प्राची - मई 2016 : आपने कहा है

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  ऊन के वे गोले मार्च 2016 अंक में शामिल शीला त्रिवेदी की कहानी 'ऊन के वे गोले' पढ़ी. इस कहानी ने आज के समय के दर्द को और उभार दिया...

 

ऊन के वे गोले

मार्च 2016 अंक में शामिल शीला त्रिवेदी की कहानी 'ऊन के वे गोले' पढ़ी. इस कहानी ने आज के समय के दर्द को और उभार दिया. नितांत एकल और एकाकी होते परिवारों के हम सदस्य दादा, दादी, नाना, नानी और ऐसे ही अनेक रिश्तों से उपजे प्रेम से कितने वंचित हैं. अब गर्मी की छुट्टियों की वो मौज कहां. गांव तो बस धारावाहिकों में ही देख पाती है आज की पीढ़ी. होम वर्क-क्लास वर्क के बीच जरूरी सामाजिक पारिवारिक वर्क छूट सा गया है. रिश्तों की अहमियत उनमें पगे महान प्रेम की एक अनूठी प्रस्तुति है शीला जी की यह कहानी. उनकी इस कहानी के जरिये ऊन का एक एक गोला हर एक पाठक के पास वषरें के लिए संचित हो गया है. संचित हो गए हैं पुरखों के आशीर्वाद. साधुवाद आपको, साधुवाद कथाकार को. 'तीसरी कसम' भी आपके जरिये हम सबने पुनः पढ़ ली. सचमुच कितनी सुघड़ता से गढ़ा है हर पात्र, हर परिस्थिति को रेणु जी ने, एक अद्भुत क्लासिक कृति. आइजक पेरेज की 'बंजो', आनंद की कहानी 'मैंने उस लड़की का खून किया' भी अच्छी प्रभावपूर्ण लगीं. सम्पादकीय में आपने बड़ी ही बेबाक साहसिक टिप्पणी की है. आज सियासत अक्सर स्याह को स्याह और सफेद को सफेद कहने की सादगी छीन लेती है. लेकिन साहित्य और पत्रकारिता अपने पथ पर अडिग रहे, यही कामना हम सबकी होनी चाहिए.

-अभिनव अरुण, वाराणसी

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प्राची का भविष्य सुखमय है

प्राची का इंतजार हर माह रहता है. करीब दो माह बाद होली के रंगों की छटा बिखेरती प्राची प्राप्त हुई. देखते ही उसे पढ़ने बैठ गया. कविता, कहानी, गीत, गजल के साथ अब शोध आलेख भी पढ़ने को मिल रहे हैं. ये बहुत अच्छा प्रयास है. प्राची का भविष्य सुखमय है. स्त्री विमर्श से संबंधित दोनों आलेख (डॉ. भावना शुक्ल और सुमन जी) सशक्त हैं. कृष्ण कुमार यादव का वसंत पर आलेख पूरी तरह से प्रकृति की छटा से ओत-प्रोत है. भ्रमर जी की कहानी 'हृदय परिवर्तन' एक मार्मिक कहानी है. तनूजा चौधरी की कहानी 'फ्लैट न. 44' तथा गुजराती कहानी भी दिल को स्पर्श करती है. लघुकथाओं की प्राची में अपनी एक पहचान बन गई है. सभी उम्दा हैं. प्राची के उज्जवल भविष्य के लिये संपादक और संपादक मंडल को अनंत शुभकामनायें.

तरुण कु. सोनी 'तन्वीर'

जैतारण, जिला-पाली (राज.)

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मेरा दृष्टिकोण

प्राची पत्रिका हम सबकी पसंदीदा पत्रिका है. जब भी विलंब होता है, तो साहित्य प्रेमी ही नहीं हमारी मां, श्रीमती जी सभी व्यग्र हो जाते हैं. अमृतनागर जी का साक्षात्कार पढ़कर ज्ञान अर्जित हुआ. 'उसने कहा था', 'तीसरी कसम', कहानियां बेजोड़ हैं. कहानियों के विषय में मैं अपने दृष्टिकोण से एक बात कहना चाहता हूं कि कहानी में अक्सर नारी को रोता हुआ और निरीह ही दर्शाया जाता है. सभी कहानियों में उसका अंत दुखद ही होता है. मेरे कहने का मतलब कि कोई कहानी ऐसी हो जिसमें नारी की खुशहाल स्थिति का वर्णन हो. सुख और दुख एक दूसरे के पूरक हैं. स्त्री दुखी कम हो, ऐसी कहानी भी लिखी जानी चाहिए. मैं कोई कहानीकार नहीं हूं, परन्तु एक पाठक के नजरिये से यह बात कह रहा हूं. आशा है, आज के कहानीकार इस बात पर

ध्यान देंगे. संपादकीय लोकतंत्र पर प्रहार जोरदार करता है.

प्राची समस्त रसों से सराबोर है. संपादक जी व संपादक मंडल को बधाई.

सुधांशु शर्मा, मुंबई (महाराष्ट्र)

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प्रशंसनीय और अनुकरणीय पहल

साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पाठकों द्वारा सबसे महत्वपूर्ण, लोकप्रिय, सर्वप्रथम पढ़ा जाने वाला यदि कोई स्थाई स्तम्भ होता है तो वह होता है सुधी पाठकों के भेजे गये पत्रों का. प्रत्येक संपादक इस स्तम्भ का एक नाम देता है. इस स्तम्भ के संबोधन शीर्षक भी तरह-तरह के होते हैं, जैसे- आपके पत्र/चिट्ठी पत्री/आपकी राय/सम्पादक के नाम/आपकी डाक/परिसंवाद/खास चिट्ठी/पाठक दृष्टिकोण/पाठकों की कलम से/पत्र प्रवाह/पत्र संवाद/पाठकों के विचार/अपना मोर्चा/पाठकनामा/चिटठीरसा/पत्र मंजूषा आदि.

यह स्थाई स्तम्भ पत्रिका के लिये इतना आवश्यक होता है कि इसे पत्रिका के प्रथम दो-तीन पष्ठों में ही प्रकाशित कर दिया जाता है. निश्चित रूप से ये पत्र पाठकों और संपादक के बीच आत्मीयता के सेतु का कार्य करते हैं. पत्रों की संख्या से ही संपादक के कुशल संपादन और पत्रिका की लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पत्र लेखन एक कला है, जिसमें सभी सुधी पाठक पारंगत नहीं होते हैं लेकिन कुछ पाठकों के पत्र इतने सुंदर, सुरुचिपूर्ण और कलात्मक होते हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाता है. इन पत्रों में प्रायः पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की समीक्षा होती है. पाठक केवल पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की प्रशंसा ही नहीं करता, बल्कि रचनाओं की सटीक, तथ्यात्मक आलोचना भी करता है. पत्रों के प्रकाशन का पूर्ण अधिकार संपादक का होने के कारण पाठक के मन में एक अनिश्चितता का भाव बना रहता है कि उसका पत्र प्रकाशित होगा या नहीं. यदि होगा भी तो पूरा पत्र या उसका कुछ अंश, इत्यादि. पत्र लेखन की प्रक्रिया से पत्र के लेखक को इक ऊहापोह की स्थिति से गुजरना पड़ता है.

प्राची के संपादक आदरणीय राकेश भ्रमर जी द्वारा आम पाठकों को पत्र लेखन के प्रति आकर्षित करने, उन्हें पत्र लिखने हेतु प्रेरित करने के लिये जो सर्वश्रेष्ठ पत्र प्रकाशित करने की पहल की गई है, वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है. ऐसा मेरा मानना है कि साहित्य योगदान की यह पहल पत्र लेखन की ओर प्राची के सुधी पाठकों को आकर्षित करने में सफल होगी.

माह फरवरी 2016 के अंक में सर्वश्रेष्ठ पत्र की श्रेणी में श्री शरदचन्द्र राय श्रीवास्तव जी का पत्र प्रकाशित करते हुए उन्हें श्री अंशलाल पन्द्रे की छः सौ रुपये की पुस्तक 'सबरंग हरसंग' दी जायेगी. यह सूचना पढ़कर मुझे ऐसा लगा मानो जैसे 'सोने में सुहागा' नामक कहावत चरितार्थ हो गई है. प्राची के आगामी अंकों में अन्य पाठकों के भी इसी तरह श्रेष्ठ पत्र पढ़ने को मिलेगें, ऐसी मैं आशा करता हूं. इसके साथ ही साथ पत्र लेखन के लिये प्रेरित करने वाली इस योजना के लिये मैं आदरणीय संपादक जी का आभार प्रकट करता हूं.

प्रभात दुबे, जबलपुर (म.प्र.)

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साहित्यकार कुछ और हो गया है

वैश्विक शोहरत याफ्ता शायर फजा इब्ने फौजी का एक मकबूल शेर कभी पढ़ा था-

''आग लगाने वाले की फनकारी देख

घर जलता है शोले पस मंजर में है''

यहां बात अपने घर से होती हुई अपने देश के विराट कैनवस तक जाती है. आग किस 'आग' ने लगाई है का सहजतः अंदाजा हर किसी को है किंतु इसकी हकीकत बयानी करने का कम ही लोगों में साहस है. 'प्राची' का मार्च अंक और उसकी संपादकीय 'देश के गद्दार' एक साहसिक पहल है. भाई राकेश जी! ऐसा लिख सकने का जज्बा अब अकाल की स्थिति में है. जेनुइन कलमकारों का पुरसाने हाल अब कोई नहीं है. साहित्यकार अब साहित्यकार के अतिरिक्त 'कुछ और' हो गया है. उसका 'कुछ और' हो जाना कितना त्रासद और दुर्भाग्यपूर्ण है. आप के साहसिक लेखन को अदबी प्रणाम. 'प्राची' का नैरन्तर्य भी इसी दयानतदारी का हिस्सा है. आज के सांघातिक दौर में पत्रिका निकालना वह भी सिर्फ साहित्यिक एक मुश्किलतरीन काम है. कॉरपोरेट घराने वाली पत्रिकाएं 'धर्मयुग', 'सारिका' 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'दिनमान', 'रविवार' आदि पत्रिकाएं भी जब प्रकाशित होती थीं, उनकी निरन्तरता टूट-टूट जाया करती थी. परिणामतः वे सदा-सदा के लिये साहित्य से विदा हो गयीं. रंग-रोगनी आज जो पत्रिकाएं बाजार का हिस्सा बनी हुई हैं, उनमें साहित्य कितना होता है, किसी से छुपा नहीं है. ऐसे में 'प्राची' साहित्य प्रदायित करने में महत्तम भूमिका अदा कर रही है. पत्रिका के नाम पर कुछ पत्रिकाएं ऐसी हैं जो विज्ञापन के आधार पर 200 से 300 पृष्ठों में आती हैं. वे संपादक इनके प्रकाशन के लिए 'किसिम-किसिम' के रास्ते इख्तियार करते हैं, जिन्हें कतई ईमानदाराना नहीं कहा जा सकता. मूल्य भी आम आदमी की शक्ति के परे होता है. 'खास' आदमी भी एक बार इन्हें खरीदने में हिल जाता है.

भाई राकेश जी! बात आपकी संपादकीय की लेखकीय असीमता और साहसिकता पर हो रही थी, बीच में उपरोक्त वाजिब क्षेपक आ गये. आप की संपादकीय वे असर लेकर और अपने विवेक का भी इस्तेमाल करते हुए अदब से यह बात कही जा सकती है कि ऐ सियासतदानों! तुष्टिकरण का राग अलापना छोड़ कर अपने देश हित में सोचने को अलगाववादी ताकतों को मजबूर करो. जातिवादिता का 'ट्रंप' खेलकर भारतीय संस्कृति की शेष बची सत्ता को तबाही के दहाने तक न ले जाओ. यदि भारत की अस्मिता बची रहेगी, तभी तुम किसिम-किसिम के खेल, खेल सकोगे, नहीं तो नेस्तनाबूत हो जाओगे. बार-बार के पाकिस्तान से समझौते, अब अपने देख के लिए बेअसर साबित हो गये हैं. मॉर्क्सवादियों का चरित्र तो शुरू से ही रहा है कि जिस पतरी में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं. जिनसे चुग्गा पायेंगे उनकी जय बोलेंगे और पा जाने के बाद उन्हें गाली भी देंगे. कांग्रेस अब दिशाहीन हो गयी है. कारण, अकारण नहीं हैं. राहुल, सोनिया, मनमोहन, दिग्विजय आदि में स्वयं की संजीदगी नहीं हैं. राष्ट्रभाषा के सवाल पर हमारी वर्तमान केंद्रीय सरकार बगलें झांक रही है. अपने कालखण्ड में वाजपेयी जी (अटल बाजपेई) भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का मर्तबा नहीं दिला पाये. मोदी जी कितना कामयाब हो सकेंगे. यह समय बतलाएगा. अपनी वैचारिक खेल में मोदी जी अलग पड़ते जा रहे हैं, कारण उनके सहयोगियों में 'डिफॉल्टर्स' की तादाद का प्रतिशत ज्यादा है. संपादकीय के अन्तर्गत आपका यह कहना, ''...भारत में रहकर भी कुछ लोग पाकिस्तान की सोच को बढ़ावा देते हैं और जेहाद के नाम पर भारत को बर्बाद करने के लिए आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. भारत में रहकर भी जो लोग पाकिस्तान के हित की बात करते हैं, उनकी स्थिति उस छिनाल औरत जैसी हो गयी है जो खाती-पहनती अपने पति का है, उसके घर में रहती है परन्तु नैन मटक्का पड़ोसियों से करती है और आंख बचाकर किसी के भी बिस्तर में घुस जाती है. इस छिनाल औरत जैसे लोग न तो कभी भारत के थे और न कभी हुए हैं, न होंगे''. इस हकीकत की मनसा सभी स्वीकार करेंगे. शहदीले शब्दों में यह बात नहीं कही जा सकती. आप की प्रहारात्मक टिप्पणी से देश की अस्मिता संरक्षित होगी, ऐसा यकीन है.

डॉ. मधुर नजमी, मऊ (उ.प्र.)

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कथनी-करनी में अन्तर

प्राची का मार्च अंक प्राप्त हुआ. इस पत्रिका का सामग्री चयन एवं संयोजन कमाल का है. इसमें कहानी, लघुकथा, लेख, कविता, गीत-गजल सभी के लिए स्थान देकर आपने पाठकों को एक ही जगह बांध लिया है. इस अंक में आपका संपादकीय हमेशा की तरह दो टूक और सामयिक है. आपकी यह बात शत-प्रतिशत सही है कि हमारी कथनी-करनी में जमीन-आसमान का अंतर है, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का घोष करने वाले अपने ही धर्म के अनुयायियों के साथ ऊंच-नीच, जाति-पांत एवं छुआछूत का भेदभाव करते हैं. इस मर्ज का आज तक कोई इलाज नहीं हो सका है.

अरविंद अवस्थी का पत्र सराहनीय है. यह बात सत्य है कि आज सादगी एवं ईमानदारी से जीनेवाले लोगों को मूर्ख और पिछड़ा हुआ समझा जाता है. 'हमारी विरासत' के अंतर्गत फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम' पढ़कर आनंद आ गया. ऐसा लगा मानों सब कुछ आंखों के सामने चलचित्र की तरह घट रहा है. 'धरोहर' के अंतर्गत सुलतान जमील नसीम की कहानी ''आग और समुद्र'' दिल को छू गयी. इसी प्रकार शीला त्रिवेदी की कहानी 'ऊन के वे गोले' एक मार्मिक कहानी है, किंतु एक छोटी सी कहानी में एक साथ इतनी मौतें कराना उचित प्रतीत नहीं होता. यह एक क्रूरता लगती है.

शिव कुमार कश्यप, ठाणे (महाराष्ट्र.)

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सर्वश्रेष्ठ पत्र

कानून की उपेक्षा का चित्रण

साहित्य को समाज में बनाये रखना आज पाठकों, लेखकों और प्रकाशकों सभी के लिए चुनौती है, चाकरी एवं गृहस्थी की साज संभाल और मीडिया युग में सभी से जुड़े रहने की आपाधापी के बीच सृजन और उसकी मौलिकता को बनाए रखने के लिए कलमकार जूझ रहे हैं. अपने आस पास देखिये- एक बड़ी पीढी है जो डॉक्टर, इंजीनियर और पेशेवर तो है लेकिन वह कला साहित्य और संस्कृति के स्पंदन से अनभिज्ञ है. इससे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में रोजगार के दरवाजे जो नहीं खुलते. उसके सामने कला साहित्य के नाम पर फेसबुक, ट्वीटर और चैनलों में परोसी जा रही इंस्टेंट सामग्री ही आदर्श है. हद तो ये है, सैकडों चौनलों की भीड़ में हमारा साहित्य कहीं नहीं, धर्म कहीं नहीं, नाटक-नौटंकी और शास्त्रीय-सुगम-लोकगीत के लिए भी कोई जगह नहीं; जबकि यही वह सब कुछ है या था जिनसे हम अपनी जड़ों से अपनी जमीन से जुड़े थे. इस पूरे परिदृश्य में प्राची के फरवरी अंक में शामिल कई कहानियों को देखा जा सकता है, जवाहर सिंह की 'जाल ', तनुजा चौधरी की 'फ्लैट नंबर 44', राकेश भ्रमर की कहानी 'हृदय परिवर्तन' इस अंक की हासिल हैं. ऐसा लगता है हमारे आस पास का समाज इन कहानियों के जरिये 'प्राची' में सिमट कर आ गया है, बहुत कुछ आईना दिखाता हुआ सा. केदारनाथ सविता और प्रभात दुबे की लघुकथाएं बेहद पसंद आयीं. कथा आपको सचेत करे, चिंतन को प्रेरित करे तो सार्थक है. अंक इस दृष्टि से सफल है. समाज में साहित्य के पैठ की चिंता के बीच की समकालीन कथा संसार में आज का समय बखूबी चित्रित हो रहा है, यह बात संतोषप्रद है. दौरे हाजिर की मनोवृतियों को जगह मिल रही है, यह स्थिति सुखकर है. रोजलीन की कविताओं में ताजगी है और भावों का प्रवाह भी. बधाई उनको. अशोक अंजुम, राकेश भ्रमर और किशन स्वरूप की गजलों ने प्रभावित किया. सम्पादकीय में सहिष्णुता पर चर्चा समीचीन लगी. सचमुच साहित्य और साहित्यकार को अपनी भूमिका के प्रति सजग रहना बहुत जरूरी है. चलते चलते और आपने कहा है पेज पर प्रस्तुत व्यंग्य चित्र भी अपनी जरूरी उपस्थति दर्ज करा गया.

अभिनव अरुण, वाराणसी (उ.प्र.)

(अभिनव अरुण को अंशलाल पंद्रे की पुस्तक 'सबरंग हरसंग' यथाशीघ्र भेजी जाएगी.)

संपादक)

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ऊन के वे गोले

मार्च 2016 अंक में शामिल शीला त्रिवेदी की कहानी 'ऊन के वे गोले' पढ़ी. इस कहानी ने आज के समय के दर्द को और उभार दिया. नितांत एकल और एकाकी होते परिवारों के हम सदस्य दादा, दादी, नाना, नानी और ऐसे ही अनेक रिश्तों से उपजे प्रेम से कितने वंचित हैं. अब गर्मी की छुट्टियों की वो मौज कहां. गांव तो बस धारावाहिकों में ही देख पाती है आज की पीढ़ी. होम वर्क-क्लास वर्क के बीच जरूरी सामाजिक पारिवारिक वर्क छूट सा गया है. रिश्तों की अहमियत उनमें पगे महान प्रेम की एक अनूठी प्रस्तुति है शीला जी की यह कहानी. उनकी इस कहानी के जरिये ऊन का एक एक गोला हर एक पाठक के पास वषरें के लिए संचित हो गया है. संचित हो गए हैं पुरखों के आशीर्वाद. साधुवाद आपको, साधुवाद कथाकार को. 'तीसरी कसम' भी आपके जरिये हम सबने पुनः पढ़ ली. सचमुच कितनी सुघड़ता से गढ़ा है हर पात्र, हर परिस्थिति को रेणु जी ने, एक अद्भुत क्लासिक कृति. आइजक पेरेज की 'बंजो', आनंद की कहानी 'मैंने उस लड़की का खून किया' भी अच्छी प्रभावपूर्ण लगीं. सम्पादकीय में आपने बड़ी ही बेबाक साहसिक टिप्पणी की है. आज सियासत अक्सर स्याह को स्याह और सफेद को सफेद कहने की सादगी छीन लेती है. लेकिन साहित्य और पत्रकारिता अपने पथ पर अडिग रहे, यही कामना हम सबकी होनी चाहिए.

-अभिनव अरुण, वाराणसी

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प्राची का भविष्य सुखमय है

प्राची का इंतजार हर माह रहता है. करीब दो माह बाद होली के रंगों की छटा बिखेरती प्राची प्राप्त हुई. देखते ही उसे पढ़ने बैठ गया. कविता, कहानी, गीत, गजल के साथ अब शोध आलेख भी पढ़ने को मिल रहे हैं. ये बहुत अच्छा प्रयास है. प्राची का भविष्य सुखमय है. स्त्री विमर्श से संबंधित दोनों आलेख (डॉ. भावना शुक्ल और सुमन जी) सशक्त हैं. कृष्ण कुमार यादव का वसंत पर आलेख पूरी तरह से प्रकृति की छटा से ओत-प्रोत है. भ्रमर जी की कहानी 'हृदय परिवर्तन' एक मार्मिक कहानी है. तनूजा चौधरी की कहानी 'फ्लैट न. 44' तथा गुजराती कहानी भी दिल को स्पर्श करती है. लघुकथाओं की प्राची में अपनी एक पहचान बन गई है. सभी उम्दा हैं. प्राची के उज्जवल भविष्य के लिये संपादक और संपादक मंडल को अनंत शुभकामनायें.

तरुण कु. सोनी 'तन्वीर'

जैतारण, जिला-पाली (राज.)

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मेरा दृष्टिकोण

प्राची पत्रिका हम सबकी पसंदीदा पत्रिका है. जब भी विलंब होता है, तो साहित्य प्रेमी ही नहीं हमारी मां, श्रीमती जी सभी व्यग्र हो जाते हैं. अमृतनागर जी का साक्षात्कार पढ़कर ज्ञान अर्जित हुआ. 'उसने कहा था', 'तीसरी कसम', कहानियां बेजोड़ हैं. कहानियों के विषय में मैं अपने दृष्टिकोण से एक बात कहना चाहता हूं कि कहानी में अक्सर नारी को रोता हुआ और निरीह ही दर्शाया जाता है. सभी कहानियों में उसका अंत दुखद ही होता है. मेरे कहने का मतलब कि कोई कहानी ऐसी हो जिसमें नारी की खुशहाल स्थिति का वर्णन हो. सुख और दुख एक दूसरे के पूरक हैं. स्त्री दुखी कम हो, ऐसी कहानी भी लिखी जानी चाहिए. मैं कोई कहानीकार नहीं हूं, परन्तु एक पाठक के नजरिये से यह बात कह रहा हूं. आशा है, आज के कहानीकार इस बात पर

ध्यान देंगे. संपादकीय लोकतंत्र पर प्रहार जोरदार करता है.

प्राची समस्त रसों से सराबोर है. संपादक जी व संपादक मंडल को बधाई.

सुधांशु शर्मा, मुंबई (महाराष्ट्र)

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प्रशंसनीय और अनुकरणीय पहल

साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में पाठकों द्वारा सबसे महत्वपूर्ण, लोकप्रिय, सर्वप्रथम पढ़ा जाने वाला यदि कोई स्थाई स्तम्भ होता है तो वह होता है सुधी पाठकों के भेजे गये पत्रों का. प्रत्येक संपादक इस स्तम्भ का एक नाम देता है. इस स्तम्भ के संबोधन शीर्षक भी तरह-तरह के होते हैं, जैसे- आपके पत्र/चिट्ठी पत्री/आपकी राय/सम्पादक के नाम/आपकी डाक/परिसंवाद/खास चिट्ठी/पाठक दृष्टिकोण/पाठकों की कलम से/पत्र प्रवाह/पत्र संवाद/पाठकों के विचार/अपना मोर्चा/पाठकनामा/चिटठीरसा/पत्र मंजूषा आदि.

यह स्थाई स्तम्भ पत्रिका के लिये इतना आवश्यक होता है कि इसे पत्रिका के प्रथम दो-तीन पष्ठों में ही प्रकाशित कर दिया जाता है. निश्चित रूप से ये पत्र पाठकों और संपादक के बीच आत्मीयता के सेतु का कार्य करते हैं. पत्रों की संख्या से ही संपादक के कुशल संपादन और पत्रिका की लोकप्रियता का अंदाजा लगाया जा सकता है.

पत्र लेखन एक कला है, जिसमें सभी सुधी पाठक पारंगत नहीं होते हैं लेकिन कुछ पाठकों के पत्र इतने सुंदर, सुरुचिपूर्ण और कलात्मक होते हैं कि उन्हें बार-बार पढ़ा जाता है. इन पत्रों में प्रायः पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की समीक्षा होती है. पाठक केवल पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं की प्रशंसा ही नहीं करता, बल्कि रचनाओं की सटीक, तथ्यात्मक आलोचना भी करता है. पत्रों के प्रकाशन का पूर्ण अधिकार संपादक का होने के कारण पाठक के मन में एक अनिश्चितता का भाव बना रहता है कि उसका पत्र प्रकाशित होगा या नहीं. यदि होगा भी तो पूरा पत्र या उसका कुछ अंश, इत्यादि. पत्र लेखन की प्रक्रिया से पत्र के लेखक को इक ऊहापोह की स्थिति से गुजरना पड़ता है.

प्राची के संपादक आदरणीय राकेश भ्रमर जी द्वारा आम पाठकों को पत्र लेखन के प्रति आकर्षित करने, उन्हें पत्र लिखने हेतु प्रेरित करने के लिये जो सर्वश्रेष्ठ पत्र प्रकाशित करने की पहल की गई है, वह प्रशंसनीय ही नहीं अपितु अनुकरणीय भी है. ऐसा मेरा मानना है कि साहित्य योगदान की यह पहल पत्र लेखन की ओर प्राची के सुधी पाठकों को आकर्षित करने में सफल होगी.

माह फरवरी 2016 के अंक में सर्वश्रेष्ठ पत्र की श्रेणी में श्री शरदचन्द्र राय श्रीवास्तव जी का पत्र प्रकाशित करते हुए उन्हें श्री अंशलाल पन्द्रे की छः सौ रुपये की पुस्तक 'सबरंग हरसंग' दी जायेगी. यह सूचना पढ़कर मुझे ऐसा लगा मानो जैसे 'सोने में सुहागा' नामक कहावत चरितार्थ हो गई है. प्राची के आगामी अंकों में अन्य पाठकों के भी इसी तरह श्रेष्ठ पत्र पढ़ने को मिलेगें, ऐसी मैं आशा करता हूं. इसके साथ ही साथ पत्र लेखन के लिये प्रेरित करने वाली इस योजना के लिये मैं आदरणीय संपादक जी का आभार प्रकट करता हूं.

प्रभात दुबे, जबलपुर (म.प्र.)

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साहित्यकार कुछ और हो गया है

वैश्विक शोहरत याफ्ता शायर फजा इब्ने फौजी का एक मकबूल शेर कभी पढ़ा था-

''आग लगाने वाले की फनकारी देख

घर जलता है शोले पस मंजर में है''

यहां बात अपने घर से होती हुई अपने देश के विराट कैनवस तक जाती है. आग किस 'आग' ने लगाई है का सहजतः अंदाजा हर किसी को है किंतु इसकी हकीकत बयानी करने का कम ही लोगों में साहस है. 'प्राची' का मार्च अंक और उसकी संपादकीय 'देश के गद्दार' एक साहसिक पहल है. भाई राकेश जी! ऐसा लिख सकने का जज्बा अब अकाल की स्थिति में है. जेनुइन कलमकारों का पुरसाने हाल अब कोई नहीं है. साहित्यकार अब साहित्यकार के अतिरिक्त 'कुछ और' हो गया है. उसका 'कुछ और' हो जाना कितना त्रासद और दुर्भाग्यपूर्ण है. आप के साहसिक लेखन को अदबी प्रणाम. 'प्राची' का नैरन्तर्य भी इसी दयानतदारी का हिस्सा है. आज के सांघातिक दौर में पत्रिका निकालना वह भी सिर्फ साहित्यिक एक मुश्किलतरीन काम है. कॉरपोरेट घराने वाली पत्रिकाएं 'धर्मयुग', 'सारिका' 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान', 'दिनमान', 'रविवार' आदि पत्रिकाएं भी जब प्रकाशित होती थीं, उनकी निरन्तरता टूट-टूट जाया करती थी. परिणामतः वे सदा-सदा के लिये साहित्य से विदा हो गयीं. रंग-रोगनी आज जो पत्रिकाएं बाजार का हिस्सा बनी हुई हैं, उनमें साहित्य कितना होता है, किसी से छुपा नहीं है. ऐसे में 'प्राची' साहित्य प्रदायित करने में महत्तम भूमिका अदा कर रही है. पत्रिका के नाम पर कुछ पत्रिकाएं ऐसी हैं जो विज्ञापन के आधार पर 200 से 300 पृष्ठों में आती हैं. वे संपादक इनके प्रकाशन के लिए 'किसिम-किसिम' के रास्ते इख्तियार करते हैं, जिन्हें कतई ईमानदाराना नहीं कहा जा सकता. मूल्य भी आम आदमी की शक्ति के परे होता है. 'खास' आदमी भी एक बार इन्हें खरीदने में हिल जाता है.

भाई राकेश जी! बात आपकी संपादकीय की लेखकीय असीमता और साहसिकता पर हो रही थी, बीच में उपरोक्त वाजिब क्षेपक आ गये. आप की संपादकीय वे असर लेकर और अपने विवेक का भी इस्तेमाल करते हुए अदब से यह बात कही जा सकती है कि ऐ सियासतदानों! तुष्टिकरण का राग अलापना छोड़ कर अपने देश हित में सोचने को अलगाववादी ताकतों को मजबूर करो. जातिवादिता का 'ट्रंप' खेलकर भारतीय संस्कृति की शेष बची सत्ता को तबाही के दहाने तक न ले जाओ. यदि भारत की अस्मिता बची रहेगी, तभी तुम किसिम-किसिम के खेल, खेल सकोगे, नहीं तो नेस्तनाबूत हो जाओगे. बार-बार के पाकिस्तान से समझौते, अब अपने देख के लिए बेअसर साबित हो गये हैं. मॉर्क्सवादियों का चरित्र तो शुरू से ही रहा है कि जिस पतरी में खाते हैं, उसी में छेद करते हैं. जिनसे चुग्गा पायेंगे उनकी जय बोलेंगे और पा जाने के बाद उन्हें गाली भी देंगे. कांग्रेस अब दिशाहीन हो गयी है. कारण, अकारण नहीं हैं. राहुल, सोनिया, मनमोहन, दिग्विजय आदि में स्वयं की संजीदगी नहीं हैं. राष्ट्रभाषा के सवाल पर हमारी वर्तमान केंद्रीय सरकार बगलें झांक रही है. अपने कालखण्ड में वाजपेयी जी (अटल बाजपेई) भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का मर्तबा नहीं दिला पाये. मोदी जी कितना कामयाब हो सकेंगे. यह समय बतलाएगा. अपनी वैचारिक खेल में मोदी जी अलग पड़ते जा रहे हैं, कारण उनके सहयोगियों में 'डिफॉल्टर्स' की तादाद का प्रतिशत ज्यादा है. संपादकीय के अन्तर्गत आपका यह कहना, ''...भारत में रहकर भी कुछ लोग पाकिस्तान की सोच को बढ़ावा देते हैं और जेहाद के नाम पर भारत को बर्बाद करने के लिए आतंकवादी गतिविधियों को अंजाम देते हैं. भारत में रहकर भी जो लोग पाकिस्तान के हित की बात करते हैं, उनकी स्थिति उस छिनाल औरत जैसी हो गयी है जो खाती-पहनती अपने पति का है, उसके घर में रहती है परन्तु नैन मटक्का पड़ोसियों से करती है और आंख बचाकर किसी के भी बिस्तर में घुस जाती है. इस छिनाल औरत जैसे लोग न तो कभी भारत के थे और न कभी हुए हैं, न होंगे''. इस हकीकत की मनसा सभी स्वीकार करेंगे. शहदीले शब्दों में यह बात नहीं कही जा सकती. आप की प्रहारात्मक टिप्पणी से देश की अस्मिता संरक्षित होगी, ऐसा यकीन है.

डॉ. मधुर नजमी, मऊ (उ.प्र.)

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कथनी-करनी में अन्तर

प्राची का मार्च अंक प्राप्त हुआ. इस पत्रिका का सामग्री चयन एवं संयोजन कमाल का है. इसमें कहानी, लघुकथा, लेख, कविता, गीत-गजल सभी के लिए स्थान देकर आपने पाठकों को एक ही जगह बांध लिया है. इस अंक में आपका संपादकीय हमेशा की तरह दो टूक और सामयिक है. आपकी यह बात शत-प्रतिशत सही है कि हमारी कथनी-करनी में जमीन-आसमान का अंतर है, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' का घोष करने वाले अपने ही धर्म के अनुयायियों के साथ ऊंच-नीच, जाति-पांत एवं छुआछूत का भेदभाव करते हैं. इस मर्ज का आज तक कोई इलाज नहीं हो सका है.

अरविंद अवस्थी का पत्र सराहनीय है. यह बात सत्य है कि आज सादगी एवं ईमानदारी से जीनेवाले लोगों को मूर्ख और पिछड़ा हुआ समझा जाता है. 'हमारी विरासत' के अंतर्गत फणीश्वर नाथ रेणु की कहानी 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलफाम' पढ़कर आनंद आ गया. ऐसा लगा मानों सब कुछ आंखों के सामने चलचित्र की तरह घट रहा है. 'धरोहर' के अंतर्गत सुलतान जमील नसीम की कहानी ''आग और समुद्र'' दिल को छू गयी. इसी प्रकार शीला त्रिवेदी की कहानी 'ऊन के वे गोले' एक मार्मिक कहानी है, किंतु एक छोटी सी कहानी में एक साथ इतनी मौतें कराना उचित प्रतीत नहीं होता. यह एक क्रूरता लगती है.

शिव कुमार कश्यप, ठाणे (महाराष्ट्र.)

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