-- संजीव ठाकुर मित्र 1 वे देते रहते थे मुझे जीने की दुआएँ और कब्रिस्तान के किसी कोने में बैठे काले कपड़े वाले बाबा से...
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संजीव ठाकुर
मित्र
1
वे देते रहते थे मुझे
जीने की दुआएँ
और कब्रिस्तान के किसी कोने में बैठे
काले कपड़े वाले बाबा से
करवाया करते थे काला जादू
मेरे सर्वनाश के लिए ।
उनकी इस दोगली चाल का
क्या करें ?
भिजवाते थे प्रसाद
वैष्णो देवी का
और मेरे सत्यानाश को
किया करते थे
बगुलामुखी का जाप !
2
बड़ा गुमान था मित्रों का
खड़े हो जाएँगे वे
मेरी एक कराह पर
ऐसा सोचता था
कान में ईयर फोन लगा
वे सुनते रह गए
रेडियो मिर्ची
मैं कराहता रह गया !
3
उन्होंने दिया
उपदेश का एक लंबा डोज़
कहा , `पंगे मत लिया करो ! ‘
`दुनिया जैसे चलती है ,चलने दो !’
वैसे मैं साथ हूँ तुम्हारे । ‘
`करता हूँ बात कल तुमसे ! ‘
मैं कर रहा हूँ प्रतीक्षा
उस कल की
मुद्दत से !
4
मैं भूल गया उन्हें
हैप्पी एनिवर्सरी कहना
उनके बेटे का जन्मदिन
बिसर गया
मेरे दिमाग का कैलेंडर
बुरा तो मानना ही था उनको
मित्र थे आखिर वे मेरे !
5
दोस्त हैं हम सब
पिकनिक मानते हैं मिलकर –
लॉन की घास
चूतड़ से दबाते हैं
और चाय पीते हैं ।
आकाश का वह टुकड़ा
आकाश का एक टुकड़ा
आया है मेरे हिस्से
यह टुकड़ा बना ही था
मेरे लिए शायद ।
वह आकाश भले ही मेरा नहीं हो
छाया रहे पूरी पृथ्वी पर चाहे
यह टुकड़ा
सिर्फ और सिर्फ मेरा है
मुझ पर छाया है
मेरा चेतना पर छाया है
मैं इसे अंक में भर लेता हूँ
ओठों से छू लेता हूँ
समा जाता है समूचा आकाश
मेरी बाहों में ।
कितना तड़पा हूँ आकाश
तुम्हारे इस टुकड़े के लिए
तुम क्या जानो ?
शोभा गुर्टू को सुनते हुए
उधर गाती हैं शोभा गुर्टू
टेप रिकार्डर से –
‘’ देखो गुइयाँ ... फिर याद आsss ए
फिर याद आए !’’
और इधर छा जाती हैं
यादें ,यादें और यादें ।
फटने लगती है छाती
शोभा गुर्टू की बेचैन करने वाली
आवाज़ सुनकर
पहुँच जाता हूँ किसी और लोक में
जहाँ आत्मा तक स्थिर हो जाती है
साँस एक बिन्दु पर अटक जाती है ।
‘’ इक पल इक पल चैन न आए s
जियरा मोरा घबराए , हो – हो – हो
फिर याद आए ... फिर याद आए !’’
सुनते ही खत्म हो जाता है
चैन मन का
जी की घबराहट
सातवें आसमान पर पहुँच जाती है ।
बंद करो शोभा गुर्टू !
स्वरों का यह मारक वितान
नहीं मरना चाहता मैं
हृदयाघात से !
कृति
उसे हम अपने रक्त से बनाएँगे
प्यार से सीचेंगे
उड़ेल देंगे अपने हृदय का सारा स्नेह
दाल देंगे अपने विचार, अपने भाव, अपनी दृष्टि
और खड़ी कर देंगे
दुनिया के सामने –
मशाल की तरह ।
वह हमारी कृति होगी !
कठिन सवाल
अब नहीं होगा टीचर !
बड़ा कठिन है यह सवाल
बार–बार बिगड़ जाते हैं
संबंधों के ग्राफ
सीधा करने की कोशिश में ही
ताउम्र
लगा रहूँगा क्या ?
अब नहीं होगा टीचर !
पाठशाला से
मेरा नाम काट दो !
हादसा
मैं सचमुच नहीं जानता
क्या हुआ है हादसा मेरे साथ
बस खुद को पाता हूँ नरक में –
रौरव नरक में !
भयानक अँधकार
दिन के उजाले में भी
लिपटा रहता है मेरे चारों ओर
काँपने लगते हैं हाथ
अपने बारे में कुछ लिखते ।
कलाम स्याही नहीं उगलती
आँसू उगल देती है !
मेरा कलेजा काँपता रहता है
इस स्थिति में पाकर खुद को
आत्मा तक हिलती रहती है हर वक्त !
खुदा !
तुम सचमुच बहरे हो क्या ?
मेरे टूटने की आवाज़
तुम तलक नहीं पहुँच पाती ?
या तुम बुत बनकर सो रहे हो मंदिरों में
जिस पर असर नहीं पड़ता
पानी का ?
मशीन
कल –पुर्जों के सहारे
अपना आकार बढ़ाती है
एक मशीन
निर्जीव छुवन दे
सिकुड़ जाती है ।
इस गणित में
किसने
कब
कहाँ
उल्लू बनाया
नहीं दूँगा लेखा –जोखा !
इस गणित में
कभी लघुत्त्म समापवर्त्य बना
कभी महत्तम समापवर्तक !
कभी त्रिभुज की परिभाषा में बंधा
कभी वृत्तीय घूर्णन किया ।
ज़िंदगी और मौत के
तमाम जद्दोजहद के बाद
अपने हाल पर हँसता हूँ
किसी के बाप का क्या लेता हूँ ?
राग –भटियार
एक बिंदु टाँग दिया गया है
अनंत आकाश में
( यह कोई दार्शनिक बिंदु नहीं है भाई )
तलाश करना है ।
खूब गाया कल राजन –साजन मिश्र ने
राग –‘रामकली ‘—
“आयो प्रभात सब मिल गाओ
बजाओ, नाचो ,हरि को रिझाओ ...”
कहाँ से लाऊँ अपने जीवन में प्रभात ?
और कहाँ से सीखूँ –
कत्थक ,रूपक ,खयाल ?...
ओ ! ओ ,मेरे प्यारे ग़ुलाम अली !
कैसे गा दूँ तुम्हारी तरह –-
‘होश आया भी तो कह दूँगा मुझे होश नहीं !’
.... ....
मैं पूरी तरह होश में हूँ बंधु !
जानता हूँ –
बहुत दूर है आकाश
न कोई पुष्पक विमान
कहीं कोई इंद्रधनुष भी नहीं
इसलिए बावजूद इसके कि
जगने लगी है
मेरी कुंडली फिर से
महसूस करने लगा हूँ
कि हाँ ,मैं फिर ज़िंदा हो रहा हूँ
याद है बिल्कुल पूरी तरह ‘पद्मावत’ का अंत –
“छार उठाइ लीन्ह एक मूठी । दीन्ह उढ़ाई पिरथिमी झूठी ।। “
बहुत बार चाहा मैंने कि फेंक दूँ निकालकर
अपना हृदय ,अपना स्नायु तंत्र
बिल्कुल नहीं महसूसूँ – कुछ भी नहीं ,एकदम नहीं
शायद यह क्षण वैसा ही होगा – व्याकुल ,मनहूस
जिसमें कभी सोचा था –-
तवायफ है मेरी आरज़ू !
मैं चाहता हूँ एकांत
ताकि रो सकूँ चुपचाप ।
सचमुच मैं तब – तब रोता हूँ
जब – जब याद आता है
राग ‘भटियार ‘( गायक –जसराज )...
“...कोs ई नहीं है अ — प –- ना sss ...
... सपना !...”
विश्वास
धूप और छाँह से
जूझते
काँटों को सहते
फूलेंगे ज़रूर
गुलाब
गमले में चाहे !
--एस ॰ एफ – 22 ,सिद्ध विनायक अपार्टमेंट ,
अभय खंड – 3, इंदिरापुरम ,
गाजियाबाद – 201010 ॰
फोन नं ॰ 0120 4116718
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