‘पत्रकारिता तब ‘मिशन’ थी, अब एक संजीदा सवाल डॉ. मधुर नज्मी स मयवेत्ता, युगचेता कबीर की साखी की यह पंक्ति ‘हम घर जास्या आपणां, लिया मुराड़ा...
‘पत्रकारिता तब ‘मिशन’ थी, अब एक संजीदा सवाल
डॉ. मधुर नज्मी
समयवेत्ता, युगचेता कबीर की साखी की यह पंक्ति ‘हम घर जास्या आपणां, लिया मुराड़ा हाथ’ उन पर भी लागू होती है जो पत्रकारिता को ‘मिशन’ पवित्र धर्म समझते हैं. प्रजातांत्रिक समय में पत्रकारिता के नैतिक मूल्य परिवर्तित और परिवर्धित हुए हैं. इसी का परिणाम है ‘पीत पत्रकारिता’ अथवा ‘ब्लैकमेलिंग’ वाया पत्रकारिता. तकरीबन चालीस साल पहले प्रेस लगाना लाभप्रद व्यवसाय था. छपायी से माकूल आमदनी न होने पर प्रेस का मालिक 4 या 8 पृष्ठीय स्थानीय समाचार-पत्र निकालना प्रारंभ कर देता था जो आय-वृद्धि का अचूक निशाना-नुस्खा साबित होता था. एक पुरानी घटना का उल्लेख करना एतद् संदर्भ में मुनासिब समझता हूं. रामजी लाल एक सज्जन ने इधर-उधर से कर्ज लेकर, जुगाड़ से एक प्रिटिंग प्रेस खोला, लेकिन नगर में पहले से नामी-गरामी प्रेस थे. छपाई से प्रेस का खर्च और रोटी-दाल खटाई में पढ़ते देखकर रामजी लाल ने 4 पृष्ठीय साप्ताहिक पत्र ‘विस्फोट’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया जिसमें किसी न किसी सरकारी दफ्तर के रिश्वतखोर कर्मचारी और राशन-सीमेण्ट आदि को ब्लैक से बेचने वाले व्यापारी को ‘टारगेट’ बनाया जाता और पत्र में ‘सेंसेशनल हेडिंग’ होती थी ‘पेट्रोल में मिलावट’. मेरे मित्र ने जर जुगाड़ करके सीमेण्ट की एजेंसी ली थी. सीमेण्ट उन दिनों किल्लत के कारण आपूर्ति अधिकारी द्वारा निर्गत ‘परमिट’ से मिलती थी या फिर ब्लैक से. सीमेण्ट तीस प्रतिशत परमिट से और सत्तर प्रतिशत ब्लैक से बिकती थी. मैं उनकी दुकान में बैठा चाय-पान और गपशप कर रहा था. वो मेरे बचपन के मित्र थे. अचानक ‘विस्फोट’ का रोल किया, पिछला अंक हाथ में दबाए, ढीला खद्दर का पाजामा और घुटने तक का जामा कुर्त्ता, पांवों में ‘टायर सोल’ की चप्पलें पहने रामजी लाल दुकान में हाजिर हुए. मुझको और लाला को राम-राम करके खाली कुर्सी पर बैठ गये. थोड़ी देर बाद लाला से बोले, ‘‘बिन्देश्वरी जी! मेरे पास बड़ी शिकायतें आ रही हैं कि आप सीमेण्ट ब्लैक में बेच रहे हैं. कहो तो आगामी अंक में तुम्हारा नम्बर लगा दूं?’’ लाला, तैश में आकर गाली देने लगे. कहा ‘‘चल निकल दुकान से. तू कल्लू कुजड़े का लौंडा जो सब्जी बेचता था, मुझे धमका रहा है. अब हरामखोर सीमेण्ट ब्लैक कर रहा हूं तो चोरी-छिपे थोड़ा ही कर रहा हूं. सरे-आम डंके की चोट पर कर रहा हं. सबका हिस्सा समय से ऊपर पहुंच रहा है.’’ रामजी लाल खिसियानी हंसी-हंसते हुए मिन्नते हुए कहा, ‘‘अरे चाचा जी! आप बुरा मान गये, आप तो घर के आदमी हैं, लाओ दस रुपये तो दे दो.’’ लाला ने हंसकर उसे दो का लाल नोट थमाते हुए कहा जा, ‘‘अठन्नी का बीड़ी का बण्डल ले ले और अठन्नी की मलाईदार दाय पी ले और एक रुपये में बच्चों के लिए कोई चीज ले लो. शनीचर को आ जाया कर, दो रुपये तेरे भी सही. रामजी लाला ने दो रुपये की नोट जेब में रख ली और खुश-ब-खुश दुकान से निकल लिए.’’
‘पीत पत्रकारिता’ आज भी अपने तेवर में जिन्दा है. सिर्फ ‘मीडिया’ ‘मीडियम और स्टैर्ण्ड’ तब्दील हुआ है. खुफिया कैमरे से, रिश्वतखोर अधिकारी, अय्याश नेता, नम्बर दो के व्यापारी का ‘स्टिंग ऑपरेशन करो, फोटो दिखाओ, मोटी रकम मांगो, फिर औने-पौने में सौदा पटा लो, नहीं तो किसी टी.वी. चैनल पर दिखा दो.’ आजादी के बाद जब राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक नैतिक मूल्य बदल गये तो पत्रकारिता इसका असर कैसे नहीं पड़ता?
आजादी से पूर्व पत्रकारिता एक ‘पायस मिशन’ के रूप में थी. अत्याचारी ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियों का खुल्लम खुल्ला कलम के तलवार से साहसपूर्ण विरोध और जनता में क्रान्ति और विद्रोह का जज्बा जगाना, जनता को अत्याचार और अन्याय के विरुद्ध संगठित करना, पत्रकारों और पत्र संपादकों का अभीष्ट था. संपादकों और पत्रकारों के लिये ही संदर्भित कबीर की ‘साखी’ का शीर्षक सार्थक सिद्ध होता है. जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी कहते हैं, ‘‘पुराने जमाने में जब भारत स्वतंत्र नहीं हुआ था, हिन्दी के पत्रों में जन-भावना प्रखरता के साथ प्रकट होती थी...परन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता की व्यवस्था ऐसी है कि उसमें एक ही अहंकार लिए जाता है कि मेरी कोठी कितनी बड़ी है, मेरी कार कितनी लम्बी है, मेरा वेतन कितना है आदि-आदि और इसके लिये जो मालिकों के मालिक हैं, उन्हें खुश रखां, उनकी खुशामद करो क्योंकि उसी से धन प्राप्त होगा, पद प्राप्त होगा, प्राप्त होगा तो बना रहेगा. शेष सब अनित्य है, उसकी चिन्ता मत करो (उत्तर प्रदेश पत्रिका मार्च अप्रैल 1976 ..61) 1907 से 1910 तक इलाहाबाद से ‘स्वराज’ हिन्दी साप्ताहिक प्रकाशित हुआ. ढाई वर्षों में मात्र 75 अंक प्रकाशित हुए वह भी विभिन्न संपादकों के अधीन पत्र की स्थापना रायजादा शान्ति नारायण भटनागर ने की थी. एक शासन-विरोधी कविता लिखने के अपराध में पकड़े गये. साढ़े तीन वर्ष का सश्रम कारावास तथा एक हजार रु. जुर्माने का दण्ड दिया गया. नया प्रेस स्थापित होने पर इंग्लैण्ड से लौटे होती लाल वर्मा ‘स्वराज’ के संपादक बने. वर्मा ‘स्वराज’ के कुछ ही अंक सम्पादित कर पाये थे एक संपादकीय के कारण उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें दस साल की सजा दी गयी. उनके बाद बाबू लाल हरि संपादक बने. किंतु 11 अंकों के प्रकाशन के बाद उन पर भी ब्रिटिश सरकार ने मुकदमा चलाया और उन्हें इक्कीस वर्ष की देश निकालने की सजा दी गयी. लाहौर से प्रकाशित होने वाले एक पत्र के निर्भीक संपादक रामसेवक, ‘स्वराज’ का संपादन करने तुरन्त इलाहाबाद पहुंचे. पत्र का ‘डिक्लेरेशन’ जमा करते समय उन्हें पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया. तत्कालीन कलेक्टर ने व्यंग्यात्मक स्वर में कहा, ‘‘अब कौन शहजादा है जो इस मुगल सिंहासन पर बैठेगा. उसके यह कहने पर नन्द गोपाल ‘डिक्लेरेशन’ लेकर आगे आये और-उन्होंने ‘डिक्लेरेशन’ दााखिल किया और ‘स्वराज’ पुनः प्रकाशित होने लगा. पत्र के मात्र 12 अंक ही निकले थे कि वह भी गिरफ्तार कर लिये गये और उन्हें 30 वर्षों का देश निकाला दे दिया गया. पत्र के संपादक के लिये ‘मुगल सिंहासन’ पर बैठने के लिए होड़ लगी थी. पत्रकारिता के मैदान में कुर्बान होने वाले इस जज्बे को सलाम. न्याय मूर्ति आनन्द नारायण मुल्ला का निस्वार्थ शेर ऐसे कलाकारों को सलाम करता है जो देश की आजादी के लिये शहीद होने का जज्बा रखते थे-
‘‘खून-शहीद से भी है कीमत में कुछ सेरा-
फनकार के कलम की सिपाही की एक बूंद’’
नन्द गोपाल के बाद सम्पादक का महा-दायित्व संभाला जड्डाराम कपूर ने. वह दक्षिण-पूर्वी एशिया से धन कमाकर इलाहाबाद लौटे थे. परिवार के लोगों ने समझा कि अब वह सुविधाओं से सम्पन्न-जीवन-सुख चैन से व्यतीत करेंगे. लड्डाराम के पूर्व जितने संपादक थे, कुंवारे थे और पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त थे. जड्डाराम विवाहित थे. संपादक बनने पर उन्होंने अपनी पत्नी से कहा था, ‘‘मैं तुम्हें तहे-दिल से प्यार करता हूं लेकिन देश से जितना प्यार करता हूं उस प्यार से तुम्हारे प्यार का कोई मुकाबला नहीं.’’ जड्डाराम कपूर को ‘स्वराज’ के संपादक के नाते 30 वर्ष की सजा हुई और उन्हें यह सजा काटनी थी अंडमान की काल कोठी में. कपूर साहिब ने शहादत का वही जज्बा था जो आगे चलकर भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद जैसे क्रांन्तिकारियों की रगों में था. उन्होंने जेलर के सामने सर झुकाने से मना कर दिया. इसके लिये छह महीने उनकी सजा बढ़ा दी गयी. उन्हें अमानुषिक यातनाएं दी गयीं.
आठवीं बार संपादक बने पण्डित अमीर चन्द बंबवाल. वह ‘स्वराज’ के आखिरी सम्पादक थे. उन्हें ‘डिक्लेरेशन’ के साथ दो हजार की धन-राशि जमा करने को कहा गया. 1910 में यह पुनः प्रकाशित हुआ, किन्तु 4 अंकों के बाद इसकी जमानत जब्त कर ली गयी. पण्डित अमीर चन्द जी को भी गिरफ्तार कर लिया गया. श्री पुरुषोत्तम दास टंडन उनके वकील थे. उनकी जोरदार पैरवी के चलते उन्हें मात्र एक साल की सजा दी गयी. उनकी गिरफ्तारी का वारंट निकला. किन्तु वे फरार हो गये. 1910 में एक प्रदर्शन देखते हुए उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उन्हें भी लम्बी सजा दी गयी. इसके बाद ‘स्वराज’ पुनः प्रकाशित न हो सका.
‘पत्रकारिता’ से जुड़ी ये स्थितियां आज के पत्रकारों और पत्रकारिता से मुखातिब हैं. आज के संपादक संवर्ग को उन स्थितियों का भी आकलन-मूल्यांकन विवेक के स्तर पर करके पत्रकारिता के मिशनरी भाव को विचार में रखकर लेखन और पत्रकारिता की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिये. ‘स्वराज’ में संपादक पद हेतु एक विज्ञापन उस समय निकला था. ‘‘स्वराज अखबार के लिये एक संपादक चाहिये, जिसे दो सूखी रोटियां एक गिलास पानी और हर सम्पादकीय लेख पर 10 साल की सजा मिलेगी.’’ इस शर्त पर भी ‘स्वराज’ के लिये जान-माल कुर्बान करने वाले शहीद किस्म के क्रान्तिकारी संपादक मिलते रहे. क्या बदली परिस्थिति में भी ‘स्वराज’ जैसा पत्र और पत्रकारिता का जज्बा कहीं है? उत्तर सिर्फ नहीं में ही है. ऐसे में एक अज्ञात शायर का शेर याद आता है जो कलमकारों की वैचारिक अस्मिता की भी स्वरित करता हैः
‘लिये फिरती है बुलबुल चोंच में गुल-
शहीदे-नाज की तुर्बत कहां है?’
सम्पर्कः ‘काव्यमुखी साहित्य-अकादमी’
गोहना मुहम्मदाबाद, जिला-मऊ (उ.प्र.)-276403
मोः 9369973494
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