
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" वीरांगना बहू "

पहली किरण संग उठ जाती
सबको सुला के ही वो सोती है
घर को अकेले संभालने वाली
वो वीरांगना बहू ही होती है

बच्चे की देखभाल करती
पति को चाय भी देती है
ससुर को देती ऐनक अखबार
और दूध भी बहू ही लेती है

देवर के नखरे मस्ती सहती
ननंद की राजदार वो होती है
देवरानी की गुरु, सखी, बहिन
घर की रानी भी बहु ही होती है

पाक कला में निपूर्ण होती
सास की सारी बातें सहती है
रहने दो मां जी मैं कर लूंगी
ऐसा सिर्फ बहू ही कहती है

कपड़े बर्तन झाड़ू पोंछे का बोझ
बिचारी चुप-चाप ही सहती है
स्वस्थ दिखती है पर रहती नहीं
दर्द में भी ठीक हूं बहू ही कहती है

होती है नौकरानी, चौकीदार
बहु घर की साहूकार भी होती है
ईश्वर का अहसास घर की लाज
सर का ताज भी बहू ही होती है

माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका
और नारी ही बहु भी होती है
दो कुलों के मजबूत रिश्तों की
आधार-शीला भी बहू ही होती है
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       "पत्नी गाथा"

पायी जाती दो प्रजातियां इनकी
एक गाय दूसरी शेरनी जैसी होती है
गाय मिली तो जिन्दगी लगती स्वर्ग
शेरनी मिली तो नरक जैसी होती है

घूमते रहे हर मौसम सर्वत्र स्वछंद तब
धर रुप मोरनी चहकती ठुमकती है
बेटी बन बाबुल का अंगना महकाती
दामनी बन ससुराल में चमकती है

कहती घर का सारा काम हूं करती
फिर ना जाने कब सजती संवरती है
हर फरमाईश उनकी पूरी करो वरना
बिना बात ही बिगडती झगड़ती है

भोजन अधपका नमकीन सा रहता
चैनलों में व्यस्त दिनभर ही रहती है
सोकर गुजरती उनकी हर दोपहरी
फिर भी आलस्य से ही घिरी रहती है

कपड़े गहनों की शौकीन बहुत
प्रतिस्पर्धा सखियों संग होती है
ना कहो उठने इनको चौपाल से
निंदा सुख की लय भंग होती है

मायके में सास को डायन बताती
सामने पूजा वो करने लगती है
ससुर बेचारे लगते बहु को सज्जन
ननंद के खरचे आंखों को चुभती है

सबकी कडवी बातें ताने सुनकर भी
एक पत्नी ही है जो समर्पित रहती है
रचना के गर्भ में छुपा अगाध प्रेम
वो मासूम भली-भांति समझती है

यह तो हास परिहास की बातें थी
मुझे कुछ दिन और अभी जीना है
कोई भी इनसे लड़के बच ना पाया
जिसने पत्नी का सुकून छीना है
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"जबसे छोड़ा साथ"

शीशे ने कह दीये राज सारे
बेबसी से हमारी वो खेलने लगे
हालात नहीं कि मैं कुछ कहूं
तकिये अब खुद ही बोलने लगे
जबसे छोड़ा साथ तुमने
हम अकेले ही चलने लगे
हमारी सिसकियों से शायद
खामोशियां भी जलने लगे
बड़ी मुद्दत के बाद फिर से
चंद अरमान दिल में पलने लगे
मुस्कुराया हमने महज दिखावे में
वो भी तकदीर को खलने लगे
ना जाने आंखों से अश्क भी
रुक-रुक कर क्यों बहने लगे
शायद मेरी तन्हाईयां भी अब
तेरी बेवफाईयां समझने लगे
हम तेरी रुह हुआ करते थे कभी
ना जाने कब से तुझे कसकने लगे
वाह रे नसीब! कांटे हमारे हिस्से!
क्यों फूल कहीं और महकने लगे ?

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ललित साहू "जख्मी"

ग्राम- छुरा   /  जिला - गरियाबंद  (छत्तीसगढ़)
मो. नं. – 9144992879

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लोकनाथ ललकार

चुनौतियों को अवसर बना लीजिए

चुनौतियों की परवाह न कर,

चुनौतियों को अवसर बना लीजिए

लक्ष्य की राह में अपने कदम तो रख,

फिर, कदमों का लश्कर बना लीजिए

चाहे सुखों का आसाढ़ हो

या दुःखों की बाढ़ हो

महकता मधुमास हो

या दहकता जेठमास हो

समय सतत् प्रवाह है

इसकी नहीं थाह है

दुर्दिन कभी ठहरा नहीं

सुदिन सदा महरा नहीं

चाहे राजा हो या रंक

महान् हो या भगवान्

समय के आगे सभी नतमस्तक हुए

समय की अर्चना के स्वर सजा लीजिए

चुनौतियों की परवाह न कर,

चुनौतियों को अवसर बना लीजिए

दुःखों का पर्वत टूटा था,

तब सेतु बांधे थे श्रीराम ने

द्वापर में गोकुल डूबा था,

तब पर्वत साधे थे श्याम ने

महाराणा को तृण की रोटी खानी पड़ी,

फिर उनने सैन्यबल का संचार किया

शिवाजी को अपने कदम रोकने पडे़,

पश्चात् उनने राज्य का विस्तार किया

पृथ्वी ने गौरी को सोलह प्राणदान दिए

पर कृतघ्न ने उनके नेत्रों का अवसान किया

”चार बांस, चैबीस गज“ बरदाई ने दिया आकार

तब राजन् ने शत्रु का शब्दवेधी किया संहार

संकट में शौर्य के वो पहर गुना कीजिए

चुनौतियों की परवाह न कर,

चुनौतियों को अवसर बना लीजिए

---

लोकनाथ ललकार

बालकोनगर, कोरबा, (छ.ग.)

मोबाइल - 09981442332

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi 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रचनाकार: माह की कविताएँ
माह की कविताएँ
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रचनाकार
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