हमारी विरासत जन्मः 17 जनवरी, 1923, आगरा (उ.प्र.) मृत्युः 12 सितम्बर, 1962 कृतित्वः 13 वर्ष की आयु से लेखनारंभ. 23-24 वर्ष की आयु में ही...
हमारी विरासत
जन्मः 17 जनवरी, 1923, आगरा (उ.प्र.)
मृत्युः 12 सितम्बर, 1962
कृतित्वः 13 वर्ष की आयु से लेखनारंभ. 23-24 वर्ष की आयु में ही अभूतपूर्व चर्चा के विषय. साहित्य के अतिरिक्त चित्रकला, संगीत और पुरातत्व में विशेष रुचि. साहित्य की प्रायः सभी विधाओं में सिद्धहस्त. मात्र 39 वर्ष की आयु में कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, रिपोर्ताज के अतिरिक्त आलोचना, सभ्यता और संस्कृति पर शोध व व्याख्या के क्षेत्रों में 150 से भी अधिक पुस्तकों से समृद्ध किया.
प्रस्तुत कहानी रांगेय राघव के कहानी संकलन 'प्राचीन ब्राह्मण कहानियां' से ली गयी है.
लेखकीय वक्तव्य
''आर्य परम्परा में अनेक अनार्य परम्पराएं आकर मिली हैं. उनके कारण हमें भारत की प्राचीन कथाओं में कई प्रकार के प्रभाव दिखाई देते हैं. महाभारत युद्ध के बाद हिन्दू-धर्म को नया रूप दिया वैष्णव और शैव चिंतन ने. इन दोनों ने प्राचीन ब्राह्मण परम्परा को आत्मसात तो किया, किन्तु उसके रूप को अपने एंग से रंग दिया. इसलिए हमें जो वेद और उपनिषदों में वर्णित पात्र मिलते हैं, वे अपने मौलिक रूप में ही पौराणिक काल में नहीं मिलते. उन पर हम नये मानववाद की छाया देखते हैं, जिसमें कट्टरता कम हो गयी दिखाई देती है. हमने एक विशेषता देखी है कि प्रमुख रूप से पात्रों का उदात्तीकरण प्राचीन लेखकों का एक प्रत्यक्ष और परोक्ष दृष्टिकोण था, जिसमें संप्रदायपरकता से ऊपर सार्वभौम मानववादी दृष्टिकोण को अधिक महत्त्व दिया गया है और इसीलिए मैंने श्रम करके भारतीय चिन्तन का यह स्वरूप पाठकों के सामने रखा है.'' रांगेय राघव
संपादक का वक्तव्य
''इस प्राचीन ब्राह्मण कहानी को यहां देने का उद्देश्य किसी धार्मिक आस्था, अंधविश्वास या जातिगत विचारधारा को बढ़ावा देना नहीं है. इसे एक विशुद्ध प्राचीन काल्पनिक (पौराणिक काल की) रचना के रूप में पढ़ना और आत्मसात करना ही पाठकों के लिए उचित होगा.''
प्राचीन ब्राह्मण कहानी
उत्तम
रांगेय राघव
प्राचीन काल में उत्तानपाद नाम के एक राजा राज्य करते थे. उनकी पत्नी का नाम सुरुचि था. उन दोनों के संयोग से उत्तम नाम का पुत्र पैदा हुआ. उत्तम प्रारम्भ से ही बड़ा तेजस्वी और होनहार था. उसके हृदय में अपार स्नेह था और इसी कारण वह किसी से शत्रुता करना तो जानता ही नहीं था. किसी प्रकार का छल-कपट लेशमात्र भी उसके हृदय में नहीं था. माता-पिता बड़े लाड़-चाव से उसका पालन करते थे. जब वह बड़ा हुआ तो बभ्रुकुमारी बहुला के साथ उसका विवाह हुआ? बहुला अत्यंत सुंदर स्त्री थी लेकिन स्वभाव की कठोर थी, फिर भी उत्तम का चित्त सदा उसी में रमा रहता. वे उसे अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे. कभी भी उसको किसी प्रकार का कष्ट नहीं होने देना चाहते थे लेकिन बहुला उत्तम के इस प्यार की तनिक भी परवाह नहीं करती थी और सदा उनके प्रति उपेक्षा का भाव प्रदर्शित करती रहती थी.
थोड़े दिन बाद राजा उत्तानपाद स्वर्गवासी हुए, तब उत्तम राज्य सिंहासन पर बैठे और धर्म और न्यायपूर्वक जनता के ऊपर शासन करने लगे. उनके राज्य में कोई भी दुःखी नहीं था लेकिन अपनी पत्नी से बदले में प्रेम न पाकर कभी-कभी उनका चित्त दुःखी हो जाता था. वे फिर भी बहुला के प्रति उसी प्रकार आकृष्ट रहे और उसे किसी तरह अपनी ओर आकृष्ट करने का प्रयत्न करने लगे लेकिन बहुला के कठोर व्यवहार में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं आया. एक समय तो अन्य राजाओं के सामने ही रानी ने अपने पति का तिरस्कार किया था और उनकी आज्ञा मानने से इंकार कर दिया था. राजा उत्तम इस अपमान को न सह सके और उन्होंने कुद्ध होकर उसी क्षण द्वारपाल को बुलाया और कहा, ''द्वारपाल! इस दुष्टहृदया स्त्री को ले जाकर निर्जन वन में छोड़ आओ. राह में किसी प्रकार की दया की भावना के वशीभूत होकर मेरी आज्ञा का उल्लंघन न करना, नहीं तो इसका परिणाम तुम्हारे लिए ही बुरा होगा.''
दरबान राजा की आज्ञा मानकर बहुला को ले गया और निर्जन वन के बीच छोड़ गया.
अब राजा अपनी पत्नी के विषय में सारी चिंता छोड़कर अपनी प्रजा का पालन करने लगे. पत्नी के प्रति आसक्ति के स्थान पर अब उनकी आसक्ति प्रजाजनों की ओर बढ़ गई और वे हर समय इसी के लिए प्रयत्नशील रहने लगे कि किसी प्रकार किसी प्राणी को कष्ट न मिलने पावे. अपने इस प्रयत्न में वे सफल भी रहे. चारों ओर से सुख और शंति की सूचना राजा के पास आती लेकिन एक दिन यह देखकर उन्हें आश्चर्य होने लगा कि ब्राह्मण दुःखित स्वर में पुकारता हुआ उनके राजदरबार में आया.
राजा ने उस ब्राह्मण के दुःख का कारण पूछा तो ब्राह्मण ने कहा, ''हे महाराज! इस समय मैं महान संकट में पड़ा हुआ हूं. शास्त्र का कथन है कि राजा प्रजा का पालक होता है और इसी के लिए वह प्रजा से कर लेता है. यदि कर ले कर भी प्रजा के कष्टों का निवारण न करे, तो उसे सहस्त्रों युगों तक घोर नरक में गिरना पड़ता है, इसलिए आप धर्म और न्याय का विचार करके मेरे कष्ट का निवारण कीजिए. रात को सोते समय मेरे घर का द्वार खोले बिना ही कोई मेरी स्त्री को चुरा ले गया है. उसके बिना मेरा दुःख प्रति पल बढ़ता ही जाता है. हे धर्मात्मा! आप किसी तरह पुनः मेरी पत्नी का मुझसे संयोग करा दीजिए.''
राजा ने ब्राह्मण को धैर्य बंधाते हुए कहा, ''हे ब्राह्मण! मैं अवश्य आपकी पत्नी का आपसे संयोग कराऊंगा लेकिन इसके लिए मुझे कृपया उसका पूरा परिचय दीजिए. उसका शरीर कैसा है? अवस्था क्या है? और उसका कैसा स्वभाव है? इन सब को जानकर ही मैं उस स्त्री को पहचान सकूंगा.''
राजा की यह बात सुनकर ब्राह्मण ने कहा, ''हे महाराज! उस कठोर हृदय वाली अपनी पत्नी की पहचान मैं आपको बताता हूं. उसकी दृष्टि से क्रूरता टपकती है. स्नेह और सहानुभूति की भावना तो उसको छू तक नहीं गई है. उसका कद काफी ऊंचा है लेकिन बांहें बहुत छोटी हैं. मुंह भी उसका दुबला-पतला और कुछ शुष्क-सा है. अपने किसी अंग के कारण वह तनिक भी रूपवती नहीं मालूम देती है. कुरूपता की वह सजीव मूर्ति है. फिर मुंह से भी वह सदा कटु बातें निकाला करती है.
''हे महाराज! मैं अपनी पत्नी की निंदा नहीं कर रहा हूं बल्कि उसका ठीक-ठीक परिचय दे रहा हूं. आप किसी तरह मेरी पत्नी को ढूंढकर मेरे पास ला दीजिए.''
ब्राह्मण की बात सुनकर राजा आश्चर्य में भरकर बोले, ''हे ब्राह्मण! यदि तुम्हारा कथन सत्य है तो फिर किस आकर्षण के कारण तुम पुनः उस कठोरहृदया कुरूपा पत्नी की कामना करते हो? श्रेष्ठ स्वभाव की पत्नी ही कल्याणमयी और पति को सुख देने वाली होती है. कुरूपा और कठोर वचन बोलने वाली स्त्री से तो सदा चित्त को पीड़ा ही मिलती रहती है.
''हे ब्राह्मण! तुम क्यों उस स्त्री को पुनः प्राप्त करके सदा अपने चित्त को पीड़ित रखना चाहते हो! रूप और शील दोनों से हीन होने के कारण वह स्त्री त्याग देने योग्य है. इसलिए अब तुम अपने हित के लिए उसी स्त्री को प्राप्त करने की इच्छा मत करो. देव ने यह अच्छा ही किया कि उसे तुम से अलग करा दिया.''
राजा की बातें सुनकर ब्राह्मण ने उसी दुःख भरे स्वर में कहा, ''हे राजन्! मेरी धर्मपत्नी के प्रति इस प्रकार अपामनसूचक शब्द न कहें. श्रुति का वाक्य है कि पुरुष को सदा अपनी पत्नी की रक्षा करनी चाहिए और कभी उसकी उपेक्षा या उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिए. उसकी रक्षा न करने पर वह स्त्री दूसरे पुरुषों के साथ संयोग करके वर्णसंकर संतान पैदा करती है. वे वर्णसंकर अपने पितरों को स्वर्ग से नीचे गिराने वाले होते हैं. इसलिए पति को सदा अपनी पत्नी की रक्षा करनी चाहिए. इसके अलावा हे महाराज! पत्नी न होने के कारण मेरे सारे नित्यकर्म छूट रहे हैं. शास्त्र के नियम के अनुसार पत्नी के बिना किसी प्रकार के नित्य कर्म सम्पन्न नहीं हो सकते. नित्य कर्म न होने के कारण मेरे पुण्यों का निंरतर क्षय हो रहा है और निश्चय है कि पुण्य क्षय हो जाने पर परलोक में मेरी दुर्गति होगी.
''इसीलिए हे महाराज! मैं आपसे प्रार्थना करता हूं कि शीघ्र ही मेरी पत्नी को ला दीजिए. उसके गर्भ से जो मेरी संतान होगी वह सर्व प्रकार से धर्म-कर्म का पालन करने वाली होगी और इससे मैं पितृ-ऋण से भी उऋण हो जाऊंगा.''
ब्राह्मण की प्रार्थना सुनकर राजा ने उसको आश्वासन दिया कि वे अवश्य ही उस की पत्नी को ढूंढ़कर ले आएंगे और उसी समय वे रथ पर सवार होकर वन की ओर चल दिए. चारों तरफ फिरकर उन्होंने ब्राह्मण की पत्नी को खोजना प्रारंभ किया लेकिन कहीं भी वह स्त्री नहीं मिली. फिरते-फिरते उनको काफी देर हो गई, तब सहसा एक ऋषि का सुंदर आश्रम उन्हें दिखाई दिया. वे रथ से उतरकर उस आश्रम की ओर चल दिये और जाकर उन्होंने देखा कि तपस्वी ऋषि ध्यानस्थ बैठे थे. उनका तेज अग्नि के समान चारों ओर फैल रहा था. उनको देखकर राजा ने आदरपूर्वक प्रणाम किया. तपस्वी ने भी राजा को देखकर उनका समुचित सम्मान किया और उसी क्षण अपने शिष्य से कहा, ''वत्स! राजा हमारे आश्रम से आये हैं. उनके लिए अर्घ्य ले आओ.''
गुरु की यह बात सुनकर शिष्य कुछ सोच में पड़ गया और रुककर कहने लगा, ''गुरुदेव! आपकी आज्ञा का पालन करना मेरा धर्म है लेकिन फिर भी अपनी शंका आपके सामने रखना भी आवश्यक है. मेरी दृष्टि में राजा आपके द्वारा दिए गए अर्घ्य के योग्य नहीं है, फिर आप ऐसी आज्ञा किस कारण दे रहे हैं. आप अच्छी तरह विचार कर लीजिए. यदि आप उचित समझें तो मैं जाकर अर्घ्य ले आता हूं.''
शिष्य की बात सुनकर तपस्वी ने कुछ देर को नेत्र बंद कर लिये और दिव्यज्ञान से राजा का सारा वृत्तान्त जानकर वे बोले, ''प्रिय वत्स! तुम्हारा कथन सत्य है. अर्घ्य मत लाओ. राजा के लिए कुशासन बिछा दो.''
शिष्य ने कुशासन लाकर बिछा दिया जिस पर राजा उत्तम बैठ गए लेकिन अर्घ्य न मिलने की बात सुनकर उनको एक गहन चिंता ने घेर लिया. वे उसका कारण खोजने लगे लेकिन उन्हें कोई कारण स्पष्ट तौर से दिखाई नहीं दिया. इतने में ही तपस्वी ने कहा ''हे राजन! मैं जानता हूं कि आप महाराज उत्तानपाद के पुत्र उत्तम हैं. इस वन में आप किस कारण से आए हैं? बोलिए आपका ऐसा कौन-सा कार्य है जिसमें मैं आपकी सहायता करूं?''
राजा ने कुछ क्षणों के लिए अपने चित्त की चिन्ता को हटाकर कहा, ''हे महामुनि! मेरे राज्य के एक ब्राह्मण की पत्नी को कोई दुष्ट रात को चुराकर ले गया है. अपनी पत्नी के वियोग में ब्राह्मण दुःखी हो रहा है, इसी कारण मैं उसकी पत्नी को इस वन में खोजने आया हूं. काफी देर तक मैं इधर-उधर भटका हूं लेकिन कभी भी मुझे उस ब्राह्मणी के दर्शन नहीं हुए हैं. क्या करूं? यदि आप मेरी सहायता कर सकें तो मैं आपका उपकार मानूंगा, भगवन्!''
राजा की यह बात सुनकर तपस्वी ने कहा, ''राजन्! चिन्ता न करो. मैं जानता हूं कि वह ब्राह्मणी कहां है.''
मुनि के मुंह से यह बात सुनते ही राजा के हृदय में अपार आशा जाग उठी. उन्होंने प्रसन्न होकर कहा, ''हे भगवन्! यदि मैं ब्राह्मणी को ले जाकर उस ब्राह्मण को दे पाया तो मैं अपने राज्य में आपकी रक्षा कर पाऊंगा. जिस किसी राजा के राज्य में एक भी प्रजाजन अन्याय के कारण दुःखी रहता है उस राजा की परलोक में जाकर दुर्गति होती है लेकिन इससे पहले मेरे मन की एक चिंता को दूर करिए भगवन्!''
मुनि ने कहा, ''कौन-सी चिंता है राजन?''
राजा ने कहा, ''हे भगवन्! मैं अभी तक नहीं समझ पाया हूं कि ऐसा मैंने कौन-सा अधर्म किया है जिसके कारण आपने और आपके शिष्य ने मुझे अर्घ्य के योग्य नहीं समझा? मैंने तो सदा धर्म और सत्य को सामने रखकर ही आचरण किया है और सदा ही न्यायपूर्वक अपनी प्रजा का पालन किया है.''
तपस्वी मुनि ने कहा, ''हे राजन्! क्या आप इस बात को भूल गये कि आपने अपनी पत्नी का वन में परित्याग किया है और उसी समय से आपने नित्य कार्य करना भी छोड़ दिया है.
''हे राजन्! एक पक्ष तक भी यदि कोई मनुष्य नित्य-कर्म छोड़ देता है तो वह अस्पृश्य हो जाता है, फिर आपने तो उसे एक वर्ष से छोड़ रखा है. यही तुम्हारा अधर्म है जिसके कारण तुम अर्घ्य पाने योग्य नहीं हो.
''हे राजन्! पति का स्वभाव कैसा ही हो, पत्नी का यही
धर्म है कि वह सदा पति की आज्ञा का पालन करती हुई उसके साथ रहे और इसी प्रकार पति को भी कैसे भी व्यवहार-स्वभाव वाली पत्नी का भरण-पोषण करना चाहिए. क्रोधवश होकर पत्नी का परित्याग कर देना सर्वथा अधर्म है. क्या तुम नहीं जानते, पत्नी के बिना पति कोई शुभ कर्म नहीं कर सकता? ब्राह्मण की वह पत्नी जिसका अपहरण हुआ है सदा पति को कठोर बातें सुनाया करती थी और उसका रूप भी आकर्षक नहीं था लेकिन चूंकि वह उस ब्राह्मण की धर्मपत्नी थी इसलिए उसकी हर प्रकार से रक्षा करना उसका कर्तव्य है, इसी भावना से प्रेरित होकर वह ब्राह्मण दुःखी होकर तुम्हारे पास आया और तुम्हें उस ब्राह्मणी को लाने के लिए कहने लगा. वह ब्राह्मण धर्म से विचलित नहीं हुआ. हे राजन्! वह जानता है कि पत्नी के अभाव में वह अपने नित्यकर्म पूरे नहीं कर पायेगा लेकिन तुमने अहंकारणवश अपनी पत्नी को छोड़कर महापाप कमाया है. इससे परलोक में भी तुम्हारी दुर्गति होगी.''
तपस्वी की बातें सुनकर राजा उत्तम भयभीत हो उठे और कांपते स्वर में कहने लगे, ''हे भगवन्! आपका कथन सत्य है. आपने मुझे बचा लिया नहीं तो जाने कब तक यह पाप सिर पर बढ़ता रहता और इसके कारण मेरे सारे पुण्य क्षीण होते रहते. अब मैं अवश्य ही अपनी पत्नी का पता लगाऊंगा, लेकिन उससे पहले ब्राह्मण का कार्य करना ही मेरा कर्तव्य है, अतः आप बताइये कि उस ब्राह्मणी का अपहरण किसने किया है और वह इस समय कहां है?''
मुनि ने कहा, ''हे राजन्! अद्रि के पुत्र बलाक नामक राक्षस ने उसका अपहरण किया है. तुम उत्पलावत वन में आओ, वहां तुम्हें वह ब्राह्मणी मिलेगी.''
उसी समय राजा मुनि को प्रणाम करके रथ में बैठकर उत्पलावत वन की ओर चल दिए. वहां उन्होंने उस ब्राह्मणी को देखा. ब्राह्मण ने जैसा उसका परिचय दिया था, ठीक वह उसी प्रकार की थी. राजा ने पूरी तरह उसको पहचान कर कहा, ''हे कल्याणी! क्या तुम विशाल के पुत्र सुशर्मा की पत्नी हो?''
ब्राह्मणी ने आश्चर्य में भरकर कहा, ''हां!''
राजा ने कहा, ''हे कल्याणी! तुम यहां किस प्रकार आई? किसने पति के घर से तुम्हारा अपहरण किया है?''
इस पर ब्राह्मणी ने कहा, ''हे देव! रात्रि के समय जब मैं अपने घर में सो रही थी तो मुझे बलाक नाम का दुष्ट राक्षस उठा लाया. उसने लाकर मुझे इस निर्जन वन में छोड़ दिया है. यहां पति के वियोग में सदा मेरा चित्त दुःखी रहता है और वन की निर्जनता सदा मुझे भयभीत करती रहती है. वह राक्षस न तो मुझे दबाकर मेरी सारी चिंताओं को मेरे शरीर समेत मिटा ही देता है और न मेरा उपभोग ही करता है. पता नहीं वह किस
अपराध का दण्ड मुझे दे रहा है.
''हे महात्मन्! आप कृपा करके मुझे इस दुष्ट के चंगुल से छुड़ाइए.''
राजा ने पूछा, ''हे ब्राह्मणी! तुम्हारे पति भी तुम्हारे वियोग में दुःखी हैं. तुम्हारे अभाव में उनके सारे नित्य कर्म बंद हो गये हैं और इससे उनके पुण्यों का क्षय हो रहा है. उनकी प्रार्थना सुनकर ही मैं तुम्हें खोजने चला हूं. तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो. मैं अभी तुम्हें इस राक्षस के चंगुल से छुड़ाता हूं परंतु मुझे यह बताओ कि वह राक्षस इस समय कहां है?
ब्राह्मणी कहा, ''हे भगवन्! वह इसी वन के भीतर रहता है. आप इस मार्ग से चले जाइये. सीधे आप उसी के निवासस्थान पर पहुंचेंगे.''
यह कहकर ब्राह्मणी ने मार्ग दिखा दिया. राजा उत्तम उसी मार्ग से वन के भीतर घुसते चले गए और कुछ ही दूर चलकर उन्होंने देखा कि बलाक अपने परिवार से घिरा हुआ बैठा है. अनेक सुंदरियां उसकी परिचर्या में उपस्थित थीं. राजा को आता देखते ही वह परिवार सहित उठ खड़ा हुआ और राजा का सम्मान करता हुआ बोला, ''हे महाराज! आपने आज मेरे घर
पधार कर मेरा बड़ा उपकार किया. आज मैं कितना सौभाग्यशाली हूं कि आप जैसे महात्मा को देख रहा हूं.
''हे देव! मैं आपके राज्य में निवास करता हूं. कहिए, आपने किस कारण इतना कष्ट किया? ऐसा कौन-सा कार्य है जिसको मैं आपके लिए सिद्ध करके आपको प्रसन्न करूं?''
उस राक्षस के इतना सम्मान दिखाने पर राजा को आश्चर्य होने लगा और उसी समय उनका क्रोध शांत हो गया. नम्र स्वर में उन्होंने उससे कहा, ''हे राक्षस! तुमने मेरा सत्कार किया है, यह बड़ी ही प्रसन्नता की बात है लेकिन एक दुःख की बात भी है. तुम मुझे यह बताओ कि रात्रि के समय तुम सुशर्मा ब्राह्मण की पत्नी का अपहरण किस कारण से कर लाये थे. क्या तुम उसको अपनी भार्या बनाना चाहते थे? लेकिन यहां तुम्हारे पास इतनी रूपवती स्त्रियों को देखकर मुझे यह सत्य प्रतीत नहीं होता कि तुमने उस कुरूप और कठोर स्वभाव वाली ब्राह्मणी को अपनी भार्या बनाने की कभी कल्पना की होगी. फिर दूसरा तुम्हारा उद्देश्य उसको अपना भक्ष्य बनाना हो सकता था लेकिन अभी तक भी तुमने उसको नहीं खाया है.
''सच बताओ बलाक, किस कारण से तुमने उस ब्राह्मण की पत्नी का अपहरण करके उसके चित्त को पीड़ा पहुंचाई है?''
यह सुनकर राक्षस ने कहा, ''हे महाराज! हम नरमांस-भक्षी राक्षस नहीं हैं. इसलिए यह सोचना तो निर्मूल है कि मैं उस ब्राह्मणी को अपना भक्ष्य बनाने के लिए लाया था. हम तो सदा पुण्य का फल ही खाते हैं महाराज! इसके साथ यदि कोई स्त्री या पुरुष हमारा अनादर कर दे तो हम उसके अच्छे या बुरे स्वभाव को भी खा जाते हैं. यदि मनुष्य के क्रोधी स्वभाव को हम खा लेते हैं तो वह महान् क्षमाशील बन जाता है. यदि उसके दुष्ट स्वभाव को खा जाते हैं तो वह पूरी तरह पुण्यात्मा हो जाता है.
''इसके अलावा इस कुरूप ब्राह्मणी को अपनी भार्या बनाने की कल्पना भी मैं नहीं कर सकता था.''
इस पर राजा ने पूछा, ''तो हे राक्षस! तुमने इसका अपहरण किस उद्देश्य से किया?''
बलाक बोला, ''हे महाराज! वह श्रेष्ठ ब्राह्मण जो इसका पति है, वेदमंत्रों का ज्ञाता है. जिस किसी यज्ञ में मैं अपना पेट भरने के उद्देश्य से जाता हूं वह रक्षोघ्न मंत्रों का पाठ कर मुझे सदा दूर भगा देता है. इससे मैं भूखा ही रह जाता हूं. इसी प्रकार मेरे अन्य भाई-बंधु भी इधर-उधर भूखे तड़पा करते हैं. सभी यज्ञों में यही ब्राह्मण ऋत्विज बना करता है और हमारी पीड़ा का कारण होता है. इसी कारण मैंने इसके सामने वह विघ्न खड़ा किया है. कोई भी पुरुष अपनी पत्नी के बिना यज्ञ कर्म कराने या करने के योग्य नहीं रहता, इसलिए यह ब्राह्मण भी अब यज्ञ कार्य से वंचित हो जाएगा और हम अपना पेट अच्छी तरह भर सकेंगे.
''हे महाराज! मैं आपका विनीत सेवक हूं. आपके राज्य की प्रजा हूं. अब आप जैसे आज्ञा प्रदान करेंगे वही कार्य मैं करूंगा''
इस पर राजा ने कहा, ''हे बलाक! मैं तुमसे इस ब्राह्मणी को मांगता हूं. इसके बिना ब्राह्मण बड़ा दुःखी है. प्रजाजनों के कष्ट का निवारण करना ही मेरा धर्म है. फिर इसके साथ ही मैं तुमसे यह भी मांगता हूं कि जैसा तुमने कहा है कि तुम मनुष्य के स्वभाव का भक्षण कर लेते हो, तुम इस ब्राह्मणी की दुष्टता को भक्षण कर लो जिससे वह विनयशील होकर ब्राह्मण के चित्त को आनन्द पहुंचा सके. इसके पश्चात् तुम्हीं इसे इसके घर पहुंचा आओ. तब मैं समझूंगा कि तुमने अपने अतिथि का सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण कर दिया.''
राजा के यह कहने पर उस राक्षस ने अपनी माया से उस ब्राह्मणी के शरीर में प्रवेश कर उसकी सारी दुष्टता को खा डाला. ब्राह्मणी अब अत्यन्त विनयशील होकर राजा से कहने लगी, ''हे महाराज! हाय! कैसा दुर्भाग्य है कि मैं पति के वियोग में इतना कष्ट पा रही हूं. अवश्य ही अपने पूर्वजन्म के कमरें के फलस्वरूप ही मुझे अपने धर्मांत्मा पति से विलग होना पड़ा है. पूर्वजन्म में मैंने किसी का वियोग कराया होगा उसी के फलस्वरूप मैं यह अपार दुःख भोग रही हूं.''
''हे महाराज! मेरे पति कहां है? मैं उनके बिना एक पल भी जीवित नहीं रह सकती. आप किसी तरह मुझे उनके पास तक पहुंचा दीजिए.''
राजा ने ब्राह्मणी को धैर्य देते हुए कहा, ''हे कल्याणी! तुम अभी अपने पति के पास पहुंच जाओगी. अब किसी प्रकार से भी दुःखी मत होओ.''
यह कहकर उन्होंने राक्षस को उस ब्राह्मणी को ले जाने की आज्ञा दी. वह राक्षस उस ब्राह्मणी को उसके पति के घर पहुंचा आया और आकर कहने लगा, ''हे महाराज! आपकी आज्ञा मैंने पूर्ण कर दी है. अब बताइए, मैं आपकी क्या सेवा करूं?''
राजा ने कहा, ''हे बलाक! अब तुम जाओ. जब भी मैं तुम्हारी आवश्यकता समझूंगा तब तुम्हें स्मरण करूंगा. उसी समय तुम मेरे पास आ जाना.''
यह कहकर वे उस राक्षस से विदा लेकर रथ में बैठकर उस वन से चल दिए और अपनी पत्नी के विषय में चिंता करने लगे. अपने उद्धार की इच्छा करके वे उन्हीं त्रिकालवेत्ता तपस्वी मुनि के आश्रम की ओर चल दिए जहां से वे इस वन की ओर आए थे. आश्रम पर पहुंचकर उन्होंने मुनि को प्रणाम किया. मुनि के समुचित स्वागत करके राजा को बैठने के लिए आसन दिया. उनके कुछ बोलने से पहले ही उनकी सारी चिंता का कारण समझकर मुनि ने कहा, ''हे राजन! तुमने उस ब्राह्मणी को राक्षस के चंगुल से मुक्त करके बड़ा पुण्य किया है लेकिन अपनी पत्नी का परित्याग करके तुमने महान् अनिष्ट किया है. यही बात तुम्हारे चित्त को निरंतर पीड़ा पहुंचा रही है.''
''हे राजन्! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अथवा शूद्र कोई भी क्यों न हो, पत्नी के न होने पर कर्मानुष्ठान के योग्य नहीं रहता.''
महर्षि की बात सुनकर राजा की व्यथा और भी बढ़ गई और उन्होंने भारी स्वर में कहा, ''हे भगवन्! आपका कथन सत्य है. मैंने क्रोधवश होकर पत्नी का परित्याग कर दिया वही आज मेरी महान् पीड़ा का कारण है. उसी कारण मेरे पुण्यकर्म क्षीण हो रहे हैं. क्या करूं, अब पता नहीं मेरी वह प्राणप्रिया कहां विचरण कर रही होगी. मैंने उसे निर्जन वन में छोड़ने की आज्ञा दी थी, पता नहीं वन के पशुओं ने उसकी देह को अपना भक्ष्य तो नहीं बना लिया.
''हाय! तब तो परलोक में मेरी अधोगति होगी.
''हे धर्मात्मन्! आप सर्वज्ञानी हैं. कृपया बताइए, मेरी पत्नी इस समय कहां है?''
ऋषि ने कहा, ''हे राजन्! वह इस समय रसातल में है. वह अभी तक भी पवित्र है. किसी ने भी उसका चरित्र दूषित नहीं किया है.''
यह सुनकर राजा ने पूछा, ''हे महाराज्! यह तो बड़े आश्चर्य की बात है. पाताललोक में मेरी पत्नी किस प्रकार पहुंच गई और अब तक उसका चरित्र दूषित होने से किस प्रकार बचा रहा है? यह सब कुछ मुझको बताइए.''
ऋषि ने कहा, ''हे राजन्! पाताललोक में नागराज कपोत नाम के एक विख्यात पुरुष हैं. जब तुमने अपनी प्यारी पत्नी को निर्जन वन में छोड़ दिया तो नागराज ने एक दिन उसको देखा और उसका रूप देखकर वे उस पर आसक्त हो गए. कुछ देर तक वे उस सुन्दरी को देखते रहे और फिर उसको निस्सहाय जानकर पाताललोक को ले गए. वहां ले जाकर उसे अपनी पत्नी बनाने का उनका विचार था लेकिन नागराज की पत्नी अभी तक जीवित थी. उसका नाम मनोरमा था और उसी के गर्भ से नागराज के एक पुत्री पैदा हुई थी जिसका नाम नन्दा था. जैसे ही नागराज बहुला को लेकर आए तो नन्दा को यह विश्वास-सा हो गया कि अवश्य नागराज उसकी मां का तिरस्कार करके इस सुन्दरी से विवाह करेंगे. अपनी मां के इस अपमान के भय से नन्दा बहुला को अपने घर ले गई और वहां अन्तःपुर में उसने उसे छिपा दिया. कई बार नागराज कपोत ने नन्दा से बहुला को लाने के लिए कहा लेकिन नन्दा ने कोई उत्तर नहीं दिया. जब नागराज के प्रश्न का एक बार भी नन्दा ने उत्तर न दिया और न वह बहुला को ही निकालकर लाई तो नागराज कपोत ने बहुला के लिए अधीर होकर नन्दा को शाप दे दिया. उन्होंने कहा, 'हे नन्दा! तूने मेरी प्रिया को छिपा रखा है और जब भी तुझसे उसके विषय में पूछता हूं तब ही तू कुछ उत्तर नहीं देती और चुपचाप मेरी ओर देखने लग जाती है. जा, तू इसी तरह सदा के लिए गूंगी हो जाएगी और किसी के प्रश्न का अपने मुंह से उत्तर नहीं दे सकेगी.'
''हे राजन्! आपकी पत्नी बहुला इस समय भी नन्दा के संरक्षण में है और इसी कारण उसका चरित्र अभी तक भी दूषित नहीं होने पाया है.''
यह सुनकर राजा ने कहा, ''हे भगवन्! जब से मैं बहुला के साथ विवाह करके उसे अपने घर लाया था तभी से मैं उसको अपने प्राणों से भी अधिक प्यार करता था. सदा उसकी प्रसन्नता जुटाने में ही व्यस्त रहता था. कभी उसका चित्त खिन्न रहता था तो अपने सारे कार्य छोड़कर उसके प्रति अपने हृदय का सारा स्नेह और प्रेम उंडेल देता था और उसको प्रसन्न करता था. सुख और ऐश्वर्य की सारी वस्तुएं भी मैंने उसके लिए जुटा दी थीं, लेकिन इतना होने पर भी भगवन्! बहुला सदा मेरी ओर उपेक्षाभरी दृष्टि से देखा करती थी. कभी वह अपने हृदय का प्रेम मुझे नहीं दे पाई. सदा उसका यह तिरस्कार पूर्ण व्यवहार देखकर ही मैंने एक दिन क्रुद्ध होकर उसको घर से बाहर निकाल दिया, लेकिन अभी तक मेरी समझ में यह नहीं आता है कि मेरे इतने प्रेम करने पर भी वह सदा मुझसे असन्तुष्ट क्यों रहा करती थी?''
यह सुनकर ऋषि ने कहा, ''हे राजन्! इसका कारण सुनो. पाणिग्रहण के समय सूर्य, मंगल और शनिश्चर तुम्हारे ऊपर और बृहस्पति की तुम्हारी पत्नी के ऊपर दृष्टि थी. उस मुहूर्त में उस पर चन्द्रमा और बुध भी परस्पर शत्रु भाव रखने वाले हैं; अनुकूल थे और तुम्हारे ऊपर प्रतिकूल. इसीलिए तुम्हें पत्नी की प्रतिकूलता का विशेष कष्ट सहना पड़ा है. अब जाकर तुम अपनी पत्नी को पाताललोक में मुक्त करो और उसे अपने नगर को ले जाकर सम्पूर्ण धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान करो''
राजा ने महर्षि को प्रणाम किया और अपने रथ में बैठकर वे अपने नगर को लौट आये. वहां आने पर उन्हें वह ब्राह्मण अपनी पत्नी के साथ मिला. राजा को देखते ही ब्राह्मण ने अनेक तरह से राजा की प्रशंसा की और कहा, ''हे महाराज! आपने मेरे चित्त की महान् पीड़ा को मिटा दिया है. आपकी जय-जयकार हो.''
इस पर राजा ने कहा, ''हे ब्रह्मन! आपकी पत्नी को तो मैंने आपसे मिला दिया और अब आप सभी धर्मों-कर्मों का अनुष्ठान कर सकेंगे लेकिन मेरी पत्नी के न होने के कारण मैं एक बहुत बड़े धर्मसंकट में पड़ा हुआ हूं.''
यह सुनकर ब्राह्मण ने कहा, ''हे महाराज! यदि आपकी पत्नी जीवित है और यदि अभी तक उसके चरित्र की पवित्रता नष्ट नहीं हुई है तो आप अपनी प्राणप्रिया के बिना यह पाप क्यों कमा रहे हैं. शीघ्र से शीघ्र अपनी पत्नी को खोजकर ले आइए और अपने नित्य कर्म प्रारम्भ करिए, नहीं तो आपकी परलोक में दुर्गति होगी.''
इस पर राजा ने कहा, ''हे ब्रह्मन्! सत्य है और मुझे अवश्य ही अपनी पत्नी को लाना चाहिए लेकिन एक कारण है जिससे मैं उसको नहीं लाना चाहता.''
ब्राह्मण ने उत्सुक होकर पूछा, ''वह क्या महाराज?''
राजा ने कहा, ''हे ब्रह्मन्! उसका स्वभाव बड़ा कठोर है. जैसे पतिव्रता स्त्री को अपने पति के प्रति अनन्य श्रद्धाभक्ति रखनी चाहिए वैसे वह मेरे प्रति नहीं रखती है. मेरे कितना ही उसको प्रेम करने पर भी वह सदा मेरी ओर उपेक्षापूर्ण दृष्टि से देखती है और सदा कटु वचन कहती है. इससे मेरा हृदय सदा व्यथित रहता है. अब यदि फिर मैं उसको ले आऊंगा तो मेरे चित्त की शान्ति पूरी तरह नष्ट हो जाएगी और सदा मुझे उसके व्यवहार के कारण पीड़ित रहना पड़ेगा.''
''हे ब्रह्मन्! इसीलिए मैं आपसे पूछता हूं कि कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे मेरी पत्नी मेरे पास होकर मुझसे उसी तरह प्रेम करने लगे जैसे मैं उससे करता हूं.''
ब्राह्मण ने कहा, ''हे महाराज! यह कार्य इतना कठिन नहीं है. इसके लिए आपको मित्रविन्दा नामक यज्ञ करना पड़ेगा. यह वही यज्ञ है जिसको मित्र की कामना रखने वाले लोग करते हैं. इसको करने से अवश्य ही रानी के हृदय की कठोरता मिट जाएगी और वे आपसे उतना ही प्रेम करने लग जाएंगी जितना आप उनसे करते हैं. आप उस यज्ञ की तैयारी कराइए. मैं उस यज्ञ का कार्य सम्पन्न करूंगा और मेरा विश्वास है कि देवता आपका अवश्य कल्याण करेंगे.''
ब्राह्मण के इस तरह आश्वासन देने पर राजा ने यज्ञ के लिए सारी सामग्री एकत्रित करा दी और ब्राह्मण ने मित्रविन्दा यज्ञ का अनुष्ठान प्रारंभ किया. इस तरह रानी के हृदय में प्रेम उत्पन्न करने के लिए इस ब्राह्मण ने एक-एक करके सात यज्ञों का अनुष्ठान किया. जब उसे यह निश्चय हो गया कि रानी के हृदय में राजा के प्रति अपार प्रेम जागृत हो गया तो उसने राजा से कहा, ''महाराज! अब आपकी प्रिया के हृदय की सारी कठोरता मिट गई है और वह कभी आपका तिरस्कार नहीं करेगी. अतएव जहां भी वे हों, उन्हें आप ले आइए और उनके साथ विधिपूर्वक धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान करिए.''
राजा ने ब्राह्यण की बात पर विश्वास करके उसी समय बलाक नामक राक्षस को स्मरण किया. स्मरण करते ही वह राजा के सामने आकर खड़ा हो गया और प्रणाम करके बोला, ''हे महाराज! सेवक को क्या आज्ञा है?''
राजा ने कहा, ''बलाक! पाताल लोक में नागराज कपोत के यहां मेरी पत्नी है. नागराज की कन्या नन्दा ने उसे अन्तःपुर में छिपा रखा है. तुम शीघ्र जाओ और मेरी पत्नी को मेरे पास ले आओ.''
बलाक राजा की आज्ञा को शिरोधार्य करके सीधा पाताल चला गया और बहुला को वहां से ले आया.
बहुला आते ही असीम अनुराग के साथ अपने पति से लिपट गई. राजा की आंखों में भी अपनी पत्नी का वह अनुराग देखकर आंसू छलक आए. बहुला कहने लगी, ''हे प्राणनाथ! आपको मैंने अपने व्यवहार से बहुत पीड़ा पहुंचाई है. आप मुझ पर प्रसन्न होइए. अब मैं कभी भी आपको अप्रसन्न नहीं करूंगी और पूर्ण श्रद्धा के साथ आपकी सेवा करूंगी. वह स्त्री भी कैसी दुराचारिणी है जो अपने पति के साथ प्रेमपूर्ण व्यवहार नहीं करती?''
अपनी प्राणप्रिया की ये बातें सुनकर राजा उत्तम रोने लगा और बार-बार प्रिया को गले लगाने लगे.
जब भावना का वेग कुछ कम हुआ तो रानी ने राजा से कहा, ''हे महाराज! मेरी एक थोड़ी-सी प्रार्थना है. मुझे पूर्ण विश्वास है कि आप उसे अवश्य पूर्ण करेंगे.''
राजा ने कहा, ''प्रिये! कौन-सा दुर्लभ कार्य है जो मैं तुम्हारे लिए नहीं कर सकता. निःसंकोच होकर बोलो, तुम्हारी कौन-सी अभिलाषा मैं पूर्ण करूं.''
रानी ने कहा, ''हे नाथ! नागराज की पुत्री नन्दा ने नागराज से मेरी रक्षा की थी. उसी के कारण मेरा चरित्र दूषित नहीं हो पाया लेकिन नागराज ने नन्दा के इसी अपराध के कारण उसको शाप देकर गूंगी बना दिया है. आप किसी तरह मेरी उस प्रिय सखी की मूकता नष्ट कर दीजिए तो मैं समझूंगी कि मैंने अपनी सखी का कुछ कल्याण किया. इसके बिना तो मेरी सखी का बहुत बड़ा ऋण मेरे ऊपर चढ़ा ही रहेगा.''
राजा ने अपनी प्रिया की यह बात सुनकर कहा, ''हे प्रिये! तुम किसी प्रकार की चिंता मत करो. मैं अवश्य ही तुम्हारी सखी की मूकता दूर करने का प्रयत्न करूंगा.''
यह कहकर उन्होंने सुशर्मा ब्राह्यण को बुलाया और कहा, ''हे विप्रश्रेष्ठ! बहुला की सखी नन्दा को इन्हीं का उपकार करने के कारण मूकता का अभिशाप सहना पड़ रहा है. आप कोई ऐसा उपाय करिए जिससे उसकी मूकता दूर हो जाए.''
ब्राह्यण ने कहा, ''हे महाराज! इसके लिए मैं सरस्वती दृष्टि करूंगा जिससे आपकी महारानी अपनी सखी की वाक्शक्ति को कार्यक्रम बनाकर उसके ऋण से उऋण हो जाएंगी.''
राजा ने प्रसन्न होकर कहा, ''ऐसा ही करिए द्विजश्रेष्ठ.''
ब्राह्यण ने सरस्वती इष्टि प्रारंभ कर दी. उन्होंने नन्दा की मूकता दूर करने के लिए सास्वत सूक्तों का जाप किया. इस जप के प्रभाव से नन्दा की वाक्शक्ति फिर उसको वापस मिल गई और वह नागराज के शाप से मुक्त हो गई. यह देखकर नन्दा बड़ा आश्चर्य करने लगी. एक दिन उसने पाताल लोक में रहने वाले गर्ग मुनि से पूछा, ''हे मुनि! मैं किस कारण इस नागराज के शाप से मुक्त हो पाई.''
गर्ग मुनि ने कहा, ''नागकन्या! तुम्हारी सखी बहुला के पति राजा उत्तम ने तुम्हारी मूकता दूर करने के लिए श्रेष्ठ ब्राह्यण से जप कराया है. तभी तुम्हारी मूकता दूर हुई है.''
यह सुनकर नन्दा मन ही मन बहुला को धन्यवाद देने लगी और फिर बहुला से मिलने की उसकी उत्सुकता बहुत ही बढ़ गई. वह वायु की गति से चल कर पाताललोक से निकल कर पृथ्वी पर आई और फिर अपनी सखी बहुला के नगर में आ गई. बहुला नन्दा को देखकर फूली नहीं समाई. उधर नन्दा की आंखों में अपार हर्ष के कारण आंसू की बूंदें छलक आईं. दोनों बार-बार गले लगकर मिलीं. राजा की भी उसने अनेक तरह से प्रशंसा की और कहा, ''धर्मांत्मा राजा! आपने मेरा बड़ा उपकार किया है. इसलिए मेरा चित्त आपकी तरफ आकृष्ट हो गया था और इसी अपार उत्सुकता को लेकर मैं पाताललोक से यहां आपसे मिलने के लिए आई हूं. मैं आपको एक रहस्यपूर्ण बात अभी बताती हूं कि शीघ्र ही आपके एक महाप्रतापी पुत्र पैदा होगा जो समस्त पृथ्वी पर अखण्ड शासन करेगा. वह सभी शास्त्रों का ज्ञाता,
धर्मरायण, बुद्धिमान एवं मन्वन्तर का स्वामी मनु होगा.''
इस प्रकार राजा को वर देकर नागकन्या नन्दा राजा को प्रणाम करके और एक बार फिर अपनी सखी बहुला को गले लगाकर पाताल लोक को चली गई.
राजा अब अपनी प्राणप्रिया के साथ स्वच्छंद होकर विलास करने लगे. अब बहुला किसी प्रकार की कठोरता नहीं दिखाती और सदा अपने पति के प्रति अपार श्रद्धा का भाव रखती. इससे राजा का चित्त सदा प्रसन्न रहता. इस तरह निरंतर सहवास करने के कारण बहुला गर्भवती हो गई और नियत अवधि के पश्चात् उसके गर्भ से पूर्णिमा के चन्द्र के समान महान् कान्ति वाला एक पुत्र पैदा. उसके पैदा होते ही देवता आकाश से पुष्प-वर्षा करने लगे और स्वर्गलोक में अनेकानेक उत्सव मनाये जाने लगे.
उस बालक का रूप और लक्षण देखकर मुनियों ने कहा, ''यह बालक राजा उत्तम के वंश में और उत्तम समय में पैदा हुआ है तथा इसका प्रत्येक अंग उत्तम है, इसलिए यह औत्तम नाम से विख्यात होगा.''
इस प्रकार राजा उत्तम के पुत्र औत्तम मनु हुए. उनका यह औत्तम मन्वन्तर तीसरा मन्वन्तर है. उसमें स्वधामा, सत्य, शिव, प्रतर्दन या वशवर्ती ये देवताओं के पांच गण थे. ये पांचों देवगण यज्ञयोगी माने गए हैं. ये सभी गण बारह-बारह व्यक्तियों के समुदाय हैं. उक्त मन्वन्तर में सुशान्ति नामक इन्द्र हुए जो सौ यज्ञों का अनुष्ठान करके इन्द्र पद को प्राप्त हुए थे.
औत्तम मनु के अत्र, परशुचि, और दिव्य नाक के तीन पुत्र थे जो देवताओं के समान तेजस्वी तथा महान् पराक्रमी थे.
महात्मा वसिष्ठ के सात पुत्र ही इस मन्वन्तर में सप्तर्षि थे.
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