भारतीय समाज में तिलक, जनेऊ एवं शिखा को धर्म से जोडकर ब्राह्मण वर्ग द्वारा आध्यात्म को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है । अत: इनकी प्रासं...
भारतीय समाज में तिलक, जनेऊ एवं शिखा को धर्म से जोडकर ब्राह्मण वर्ग द्वारा आध्यात्म को परिभाषित करने का प्रयास किया गया है । अत: इनकी प्रासंगिकता पर विचार कर धर्म एवं आध्यात्म पर विचार करेंगे। इस विषय पर सोचने पूर्व हमें भलीभाँति यह समझना होगा कि मानव समाज एक एवं अविभाज्य है । इसको विभेद करने की खिची गई समस्त रेखाएँ अप्राकृतिक एवं कृत्रिम हैं।
तिलक लालाट पर खिचकर व्यक्ति अपनी भक्ति को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करता है। तिलक के प्रति अंध श्रृद्धा रखने वालों ने इसका विज्ञान भी सृजित कर दिया है। वे तिलक की महत्ता को मानसिक स्वास्थ्य से जोडते हैं । यदि ऐसा है तो तिलक को चिकित्सा विभाग में भेजना उचित रहेगा। ताकि उपयुक्त रोगी को ही चिकित्सा मिले। आमजन इस बोझ को लेकर नहीं घूमें। मानसिक तनाव को दूर करने के लिए बने मरहम के समान तिलक का उपयोग है तो तिलक को धर्म का चौला ओढाना निर्थक हैं । तिलक के मुख्यतः दो रूप प्रचलित है। प्रथम सम्पूर्ण ललाट को किसी विशेष लेप से लेपना। इस अक्षत: स्वास्थ्य विज्ञान से जोड़ा गया है। यह मस्तिष्क को अल्पकालिक ठण्डक अहसास कराने व्यतिरेक कुछ भी स्थायी चिकित्सा नहीं है। इसके संदर्भ बनाया गया विज्ञान निरर्थक हैं। तिलक दूसरा रूप भृकुटी पर टीका एवं टीकी के रूप में व्याप्त है। तिलक का यह रूप सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक एवं तांत्रिक परम्परा के रुप में व्याप्त है। एक बात स्पष्ट रूप से स्वीकार करनी होगी कि तिलक कभी वैश्विक परम्परा नहीं रही है। यह मात्र क्षेमितय परम्परा हैं। एक अन्य बात भी सुस्पष्ट है कि तिलक, जनेऊ एवं शिखा का आध्यात्मिक जगत में फूटी कौडी भी मूल्य नहीं है। मात्र तांत्रिक साधक कापालिक साधना के वक्त रक्त सदृश्य लाल तिलक शीश पर धारण कर अंधेरी रात को जाते थे। उसी से कालांतर में युद्ध भूमि में जाने वाला योद्धा तिलक धारण करने लगा । उत्तरोत्तर युग राजनैतिक जगत राजा के पद ग्रहण के रुप में राजतिलक की परंपरा प्रारंभ हुई। सामाजिक जगत में दुल्ले राजा सदृश्य रूप में पेश करने के लिए तिलक की परंपरा का विकास हुआ। परंपरा का बनना एवं बिगड़ना काल परिस्थितियों पर निर्भर करती है। लेकिन तिलक को धारण कर पवित्र अपवित्र एवं पुण्यात्मा एवं पापात्मा की खिची गई रेखाओं ने समाज में पाखंड को जन्म दिया। आज मस्तिष्क पर खिची गई। तिलक रेखाएँ धर्म का प्रतीक कम पाखंड का प्रतीक अधिक बना हुआ है। तिलक को भृकुटी पर धारण कर शिव के तीसरे नेत्र से जोड़कर भी दिखाया जाता है। शिव का तीसरा नेत्र भूत, वर्तमान एवं भविष्य की अभिव्यक्ति है या अन्य रूप तीसरा नेत्र ज्ञान है। शेष दिखावा मात्र है। यौगिक जगत आज्ञा चक्र में मन के अधिष्ठान के रुप में इसे आध्यात्मिकता के प्रवेश द्वारा के रुप में अंगीकार किया गया है। आध्यात्म अन्त: जगत की वस्तु है । इसे बाहर प्रदर्शित करना भीतर के ज्ञान शून्य को प्रकट करता है। अत: तर्क एवं युक्ति से स्पष्ट हो जाता है कि तिलक का धर्म एवं विज्ञान से कोई संबंध नहीं है। इसे धर्म के प्रतीक के रुप धारण करना व्यर्थ है।
जनेऊ ब्राह्मण वर्ग द्वारा उपनयन संस्कार के रुप में तीन व छ: धागों के धारण किए गए सूत्र का नाम है। जनेऊ धारण कर्ता लघु शंका के वक्त एक कान के एवं दीर्घ शंका के वक्त दोनों कान को लपेट कर मल- मूत्र का त्याग करते थे। कतिपय इसके मोहशील मानुष मल-मूत्र त्याग एवं कर्ण की तंत्रिका का वैज्ञानिक संबंध जोड़ते सुने गए । यह विज्ञान मात्र काल्पनिक है इसका यथार्थ से दूर - दूर तक का रिश्ता नहीं है। शिकारी युग चर्म धारण करने के अहंकार को संस्कार की ओट में धारण कर पवित्रता का अहंकार ले गुम रहे ब्राह्मण मात्र यह भार वहन कर रहे हैं। इस सूत्र ने पवित्रता व अपवित्रता के नाम पर भारतीय समाज में बहुत अधिक भेद सृष्ट किया है। इस भेद ने भारतीय समाज में अस्पर्शयता कलंकित इतिहास भी सृर्जित करवाया है। इस बोझ को अब मानवता अधिक दिनों तक वहन नहीं कर सकती है। भेदभाव की इस काल्पनिक रेखा को उखाड फेंकने में ही मानवता का कल्याण निहत है । कुछ लोग प्राचीनता के मोह में अंधे होकर जनेऊ को धर्म ध्वज समझ बैठे है। उन्हें अपनी बुद्धि को ऋग्वेद के नासदीय सुक्त का अध्ययन कर बाह्य सूत्र उपादेय हीनता के विषय में अपने ज्ञान की पिपासा को शांत कर इसे त्यागने में आगे आना चाहिए। एक दृष्टांत ब्राह्मण मत के प्रखर वक्ता आचार्य शंकर की दण्डी स्वामी परंपरा की ओर ध्यान आकृष्ट कर कहना चाहूंगा कि इस वर्ग सन्यासी को दण्डी स्वामी बनने से पूर्व जनेऊ का त्याग करना होता है। तत्पश्चात ही वह शंकराचार्य बन सकता है। जिसे मत का दर्पण ही जनेऊ विहीन दिखता है वह वर्ग जनेऊ का बोझ लेकर घूमना युक्ति हीन है। जिस प्रकार आध्यात्मिक जगत में तिलक का मूल्य नहीं ठीक उसी प्रकार जनेऊ का भी मूल्य नहीं है।
शिखा ब्राह्मण की पहचान बनी हुई है तो इसने ब्राह्मण को मानवीय गुणों से दूर ले जाकर पटका है। भारतीय समाज में केश को लेकर तीन मुख्य परंपरा का वर्णन है। पंचकेशी, पंचभद्र व त्रिणकेशिता। शरीर के विशेष अंगों बालों काटने नहीं काटने के संदर्भ में यह परंपरा है। इसका विज्ञान हमें आनन्द साहित्य में मिलता है। शिखा का इन किसी भी परंपरा से दूर -दूर का कोई रक्त संबंध नहीं है। यह ब्राह्मणों की खोपड़ी की तूणीर से निकला ऐसा बाण हैं स्वयं का वध कर रहा है। शिखा एवं ब्रह्म तालु को ज्ञान की सरिता बहाने धारा के रुप में चित्रित करने का प्रयास किया गया है। ज्ञान अन्त: जगत की वस्तु है। इसका शिखा से कोई संबंध है। यदि ऐसा होता तो अल्बर्ट आइंस्टीनी सहित प्राचीन भारतीय ऋषि परंपरा शिखा से कोई संबंध नहीं रखती है। शिखाधारी ब्राह्मणों की श्रेणी कर्मकांड युग में जन्म हुआ। यह पंरम्परा बोध युग समकालीन है। इसे ज्ञान विज्ञान से संबंधित करना मूर्खता है। शिखा ने समाज में अंधविश्वास को जन्म दिया है। यह भेद भाव स्पष्ट परिचय है। इसकी समाज में कोई उपादेयता नहीं है। यह पाखण्ड के साम्राज्य सम्पदा है। इस हटाना ही शुभंकर हैं।
शास्त्र में कहा है कि "जन्मना जायेते शूद्र, संस्कारात् द्विज उच्येते, वेद पाठात् भवेत् विप्र, ब्रह्म जानाति ब्राह्मण" अर्थात जन्म से सभी मनुष्य शूद्र हैं। संस्कार से ही वह अन्य श्रेणी में जा सकता है । भारतीय समाज में संस्कार के तीन अर्थ प्रचलित है। प्रथम ब्राह्मण वर्ग द्वारा विशेष विधि किया जाने वाला कर्मकांड को सोलह संस्कार नाम दिया गया है। अन्य अर्थ में संस्कार शब्द का सद्गुणों को कहा जाता है। संस्कार का तीसरा अर्थ अधिशेष कर्म का प्रतिफल है। संस्कार शब्द में सु एवं कु पूर्वक जुडने से अच्छा एवं बुरा अर्थ निकलता है। तो व्यक्ति अपने संस्कार अर्थात कर्म से ही शूद्र से ऊपर एवं नीचे उतर सकता है। यह श्लोक स्पष्ट करता है कि शूद्र का अर्थ मलेच्छ या नीच नहीं है। वह तो कर्म या गुण की स्थिरावस्था का नाम है। अर्थात यह स्व: से कर्म नहीं करने की अवस्था। जैसे ही स्वैच्छिक कर्म करने लगता है तो बुरे कर्म की बदौलत मनुष्य शूद्र से नीचे शैतान, हैवान एवं पिशाच बन सकता है तो अच्छे कर्म की बदौलत साधु(सज्जन), देव, ईश्वर एवं भगवान बन सकता है। वर्ण व्यवस्था से उक्त श्लोक का कोई संबंध नहीं है। वेद अध्ययन अध्यापन करने लगते ही वह विप्र नाम से जाना जाता हे। वेद का अर्थ ज्ञान - विज्ञान है । इस मात्र किसी मत विशेष के शास्त्र तक सीमित रखना वेद शब्द के साथ न्याय नहीं है। प्राचीन काल में विद्वानों द्वारा खोजे गये सर्वमान्य तथ्य को वेदों में संकलित किया गया । ज्ञान की श्रेणियों के आधार पर इसे तीन भाग में विभाजित किया गया । कालांतर में तीनों को संगीत मय अंश अलग कर सामवेद की रचना की गई थी। सृष्टि के आरम्भ से अभी तक खोजे गया ज्ञान वेद हैं । ज्ञान सतत चलने वाली प्रक्रिया का नाम है। इसलिए वेदों को प्रारंभ में लिपि बद्ध नहीं किया गया था। अत: वेद अध्ययन यानी ज्ञान अर्जित करने के लिए किसी प्रकार की शिखा, जनेऊ एवं तिलक की आवश्यकता नहीं है। ऋग्वेद का नासदीय सुक्त तो ज्ञान की सूक्ष्म विधा आत्म के अर्जन के लिए जनेऊ के त्याग की सलाह देता है। ब्रह्म अर्थात परमतत्त्व को जानने एवं प्राप्त करने के अभ्यासी को ब्राह्मण कहा गया है। कबीर, रैदास सहित सभी ईश्वर प्राप्त करने वाले ब्राह्मण है। अत: धर्म, कर्म एवं मर्म को समझने एवं समझाने के लिए तिलक, जनेऊ एवं शिखा की आवश्यकता नहीं है। भक्ति की राह भी इनका फूटी कौड़ी भी मूल्य नहीं है।
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आनन्द किरण (करण सिंह) शिवतलावEmail-- anandkiran1971@gmai.com karansinghshivtalv@gmail.com
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