मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है।अग्नि , जल, पृथ्वी , वायु और आकाश यही किसी न किसी रूप में जीवन का निर्माण करते हैं, उसे पोषण देत...
मनुष्य और पर्यावरण का परस्पर गहरा संबंध है।अग्नि , जल, पृथ्वी , वायु और आकाश यही किसी न किसी रूप में जीवन का निर्माण करते हैं, उसे पोषण देते हैं। इन सभी तत्वों का सम्मिलित , स्वरूप ही पर्यावरण है। पर्यावरण संरक्षण पाँच स्तरों पर सम्भव होगा-1- मानव-प्रकृति एवं परमेश्वर के सम्बन्ध, 2- मानव और अन्य जीव-जन्तुओं का सम्बन्ध, 3-मानव और प्रकृति के विविध रूपों का सम्बन्ध 4- मनुष्यों के आपसी सम्बन्ध, 5- वर्तमान पीढ़ी का भविष्य की पीढ़ी के सम्बन्ध। जैसे-जैसे मनुष्य प्रकृति के अनुदानों से लाभान्वित होता गया, उसके लोभ में भी बढ़ोत्तरी होती गयी। लोभ की वृत्ति ने श्रद्धा के भाव को कम कर दिया।इसके साथ ही प्रकृति पर आधिपत्य जमाने की सोच बढ़ती गयी। प्रकृति पर आधिपत्य जमाने का मतलब यह है कि हम प्रकृति को कितना भी नुकसान पहुँचाएँ, इसकी तनिक भी चिन्ता नहीं। इस क्रम में यूरोपीय आधुनिक विधा के महत्वपूर्ण विचारक फ्राँसीसी बेकन ने तो यहाँ तक कह डाला कि मनुष्य का प्रमुख कार्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करना है और उसे अपना गुलाम बनाना है।
पर्यावरण प्रदूषण का स्वरूप कोई भी हो, परन्तु उससे होने वाली हानि में सर्वप्रथम मानवीय स्वास्थ्य-संकट है। समाज का हित पर्यावरण की रक्षा में है एवं पर्यावरण स्वस्थ है तो व्यक्ति भी स्वस्थ रहेगा। मानव जाति को भटकने से महाविनाश से बचाना है तो यही एकमात्र उपचार अब बचा है।
विशेषज्ञों का इस बारे में यही सुझाव है कि मनुष्य को पर्यावरण के सन्तुलन को किसी भी कीमत पर बिगाड़ना नहीं चाहिए। जंगल, वृक्ष, वन सम्पदा, प्राकृतिक वैभव समूची मनुष्यता की सुरक्षा कवच है। इसे सुरक्षित रखकर ही हम भूकम्प जैसी आपदाओं से स्वयं को धूलिसात होने से बचा सकते हैं। पर्यावरण का प्राकृतिक वैभव ही हमारे उज्ज्वल भविष्य की सुनिश्चित सम्भावना को साकार करने में समर्थ है।
इन दिनों सम्पूर्ण विश्व में समग्र स्वस्थता के प्रति चेतना तो जगी है और उसकी प्राप्ति के लिए तरह-तरह के उपाय और उपचार भी हो रहे है; पर पर्यावरण को बचाये बिना इस प्रकार के प्रयास आधे, अधूरे और अधकचरे ही कहे जाएँगे।
प्राचीन कल में पर्यावरण संरक्षण की महत्ता -
प्राचीन भारत के वैदिक वांग्मय में ऐसे अनेक सूक्त-ऋचाएँ उक्तियों कथानक मिलते है, जिनमें प्रकृति के प्रति गहरा श्रद्धाभाव है।
यजुर्वेद का अध्ययन इस तथ्य का संकेत करता है कि उसके शाँतिपाठ में पर्यावरण के सभी तत्त्वों को शाँत और संतुलित बनाए रखने का उत्कट भाव है, वहीं इसका तात्पर्य है कि समूचे विश्व का पर्यावरण संतुलित और परिष्कृत हो।
ऋग्वेद की ऋचा कहती है-हे वायु! अपनी औषधि ले आओ और यहाँ से सब दोष दूर करो, क्योंकि तुम ही सभी औषधियों से भरपूर हो।
सामवेद कहता है -इंद्र ! सूर्य रश्मियों और वायु से हमारे लिए औषधि की उत्पत्ति करो। हे सोम! आपने ही औषधियों, जलों और पशुओं को उत्पन्न किया है।
अथर्ववेद मानता है कि मानव जगत के अधिक सन्निकट है। व्यक्ति स्वस्थ, सुखी दीर्घायु रहे, नीति पर चले और पशु वनस्पति एवं जगत् के साथ साहचर्य रखे।
वैदिक कर्मकाँडों की अनेक विधाओं ने भी पर्यावरण संरक्षण और सुरक्षा का दायित्व निभाया है।रामायण कालीन सभी ग्रंथों में जड़ व चेतन सभी तत्त्वों को चेतना संपन्न बताया गया है। रामचरितमानस के उत्तरकांड में वर्णन मिलता है कि चरागाह तालाब हरित भूमि , वन उपवन के सभी जीव आनंद पूर्वक रहते थे।भगवान् कृष्ण द्वारा गाई गीता में प्रकृति को सृष्टि का उपादान कारण बताया गया है प्रकृति के कण -कण में सृष्टि का रचयिता समाया हुआ है।
पर्यावरण संरक्षण की इस सुदीर्घ एवं अतिप्राचीन परंपरा का आधुनिकता की आग ने भारी नुकसान पहुँचाया है। दोहन और शोषण , वैभव एवं विलास की रीति नीति से पर्यावरण को संकट में डाल दिया है, फलतः जीवन भी संकटग्रस्त है, सब ओर विपन्नता है।
वर्तमान स्थिति भयावह है
पृथ्वी का अपनी धुरी पर गति का क्रम व उसकी ग्रहों से तथा अन्तरिक्षीय किरणों से प्रभावित होने की स्थिति अब बदलती जा रही है। वातावरण में संव्याप्त धूलिकणों की मात्रा, कार्बनडाय आक्साइड ओजोन की परतों पर जमाव तथा ज्वालामुखी विस्फोटों की शृंखला से पर्यावरण सन्तुलन बहुत बुरी तरह प्रभावित हुआ है। पृथ्वी का विकिरण सन्तुलन इससे अव्यवस्थित हुआ है तथा ओजोनोस्फीयर-आयनोस्फीयर की परतों में ‘गैप्स’ आ जाने से अन्तरिक्षीय किरणों-घातक विकिरणों के पृथ्वी पर आने की संभावनाएँ बढ़ गयी हैं। इन दिनों विनाश और सृजन के मध्य भयावह संघर्ष है। ध्वंस ने तो यह नीति अपनायी है कि मानवी दुर्बुद्धि से लेकर पर्यावरण असन्तुलन तक जितना सम्भव हो सके, अपनी मनमर्जी की जाय। रात जब आती है तो अन्धकार घना हो जाता है।न तो साँस लेने के लिए शुद्ध हवा है, न पीने को स्वच्छ जल, यहाँ तक कि मिट्टी भी विषैले रसायनों के कारण निरापद नहीं रही। ऐसी स्थिति में ध्यान अनायास प्राकृतिक वातावरण की ओर खिंच जाता है। अब तक वन्य प्रान्तर ही ऐसे क्षेत्र थे, जिन्हें इन सब से अछूता कहा जा सकता था; पर पर्यटकों की बढ़ती भीड़ ने इन्हें कहीं का न रखा। वन-पर्वत सभी धीरे-धीरे इसकी चपेट में आ रहे हैं। अन्यों की स्थिति तो फिर भी ठीक कही जा सकती है, पर जिस दिव्यता के लिए हिमालय को पहचाना और बखाना जाता था वह भी अब दयनीयता की कहानी कहने लगे हैं।
ऐसा अनुमान है कि एवरेस्ट मार्ग पर शिखर से ठीक पूर्व वाले शिविर-क्षेत्र में लगभग 80-85 हजार किलोग्राम कबाड़ पड़ा है। इनमें कनस्तर, डिब्बे, तम्बुओं के वारदाने खाली ऑक्सीजन सिलेंडर, पॉलीथिन बैग, कार्टून, पुलोवर, जैकेट, स्लीपिंग बैग, बर्फ हटाने वाले फावड़े , बर्फ काटने वाली कुल्हाड़ियाँ, रस्से, जीवनरक्षक और दर्द निवारक दवाइयों के पैकेट इत्यादि प्रमुख है।
पर्यावरण का विनाश स्वयं के अंतःकरण का विनाश है -
पर्यावरण में विघटन का तात्पर्य है अन्तःकरण में विघटन।मनोवैज्ञानिक इस तथ्य पर अपने मन्तव्य को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि पर्यावरण के विघटन के कारण हुआ अंतःकरण का विघटन अपनी अभिव्यक्ति द्विविध रूपों में कर सकता है। प्रथम तो यह कि अन्तःकरण के विघटन का ज्वालामुखी व्यक्ति के अन्तःकरण को नष्ट करने के साथ बाहर उभरकर दूसरों को चपेट में ले ले। हिंसा आदि की अधिकाँश घटनाएँ प्रायः उपरोक्त कारण की उपज होती हैं। द्वितीय यह कि इस विघटन में व्यक्ति अन्दर ही अन्दर घुटता गया, अपने को नष्ट करता रहे। व्यवहार विज्ञानियों का मानना है कि ऐसा व्यक्ति हिंसा भले न करे किन्तु वह पारिवारिक व सामाजिक स्तर पर टूटने के साथ स्वयं अपने से भी टूट जाता है।मानसिक स्तर पर बढ़ता बिखराव मनःचिकित्सकों ही नहीं, विश्व मनीषा के लिए चिन्ता का विषय है। रोगियों की बढ़ती जा रही दर का कारण परिवेश में, पर्यावरण में उत्पन्न की गयी विकृतियाँ हैं। परिवेश की इस परिधि में समाज एवं वातावरण दोनों ही समाहित हैं।”मनुष्य के जैविक आयाम, सामाजिक आयाम के साथ ही एक और इकॉलाजिकल आयाम” भी है। इन तीनों के साथ उसका एक-सा भावनात्मक सम्बन्ध है। इनमें से किसी के भी टूटने से गड़बड़ी का होना स्वाभाविक ही बन पड़ता है।स्वस्थ, समुन्नत और सुदृढ़ जीवन का सहज अर्थ है- इसके सभी आयाम सुगठित हों।उन्मादग्रस्त मनःस्थिति की विडम्बना से मुक्ति पानी है तो उन मधुर संबंधों को पुनः स्थापित करना होगा जो मानवी अंतःकरण मानव शरीर को उसके चहुँ ओर के पर्यावरण से जोड़ते हैं।
सामूहिक भागीदारी से ही पर्यावरण संरक्षण संभव -
3 जून को नर्मदा के संरक्षण के लिए संत भैयाजी सरकार के आवाहन पर सम्पूर्ण नरसिंहपुर जिला स्वस्फूर्त बंद हो गया था किसी ने कोई दबाब नहीं डाला। इस आन्दोलन से यह स्पष्ट हो गया कि पर्यावरण के संरक्षण में सामूहिक भागेदारी जरुरी है। प्रदूषित परिस्थितियों के भयावह घटाटोप में भविष्य का उजाला कहीं से नजर नहीं आ रहा। दुनिया को वर्तमान तबाही से बचाना तभी सम्भव है जब प्रदूषण के विरोध में जबरदस्त मुहिम छेड़ी जाए और यह मात्र नारों, स्टीकरों एवं सम्मेलनों तक सीमित न रहे बल्कि यह पुकार हर जन के अन्तःकरण से निकले और नैष्ठिक कर्मठता बनकर दिखाई पड़े।विश्व स्वास्थ्य संगठन’ के अनुसार वायु प्रदूषण इसी प्रकार जारी रहा तो इक्कीसवीं सदी के आने तक विश्व में कम से कम 9,75,000 व्यक्तियों के लिए आपातकालीन कक्ष की जरूरत पड़ सकती है। 8.5 करोड़ लोगों की दैनिक गतिविधियाँ पूरी तरह ध्वस्त हो जाएँगी। 7.2 करोड़ लोगों में श्वसन संबंधी बीमारियों के लक्षण प्रकट होंगे, लगभग 30 लाख बच्चे श्वसन रोग से पीड़ित नजर आएँगे, 90 लाख लोग अस्वस्थ और 2.4 करोड़ लोग फेफड़े सम्बन्धी रोगों से ग्रस्त हो सकते हैं। आज के पर्यावरण में प्रदूषण से बचने का उपाय कुछ इसी तरह के प्रावधानों को अपनाने से हो सकता है, जिसमें जन-जन की भागीदारी हो। केवल सरकारी प्रयत्नों से यह संभव नहीं है।
प्रकृति में हो रही इस अभूतपूर्व उथल-पुथल एवं परिवर्तनों से सारा विश्व चिन्तित एवं परेशान है, इसलिए विभिन्न पर्यावरण सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में धरती का प्रदूषण मुक्त करने की योजनाएँ बनायी जा रही हैं। सन् 1992 में रियोडी जेनेरा के पृथ्वी सम्मेलन में अनेक रचनात्मक योजनाओं एवं कार्यक्रमों की घोषणा की गयी। इसी के सार्थक प्रयास के कारण आज ओजोन मण्डल को बचाने का जबरदस्त अभियान शुरू हो सका है। ओजोन परत की रक्षा के लिए मिथाइल ब्रोमाइड बन्द करने हेतु सितम्बर, 1997 में मांट्रियल में सौ से अधिक देशों ने समझौता किया है।प्रदूषण की इस विनाशकारी समस्या से जूझने एवं बचने के लिए विश्वभर में पर्यावरण संरक्षण व संवर्द्धन के अनेक प्रयास किए जा रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू0एन0ई0पी0) ने 5 जून 1997 के दिन को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया। इसे ‘पृथ्वी सम्मेलन धन पाँच’ के रूप में जाना जाता है।
सारे सम्मेलनों, चेतावनियों एवं पर्यावरण सुरक्षा का विशालकाय तन्त्र खड़ा करने के बावजूद प्रश्न यथावत् है, समस्या की विकरालता घटने के स्थान पर बढ़ी है। क्योंकि जन भावनाएं) जाग्रत नहीं की गयी। प्रकृति के साथ मनुष्य के भाव भरे सम्बन्धों का मर्म नहीं समझाया गया। इसकी सारगर्भित व्याख्या नहीं की गयी। आज की वर्तमान पीढ़ी इस बात से अनजान है कि प्रकृति से उसके कुछ वैसे ही भावनात्मक रिश्ते हैं, जैसे कि उसके अपने परिजनोँ एवं सगे सम्बन्धियों से।इसका सुलझाव और समाधान भी साँस्कृतिक प्रयत्नों से ही सम्भव है।
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