बाल कहानी गुटरगूं वन और तुलसी माला सुषमा श्रीवास्तव ‘‘गु टरगूं...गुटरगूं... गुटरगूं...गुटरगूं... गुटरगूं...’’ चारों ओर यही आवाज सुनाई दे...
बाल कहानी
गुटरगूं वन और तुलसी माला
सुषमा श्रीवास्तव
‘‘गुटरगूं...गुटरगूं... गुटरगूं...गुटरगूं... गुटरगूं...’’
चारों ओर यही आवाज सुनाई दे रही थी.
सभी जानते हैं कि इस तरह से कबूतर बोलते हैं. यूं तो कबूतर बस्तियों में ही रहते हैं. लोग उन्हें पालते भी हैं. पर इन सारे कबूतरों ने यहां रहना पसंद किया. इस जंगल में बाहर से कुछ भी नहीं दिखाई देता था. इस घने जंगल के बीचो-बीच एक बड़ा सा तालाब था. बरगद के बहुत पुराने पेड़ थे. फल-फूल, वनस्पतियां सभी वहां मिल जाती थीं. तालाब के किनारे जो बरगद के पेड़ थे उसी में यह कबूतर रहते थे. इतनी ज्यादा संख्या थी इनकी कि कोई बाहरी पक्षी आसपास भी नहीं फटकता था.
यह कबूतर कई तरह के थे. कुछ के रंग काले भूरे, कुछ सफेद. अपनी शारीरिक विशेषता के कारण यह अलग-अलग परिवार में अलग-अलग पेड़ों पर बसेरा करते थे. काली गर्दन, सफेद धड़ वाले कबूतरों में से राजा-रानी चुने जाते थे जो सबसे बड़े बरगद के पेड़ पर रहते थे. ठीक उसके पीछे एक ऊंचा बड़ा पेड़ था. जिसमें कई कोटर बने थे. इस पेड़ पर सेनापति अपने सुरक्षा सैनिकों के साथ रहता था. किसी भी विपत्ति के समय सारे कबूतर इन कोटरों में समा जाते थे. भूरे और सफेद कबूतर मन्त्री होते थे. इन्हीं के ऊपर सारे गुटरगूं वन की सुरक्षा की जिम्मेदारी होती थी. लंबी सफेद गर्दन वाले कबूतर शांति वार्ता के लिये जाते थे. इन्हीं के पूर्वज पुराने जमाने में चिट्ठियां पहुंचाया करते थे. किसी भी चुनौती भरे कार्य के लिये राजा इन्हीं में से चुनाव करता था. इनके अलावा राजवैद्य व राजपुरोहित होते थे जिनका चुनाव उनके गुणों के आधार पर होता था. इस गुटरगूं साम्राज्य में सबके नाम ‘‘ग’’ से ही होते थे जैसे राजा का नाम ‘‘गगान’’ रानी का नाम ‘‘गागी’’ था. सेनापति का नाम ‘‘गंदुम’’ और राजवैद्य का नाम ‘‘गोरू’’ था. राजपुरोहित के पेड़ में एक घंटी बंधी थी. सूर्योदय व सूर्यास्त के समय ‘‘गोगो’’ जोर से घंटी बजाता था और दूर-दूर से कबूतर उड़-उड़ कर तालाब के किनारे मखमली घास पर आ कर बैठ जाते थे. फिर राजा ‘‘गगान’’ और रानी ‘‘गागी’’ शान से उड़ते हुये आते और एक पेड़ पर बैठ जाते. उनके नीचे मंत्री जी बैठते. राजपुरोहित, राजवैद्य दोनों सामने के पेड़ पर और चौकसी के लिये सेनापति ‘‘गंदुम’’ ऐसे पेड़ पर बैठते कि उन्हें ऊपरी आकाश एवं धरती दोनों दिखाई दे. सूर्यास्त का समय था. यह उनकी प्रार्थना का समय था. राजा गगान का मानना था कि जिस ईश्वर ने हमें बनाया है, प्रार्थना कर उसका धन्यवाद अवश्य करना चाहिये.
राजपुरोहित ने प्रार्थना शुरू की.
‘‘हे ईश्वर हम सच्चे पक्षी ‘‘गुटरगूं... गुटरगूं... गुटरगूं...
ऐसी दया करो हे प्रभु जी, अच्छे-अच्छे काम करें
शांति दूत हम बने रहे, शांति दूत हम बने रहें
गुटरगूं... गुटरगूं... गुटरगूं...’’
प्रार्थना समाप्त हो गई. तभी मंत्री गबर ने सूचना दी कि राजा की आज्ञा से राजवैद्य आपसे कुछ कहेंगे.
राजवैद्य ने बोलना शुरू किया-
‘‘ओ गुटरगूं बंधुओं, हमारे पास आपातकाल के लिये दवाइयां समाप्त हो गई हैं. दवा बनाने के लिये कई आवश्यक वनस्पतियां आसपास नहीं मिल रही हैं, इसलिये आप लोगों को दूर से वनस्पतियां लानी होंगी. कौन यह कार्य करेगा.’’ सब चुप ही रहे.
उन्हें चुप देख कर रजा ‘‘गगान’’ क्रोध से पर फड़फड़ाने लगा.
सेनापति ने राजा का क्रोध शांत किया.
‘‘आप चिंता न करें, मैं अभी व्यवस्था करता हूं.’’
उसने दो सफेद कबूतरों ‘‘गैला’’ और ‘‘गिल्ला’’ को एक सुरक्षा सैनिक के साथ जाने को कहा. राजवैद्य ने उन्हें समझाया कि उन्हें क्या-क्या लाना है- नीम, बबूल, आम के पेड़ तो बहुतायत से हैं. चंदन भी मिल जाता है, पर यहां तुलसी दूर-दूर तक नहीं हैं.
राजा गगान ने पूछा- ‘‘राजवैद्य! वनस्पतियां नहीं मिलने का क्या कारण है.’’
महाराज जहां तक मुझे मालूम है मनुष्य अपने रहने, घर सजाने, भोजन पकाने के लिये तमाम हरे-भरे जंगल काट देता है. इसी से उपयोगी वनस्पतियां भी नष्ट हो जाती हैं. यह बहुत खतरनाक है यदि पेड़ पौधे ही नहीं रहेंगे तो धरती तो उजाड़ हो जायेगी. फिर कोई जियेगा कैसे?’’
राजा गगान ने कहा- ‘‘हां, यह चिंता की बात तो है पर यह काम आप लोग करेंगे. उपयोगी वनस्पतियों के जंगल के पौधे रोपते जाइये.’’
सभी कबूतरों ने सहमति में जोर से गुटरगूं किया.
अब गिल्ला और गैला ने उड़ने की आज्ञा लेकर उड़ान भरी. तीनों गुटरगूं वन से काफी आगे आ गये. पर कहीं तुलसी नहीं मिली. कुछ सुस्ता कर फिर उड़ान शुरू की. देखा नीचे नदी बह रही है, गाय-बछड़े घास चर रहे हैं. कुछ घंटों की आवाज भी सुनाई दी. लगा मंदिरों में पूजा हो रही है. तब तो यह अच्छी जगह है. तुलसी ऐसी ही जगह पर आसानी से मिलेगी. उन्होंने नीचे उतर नदी से पानी पिया. मीठी सुगंधित हवा चल रही थी. गिल्ला बोला, ‘‘अरे यह तो तुलसी की ही महक है.’’
गैला ने कहा, ‘‘वह देखो, सामने ही तो तुलसी ही तुलसी है शायद तुलसी वन.’’ तीनों खुश हो गये. ‘‘अब क्यों देर करनी, चलो वहीं चलते हैं.’’
सुरक्षा सैनिक ने एक पेड़ पर जगह ली और गिल्ला, गैला ने पूरे तूलसी वन का चक्कर लगाया. देखा तुलसी की तमाम झाड़ियां थीं. उसके नीचे पतली पगडंडियां थीं.
अब यह दोनों कबूतर, वन के अन्दर पहुंच गये परन्तु जल्दी ही तुलसी की बहुत तेज सुगंध का झोंका आया. उन्हें लगा कि वह चेतना खोते जा रहे हैं. फिर भी उन्हें लगा कि कई खूब चमकीली छायाएं गोल-गोल घूम रही हैं. कानों में घंटा, घुंघरू आदि की ध्वनियां सुनाई देने लगीं. पर तब तक वह अचेत हो गये.
बहुत देर तक सुरक्षा सैनिक तुलसी वन के ऊपर चक्कर लगाता रहा. गुटरगूं बोलता रहा पर गिल्ला, गैला का उत्तर नहीं आने से परेशान हो गया. गिल्ला, गैला की चेतना लौटी तो उन्होंने अपने को एक टोकरी में पड़ा पाया. दो मनुष्य उन्हें मन्दिर से पूजा करने आये लोगों को दिखा रहे थे. ‘‘देखिये भाइयों, यह साधारण कबूतर नहीं, कोई पहुंचे हुए ऋषि हैं. इन्हें तुलसीवन से यह उपहार मिले हैं. कृष्ण भगवान ने इन्हें दर्शन दिये हैं.’’
सैनिक ‘‘गामता’’ भी कई मंदिरों में घूमने के बाद इधर आया. उसने गुटरगूं की तो गिल्ला और गैला ने भी जवाब दिया. ‘‘गामता’’ ने टोकरी के बिल्कुल पास आकर जोर का एक चक्कर लगाया और तीनों कबूतर एक साथ गुटरगूं वन की ओर बढ़ लिये. उनके गले में पांच लरों की तुलसी की माला और परों में मोरपंख था. गुटरगूं वन में उनकी प्रतीक्षा हो रही थी. राजदरबार में गिल्ला और गैला ने अपनी तुलसी की माला और मोरपंख दिखाया. ‘‘गामता’’ सैनिक ने पूरी कहानी सुनाई. मोरपंख रानी ‘‘गागी’’ को दे दिया गया. वह बहुत खुश हुई. ‘‘गिल्ला’’ और ‘‘गैला’’ ने राजपुरोहित जी से पूछा- ‘‘जो हमने तुलसीवन में घुंघरू व घंटियों की आवाजें सुनीं, वह सच थीं या सपना?’’
राजपुरोहित ने कहा- ‘‘अगर यह सच न होता तो यह माला और मोरपंख तुम्हें कैसे मिलते.’’
‘‘महाराज यह तुलसी नहीं अमृत है अमृत. इसे तुम्हें स्वयं राजा कृष्ण जी ने प्रसाद रूप में दी है. प्रभु सेवा और दया की इच्छा को समझते हैं इसीलिये तुम्हारी इच्छा उन्होंने पूरी की. दर असल ‘‘गैला’’ और ‘‘गिल्ला’’ तुम लोग श्री कृष्णधाम गोकुल वृंदावन पहुंच गये थे.’’
राजपुरोहित बोल उठे ‘‘राधाकृष्ण’’ गुटरगूं.
महाराज ‘‘गगान’’ ने कहा, ‘‘राजपुरोहित यह सब क्या है? आप पूरी बात बताइये.’’
‘‘महाराज बहुत पहले द्वापर युग में मथुरा का राजा था- कंस. वह राक्षस राजा बड़ा अत्याचारी था. प्रजा बहुत दुखी थी. ऐसे समय में राजा कंस ने आकाशवाणी सुनी- रे कंस तेरा
वध करने वाला तेरी बहन देवकी का पुत्र होगा.’’
सुनते ही कंस ने अपनी बहन देवकी और बहनोई वसुदेव को जेल में डाल दिया. जेल में उनके जो भी संतान होती, कंस उसका तुरंत वध कर देता. जब देवकी को आठवीं संतान हुई तो वसुदेव ने बालक को सूप में रखकर जेल से बाहर निकलने की कोशिश की. ईश्वर की ऐसी कृपा हुई कि जेल के फाटक खुल गये और द्वारपाल सो गये. उस दिन भादों मास, अंधियारी पाख की अष्टमी थी. यमुना नदी उफान पर थी. बरसते मेघ में वसुदेव सूप को लेकर नदी पार करने लगे. यमुना की लहरें और ऊंची हो गई. वसुदेव ने सूप सिर पर रख लिया, परंतु जल ने जब बालक का अंगूठा छू लिया तो पानी नीचे उतर गया. वसुदेव गोकुल पहुंच गये. वहां नंदबाबा के घर गये. उनकी, उसी दिन जन्मी कन्या को लेकर और बालक को वहीं पालने में लिटा कर वापस जेल में आ गये. जेल के दरवाजे बंद हो गये. संतान जन्म की बात सुनते ही कंस आया और कन्या को मारने के लिये हाथ में उठाया. परंतु कन्या तुरन्त आकाश की ओर जा कर स्थिर हो गई. तभी आकाशवाणी हुई- ‘‘रे कंस तेरा वध करने वाला जन्म ले चुका है.’’
इस तरह श्रीकृष्ण, नंदबाबा व यशोदा जी के यहां पले-बढ़े, लीलायें की. कंस ने फिर कई बार पूतना आदि राक्षसनियों को कृष्ण को मारने के लिये भेजा परंतु बालक कृष्ण ने सभी का
वध कर दिया.
एक बार बालक कृष्ण साथियों के साथ यमुना नदी के तट पर गेंद खेल रहे थे. गेंद नदी में चली गई. यमुना नदी में एक कालियादह नाग के रूप में राक्षस रहता था. उसके विष से सारी यमुना नदी का पानी जहरीला हो गया था. लोगों को पानी के लिये बड़ा कष्ट हो रहा था. बालक कृष्ण गेंद लेने के बहाने यमुना में कूद पड़े और कालियादह राक्षस को मार डाला. तब यमुना नदी का पानी स्वच्छ हुआ.’’
सारे गुटरगूं बहुत ध्यान से बालक कृष्ण ही बातें सुन रहे थे. ‘‘श्रीकृष्ण को पशु-पक्षियों से बहुत प्यार था. गाय-बछड़े उन्हें घेरे रहते. जब वह वंशी बजाते तो ग्वाल बाल, पशु पक्षी सब उनके पास आ जाते. उनके घर तो घी माखन और दूध दही भरा रहता पर वे चाहते थे उनके सभी साथी माखन खायें. तो कभी-कभी वह किसी गोपी की मटकी फोड़ देते और उनके साथी खूब माखन खाते. पर जब उनकी शिकायत घर पहुंचती तो यशोदा माता उनको ऊखल से बांध देती. पूछने पर कहते माता मैंने माखन नहीं खाया, साथियों ने मेरे मुंह में लगा दिया है.’’ फिर क्या हुआ?
‘‘इसी तरह श्रीकृष्ण ने अत्याचारी राजा कंस और राक्षसों का वध कर वहां शांति स्थापित की. बाद में जब कुरुक्षेत्र के मैदान में पांडवों और कौरवों के बीच युद्ध हुआ तो अपनी सेना
दुर्योधन को दे दी और स्वयं पांडवों के साथ हो गये.
युद्ध में अपने ही बंधुओं का मरण देखकर अर्जुन दुःखी हो गये और कहा, ‘‘हे कृष्ण अब हम युद्ध नहीं करेंगे.’’ तब श्री कृष्ण ने कहा, ‘‘हे अर्जुन संसार में कर्म ही सबसे बड़ा है सब को फल की इच्छा छोड़कर अपना कर्म करना ही होता है. यह बातें श्रीमद्भागवत गीता में लिखा है. तुलसी भी श्रीकृष्ण को प्रिय थी. ऐसा सुना जाता है कि कभी-कभी वे तुलसीवन में आते हैं और रास रचाते हैं. परन्तु किसी को दिखाई नहीं देते. आश्चर्य की बात है कि गिल्ला और गैला को उनका प्रसाद मिला है. बोलो, ‘‘श्री
राधाकृष्ण की जय...’’
‘‘गुटरगूं, गुटरगूं.’’
सभा समाप्त हो ही रही थी, एक सैनिक कबूतर उड़ता हुआ आया. ‘‘महाराज नदी पार एक मंदिर में झांकी सजी है, प्रसाद बंट रहा है. लोग श्रीकृष्ण का जन्म मना रहे हैं. मेला भी लगा है. लोग नाच रहे हैं, गा रहे हैं.’’ ‘‘अच्छा, सेनापति, चलो हमने श्रीकृष्ण भगवान की इतनी बातें सुनीं, अब हम भी झांकी देखेंगे.’’ राजा गगान ने कहा. आगे-आगे सैनिक फिर सेनापति गंदुम फिर राजा गगान, रानी गागी, राजपुरोहित, राजवैद्य और पीछे सारे कबूतर...
जब लोगों ने इतने सारे कबूतरों को एक साथ आकाश में छाये हुये देखा तो घबराये.
सेनापति गंदुम के इशारे पर सारे कबूतर पंक्ति में सिर झुकाकर बैठ गये. लोग कहने लगे यह तो शांति दूत हैं. इनसे डर कैसा...लगता है यह गुटरगूं वन में कबूतर है. सुनते ही सभी कबूतर बोले, ‘‘गुटरगूं.’’
पुजारी ने कहा, ‘‘तुम सब पीछे हटो, यह जन्माष्टमी का प्रसाद लेने आये हैं.’’ उन्होंने फलों की टोकरी आगे कर दी. गंदुम के इशारे पर सारे कबूतर एक-एक फल उठाकर आकाश में उड़ गये. खूब ऊंची उड़ान.
कैसी अच्छी जन्माष्टमी भी उन्होंने मनाई है न, लेकिन एक बात वह अच्छी तरह सीख चुके थे कि काम ही सेवा है, काम ही पूजा.
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