साक्षात्कार पलकों की मुंडेर पर सजे अश्रु के दीपक (डॉ. प्रमिला भारती से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश) सुमधुर गीतों से सम्मोहित करने वा...
साक्षात्कार
पलकों की मुंडेर पर सजे अश्रु के दीपक
(डॉ. प्रमिला भारती से डॉ. भावना शुक्ल की बातचीत के अंश)
सुमधुर गीतों से सम्मोहित करने वाली, अनेक सम्मानों से सुसज्जित ऐसी सुप्रसिद्ध गीतकार डॉ. प्रमिला भारती जो साहित्य के माध्यम से लगभग पांच दशकों से साहित्य की सेवा कर रही हैं. इनका प्रसिद्ध गीत संग्रह ‘नदी संवेदना की’ है. इनके कई प्रकाशित संकलन हैं.
डॉ. भावना शुक्लः प्रमिला जी मैंने आपके संकलन में पढ़ा है कि आपने निराला जी के साथ कविता पढ़ी थी?
डॉ. प्रमिला भारतीः मैं जब छठवीं कक्षा में पढ़ती थी तब मैंने एक दो लाइन की तुकबन्दी की थी, यह करीब 1952-1953 का समय था.
प्रमिला शर्मा नाम मेरा.
पढना लिखना काम मेरा..
पहली बार इसे मैंने निराला परिषद् की काव्य गोष्ठी में निराला जी के सामने यह कविता पढ़ी थी.
डॉ. भावना शुक्लः आपने केवल गीत विधा को ही चुना है या और विधाओं को भी स्पर्श किया है?
डॉ. प्रमिला भारतीः वैसे मैं मुख्य रूप से गीतकार ही हूं. लेकिन मैंने साहित्य की विभिन्न विधाओं को भी स्पर्श किया है. मैंने कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, गजल, लोकगीत, मुक्तक, छंद, बालगीत, नाटक आदि पर भी अपनी कलम चलाई है.
डॉ. भावना शुक्लः गीतों का शिल्प किस तरह का होना चाहिये? अपने दृष्टिकोण से बताइये.
डॉ. प्रमिला भारतीः मेरे दृष्टिकोण से जो बात, जो भाव, जो अनुभितियां हृदय से निकलकर सीधे हृदय में उतर जाएं वह किसी भी शिल्प के माध्यम से कहीं जाएंश् अच्छी होंगी. गीत शिल्प इस तरह का एक सशक्त माध्यम है.
डॉ. भावना शुक्लः आप लेखन का आधार किसे मानती है? सुख या दुःख! आपने किसे अपनाया?
डॉ. प्रमिला भारतीः मेरा विचार है- सुख में डूबकर मनुष्य अन्दर से बाह्य की ओर जाता है और दुःख में बाह्य से अन्दर की ओर. लेखन का आधार मूल रूप से दर्द को ही मानती हूं. बाह्य दृश्य जब हृदय को मथते हैं, तभी विचार निकलते हैं और कलम चलती है.
मैंने दर्द ही अधिक भोगा है उसे ही जिया है और उसी की अभिव्यक्ति बहुधा हुई है. बहुधा गहन अंधकार में आंचल की ओट में दीप लेकर चलने का आभास हुआ है.
डॉ. भावना शुक्लः अतीत और वर्तमान के साहित्य में क्या अंतर पाती है आप?
डॉ. प्रमिला भारतीः अतीत का साहित्य रागात्मक से सम्बन्ध रखता था, आज यथार्थ की नंगी चट्टान पर खड़ा है. सब बदलते युग का प्रभाव है. अतीत का साहित्य कल के सामाजिक परिवेश से जुड़ा है. जबकि आज का साहित्य वर्तमान समाज का दर्पण है, जो स्वाभाविक है; क्योंकि प्रत्येक काल की भिन्न भिन्न समस्याएं, मूल्य तथा उपलब्धियां होती हैं.
डॉ. भावना शुक्लः आपको लेखन की प्रेरणा कहां से प्राप्त हुई?
डॉ. प्रमिला भारतीः मेरे पिताजी पंडित श्री जगतनारायण शर्मा जी स्वयं एक कवि थे. घर का वातावरण साहित्यिक था. मेरे पिता जिला विद्यालय निरीक्षक होने के नाते साहित्यिक आयोजन, कवि सम्मेलन इत्यादि कराते रहते थे जिसमें प्रसिद्ध कवि काव्य पाठ करने आया करते थे. मैं ऐसे आयोजनों में सुनने जाया करती थी. मैं वहां निराला जी की ‘वाणी वन्दना’ गोष्ठी के प्रारम्भ में ‘वीणा वादिनी वर दे’ का गायन करती थी. सभी वरिष्ठ गुरुजनों को सुनते-सुनते कब लिखने लगी, पता ही नहीं चला.
डॉ. भावना शुक्लः वर्तमान समय में गीतों की दशा और दिशा पर प्रकाश डालेगी?
डॉ. प्रमिला भारतीः गीतों को कुछ भ्रमित लोगों ने नकारना चाहा है. प्रयास भी किये हैं जिसमें अहोयवाद, अगीतवाद, नयी कविता वादियों ने मिलकर काफी भ्रम फैलाया है. परन्तु गेयता न होने के कारण इन्हें ही नाकारा जाने लगा है. गीतों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा. गीत हमेशा जियेंगे, गीत कभी भी मर नहीं सकते. सभी भावों, अनुभूतियों को संजोने में गीत पूर्णतया सक्षम हैं. गीतों में सीधी सादी भाषा प्रयोग होनी चाहिये. गीत थे, हैं और रहेंगे.
डॉ. भावना शुक्लः इस वैज्ञानिक युग में मानव एक यंत्र बनकर रह गया है. क्या संवेदना का स्थान है?
डॉ. प्रमिला भारतीः यह सच है, इस वैज्ञानिक युग में मानव एक यंत्र बनकर रह गया है और सम्वेदनाओं की छाया भी इस संसार में नहीं दिखती लेकिन बौद्धिक उत्थान के साथ-साथ अनुभूतियों-संवेदनाओं का उत्कर्ष भी अवश्यक है, क्योंकि इसके बिना न व्यक्ति पूर्ण है और न ही समाज. अब तो चारों ओर देखकर बस यही लगता है ..
मुग्ध हुये हो अपने ही श्रृंगार पर,
दर्पण से भी कुछ तो पूछ लिया होता..
जब मशीन मानव हुआ, मानव हुई मशीन,
संवेदन की रेख भी होती गई महीन..
डॉ. भावना शुक्लः आपके गीतों में इतना दर्द है जो हृदय को झकझोर देता है. एक गीत की कुछ पंक्तियां हमारे पाठको को बताइये?
डॉ. प्रमिला भारतीः मेरे जीवन में पहला वज्रपात पति का निधन, फिर बच्चे का जन्म था यानी वर्षों पहले प्रलय के उन पलों में मेरा उजड़ा संसार अब तो बस-
पलकों की मुंडेर पर सजे अश्रु के दीपक
जाने किस आशा में नित्य जला करते हैं.
बाहर का यह सफर कर्म का बोझ उठायें
हम भीतर भी कोसों दूर चला करते हैं...
डॉ. भावना शुक्लः यदि कोई कवि बनने का इच्छुक है तो वह क्या करे?
डॉ. प्रमिला भारतीः पहले तो जो कवि बनना चाहते हैं. उन्हें नित्य अपने मन की भावनाएं गद्य में लिखनी चाहिए. खूब पढ़ना चाहियें, खूब सुनना चाहिये. फिर वह लिख सकेगा अपने भाव.
डॉ. भावना शुक्लः आप हमारे पाठकों को अपना क्या सन्देश देना चाहती हैं?
डॉ. प्रमिला भारतीः मैं पाठकों से यही कहना चाहूंगी कि...साहित्य का प्रयोग निजी अनुभवों को अभिव्यक्ति ही नहीं, समाज के लिये औषधि स्वरूप है. यही रचनाकार का दायित्व होना चाहिये.
संपर्कः सह संपादक प्राची
डब्ल्यू जेड 21, हरिसिंह पार्क, मुल्तान नगर,
पश्चिम विहार, नई दिल्ली- 110056
मोबाइलः 09278720311
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