कुबेर रोटी का गोल होना रोटी का गोल होना रोटी होना नहीं है जैसे - तवा, सूरज और चांद का गोल होना रोटी होना नहीं है रोटी का होना, गोल होना न...
कुबेर
रोटी का गोल होना
रोटी का गोल होना
रोटी होना नहीं है
जैसे -
तवा, सूरज और चांद का गोल होना
रोटी होना नहीं है
रोटी का होना, गोल होना नहीं है
रोटी का होना
सभ्यता और संस्कारों का होना है
रोटी का होना
भाषा और साहित्य का होना है
रोटी का होना
कला और संगीत का होना है
रोटी का होना
धर्म और दर्शन का होना है
रोटी का होना
ईश्वर और देवताओं का होना है
रोटी का होना
मनुष्यता का होना भी हो पायेगा?
रोटी आजकल सचमुच गोल हुई जा रही है
रोटी को गोल होने से बचाना
सभ्यता, संस्कार, भाषा, साहित्य
कला, संगीत, धर्म, दर्शन
ईश्वर और देवताओं को बचाने से
अधिक जरूरी है
रोटी को बचाना, मनुष्यता को बचाना है।
00
कुबेर
प्रेषक -
कुबेर सिंह साहू
राजनांदगाँव
मो. 9407685557
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विजय वर्मा
[ १ ] शमाँ
पतंगों ने घेर लिया है
चहुंओर से शमाँ को ,
क्या ऐसे नज़ारे अब
रोज दिखा करेंगे ?
आखिर यह ज़माना
खामोश रहेगा कबतक ?
क्या शमाँ की तक़दीर अब
पतंगे लिखा करेंगे ?
………………………………
[ २]
आज किसी ने तोहफे में
फिर से कालिख दिया ,
सूरज के माथे पर ' अँधेरा '
किसी ने लिख दिया।
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.lab]
वायु-प्रदूषण
अब चातक की किस्मत में
प्यासा मरना ही लिखा है।
कितने दिनों,कितने पल
कितने नक्षत्रों इंतज़ार किया ,
कि स्वाति नक्षत्र में
मिलेगी अमृत की धारा ।
पर चातक बेचारा
हलक में बून्द उतारते ही
बिलबिला गया ।
इस वर्षा-जल में तेज़ाब
कौन मिला गया ?
V.K.VERMA.D.V.C.,B.T.P.S.[ chem.]
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सुशील कुमार शर्मा
जल पर कवितायेँ
1. दहकता बुंदेलखंड
जीवन की बूंदों को तरसा भारत का एक खण्ड।
सूरज जैसा दहक रहा हैं हमारा बुंदेलखंड।
गाँव गली सुनसान है पनघट भी वीरान।
टूटी पड़ी है नाव भी कुदरत खुद हैरान।
वृक्ष नहीं हैं दूर तक सूखे पड़े हैं खेत।
कुआँ सूख गढ्ढा बने पम्प उगलते रेत।
कभी लहलहाते खेत थे आज लगे श्मशान।
बिन पानी सूखे पड़े नदी नहर खलियान।
मानव ,पशु प्यासे फिरें प्यासा सारा गांव।
पक्षी प्यासे जंगल प्यासा झुलसे गाय के पांव।
2. कल का जल
जल ही जीवन जल सा जीवन जल्दी ही जल जाओगे।
अगर न बची जल की बूंदें कैसे प्यास बुझाओगे।
नाती पोते खड़े रहेंगे जल राशन की कतारों में।
पानी पर से बिछेंगी लाशें लाखों और हज़ारों में।
रिश्ते नाते पीछे होंगे जल की होगी मारामारी।
रुपयों में भी जल न मिलेगा जल की होगी पहरेदारी।
हनन करेंगे शक्तिशाली नदियों के अधिकारों का।
सारे जल पर कब्ज़ा होगा बाहुबली मक्कारों का।
3. पानी बचाना चाहिए
फेंका बहुत पानी अब उसको बचाना चाहिए।
सूखे जर्द पौधों को अब जवानी चाहिए।
वर्षा जल के संग्रहण का अब कोई उपाय करो।
प्यासी सुर्ख धरती को अब रवानी चाहिए।
लगाओ पेड़ पौधे अब हज़ारों की संख्या में।
बादलों को अब मचल कर बरसना चाहिए।
समय का बोझ ढोती शहर की सिसकती नदी है।
इस बरस अब बाढ़ में इसको उफनना चाहिए।
न बर्बाद करो कीमती पानी को सड़कों पर।
पानी बचाने की अब एक आदत होनी चाहिए।
रास्तों पर यदि पानी बहाते लोग मिलें।
प्यार से पुचकार कर उन्हें समझाना चाहिए।
"पानी गए न ऊबरे मोती मानुष चून "
हर जुबां पर आज ये कहावत होनी चाहिए।
4. बड़े खुश हैं हम
बादल गुजर गया लेकिन बरसा नहीं।
सूखी नदी हुआ अभी अरसा नहीं।
धरती झुलस रही है लेकिन बड़े खुश हैं हम।
नदी बिक रही है बा रास्ते सियासत के।
गूंगे बहरों के शहर में बड़े खुश हैं हम।
न गोरैया न दादर न तीतर बोलता है अब।
काट कर परिंदों के पर बड़े खुश हैं हम।
नदी की धार सूख गई सूखे शहर के कुँए।
तालाब शहर के सुखा कर बड़े खुश हैं हम।
पेड़ों का दर्द सुनना हमने नहीं सीखा।
काट कर जिस्म पेड़ों के बड़े खुश हैं हम।
ईमान पर अपने कब तलक कायम रहोगे तुम।
बेंच कर ईमान अपना आज बड़े खुश हैं हम।
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आस्था
त्याग-तप-संयम सिखाती है, हमारी आस्था।
मनुजता के गीत गाती है, हमारी आस्था ।
आत्मा का सर्व व्यापक रूप है हमारी आस्था।
जीवन में सदभाव प्रस्फुटित कराती हमारी आस्था।
अनुभूतियों के आसमान को बासंती बनाती हमारी आस्था।
समेट लेती है सारे दुःख मन के हमारी आस्था।
भर देती है जीवन को खुशियों से हमारी आस्था।
मन को देती अपना शीतल स्पर्श हमारी आस्था।
सहज,सरल,सानंद प्रगति का पथ बताती हमारी आस्था।
सतत ,अविरल, नदी के मानिंद बहती हमारी आस्था।
नूतन सृजन के नव आचरण सिखाती हमारी आस्था।
(सुशील शर्मा )
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सबा खान
आओ सोये हुवे चरागों को फिर से जगाया जाए
आओ इक बीज उम्मीदों का फिर से उगाया जाए
रात के चौराहों पर खड़े मुखौटों के ये संगतराश
आओ तन्हाइयों में रंज का कोई बुत तराशा जाए
मेरी मासूमियत गुम सी इन नफरत की गलियों में
आओ दिल के कोरे पन्नों पर नाम मोहब्बत उकेरा जाए
तेरा मेरा , मेरा तेरा की उस ऊसर बंज़र सी बस्ती में
आओ चुपके से अपनापन का इक बसेरा बसाया जाये
पैरों में अब वो ताब नहीं और आँखों में नए ख्वाब भी नहीं
आओ शाखे दिल की बुलंदी पे आरज़ूओं का मचान बनाया जाए
फीके से दिन , उलझी सी रातें ,सूने सूने आँखों के दिए 'सबा'
आओ सदियों के इन वीरानों में यादों का इक नूर सजाया जाए
©® सबा खान
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सुधा सिंह
जब साथी ना कोई मेरा हो,
जब रोशनी साथ न मेरे हो!
जब डर का बस एक घेरा हो,
जब पग डग-मग से मेरे हो!
तुम थाम लो मेरी बाँहों को!!
जब होंठों पे मेरे मुस्कान न हो,
जब आँखों में बस दुःखों का पहरा हो!
जब पत्थर दिल दुनिया सारी हो,
जब रात अंधेरी काली हो!
तुम थाम लो मेरी बाँहों को!!
#सुधा सिंह ( रिहन्द नगर, उत्तर प्रदेश)
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शबनम शर्मा
कभी अपना, कभी पराया जहान चाहती हूँ,
आसमान पे अपना नाम लिखना चाहती हूँ,
मिटा के अपनी हस्ती मैं क्या चाहती हूँ,
खुद मुझको भी पता नहीं मैं क्या चाहती हूँ,
कभी लहरों पे चलना, तैरना पहाड़ों पर चाहती हूँ,
समुद्र की गहराइयों में उतरना भी चाहती हूँ,
हर कदम पे उसका मैं साथ चाहती हूँ,
खुद मुझको भी पता नहीं मैं क्या चाहती हूँ,
बन कर परिंदा मैं कभी उड़ना चाहती हूँ,
दिल में उनकी कभी कूंकना चाहती हूँ,
ओढ़कर मैं चादर सोना चाहती हूँ,
खुद मुझको भी पता नहीं, मैं क्या चाहती हूँ,
हर कल्पना का यथार्थ मैं चाहती हूँ,
दुश्मनों से कभी, दोस्तों से सलाम चाहती हूँ,
गले लग के कुछ पलों के मैं रोना चाहती हूँ,
खुद मुझको भी पता नहीं, मैं क्या चाहती हूँ,
माँ, बहन से हटकर मैं कुछ और चाहती हूँ,
मानवी सैलाब में इक इन्सान चाहती हूँ,
बिन बात सब समझ ले, वो साथ चाहती हूँ,
खुद मुझको भी पता नहीं, मैं क्या चाहती हूँ।
बिखरा चहुँ ओर जहाँ प्यार ही प्यार होता,
हर शख्स बीज इन्सानियत जहाँ बोता,
दंगे फसादों का कहीं नामोनिशान न होता,
इस जहान से आगे कोई और जहान होता,
दिल किसी ग़रीब का इक टुकड़े को न रोता,
वो भी शानो शौकत से ज़िन्दगी को जीता,
न एैटम-बम होता, न खंजर कोई होता,
इस जहान से आगे कोई और जहान होता,
जहाँ सरहदें न होती, न आक्रमण होता,
न हिन्दू कोई होता, न मुसलमान होता,
मनाते मिलकर जश्न, सब ज़िन्दगी के,
इस जहान से आगे कोई और जहान होता,
जहाँ शाम अपनी होती, सहर अपनी होती,
ठहाकों में यारों दुनिया सारी हँसती,
न बेटी कोई होती, न बेटा यहाँ होता,
इस जहान से आगे कोई और जहान होता।
हमको मीत बनाकर देखो
ग़ज़लों में तुम गाकर देखो
अलफ़ाजों में सो जायेंगे
तराना कोई जगाकर देखो,
भूल गये तुम कसमें सारी
वादा इक तो निभाकर देखो,
छोड़ गये जहाँ हमको अकेला
उन राहों पर आकर देखो,
जिस्त सकूँ को बहुत है तरसी,
चेहरा गुलों में छुपाकर देखो,
नज़र मिलाना कठिन है शबनम
चादर मुख से हटाकर देखो
हम तो रंगे थे इश्क में ऐसे
छूकर लपटों को तुम देखो।
शबनम शर्मा ] अनमोल कंुज, पुलिस चैकी के पीछे, मेन बाजार, माजरा, तह. पांवटा साहिब, जिला सिरमौर, हि.प्र.
मोब. – ०९८१६८३८९०९, ०९६३८५६९२३
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सतीश शर्मा
किसान
बह रहा पसीना निज तन से ।
फिर भी वह लगा हुआ मन से ।।
सूखे तरु के पंछी जैंसे।
उड़ गए सभी सुख जीवन से।।
वसुधा का वक्ष चीरकर जो ।
स्वर्णिम फसलें उपजाता है । ।
औरों को सरस अन्न देने ।
खुद रूखी सूखी खाता है । ।
गर प्रकृति कोप से मिटी फसल ।
लेने मुआवजा जाता है ।।
माथे को ठोक बैठता है ।
चालीस रुपये जब पाता है ।।
फिर भी स्वीकार सहर्ष उसे।
निज कर्म लीन हो जाता है ।
ऐसा प्रचंड पुरुषार्थ प्रखर ।
कर्मठ किसान कहलाता है ।।
-सतीश शर्मा ।
(जिला नरसिंहपुर ,म.प्र.)
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दिनेश कुमार 'डीजे'
काम किये बिना ख़ुदा से कुछ भी मांग लेना,
गर यही है बंदगी तो फिर बंदगी क्या है?
जिंदगी के मकसद भूल यूँ किसी के पीछे दौड़ना,
गर यही है आशिकी तो फिर आशिकी क्या है?
अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाइयाँ,
गर यही है तरक्की तो फिर तरक्की क्या है?
इंसानियत अँधेरे में और दौलत का उजाला,
गर यही है रोशनी तो फिर रोशनी क्या है?
तारीफ़,वाहवाही, व्याकरण में सिमट के रह जाए,
गर यही है लेखनी तो फिर लेखनी क्या है?
मेरी जात, मेरी कौम, मेरी कार और मेरा मकान,
गर यही है जिंदगी तो फिर जिंदगी क्या है?
©दिनेश कुमार 'डीजे'
कवि परिचय
नाम-दिनेश कुमार 'डीजे'
जन्म तिथि - 10.07.1987
सम्प्रति- भारतीय वायु सेना में वायु योद्धा के रूप में सेवानिवृत्त
शिक्षा- १. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कनिष्ठ शोध छात्रवृत्ति एवं राष्ट्रीय पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण २. समाज कार्य में स्नातकोत्तर एवं स्नातक उपाधि
३. योग में स्नातकोत्तर उपाधिपत्र
प्रकाशित पुस्तकें - दास्तान ए ताऊ, कवि की कीर्ति एवं प्रेम की पोथी
पता- हिसार (हरियाणा)- 125001
फेसबुक पेज- facebook.com/kaviyogidjblog
फेसबुक प्रोफाइल- facebook.com/kaviyogidj
पुस्तक प्राप्ति हेतु लिंक्स- www.bookstore.onlinegatha.com/bookdetail/272/प्रेम-की-पोथी.html
http://www.flipkart.com/prem-ki-pothi/p/itmedhsamgpggy7p?pid=9789352126057
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गोविन्द सेन
बाल कविता
गरमी हमें बताती गरमी -
गरमी में नहीं भाती गरमी
बेहद हमें सताती गरमी
सड़कों पर कर्फ्यू लगवाती
जिलाधीश बन जाती गरमी
तेज धूप के शूल चुभोकर
गरमी हमें बताती गरमी
सूरज दादा आग बबूला
अंगारे बरसाती गरमी
कंठ माँगता पानी-पानी
गीत आग के आती गरमी
घर से बाहर कदम न रखना
मम्मी-सी धमकाती गरमी
सूख गए सब ताल-तलैया
जुल्म सभी पर ढाती गरमी
तवे जैसी छत तपती है
भट्टी-सी हो जाती गरमी
चारों ओर पसरा सन्नाटा
सबको खूब डराती गरमी
कूलर-पंखे, बर्फ-कुल्फियाँ
सबकी याद दिलाती गरमी
घनी छाँव को ढूँढ रहे हैं
हमसे सही न जाती गरमी
-राधारमण कालोनी, मनावर, जिला-धार [म.प्र.] 454446 मोब. 09893010439
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मुकेश कुमार
आज वो रहा जो कभी नही हुआ.... कविता
बस से झांकती हुयी
अपने पिता को हाथों से बाय करती
पिता देखते देखते ख्यालों में खो गए....
एकाएक अपनी बेटी के लिए
वो शहर जा रही हैं पढ़ने के लिए
एक छोर से आँखे से ओझल होती बेटी
वो शहर जा रही हैं पढ़ने के लिए......
आज वो हो रहा हैं जो आज तक नही हुआ
वो शहर जा रही हैं पढ़ने के लिए....
एक पिता की उम्मीद एक बेटी.....
Name:- Mukesh Kumar
E-mail: MUkeshkumarmku@gmail.com
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अर्जुन सिंह नेगी
गीत
मयखाना मुझे बुला रहा है
कसम खुदा की गवाह खुदा है
साकी खुद ही पिला रहा है
कसम खुदा की गवाह खुदा है
कल ही कसम खाई थी कि अब ना पीऊंगा
अब सोचता हूं मय के बिना कैसे जीऊंगा
खा़बों में मय सता रही है
साकी प्याला हिला रहा है
कसम खुदा की गवाह खुदा है
गिन गिन के पियुं जाम फितरत नहीं मेरी
हाला को हरा दूं मै ताकत नहीं मेरी
कभी मैं तो कभी साकी पिये
चलता यही सिलसिला रहा है
कसम खुदा की गवाह खुदा है
चूम चूम प्याले को हर गम को सिये जाऊँगा
मरके भी मय का प्याला तो साथ लिये जाऊँगा
साकी ने जब अपना कहा
जिंदगी से ना कोई गिला रहा है
कसम खुदा की गवाह खुदा है
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सेवक
अर्जुन सिंह नेगी
कनिष्ठ अभियंता
रामपुर परियोजना (412मे० वाट)
झाकरी १७२२०१
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