बदल रहा रोटी का अर्थशास्त्र ० पॉकेटमनी ने बदली परिस्थितियां अर्थशास्त्र का अर्थ अब पूरी तरह से बदने लगा है। अर्थ अर्थात धन और शास्त्र मतल...
बदल रहा रोटी का अर्थशास्त्र
० पॉकेटमनी ने बदली परिस्थितियां
अर्थशास्त्र का अर्थ अब पूरी तरह से बदने लगा है। अर्थ अर्थात धन और शास्त्र मतलब विज्ञान अथवा उसे हम नवीन प्रयोग में योजना भी कह सकते हैं। पहले अर्थशास्त्र को कलम बद्ध करते हुए प्रसिद्ध अर्थशास्त्री एडमस्मिथ एवं प्रोफेसर मार्शल ने धन के व्यय को आवश्यक जरूरतों पर खर्च करने तक पारिभाषित किया था। आज उस अर्थशास्त्र का नया रूप हमारे सामने आ रहा है। बच्चों के जेबों में पैसे डालने का रिवाज जबसे पॉकेटमनी के रूप में शुरू हुआ है, तभी से पुरातन अर्थशास्त्र ने करवट लेने शुरू कर दिया था। आधुनिक शिक्षा और विलासिता का जीवन जी रही हमारी वर्तमान पीढ़ी ने पुराने घिसे-पिटे अर्थशास्त्र के नियमों की पोटली बांध दी है। अब नए अर्थशास्त्र का स्वरूप उन्हीं के द्वारा समाज के समक्ष लाया जा रहा है। परिवार में आय कमाने वाला मुखिया आज से 4-5 दशक पूर्व रोटी कपड़ा और मकान की जरूरत के साथ दवाई आदि पर खर्च को आवश्यक मानता था। अब ऐसी सोच रखने वाले परिवार के मुखिया को कंजूस और न जाने किन-किन उपमाओं से नवाज़ा जाता है।
बच्चों की खुशियां जो पहले सीमित हुआ करती थी, अब वही अनेक इच्छाओं में तब्दील होकर मुक्त आकाश में उड़ान भरने लगी है। यही कारण है कि अब अर्थशास्त्र भी अपने पुराने लिबास को फेंककर नया अमलीजामा पहन रहा है। ‘पूरी दुनियां में चल रही विश्व व्यापी मंदी के दौर में भारत वर्ष में बिना किसी तकलीफ के उस मार को आसानी से झेला है। उक्त मंदी से निपटने में कहीं न कहीं हमारी भारतीय सभ्यता और गांधीजी की सादा जीवन उच्च विचार की शैली ने अहम योगदान दिया है। अब बदले अर्थशास्त्र के स्वरूप के चलते जो आश्चर्यजन व्यवारिक परिवर्तन आए हैं उनसे वर्तमान पीढ़ी कैसी निपटेगी यह एक अहम मुद्दा हो सकता है’। नए अर्थशास्त्र के रूप में पॉकेटमनी के साथ हमारे अपने बच्चों में संस्कारों का निर्माण भी एक बड़ी चुनौती बनता दिखाई पड़ रहा है। इसी पॉकेटमनी के रूप में तैयार नए अर्थशास्त्र ने आश्चर्य से भरे अनेक बदलावों को हमारे समक्ष लाया है। भले ही हम इसे एक छोटी सी परिवर्तनकारी घटना मान लें किन्तु आश्चर्यचकित करने वाला अर्थशास्त्र इतना विशाल है कि देश की समुची अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकता है।
किसी सर्वे के आंकड़ों पर विश्वास करें तो वर्तमान में हमारे देश में 5 साल के बच्चे से लेकर महाविद्यालीन छात्र-छात्राओं को सालाना जो पॉकेटमनी दी जाती है वह लगभग 15 अरब रूपए से भी अधिक होती है। देश में आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ भी इस बात को मानते हैं कि इतनी बड़ी पॉकेटमनी 10 लाख लोगों को रोजगार उपलब्ध करा सकती है। इसे इस रूप में तौलने वालों की भी कमी नहीं कि हर महीने भारतीय बच्चों को दी जाने वाली पॉकेटमनी से देश के अनेक प्रदेशों में स्कूल ईमारतों को न सिर्फ बनाया जा सकता है बल्कि बुनियादी सुविधाएं भी जुटाइ जा सकती है। हम यह भी कह सकते हैं कि इसी पॉकेटमनी से देश की उच्च शिक्षा का बजट भी आसानी से पूरा किया जा सकता है। लगभग तीन दशक पूर्व अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में जो उदारीकरण का दौर शुरू हुआ उसने बच्चों के जेब का खर्च भी बढ़ा दिया। उस दौर में जब एक अधिकारी को महज 5 हजार रूपए मासिक वेतन मिला करता था तब भारत वर्ष के महानगरों में मध्यम वर्ग के बच्चों को औसतन 30 से 50 रूपए तक जेब खर्च मिलता था। छोटे बच्चों को जहां 2 से 5 रूपए मिला करते थे, वहीं कॉलेज में पढ़ रहे लोगों के लिए 50 से 100 रूपए भरपूर जेब खर्च माना जाता था।
इतना जेब खर्च लेकर चलने वाले महाविद्यालयीन छात्र की गिनती एक अलग वर्ग में की जाती थी। सन् 1988-89 में टाटा समूह की ‘पाथ फाईंडर्स’ सर्वे टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि भारतीय बच्चों को मिलने वाली पॉकेटमनी 6 सौ करोड़ रूपए के आसपास हुआ करती थी। एजेन्सी ने तब यह माना था कि 6 अरब की यह राशि 6 वर्ष से कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों के बीच बंटा करती थी। सन् 1990 के बाद आर्थिक उदारीकरण का जो दौर शुरू हुआ उससे देश की अर्थ व्यवस्था का कायाकल्प तो हुआ ही साथ ही खर्च करने की आजादी भी मिली। लोगों का वेतन बढ़ा, बाहर जाने का चलन शुरू हुआ और यहीं से अर्थ व्यवस्था ने छलांग लगाना शुरू कर दिया। परिणाम स्वरूप मध्यम वर्ग की आय भी बढ़ी। शहरों का स्वरूप परिवर्तन हमारे सामने आया। भू-मंडली करण ने भी पैर पसारे जिससे टीवी, कम्प्यूटर, इंटरनेट ने लोगों की जिन्दगी में घुसना शुरू कर दिया। पांचवें वेतन आयोग और फिर छठवें वेतन आयोग ने देश में शॉपिंग कल्चर के चलने को शुरू कर दिया। कहते हैं सन् 1995 से सन् 2000 के बीच पहली बार दीपावली के बाजार ने 50 हजार करोड़ रूपए का व्यापार किया।
अब रोटी और सेब का अर्थशास्त्र भी कहीं खो गया है। अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार हर एक रोटी के खाने के बाद उसकी कम होने वाली उपयोगिता ने भी लगभग दम तोड़ दिया है। कारण यह कि अब वर्तमान पीढ़ी की भूख रोटी तक सीमित नहीं है। उसे मोबाईल का रिचार्ज और इंटरनेट का डाटापैक पहले चाहिए। ये दोनों मांग इस प्रकार की है जो अर्थशास्त्र के नियमों को धता बता रही है। हर एक रिचार्ज के साथ अर्थशास्त्र के नियम के अनुसार उपयोगिता का घटना इन दोनों मामलों में पूरी तरह फेल है। एक रिचार्ज के साथ और एक इंटरनेट डाटा के साथ उसकी उपयोगिता कहीं अधिक मांग के रूप में सामने आ रही है। पहले के अर्थशास्त्र में एक आय कमाने वाला व्यक्ति 100 रूपए में से कम से कम 70 रूपए बचाने का प्रयास करता था किन्तु आज उदारवादी अर्थव्यवस्था ने इसे भी पूरी तरह बदल डाला है। अब 100 रूपए प्रतिदिन कमाने वाला सामान्य व्यक्ति भी 90 रूपए खर्च कर डालता है।
आर्थिक उदारवाद की नवीन संस्कृति ने आम लोगों के जीवन स्तर में आमूलचूल परिवर्तन ला दिखाया है। शहरों में शॉपिंग मॉल खुलने लगे है। दुकानों की जगमगाहट और चमक-दमक ने लोगों की क्रय शक्ति को बढ़ा दिया है। लैडलाईन फोन का स्थान मोबाईल ने ले लिया है। इसी मोबाईल के बुखार ने नई पीढ़ी के लिए एक नई तकलीफ भी पैदा की है। अब स्थिति यह है कि एक औसत आय वाला परिवार भी सप्ताह में कम से कम एक बार रेस्तरां में जाकर भोजन करना चाहता है, और करता भी है। 21वीं सदी के पहले दशक के समाप्त होते-होते ऐसी जिन्दगी जीने वालों को प्रतिशत लगभग 36 तक पहुंच गया है। एक ओर पॉकेटमनी का बढ़ता बजट अर्थशास्त्र की मान्यताओं को बदलने की बड़ी वजह के रूप में सामने आया है तो दूसरी तरफ दो दशकों की जीवनशैली में आए क्रांतिकारी परिवर्तन में भी खासा प्रभाव डाला है। उदाहरणत: सन् 1980 के दशक में कॉलेज जाने वाले विद्यार्थियों के खर्चों में न तो मोबाईल शामिल था और ना ही छोटे-बड़े रिचार्ज। महंगे फुड आउटलेट भी उनसे कोसो दूर थे। न चमचमाते मॉल थे और न ही अनाप-शनाप कीमत वसूल करने वाले रेस्तरां थे। अधिकांश छात्र सायकिलों से, बसों से या टे्रन के द्वारा अपने महाविद्यालय तक पहुंचा करते थे। यह तस्वीर अब पूरी तरह बदल चुकी है। अब कक्षा नवमीं और दसवीं में पढऩे वाला छात्र भी दो पहिया दौड़ाने लगा है। सायकिलें तो छात्र जीवन से जैसे गायब ही हो गई हों। यही कारण है कि पॉकेटमनी में पेट्रोल और डीज़ल के खर्च ने अस्वाभाविक रूप से बढ़ोतरी की है।
वर्तमान में बच्चों की खुशियों को बजट अर्थात पॉकेटमनी घर के बजट के साथ ही अर्थशास्त्र के बजट को भी असंतुलित कर रही है। बच्चों ने मोबाईल को अपने जीवन में किताबों से अधिक महत्व देना शुरू कर दिया है। वे किताबों से समझौता कर सकते हैं किन्तु मोबाईल से कतई नहीं। ओ.आर.जी. के एक सर्वे के अनुसार आज एक महानगरीय छात्र औसतन तीन सौ से चार सौ रूपए प्रतिमाह मोबाईल पर खर्च करता है। वर्तमान पीढ़ी के फैशन और शौक के चलते सारे आंकलन एक अलग ही तस्वीर पेश कर रहे हैं। अब हर माता पिता को अपने बच्चों की खुशियां तलाशते समय इस बात पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है कि उन्हें सहीं मार्ग पर प्रशस्त किया जा सके। उन्हें पॉकेट मनी तो देनी ही होगी किन्तु संवेदना और प्राचीन भारतीय संस्कारों की सीख देना भी सावधानियों में शामिल करना होगा।
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(डा. सूर्यकांत मिश्रा)
जूनी हटरी, राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मो. नंबर 94255-59291
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