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दुनिया के सारे उपदेशक, भाषणबाज और नौटंकीबाज किसी न किसी तथाकथित आदर्श इंसान का नाम लेकर कहते हैं कि खुद को कुछ बनाना चाहते हो तो उनका अनुकरण करो, इनका अनुकरण करो।
हर युग में ऎसे सैकड़ों नाम होते हैं जिन्हें ले लेकर ये लोग इनकी तरह बनने के लिए दबाव डालते हैं, प्रेरित करते हैं और चाहते हैं कि हम इन लोगों के क्लोन या डुप्लीकेट बनकर जियें, अपनी खुद की पहचान को भले ही भुलाना पड़े।
फिर नकल के मामले में हम भारतीय किसी से पीछे नहीं हैं। हम खुद को भुला बैठते हैं और दूसरों की नकल करते हुए अपने व्यक्तित्व को उनके अनुरूप बनाने की कोशिश करते हैं, औरों के जैसे हाव-भाव, व्यवहार और शक्ल-सूरत आदि को अपनाते हुए हम यह सिद्ध कर डालते हैं कि नकल के मामले में हम पूरी दुनिया में सबसे आगे हैं।
समाज-जीवन से लेकर परिवेश और वैश्विक क्षितिज तक हर इंसान को परमात्मा ने अलग-अलग काम के लिए भेजा हुआ है, इसीलिए अलग-अलग चेहरे, बुद्धि और विलक्षणताएं दी हैं। इस मामले में दुनिया में हम सभी लोग अद्वितीय हैं और रहेंगे।
भगवान ने धरती से भेजने से पहले हमारे सारे सोफ्टवेयर्स और हार्डवेयर्स का अच्छी तरह परीक्षण कर इसमें सभी प्रकार की प्रोग्रामिंग फिट कर रखी है जिसके सहारे में हम दुनिया में आने के बाद ईश्वरीय और संसार के कार्यों को वर्तमान से थोड़ा और आगे बढ़ा सकने, परिमार्जित, संशोधित और परिष्कृत रूप में दे पाने की स्थिति में रहते हैं।
असल में भगवान भी यही चाहता है कि संसार हमेशा उत्तरोत्तर विकासशील रहे और उसी के अनुरूप जगत के लोगों की भागीदारी ऎसी रहे कि जो व्यवस्था, वस्तु और परिवेश है उसमें कुछ न कुछ ऎसा हो कि पहले की अपेक्षा वह और अधिक तरक्की का अनुभव करा सके।
हम सभी का यही काम है। इस मामले में हममें से हर कोई सक्षम और समर्थ है लेकिन हम इस ईश्वर प्रदत्त मौलिक विलक्षणता को विस्मृत कर दुनिया के दूसरे लोगों को सफल मानकर आदर्श के रूप मेंं अपना लेते हैं और उन्हीं का अंधानुकरण करना आरंभ कर देते हैं।
हमारे पास इतना वक्त भी नहीं होता कि असलियत को जान पाएं और उसके बाद कोई फैसला ले पाएं। इसलिए हमें उन लोगों पर भरोसा करना ही पड़ता है जो हमारे इर्द-गिर्द रोल मॉडल के रूप में दिखते हैं।
आजकल किसी को भी आँखें बंद कर रोल मॉडल मान लेने का दुश्चलन चल पड़ा है और इसी का नतीजा है कि हमें एक समय बाद अपने आप पर पछतावा होने लगता है और बीते समय की लाचारियों और कमजोरियों का रोना जिन्दगी भर के लिए रोना पड़ता है।
आदमी के पूरे जीवन के लिए सबसे बड़ी घातक बात यह है कि उसे अपने किए पर पछतावा हो क्योंकि यह किसी और की नहीं बल्कि स्वयं की गलती का परिणाम होता है इसलिए आत्मिक दुःख और पीड़ा का अनुभव अधिक होता है।
एक जमाना था जब इंसान भीतर-बाहर एक हुआ करता था, उसकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं था। तब किसी भी श्रेष्ठतम व्यक्तित्व को अपना आदर्श माना जा सकता था। आजकल आदमी बहुरुपिया हो गया है, उसके मन-मस्तिष्क और जिस्म में अलग-अलग तरंगें चलती हैं, कहीं कोई साम्य नहीं है। धर्म, सत्य और न्याय से दूर होकर वह काम और वासनाओं का यांत्रिक पुतला होकर रह गया है जिसका रिमोट कंट्रोल हमेशा दूसरों के पास होता है।
आदमी अपने छोटे से छोटे स्वार्थ और लाभ के लिए किसी के भी तलवे चाटने लग जाता है, पूरी तरह बेशर्म होकर किसी के सामने भी सब कुछ समर्पित कर पसर जाने की मानसिकता में जीने लगा है, कहीं भी कौड़ियों के मोल भी बिकने को तैयार हो जाता है, किसी की भी गुलामी कर लेता है, मुफत का माल उड़ाने के लिए वह कभी श्वान हो जाता है, कभी शूकर, और कभी निम्न से निम्न स्तर के भिखारी के रूप में पेश करते हुए भी अपने स्वार्थ पूरे कर लेने को ही जिन्दगी मान बैठा है।
फिर आजकल जो जैसा दिखता है वैसा होता नहीं, जैसा होता है वैसा दिखता नहीं। आदमी हर मामले में दोहरे-तिहरे गिरगिटिया चरित्र को अपनाए रहता है। ऎसे में किस पर भरोसा करें जहाँ अधिकांश लोग बिकाऊ, पुरुषार्थहीन और सिद्धान्तहीन हैं।
आज इसके साथ हो लिए, कल उसके साथ। कोई पाया नहीं रहा, चौपायों से भी गए बीते होते जा रहे हैं। इस स्थिति में किसे रोल मॉडल या आदर्श माना जाए, यह आज का सबसे बड़ा संकट हो गया है। जिस किसी को स्वीकारने की ओर कदम बढ़ाते हैं थोड़े दिनों बाद पता चलता है कि असलियत कुछ और ही है। बड़े-बड़े लोगों का चरित्र बेनकाब होता है तब खुद पर रोना भी आता है और हँसी भी।
चेहरे से लेकर चरित्र, हाथों से लेकर हृदय तक सब कुछ डुप्लीकेट हो रहा है। जिन लोगों को हम आदर्श मानकर चलते हैं उनमें से तकरीबन निन्यानवें फीसदी लोग इंसानियत के मापदण्डों से भटके हुए दिखते हैं। बात चाहे किसी भी क्षेत्र की हो, सब जगह कोई न कोई इंसान सामने रखकर उनके अनुरूप बनने की हिदायत दी जाती है लेकिन आदर्श की कसौटी पर कोई भी सौ फीसदी खरा नहीं उतरता।
यह अजीब बात है कि दुनिया में जो लोग हो गए, जो हमारे सामने हैं उनका अनुकरण करते हुए उन्हीं की पहचान को अपनाना अपने आप में खुद की अवमानना है, ईश्वर का अपमान है। चाहे जिस क्षेत्र में हम हों, अपनी खुद की पहचान बनानी जरूरी है। और इसके लिए किसी बाहरी कारक की जरूरत नहीं है, अपने भीतर जाने का अभ्यास करने मात्र से भीतरी शक्तियों का जागरण अपने आप होने लगेगा और इस आत्मशक्ति और आत्मा के साथ आए हुनर को आकार देकर कोई भी इंसान दुनिया को कुछ नया देने और पहले से चले आ रहे को और अधिक उन्नत करने में समर्थ हो सकता है, इसमें कोई संदेह नहीं। इसके लिए दृष्टि को बाहर से हटाकर भीतर की ओर लाने का प्रयास जरूरी है।
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