मैं कपड़े खरीदने के लिए मार्केट गया था। जाते समय रास्ते में कुछ भिखारी नजर आए, जिनमें से किसी के दोनों हाथ नहीं थे तो किसी के दोनों पैर। उ...
मैं कपड़े खरीदने के लिए मार्केट गया था। जाते समय रास्ते में कुछ भिखारी नजर आए, जिनमें से किसी के दोनों हाथ नहीं थे तो किसी के दोनों पैर। उनको देखकर मुझे बहुत दुःख हुआ। मैं सोचने लगा कि जिनके पैर नहीं होते वे हाथों से कुछ हद तक अपने काम कर लेते हैं। पर जिनके हाथ ही नहीं हैं वे? वे अपना काम कैसे करते होंगे? कैसे खाते-पीते होंगे? यही सोचकर मैं उनमें से दो को 10-10 रुपये देकर मार्केट चला गया।
कपड़े लेकर वापस आया तो एक औरत को उसी जगह देखा। वह बड़ी दयनीय स्थिति में थी। बदन पर आधा कपड़ा लपेटे थी और शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं। उसकी गोद में एक बच्ची थी जो लगभग तीन साल की रही होगी। वह अपनी माँ की गोद में पेट के बल लेटी थी। उसके बदन पर भी कपड़ा नहीं था। उसकी पीठ पर एक ऐसा घाव था जिसे देखते ही उल्टी कर दे कोई। मैं जब उसके समीप आया तो उसने अपने दोनों हाथ मेरी तरफ फैला दिए। मैं जेब से रूमाल निकाला और अपनी नाक पर रखकर उस औरत के पास बैठ गया। उस औरत से पूछा, ‘आँटी! आपकी बेटी की पीठ पर यह घाव कैसा है?’ ऐसा लग रहा है जैसे गरम लोहे की छड़ से जली हो। वह औरत मेरी तरफ देखने लगी पर कुछ बोली नहीं, बस रो पड़ी, जैसे किसी ने उसके ज़ख्मों को कुरेद दिया हो।
वह औरत उम्र से तकरीबन अट्ठाईस-उनतीस साल की लग रही थी। अब वह चुप हो गई थी। मैं उसके लिए चाय और ब्रेड ले आया। उसको देते हुए फिर पूछा, ‘कैसे जली आपकी बेटी?’ वह बिना हिचकिचाए बोली- मैंने खुद जलाया है ताकि इसे देखकर लोगों को दया आएगी और पैसे देंगे। मैं गुस्से से लाल-पीला होकर चिल्लाने लगा, “तुम्हें शर्म नहीं आई ऐसा करते हुए, जरा सा भी हाथ नहीं काँपा, भला कोई अपनी ही औलाद को पैसे के लिए बेरहमी से जलाता है? तुम माँ के नाम पर कलंक हो।” मैं गुस्से में बोलता चला गया। जब शांत हुआ तो देखा कि वह रो रही थी और रोते हुए कुछ कह रही थी। मैं उसकी बातें सुनने के लिए अनचाहे मन से वहीं पर बैठ गया।
‘साहब मैं भी कभी अपने घर की रानी थी। मेरे पापा बहुत बड़े जमींदार थे। मैं उस समय 17 साल की थी जब कॉलेज में दाखिल हुई। कुछ ही दिन बीते थे कॉलेज में, बहुत से दोस्त भी बन गए। उन्हीं दोस्तों में एक राज भी था, जो बहुत भोला और शांत स्वभाव का लड़का था। वह मेरे सिवाय किसी से ज्यादा बातें नहीं करता था। उससे मेरी दोस्ती हुई। दोस्ती कब प्यार में बदल गई, पता ही नहीं चला। हमारे प्यार की चर्चा पूरे कॉलेज में होने लगी। हम दोनों दो जिस्म, एक जान हो चुके थे।
समय गुजरता रहा। राज कभी मुझे अपनी बाँहों में भर लेता पर मैं ऐतराज़ न करती। धीरे-धीरे उसकी शरारतें बढ़ती गईं। अब तो वह रोज ही मेरे अंगों से खेलने लगा। एक दिन मैंने साफ-साफ कह दिया- देखो राज तुम जो कुछ कर रहे हो, वह सब शादी के बाद ही अच्छा है। शादी से पहले ये सब गलत है। उस दिन से वह मुझसे खफा-खफा-सा रहने लगा। बातें भी कम करता। अगर कुछ पूछती तो शादी के बाद बता दूँगा, कहकर मुझे ताने देता।
एक दिन शाम को हम दोनों फिल्म देखकर घर लौट ही रह थे कि बारिश शुरु हो गई। बारिश इतनी तेज थी कि उसके रुकने की कोई गुंजाइश न थी। बारिश की वजह से गाड़ियाँ भी नहीं मिल रही थीं। फिर हमने वहीं बगल के लॉज में एक रूम बुक करा लिया। लॉज जान-पहचान वाले का था, इसलिए कोई परेशानी न हुई। शरीर सिर से पाँव तक भींगा हुआ था। मैं तौलिए से शरीर पोंछ रही थी कि तभी राज मुझसे लिपटकर अपनी बाँहों में भर लिया और चूमने लगा। मुझे ऐसा लगा भींगे बदन में जैसे किसी ने आग लगा दी हो। मैंने भी राज को रोकने की कोशिश नहीं की और वह सब हो गया हमारे बीच जो नहीं होना चाहिए था। फिर क्या अब तो यह रोज का काम हो गया था। अक्सर कॉलेज खत्म होते ही हम लॉज में चले जाते थे।
हमारी पढ़ाई पूरी हो चुकी थी। राज अपने गाँव जाने की तैयारी में था। तभी मैंने उसे बताया कि मैं उसके बच्चे की माँ बनने वाली हूँ। उसके चेहरे पर अजीब-सी मुस्कान थी। उसने कहा- “नेहा! मैं गाँव जाकर मम्मी-पापा से बात करके उन्हें शादी के लिए मना लूँगा। उन्हें तुम्हारे घर हमारे रिश्ते की बात करने के लिए भेज दूँगा।” मैं राज की बातें सुनकर खुशी से फूले न समाई और राज को चूम ली। अगले दिन वह अपने गाँव चला गया.......।
गाँव जाने के बाद राज कभी-कभी फोन करता रहा। मेरे यह पूछने पर कि अपने पिता को हमारे रिश्ते की बात करने के लिए कब भेजोगे तो वह यह कहते हुए टालता रहा कि अभी खेती का समय है, काम खत्म होते ही बातें कर लूँगा....तरह-तरह के बहाने बनाकर टालता रहा वह। ऐसे ही चार महीने और गुजर गए। अब तक न तो राज के परिवार का कोई सदस्य आया न तो राज का फोन। जब मैं फोन करती तो वह काट देता। एक बार मन में आया कि मैं ही उसके गाँव चली जाऊँ। पर क्या करती, मुझे तो उसके गाँव का पता भी नहीं मालूम था।
“इस बात को कब तक मैं परिवार वालों से छुपाती। एक न एक दिन सभी को पता चलना ही था। घर वाले भी बदनामी के डर से मेरे बच्चे के जन्म से पहले ही मार देना चाहते थे। मैंने ऐसा करने से उन्हें मना कर दिया क्योंकि मुझे विश्वास था कि राज जरूर आएगा। समय का पहिया अपनी गति से चलता रहा। मैं सिर्फ उसका इंतजार करती रही। मैंने इस बच्ची को जन्म दिया। इसके जन्म के कुछ ही दिनों के बाद मुझे माँ-बाप के घर से निकाल दिया गया। मैं यूँ ही अपनी बेटी को लेकर दर-बर-दर भटकती रही। आज यहाँ बैठी हूँ, कल कहीं और बैठूँगी। मेरा कोई ठिकाना नहीं है साहब। आँखों से बहते आँसुओं को पोंछती हुई उठी और बोली चलती हूँ साहब......।” मैं कुछ बोल न सका। जेब से सौ रुपये का एक नोट निकाला और उसे देते हुए अलविदा कह दिया। लौटते समय मैं रास्ते भर यही सोचता रहा, क्या यह आगे की जिंदगी भी ऐसे ही जिएगी।
क्या लोग इसी को प्यार कहते हैं, क्या यही प्यार है? अगले दिन शाम को उसकी बेटी के लिए कुछ कपड़े और खाने के सामान लेकर पहुँचा, पर वह वहाँ नहीं मिली। मैं पूरे इलाके में उसे ढूँढा पर उसका पता न पा सका। शायद वह उस जगह को छोड़कर कहीं दूर चली गई।
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राजन कुमार
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