अध्यापक -सपने संघर्ष और असफलताएं / सुशील शर्मा

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अध्यापकों का दर्द यह है कि पिछले 18 साल से वे अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन के गर्भ से निकले नेता अपनी रोटी सेंक कर गायब...

अध्यापकों का दर्द यह है कि पिछले 18 साल से वे अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं। इस आंदोलन के गर्भ से निकले नेता अपनी रोटी सेंक कर गायब हो जाते हैं। लेकिन मांगे जस की तस हैं।अध्यापक अब अपने आप को एक असफल इन्सान के रूप में देखने लगा है। जब इन्सान असफल होता है तो असफलताएं जन्म देतीं हैं शिकायतों को और दुनिया में शिकायत करने वाले लोग दो तरह के होते हैं एक वो जिन्हें किस्मत से शिकायत होती है दूसरे वो जिन्हें ज़िन्दगी से शिकायत होती है लेकिन अगर किसी को ज़िन्दगी और किस्मत दोनों से शिकयत होती है उनकी ज़िन्दगी ही शिकायत बन जाती है ऐसा नहीं कि ऐसे लोग हमेशा असफल रहे हों या उनमे परस्थितियों से संघर्ष करने की क्षमता नहीं होती इनमे कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो ज़िन्दगी भर संघर्ष करते हैं बुरे वक़्त को बदलने के लिए ऐसे लोग अथक संघर्ष से असफलताओ को भी पराजित कर देते है।मध्यप्रदेश का अध्यापक ऐसे ही संघर्ष की एक गाथा बन कर रह गया है।  गीता में श्रीकृष्ण ने मनुष्य को स्थितप्रज्ञ बनने का जो परामर्श दिया है, वह अमूल्य है । स्थितप्रज्ञ का अर्थ है – वह मनुष्य जो अपने जीवन के प्रत्येक समय एवं प्रत्येक स्थिति में अपना मानसिक संतुलन बनाए रखे तथा चाहे सौभाग्य आए अथवा दुर्भाग्य, सुख मिले अथवा दुख, हानि हो अथवा लाभ; कभी असंतुलित न हो । इतनी विषम परिस्थितियों में शिक्षा का दान करने वाला कृष्ण का अनुयायी बन कर अध्यापक  स्थितप्रज्ञ हो गया है लेकिन सरकारें उसे मुर्ख समझ कर उसका शोषण  निरंतर कर रहीं हैं ।अध्यापक  के पास बेशुमार सपने हैं, उसकी कल्पना की केसर-क्यारी हर पल महकती रहती है, इसलिए मन में कोई बांध नहीं रख पाता। अपनी समस्त पीड़ा, कुंठा, कलुश असफलताओं ,शोषण  को कक्षा में शिक्षा रूपी मोती में  पर उतारकर वह निर्मल  हो जाता है । यही उसके अनगढ़ व्यक्तित्व की विशेषता है। अध्यापक को लोग  चाहने लगे हैं , विद्यार्थी उसका  अनुसरण करने लगे हैं ,उसको  को सुनने लगे हैं समाज सम्मान देने लगा है। इसके बाद भी वह सरकारों को अमान्य है उनकी नज़रों में वह आज भी दोयम दर्जे का है।व्यक्ति में आत्म निर्भरता आती है, वह खुद पर निर्भर होना प्रारम्भ कर देता है, वह आर्थिक तथा सामाजिक रूप से सढृढ हो जाता है, और लोग उसका सम्मान करने लगते है तब उस व्यक्ति में आत्म सम्मान अपने आप ही आ जाता है।लेकिन अध्यापक आज भी आत्मनिर्भर नहीं बन पाया है क्योंकि विगत 18 वर्षों से वह भय ,अनिश्चय एवं असुरक्षा की भावना में जी रहा है। परिवार समाज एवं वह स्वयं अपने आप को संदेह की दृष्टी से देखता है।

एक मूर्ख महान बन सकता है यदि वह सोचे कि वह मूर्ख है लेकिन एक महान मूर्ख बन सकता है यदि वह सोचे कि वह महान है। सरकारें अपने आप को महान समझने लगीं हैं तो क्या ये उनकी पराभव की निशानियाँ बनेगी ?ये परिणाम तो वक्त के पिटारे में बंद है ! पिछले पच्चीस सालों में स्कूलों की अवधारणा, उद्देश्य और विचार भी तेजी से बदले हैं। ऐसा नहीं है कि नब्बे के दशक से पूर्व के बच्चों को स्कूल के कड़वे अनुभव नहीं हुए होंगे। लेकिन तब होड़, गलाकाट प्रतिस्पद्र्धा, दूसरों को पछाड़ने का भाव, मेरा बैग,मेरी पेंसिल का भाव नहीं था। इन निजी स्कूलों के अंतस में झाकेंगे तो बहुत कुछ ऐसा ही पायेंगे, जैसा आपने पढ़ा है। समाज है, मानवता है, इंसानियत है तब सुख-सुविधाएं हैं, सफलता-असफलताएं हैं लेकिन यहां तो उलटी गंगा बहाई जा रही है। बताया जाता है कि पहले सफल हों। फिर समाज की ओर देखो। ये क्या बात हुई ! आखिर ये स्कूल आए कहां से? स्कूलों में ये अलग से कैसे बन गए। हम आंख मूंद कर हर नई चीज़ पर भरोसा कैसे कर लेते हैं? हम इतने व्यस्त कैसे हो गए कि हमें यह जानने-समझने की जरूरत ही नहीं पड़ रही है कि हमारी नई पौध जहां जा रही है ।सरकारें गरीब बच्चों की शिक्षा को बोझ मान कर उसे निजीकरण की आग में झोंक देना चाह रहीं हैं। अध्यापकों को इस समस्या से भी जूझना पड़ेगा केवल समस्या के प्रति अपना नजरिया बदलकर ही  अपनी असफलता को सफलता में बदल सकता है|

William James कहते भी है, हमारी पीढ़ी की सबसे बड़ी खोज यह है कि इंसान अपना नजरिया बदलकर अपनी ज़िन्दगी सफल बना सकता है। Napolean Hill ने कहा है , हर समस्या अपने साथ अपने बराबर का या अपने से बड़ा अवसर साथ लाती है।अध्यापकों को सरकारों को बताना होगा कि वो निजी स्कूलों से अच्छा रिजल्ट दे सकतें हैं। उन्हें अपने व्यक्तित्व को बड़ा और विस्तृत बनाना होगा। बड़ा’ वो नहीं जो खुद के लिए जीता है, खुद के लिए तमाम तमगे हासिल करता है, सारी सुख सुविधाएं खुद के लिए जुटाता है और ताउम्र चैन की नींद सोता है। बल्कि ‘बड़ा’ वो है जो अपनी सारी सुख-सुविधाएं एक तरफ करके अपने आस-पास को बड़ा करता है। जब उसका दायरा बड़ा होता है तो फिर आस-पास, समाज में तब्दील होता है, समाज शहर में और शहर राष्ट्र में। कहने का मतलब है कि वो शख्स अपनी चैन की नींद उन लोगों के लिए न्यौछावर करता है, जिन तक सारी सुविधाएं नहीं पहुंचती हैं। ऐसे में बात जब पढ़ाई की आती है तो हमारा ध्यान ऐसे लोगों तक जाना ज़रूरी है।

ऐसे संघो का क्या फायदा जो अध्यापको को एक करने की बजाय आपसी वैमनस्यता का कारण बने।जब संघ के नेताओं की महत्वाकांक्षा जन सरोकारों से उपर होने लगती है तो आंदोलनों का वही हश्र होता है जो समस्त अध्यापक आंदोलनों का हुआ है। सरकारें इन महत्वाकांक्षाओं का फायदा उठाती हैं और आम अध्यापक छला जाता है। आंदोलन का अहिंसक रहना बहुत जरूरी होता है। मुद्दे के साथ पूरे समाज का गहरा जुड़ाव हो।  अभी तक ऐसा नहीं हो पाया था।  अध्यापकों को जीवन के लिए संघर्ष करना अनिवार्य हो गया, बल्कि यूं कहें कि मजबूरी हो गई, तो उनके बीच सामंजस्य भी बनने लगा है।

अध्यापकों ने  संघर्ष के साथ-साथ शिक्षा  पर जोर दिया है।  सबको शिक्षा  यानी वर्तमान विनाशकारी विकास का विकल्प। एक ऐसा वैकल्पिक विकास, जो विनाश पर नहीं टिका हो। सरकार को ऐसे विकास से कुछ भी लेना-देना नहीं। उसे तो कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाला विकास चाहिए।  सरकार विकास के बहाने कॉरपोरेट घरानों को उपकृत करने का काम करती है।  अब ऐसे कानून बनाए जा रहे हैं, जो किसी भी दृष्टि से जनपक्षीय नहीं है।

अध्यापकों का मनोबल रसातल में है। भारत में प्राथमिक/माध्यमिक विद्यालयों में तकरीबन 70 से 80 लाख अध्यापकों की जरूरत है जबकि इस समय केवल 30 से 40 लाख अध्यापक उपलब्ध हैं, ऐसे में इस चुनौती का हल कैसे निकलेगा? भारत में किसी औसत प्राथमिक विद्यालय में तीन अध्यापकों से ज्यादा नहीं होते और उन्हें तमाम ऐसे कार्यों का दायित्व भी मिल जाता है, जिनका अध्यापन से कोई लेना देना नहीं। इनमें जनगणना के लिए आंकड़ों का संग्रह करना ,मध्यान्ह भोजन ,सर्वे एवं चुनावों के दौरान जरूरत के समय चुनाव केंद्रों पर भेजे जाने एवं अन्य बेगार जैसे तमाम काम शामिल होते हैं, जिनमें उनका काफी वक्त लग जाता है। अगर अध्यापकों का एक बड़ा वर्ग तैयार करना है तो यह तभी संभव हो पाएगा, जब भारत में शिक्षकों के चयन और उनके प्रशिक्षण की प्रक्रिया में व्यापक परिवर्तन किया जाए। यदि देश को कुशल, उत्साही लोगों को शिक्षण क्षेत्र की ओर आकर्षित करना है तो उन्हें अपेक्षाकृत बेहतर तनख्वाह की पेशकश और शिक्षण गतिविधियों में प्रशिक्षण देना होगा। केवल शिक्षा के अधिकार के साथ शिक्षा के विस्तार से ही काम नहीं चलेगा।

जिस देश में गुरू (अध्यापक) को भगवान का दर्जा दिया गया है, उस देश में अब इनको अपनी आवाज उठाने का भी अधिकार नहीं है। अगर वे अपनी आवश्यकताओं के लिए आवाज उठाते हैं तो उन्हें  सड़क पर दौड़ाया जाता है, उन पर लाठियां भांजी जा रही हैं, जेल भेजा जा रहा है। वहीं दूसरी तरफ शिक्षक जहर पीकर जान दे रहे हैं।सरकार ने पाँच माह विसंगति का जाल बुनकर आज दो लाख अस्सी हजार अध्यापको को एक बार फिर अपने शोषण के जाल मे अतत: फसा ही लिया।

आज हमें नए विकल्प और नई रणनीतियों के साथ काम करना होगा।  हमें समाज के प्रत्येक हिस्से को साथ करने के लिए इंतजाम करना होगा। अगर आप सफल होने के लिए एक कठिन प्रयास कर रहे हैं तो यकीनन जब आपको सफलता मिलेगी तो ये उतनी ही अधिक सुखदाई होगी जितनी कि आपने कठिनाईयां झेली हैं ऐसा  व्यक्ति जिसे बड़ी सफलता बिना किसी कठिनाई से मिल जाती है वह उसे उतना आनंदित नही हो पाता जितना आनंद एक कड़ी मेहनत से मिली छोटी सी सफलता को पाने से होता है। अध्यापक आंदोलन के 17वें साल में हम इस चुनौती को लेकर आगे बढ़ रहे हैं और हमें भरोसा है कि जीत आखिरकार अध्यापकों  की होगी। अध्यापकों को उनके संघर्ष का प्रतिफल मिलकर रहेगा।

सुशील कुमार शर्मा

                ( वरिष्ठ अध्यापक)

           गाडरवारा

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रचनाकार: अध्यापक -सपने संघर्ष और असफलताएं / सुशील शर्मा
अध्यापक -सपने संघर्ष और असफलताएं / सुशील शर्मा
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