अविद्या दे रही अभिशप्त जीवन - डॉ. दीपक आचार्य

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अब विद्या की बजाय अविद्या का प्रभाव सब जगह हावी है। विद्या से विनय, पात्रता, धन और धर्म आदि की प्राप्ति का आदि स्रोत अब सूख चला है क्योंकि अब विद्या रही नहीं इसलिए अविद्या का बोलबाला है।

विद्या व्यक्तित्व के सर्वांग विकास का परंपरागत और शाश्वत माध्यम  है, उजालों से आनंद का सफर देने वाली है, और आत्म आनंद से मोक्ष प्राप्ति तक के सारे ऊध्र्वगामी मार्ग और द्वार अपने आप खुलते चले जाते हैं।

विद्यावान इंसान सभी प्रकार के भयों, संकीर्णताओं और स्वार्थों से ऊपर उठे हुए होते हैं और इन लोगों को अपनी तरक्की के लिए किसी के पीछे-पीछे चलने, शोर्ट कट अपनाने, अपने आपको गिरवी रखने, सब कुछ उघाड़ कर पूरी बेशर्मी से पसर जाने, चापलुसी और स्तुतिगान के लिए कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ती बल्कि इनके लिए संसार के समस्त अच्छे व सात्विक लोग हमेशा सेवा के लिए उद्यत रहते हैं।

विद्या के मामले में हमारी परंपराओं, संस्कारों और मूल्यों का जितना अधिक खात्मा हुआ है उतना और किसी का नहीं। यह कहना गलत नहीं होगा कि दुनिया की सभी समस्याओं का मूल कारण विद्या हीनता है और यह सब अविद्या का प्रभाव ही है जिसके कारण इंसान अपनी ईश्वरप्रदत्त बौद्धिकता को चतुराई के रास्ते मोड़ कर खुद के उल्लू सीधे करने लगा है। 

जब वह अपने ही अपने स्वार्थ में रमा रहता है तब उसे कोई याद नहीं आता। यह अविद्या ही है जो अंधकार भरे रास्तों से होकर मखमली आनंद देती हुई उस जगह ले जाती है जहां अंधेरों की सियासत होती है और हर तरफ अंधेरों का परचम लहराता रहता है। यहां  जो आता है वह अंधेरा साथ लेकर आता है,  अंधेरा भेंट चढ़ाता है और अंधेरों के प्रसाद के साथ लौटता है। 

ज्ञान के क्षेत्र को ही देख लें तो कुछ समय पूर्व तक विद्यार्थी से लेकर दूसरे सारे क्षेत्रों में लोग विद्या की देवी सरस्वती को रिझाने के लिए खूब प्रयत्न किया करते थे। हमारी दैनन्दिन ज्ञान प्राप्ति, अध्ययन-अध्यापन और शिक्षा के सारे मामलों में विद्या की देवी सरस्वती का आवाहन हमारी प्राथमिकताओं में हुआ करता था।

सरस्वती को प्रसन्न करने के उपचारों के बाद ही हमारा विद्याध्ययन और शैक्षिक-प्रशैक्षिक आदि ज्ञान मार्ग के द्वार खुलते थे।  और इसके लिए सबसे पहले शुचिता का वरण किया जाता था।  पहले नहा-धोकर पढ़ाई-लिखाई होती थी और देवी सरस्वती का ध्यान होता था। रोजाना सरस्वती की उपासना होती थी। और कुछ नहीं तो इससे पहले हाथ-मुँह धोकर पूरी पवित्रता का भाव रखकर अध्ययन-अध्यापन होता था। उस समय यह सारे उपचार पवित्रता देने से लेकर एकाग्रता के भाव मजबूत करने, मस्तिष्क की ग्राह्यता क्षमता को बढ़ाने तथा आलस्य से मुक्ति देने का काम करते थे।

पूरी शुचिता और दिव्य भावों के साथ जो लोग पढ़ाई-लिखाई करते थे, स्वाभाविक रूप से उनकी याददाश्त तगड़ी होती थी और कम समय में ही अधिक ज्ञानार्जन हो जाता था। यही कारण था कि उनकी मेधा-प्रज्ञा का कोई जवाब नहीं होता था। चाहे जिस विषय और क्षेत्र की बात हो, इनकी विद्वत्ता का लोहा हर कोई मानता ही था। 

अब यह सब देखने में नहीं आता इसलिए पवित्रता, एकाग्रता और दिव्यता समाप्त प्रायः होती जा रही है और इसका सीधा असर ये हो रहा है कि न वो विद्वत्ता दिखाई देती है, तर्कशक्ति और न ही ओज-तेज भरा वह चेहरा जिससे मेधा-प्रज्ञा का महातेज हमेशा मुख मण्डल से झरता रहता था।

अब पढ़ने-लिखने वालों का विद्या की देवी या ज्ञान का वरदान बाँटने वाले दूसरे देवी-देवताओं से कोई सरोकार नहीं रहा। अब केवल और केवल किताबें दिखती हैं या फिर कम्प्यूटर और मोबाइल। सब कुछ मशीनी हो गया है तो आदमी भी क्यों पीछे रहे।

वह भी अपनी मौलिक इंसानी ताकतों को भुला कर या नष्ट-भ्रष्ट कर ऎसा हो गया है कि जैसे उस अकेले को ही अपने लिए ही कमा-खाने और मौज उ़ड़ाने के लिए धरती पर भेजा गया है। इसके सिवा उसके पास और केाई दूसरा काम न करणीय है, न चिन्तनीय। 

नहाना-धोना, पवित्रता का अहसास, विद्या प्राप्ति कराने वाली दैवीय परंपरा की उपेक्षा, खाने-पीने और एंजोय करने की मानसिकता हावी है इसलिए हम लोग पवित्रता को त्याग कर या तो किताबी कीड़ों, कम्प्यूटरी मायाजाल या फिर मोबाइल के नेटवर्क से जुड़े हजारों पाशों से इतने अधिक जकड़े हुए हैं कि हमें यह तक पता नहीं कि हमारे आस-पास जिन्दगी भी है।

दिन भर गरिष्ठ और पैक्ड़ खाने में मस्त हमारी नई पीढ़ी को यह तक पता नहीं है कि खान-पान का संबंध जिह्वा के स्वाद की बजाय शरीर के पोषण से भी है। इसलिए दुनिया भर में जो कुछ आकर्षक खान-पान है उस तरफ भीड़ टूट पड़ती है और कचरा पेटी को ठूंस्-ठूंस कर भरती रहती है। बाद में चाहे जो हो, किसी को क्या।

सारी भीड़ यही कर रही है और ऊपर से नए जमाने का आधुनिक कहलाकर गर्व का अनुभव भी कर रही है।  कुल मिलाकर यह अविद्या का ही प्रभाव सर्वत्र देखा जा रहा है कि आदमी का जीवन पैसा बनाने, जमा करने और दूसरों से कुछ अलग और बड़ा या महान दिखने का भूत सवार है।

हम सभी लोगों को मिनी टकसाल कहा जाए तो ज्यादा अच्छा है। यह अविद्या ही है जिसके कारण से बड़े-बड़े लोग घूस खोर बने हुए हैं,  भिखारियों की तरह पेश आ रहे हैं, सब कुछ मुफत में पाने को उतावले बने रहते हैं, हराम का मिल जाए, बस।

अविद्या कुसंस्कारों और स्वार्थों की जननी है और जो लोग अविद्या के सहारे आए हैं वे सारे के सारे भ्रष्ट, बेईमान और दस्यु मानसिकता के होंगे ही। क्योंकि इन लोगों का ईष्ट अंधेरा ही रहा है।  

विद्या और अविद्या के भेद को जानें और अपने आपको अंधकार से बाहर निकालें। पूरी शुचिता के साथ विद्याध्ययन करें। आलस्य के साथ पढ़ाई करने का कोई फायदा नहीं है। जीवन को अंधकार से बचाना है तो उजालों का आवाहन करें और उजाले सिर्फ विद्या ही दे सकती है जिसमें पग-पग पर पवित्रता और दिव्यता का वरण करना नितान्त जरूरी होता है।

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अविद्या दे रही अभिशप्त जीवन - डॉ. दीपक आचार्य
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