मैं कपों में चाय छान रही थी और ममता काम से निबट कर हाथ धो रही थी। मेरे आवाज़ लगाने पर वह आकर रसोई घर के दरवाजे से सटकर सिर झुकाए खड़ी हो गई। ...
मैं कपों में चाय छान रही थी और ममता काम से निबट कर हाथ धो रही थी। मेरे आवाज़ लगाने पर वह आकर रसोई घर के दरवाजे से सटकर सिर झुकाए खड़ी हो गई। मैंने उसे कुछ बिस्कुट और चाय पकड़ा दी और अपना प्याला लेकर सोफे पर बैठ गई। ममता भी वहीं एक ओर बैठकर चुपचाप चाय पीने लगी। बिस्कुटों की पुड़िया बना कर उसने रख ली। चाय पीते हुए हम दोनों एक दूसरे को देखते हुए भी अपने ही विचारों में गुम थीं। ममता पिछले दस वर्षों में कभी इतनी दुःखी और शांत नजर नहीं आई। हमेशा मुस्कुराने वाला उसका चेहरा लटका था, आँखों में अजीब सी बेचैनी थी। वह प्रतिदिन के समय से आती, काम करती और चली जाती। उसकी चुप्पी मुझे साल रही थी। बच्चे स्कूल और पति दफ्तर जा चुके थे। इस समय चाय पीते हुए लम्बे समय से मैं ममता की बातों की आदि थी। पर समझ में नहीं आ रहा था कि उसकी चुप्पी कैसे तोड़ू। उसके घर में, उसके जीवन में जो चार दिन पहले घटित हुआ है उसके लिये उसे किस प्रकार सांत्वना दूँ। कहीं मेरी बातों को वह उपहास न समझ ले। कहीं उसके दिल को तसल्ली की जगह क्लेश न पहुँचे यही सोंचकर मैं चाह कर भी बातों का सिलसिला शुरू नहीं कर पा रही थी। परन्तु चाय समाप्त होते तक तर्क हार गए और संवेदना मुझ पर हावी हो गई। पूछ बैठी- “कोई खबर मिली रघु की?” पर वह अपनी ही दुनियाँ में गुम सिर झुकाए चाय पीती रही। मैंने अगला प्रश्न किया- “मिलने गई थी उससे?” वह तब भी जमीन पर आँखें गड़ाए रही।” तसल्ली देते हुए मैंने बात बढ़ाई- “खाना बनाया, खाया या भूखी ही घूम रही है?” मुझे लगा उसकी आँखें भीग गई हैं। उसने मुँह नीचा किए ही पल्लू से आँखें पोंछी, उठी और अपना व मेरा चाय का खाली कप उठाकर रसोई में चली गई। इसके साथ ही मेरी उत्सुकता बढ़ गई। जिसने बीती कुछ घटनाओं को ताजा कर दिया।
रघु नौ दस साल का रहा होगा जब ममता ने मेरे यहाँ काम शुरू किया। वह अक्सर अपनी माँ को खोजता हुआ आ जाता था। तब मुझसे कुछ खाने का समान और ममता से मीठी सी झिड़की पाकर वह जल्दी ही लौट जाता था। गली, बाजार या पार्क में वह जहाँ भी मुझे देखता बड़े अदब से नमस्ते करता, कभी-कभी पैर छू लेता। मैं उसे एक आशीर्वाद सदैव देती- “बड़े होकर अपनी माँ की खूब मदद करना और उसका ख्याल रखना।”
देखते ही देखते वह नटखट अदना सा रघु बड़ा हो गया। हम उम्र लड़कों से उसकी लम्बाई भी कुछ अधिक थी। उसका हँसता मुस्कुराता चेहरा कुछ लम्बा और गंभीर हो गया। नमस्ते करने में अब उसे संकोच होने लगा। अक्सर कन्नी काट जाता। उसका मेरे घर आना भी बंद हो गया था। मैं भी उसकी ओर अधिक ध्यान न देती। तभी एक दिन ममता ने बताया कि रघु ने एक कपड़े की दुकान पर नौकरी कर ली है। अभी तो कम ही पैसे मिलेंगे पर एक दो साल में काम सीख जायेगा तो बढ़ जाएंगे। ममता के चेहरे पर खुशी थी उसकी आँखों में सुखद भविष्य झलक रहा था। मुझे भी यह सोचकर कि चलो बेचारी अकेली चार बच्चों को पाल रही है। इसका कुछ तो सहारा हुआ, आनंद की अनुभूति हुई थी। इन्हीं सुख के दिनों में ममता ने सब घरों से थोड़ा-थोड़ा उधार लेकर बड़ी लड़की की शादी निबटा ली।
एक दिन मोबाइल की घंटी बजी। मैं अभी सोच ही रही थी कि आवाज़ किधर से आई, कि तभी ममता जेब से मोबाइल निकाल कर किसी से बातें करने लगी और जल्दी ही बातें खत्म कर उसने मोबाइल रख लिया। मैंने उत्सुकतावश पूछ लिया- “अरे ममता तूने मोबाइल खरीद लिया?” वह लगभग चहकती सी बोली- “रघु ने लाकर दिया है भाभी। जिद्द करता है मैं काम पर जाऊँ तो मोबाइल साथ रखूँ। अभी उसी का फोन था।”
“चलो यह तो अच्छा है। तेरा ख्याल रख रहा है।”
“हाँ भाभी कहता है बस शादी का कर्ज उतार ले। उसके बाद घर-घर घूमने का यह काम बंद कर। छोटी बहन को तो काम पर जाने ही नहीं देता। कहता है बस पढ़े।”
“ठीक है जब भाई कमा रहा है तो उसे पढ़ने दे।”
इतना कहकर मैं चौके के काम में व्यस्त हो गई और ममता अपने काम में।
एक दोपहर मैं पोस्ट ऑफिस से लौट रही थी। सड़क किनारे तीन लड़के जींस, शर्ट पहले आपस में बातें कर रहे थे। उनमें एक जो सबसे लम्बा और चुस्त नजर आ रहा था बाकी दो को कुछ समझाने का प्रयास कर रहा था। साथी ध्यान लगाए उसकी बातें सुन रहे थे। मुझे उस चुस्त लड़के की शक्ल कुछ जानी-पहचानी लगी। ध्यान से देखने पर समझ में आया-यह रघु था। अब उसका चेहरा भर गया था और उस पर हल्की दाढ़ी नजर आ रही थी। मैं करीब से निकली। वे अपनी बातों में मशगूल थे। महीने दो महीने में रघु अक्सर अपने साथियों के साथ मुझे दिख जाता। कभी मोटर साइकिल पर सवार, कभी तेज कदमों से जाता हुआ या कभी सड़क किनारे खड़ा मोबाइल पर बातें करता हुआ। एक दो बार लगा कि उसने मुझे देखा न होगा। पर शीघ्र ही महसूस हुआ कि वह पहचान कर भी पहचानना नहीं चाहता है।
बसंत की धूप खिली थी। सर्द हवाओं से कुछ राहत महसूस हुई और ऊनी भारी कपड़ों से भी। ममता दोपहर का काम निबटाने आई थी। उसकी नई साड़ी मौसम के बदलने का एहसास करा रही थी। मैंने टोका- “बड़ी अच्छी साड़ी पहनी है ममता। कहाँ से मिली?” वह हँसकर बोली- “रघु लाया है भाभी। सबके लिए कपड़े लाया।” एकाएक कुछ दिन पहले देखा रघु का चेहरा मेरी आँखों में घूम गया। मैंने कहा- “हाँ साड़ी की दुकान पर काम कर रहा है तो वैसे भी कुछ छूट मिलती होगी।” ममता बोली- “नहीं भाभी, वहाँ तो उसने कब का छोड़ दिया। उसके बाद तो दो तीन जगह काम पकड़ा। अब तीन चार दोस्तों ने मिलकर अपना बिजनेस कर लिया है। दिल्ली से माल लाकर सप्लाई करते हैं।”
“क्या माल?”
“कोई भी जैसा आर्डर मिल जाय। कपड़ा, बिजली का सामान।”
तभी ममता रसोई से बाहर आती दीखी तो मैं अतीत से वर्तमान में लौटी। ममता के उस दिन के खिले और आज के मुर्झाए चेहरे में कितना फर्क था। उस खूबसूरत साड़ी ने मानो उसका रंग ही निखार दिया था और इन दिनों ने उसे स्याह कर दिया है।
चार दिन पहले उसके घर पुलिस आई थी। रघु को चोरी के इल्जाम में पकड़ ले गई। ममता के घर से कुछ बर्तन और गहने बरामद हुए। रघु और उसके साथी जेल में बंद हैं। दो चार दिनों में ही ममता और उसके परिवार के बारे में बहुत कुछ सुनने को मिला। विशेष रूप से रघु के विषय में मिसेज त्रिपाठी, जिन्होंने ममता को मेरे यहाँ यह कहकर लगवाया था कि आपको ऐसी काम वाली दे रही हूँ भरा घर इसके भरोसे छोड़ देना। वे भी कह रही थीं- “अरे पूरे परिवार की मिली भगत रही होगी। वरना ऐसा हो सकता है कि लड़का घर में चोरी का माल लाकर रखता रहे और माँ जान ही न पाए।” कुछ ने ममता की इमानदारी को स्वीकारते हुए कहा- “वह ऐसी नहीं है। लड़का ही गलत संगत में पड़ गया है।” ऐसी सब बातों के बीच सोच पाना मुश्किल था कि गलती किसकी है। रघु के बालपन के भोले चेहरे का चोरी की इस घटना से कोई मेल बिठाना मुझे मुश्किल हो रहा था, परन्तु उसके बदले हाव-भाव मन में कभी-कभी संदेह पैदा कर रहे थे। बिना प्रमाण किसी को दोष देना अनुचित है फिर ममता का व्यवहार तो यथावत था। इतने वर्षों के बीच उससे अपनत्व भी हो गया था। इसी से ममता रसोई से लौटी मैंने उसे समझाते हुए कहा- “अब जो हुआ सो हुआ। इतना दुःखी रहने से कोई लाभ नहीं है ममता। घर में और भी बच्चे हैं। खाना तो बना खा लिया कर।” उसने मुझे निरीह भाव से देखा और बोली- “मौहल्ले वाले समझा रहे हैं- “चली जाओ। बेटी का भी फोन आया- अम्मा मिल तो आ। पर मैं नहीं गई। क्या मिलूँ उससे जिसने मेरी जिंदगी भर की ईमानदारी पर कालिख पोत दी। कितना समझाती रही- “बाप का ठेला खाली खड़ा है कोई काम जमा ले। मैं पाँच सात हजार का इंतजाम कर दूंगी। तू जो कहेगा तेरा हाथ भी बटा दूंगी। कुछ न हो सब्जी पूड़ी ही लगा ले। तेरा बाप उसी में पूरा परिवार पाल रहा था। लेकिन वो कहाँ सुनने वाला। नए-नए बिजनेस जमा रहा था।” थोड़ा रूककर वह फिर आहिस्ता से बोली- “अच्छा खाना, पहनना और घूमना मुझे भी अच्छा लगता था भाभी। पर क्या जानती थी वो यह सब ऐसे ला रहा है। जींस, मोबाइल, बाइक ने हमें तो कहीं का न छोड़ा। इन्हीं के लिए तो गलत रास्ते पर गया। वरना पेट तो मेहनत की कमाई से भी भर जाता।” इतना कहकर ममता आहिस्ता से गेट के बाहर निकल गई।
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लेखिका परिचय:
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा ने मेरठ विश्वविद्यालय, मेरठ से एम.फिल. की उपाधि 1984 में, तत्पश्चात् पी-एच.डी. की उपाधि 1991 में प्राप्त की। आप निरंतर लेखन कार्य में रत् हैं। डॉ. शर्मा की एक शोध पुस्तक - भारतीय संवतों का इतिहास (1994), एक कहानी संग्रह खो गया गाँव (2010), एक कविता संग्रह जल धारा बहती रहे (2014), एक बाल उपन्यास चतुर राजकुमार (2014), तीन बाल कविता संग्रह, एक बाल लोक कथा संग्रह आदि दस पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है। साथ ही इनके शोध पत्र, पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं, कहानियाँ, लोक कथाएं एवं समसामयिक विषयों पर लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। आपकी बाल कविताओं, परिचर्चाओं एवं वार्ताओं का प्रसारण आकाशवाणी, इलाहाबाद एवं इलाहाबाद दूरदर्शन से हुआ है। साथ ही कवि सम्मेलनों व काव्यगोष्ठियों में भागेदारी बनी रही है।
शिक्षा - एम. ए. (प्राचीन इतिहास व हिंदी), बी. एड., एम. फिल., (इतिहास), पी-एच. डी. (इतिहास)
प्रकाशित रचनाएं - भारतीय संवतो का इतिहास (शोध ग्रंथ), एस. एस. पब्लिशर्स, दिल्ली, 1994
खो गया गाँव (कहानी संग्रह), माउण्ट बुक्स, दिल्ली, 2010
पढो-बढो (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012
सरोज ने सम्भाला घर (नवसाक्षरों के लिए), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2012
जल धारा बहती रहे (कविता संग्रह), साहित्य संगम, इलाहाबाद, 2014
चतुर राजकुमार (बाल उपन्यास), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014
विरासत में मिली कहानियाँ (कहानी संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014
मैं किशोर हूँ (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014
नीड़ सभी का प्यारा है (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014
जागो बच्चो (बाल कविता संग्रह), सस्ता साहित्य मण्डल, नई दिल्ली, 2014
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लेख पुस्तक समीक्षाएं, कविताएं एवं कहानियाँ प्रकाशित । लगभग 100 बाल कविताएं भी प्रकाशित । दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं काव्यगोष्ठियों में भागीदार।
सम्पर्क -
डॉ. (श्रीमती) अपर्णा शर्मा, “विश्रुत”, 5, एम. आई .जी., गोविंदपुर, निकट अपट्रान चौराहा, इलाहाबाद (उ. प्र.), पिनः 211004, दूरभाषः + 91-0532-2542514 दूरध्वनिः + 91-08005313626 ई-मेलः <draparna85@gmail.com>
(अपर्णा शर्मा)
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