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शरीर का सीधा संबंध चित्त और दिमाग से रहता है। यों कहें कि सूक्ष्म रूप में जो संस्कार हमारे चित्त में आते हैं, जो विचार मस्तिष्क में अंकुरित होते हैं वे समाप्त नहीं होते जब तक कि ये अपने अंतिम लक्ष्य या परिणति को प्राप्त न हो जाएं।
और ऎसा होना कभी संभव है ही नहीं क्योंकि एक इंसान के दिमाग में हर पल कुछ न कुछ विचार उठते रहते हैं। इनमें यदि सकारात्मक विचार होगा तो यह नुकसान नहीं करेगा, क्योंकि इसके प्रति हम उतने गंभीर नहीं होते जितने होने चाहिए। इस स्थिति में यह विचार अपने पास से होकर औरों के पास चला जाता है और पात्र की तलाश लगातार जारी रखते हुए जहाँ कहीं कोई पात्र मिल जाता है वहाँ जाकर टिक जाता है और थोड़े से दिनों या घण्टों में अपनी पूर्णता को प्राप्त कर लेता है। इसे अपने लिए किसी स्थूल जगह की आवश्यकता नहीं होती।
लेकिन विचार के नकारात्मक और विध्वसंक होने पर उसका सूक्ष्म अस्तित्व उपस्थित होगा, इसका अंकुरण हो जाएगा और फिर वह दिमाग में हमेशा-हमेशा के लिए शोर्ट कट के रूप में पड़ा रहेगा। जैसे ही दिमाग में किसी विचार का कोई सा शोर्ट कट सृजित होता है वह पूरे शरीर में कहीं न कहीं किसी न किसी अंग में अपने लिए स्थूल स्थान या पॉकेट तलाशता है और थोड़े दिन में स्थान बना लेता है।
यह स्थूल स्थान अतिरिक्त चर्बी के रूप में होता है जो शरीर के किसी भी हिस्से में जगह बना सकता है। जो लोग नकारात्मक विचारों, फालतू की चर्चाओं, निन्दा, एक-दूसरे को नीचा दिखाने, शिकायतों के माध्यम से औरों का अहित करने वाले, बड़े लोगों की चापलुसी कर कान भरने वाले, औरों के नाम पर बन्दरिया उछलकूद करने वाले, सज्जनों को तनाव देकर दुःखी करने वाले, ईष्र्या-द्वेष, अपराधों, अहंकार, शोषण, भ्रष्टाचार, बेईमानी और अमानवीय कामों से जुड़े रहते हैं उन लोगों में स्थूलता का एक कारण यह भी है।
हालांकि स्थूलता शारीरिक और आनुवंशिक कारणों से भी होती है लेकिन यह भी देखा गया है कि लोग जितने अधिक पाप करते हैं, दुष्ट, नालायक और व्यभिचारी होते हैं, पाप कर्मो वाले पुरुषों का खान-पान करते हैं, साथ रहते हैं, इनके साथ समागम करते हैं, हराम की कमाई पर जिन्दा रहते हैं और जिनका तन-मन-मस्तिष्क आदि सब कुछ मलीन होता है वे लोग सहज-स्वाभाविक रूप से स्थूलता प्राप्त करते जाते हैं।
इसके अलावा स्थूलता आरामतलबी जिन्दगी, वंशानुगतता और दूसरे कई प्रकार के रोग की वजह से भी हो सकती है लेकिन यह भी साफ देखा गया है कि जब कोई इंसान गुप्त या प्रकट किसी भी रूप में पाप कर्म करने लगता है अथवा पापियों, ढोंगियों, झूठों, भ्रष्ट लोगों, व्यभिचारियों, संवेदनहीनों और धूर्त-मक्कारों को प्रश्रय देता है, उनका संरक्षण करता है और उन्हें प्रोत्साहित करता है अथवा अपना मित्र बनाता है तब उसकी स्थूलता तीव्रता से बढ़ती चली जाती है।
इसका एक कारण यह भी है कि जो इंसान पुरुषार्थी होता है वह जी तोड़ मेहनत करके कमाता और खाता है तथा पूरी ईमानदारी के साथ परिश्रम की कमाई से अपना परिवार पालता है। लेकिन जो लोग अपने दिमागी चातुर्य और शोषण-अन्याय-अपराध व बेईमानी के रास्ते से हराम का पैसा खाते हैं, चाहे जहाँ मुफत का खान-पान करते हैं उन लोगों की जिन्दगी बिना मेहनत की बैठे-बैठे होने वाली कमाई के कारण आरामतलबी से भर जाती है, मुफ्त में सारे भोग-विलास प्राप्त हो जाते हैं और इस वजह से उन्हें न परिश्रम करना पड़ता है, न परिश्रम कर ही पाते हैं।
और इस स्थिति में इनके शरीर को आलस्य-प्रमाद और स्थायी शैथिल्य घेर लेता है। एक तरफ मेहनत का अभाव, दूसरी तरफ हराम के खान-पान से पहले वाले शरीर के कारण इनके शरीर पर अपना बस नहीं चलता, इनका शरीर उन लोगों के चलाये चलने लगता है जिनका खा-पीकर इनका शरीर बना होता है।
यही कारण है कि ये लोग परिश्रम के अभाव में आलसी हो जाते हैं और इनका शरीर कबाड़ या कचरा भरी बोरियों या बोरों की तरह होकर रह जाता है। ये लोग एक समय तक ही अपने शरीर से काम ले सकते हैं। इसके बाद न खुद हिल-डुल सकते हैं, न कुछ काम ही कर सकते हैं। और इस वजह से इनकी स्थूलता का ग्राफ निरन्तर बढ़ता रहता है।
यह वह अवस्था है जिसमें बिना पुरुषार्थ के पराया खान-पान, दुष्ट एवं पापियों के साथ रहने और उनसे व्यवहार रखने का दोष हमारे सिर पर होता है, उन अपराधियों, भ्रष्टाचारियों के साथ या पास रहने से आभामण्डल की शुभ्रता कालिख में बदल जाती है और नकारात्मक सूक्ष्म शक्तियों के लिए अपना शरीर डेरा बन जाता है।
इन सभी को आश्रय देने के लिए हमारी शारीरिक संरचना ही ऎसी हो जाती है इसमें व्यापक स्थूलता अपने आप आकार लेने लगती है। कुछ अपवादों और शारीरिक बीमारियों को छोड़कर स्थूलता का सीधा संबंध आलस्य-प्रमाद, पुरुषार्थहीनता और किसी न किसी तरह के अमर्यादित आचरण से है।
स्थूलता की यह स्थिति न भी हो तब भी शरीर में अन्न का एक दाना और पानी की एक बूंद भी यदि परायों की है, हराम की कमाई से अर्जित है अथवा मुफ्त में पायी गई है, तब वह बूंद और दाना भी हमारे मरने से पहले शरीर से बाहर निकलेगा ही निकलेगा।
इसीलिए ऎसे लोगों को गंभीर एवं असाध्य बीमारियां हो जाती हैं और मरने से पूर्व सारी पाप कमाई और हराम का खाया-पीया बाहर निकल जाता है और खटिया पर पड़-पड़े सड़ते हुए इनकी मौत आती है। आज भले ही हम पैसे बचाने के चक्कर में मुफतिया खान-पान और आवास तलाशते रहें, इसका हश्र बुरा ही होना है और यह बचाया हुआ धन पूरा का पूरा निकलता ही है।
समझदार लोग यदि इस स्थिति पर गंभीरता से चिन्तन कर अपने भीतर के दोषों और पापों को जानने के प्रयास करें और इनसे बचने तथा पुराने पापों के प्रायश्चित के माध्यम से शुचिता लाने का प्रयास करें तो इस स्थूलता को काफी हद तक कम किया जा सकता है।
लेकिन इसके लिए जरूरी है पुरुषार्थी बनना, हराम के खान-पान को त्यागना और जीवन में कर्म, व्यवहार तथा चरित्र आदि सभी मामलों में पवित्रता लाना। इसके बिना स्थूल से सूक्ष्म तक की हमारी कोई सी अभीप्सित यात्रा सफल नहीं हो सकती। पहल हमें ही करनी पड़ेगी। संयम और शुचिता से सब कुछ संभव है।
जिन्हें शरीर से स्वस्थ और मस्त रहना हो वे दिमाग से अनावश्यक और नकारात्मक विचारों को बाहर निकाल फेंके और बेकार के विचारों को दिमाग में घर न करने दें, इससे अपने आप सेहत ठीक होने लगेगी। दिमाग में बेकार जमे हुए कुविचारों को बाहर फेंक दिए जाने पर सेहत हमेशा दुरस्त रखी जा सकती है।
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