समकालीन कहानी लेखन में परिवर्तित यथार्थ और नया युग -बोध चन्द्रभूषण तिवारी इ तना तो प्रायः सभी स्वीकार करते हैं, कि एक सर्वथा आधुनिक स्थ...
समकालीन कहानी लेखन में परिवर्तित यथार्थ और नया युग-बोध
चन्द्रभूषण तिवारी
इतना तो प्रायः सभी स्वीकार करते हैं, कि एक सर्वथा आधुनिक स्थिति इस संपूर्ण युग-चेतना की विशेषता है, जिसने आज के साहित्य को 'नया अर्थ' दिया है. लेकिन यह 'नया अर्थ' सिर्फ कला या साहित्य को ही प्राप्त नहीं है, उसकी अभिव्यक्ति परिवर्तित जीवन-स्थितियों के बीच से हुई है, और आज का मनुष्य उससे एक नया संबंध स्थापित करते हुए ही उसे ग्रहण कर सका है. समकालीन हिंदी कहानी में आधुनिक-बोध के प्रतिफलन की बात इसी संदर्भ में विचारणीय है.
अब तक की कहानी-विषयक चर्चा कतिपय लेखकीय विशेषताओं के ही संदर्भ में की गयी है. 'सांकेतिकता' के माध्यमों से लेकर परकीय तत्वों तक की इसमें समाहार हुआ है (नयी कहानी
संबंधी प्रांरभिक चर्चाओं में जिन प्रयोगों का उल्लेख किया गया है, इनका दायित्व विशेष अनुभूति-खंडों के परोक्ष समाधान तक ही सीमित है, यह प्रक्रिया किस हद तक काव्य की प्रक्रिया से भिन्न है, यह बात अभी तक स्पष्ट नहीं हुई है.) जिससे कहानी के नयेपन की तथा परंपरा से उसके बिलगाव की समस्या अभी तक बनी हुई है. और यह शायद परिवर्तित परिस्थितियों में आधुनिक रचना-दष्टि तथा उसके वस्तुगत आधार को न ग्रहण कर पा सकने के कारण है. परिवर्तित परिस्थितियों में भी कविता की विधा किंचित काल के लिये तटस्थ रह सकती है, एक प्रकार की दूर वर्तिता (mode of distance) उसे निरंतर नियत भी करती है. इसीलिए इसमें आत्मगत प्रवाह की विशेष गुंजाइश है. कहानी इसके विपरीत जीवन-स्थितियों के समानान्तर प्रवाह की अपेक्षा रखती है, और अनुभवों के माध्यम से ही प्रकाशित होती है. इसलिये उसकी कल्पित योजनायें भी (मिथ-सष्टि तक) अनुभवों के स्तर पर ही नियोजित की जा सकती है.
पिछले दशक की कहानियां इसी अर्थ में नयी हैं, चूंकि परिवर्तित वास्तविकता से लेखक के नये संबंध-स्तर को उसकी रचना-दष्टि द्वारा गहीत अनुभवों के माध्यम से व्यक्त करती है. रूप-रचना के स्तर पर इसीलिये उनमें एक असाधारण मूर्त्तता है, जो प्रेमचंदोत्तर हिंदी कहानी लेखकों की विशेषता न थी. वास्तविकता उनके लिये काफी हद तक कल्पित और वैयक्तिक थी, जिसे वे इन्द्रिय-बोध तथा अनुभव के स्तर पर नहीं ग्रहण कर सके थे. इसीलिये उनकी अधिकांश रचनायें अवास्तविक, अमूर्त्त और गढ़ी हुई प्रतीत होती हैं. नये लेखकों ने इसके विपरीत, वास्तविकता के प्रमुख सूत्रों को बड़ी ही सजगता और सूक्ष्मता के साथ ग्रहण किया है, और कल्पित सामंजस्य अथवा फ्यूजन के बदले उसकी असंगतियों को ही प्रकाशित किया है. आजादी के बाद सामाजिक जीवन में एक विशेष प्रकार का तनाव लक्षित हुआ है. एक खास तरह की व्यवस्था गांवों में, उनकी संपूर्ण इनर्शिया और अनिच्छा के बावजूद, पहले-पहल टूटती नजर आई है (इसलिये भी कि गांवों के जीवन में अधिक पारदर्शिता है). शहरों में इसके विपरीत असंलक्ष्य-क्रमिकता अधिक रहती है. फिर भी वहां इसकी अभिव्यक्ति मध्यवर्गीय जीवन के बढ़ते हुए विक्षोभ और स्वप्न-भंग में हुई है. इसीलिये उसकी प्रतिक्रिया अधिक निजी है. इस समय की लिखी गयी अधिकांश प्रतिनिधि रचनाओं में जो नयापन है, उसमें सामान्य मानवीय जीवन के बदलते संदभरें तथा उसकी असंगति करीब खींच ले जाने की क्षमता है. अपने संपूर्ण प्रतीकात्मक संगठन के साथ वे जीवन की गत्वरता तथा मूल्यों के संघर्ष के अधिक समीप है, जहां किनारे के प्रसंग बड़ी तेजी के साथ केंद्र की ओर बढ़ते नजर आते हैं. हिंदी कहानी में यह एक नयी प्रवत्ति का आविर्भाव है, जिसे मार्कण्डेय, अमरकांत, कमलेश्वर, शेखर जोशी, भीष्म साहनी आदि की प्रतिनिधि रचनाओं में देखा जा सकता है.
इसी बीच या उससे कुछ ही बाद, हिंदी कहानी में वास्तविकता का एक और पक्ष उभरा हैव्यक्ति के आंतरिक संघर्ष, सुरक्षा आदि के प्रश्न-संबंधी सामाजिक संदर्भ अथवा बदलती जीवन-स्थितियों से जिन्हें अलग करके नहीं देखा जा सकता. ऐसे समय में ये प्रश्न और भी महत्वपूर्ण हो उठते हैं, जब सामाजिक व्यवस्था के प्रति एक व्यापक आशंका अथवा अनास्था के भाव हों. इसीलिये उन्हें 'असामाजिक' कहकर टाला नहीं जा सकता. अप्रत्यक्ष रूप से उनके बीज इस सामाजिक व्यवस्था के अंतर्गत ही विद्यमान हैं, जिसकी असंगतियां आजादी के बाद विशेष लक्षित हुई हैं. यत्किंचित वे उस युद्धोत्तर प्रतिक्रिया में भी हैं, जिसने व्यक्ति को केंद्र में रखकर उसकी सार्थकता तथा सुरक्षा संबंधी प्रश्नों को दार्शनिक समाधान (साहित्य के अंतर्गत भी) प्रस्तुत किया है. एकमात्र उससे ही प्रेरित होकर, बिना किसी सही उद्वेग के, कत्रिम और कल्पित आधार पर हिंदी की नयी कविता भी विकसित हुई है, जिसकी संवेदना आज तक संदिग्ध है, और जिसकी अमूर्त्तता रचनाकार के दायित्व की ओर आज भी संकेत करती है. साहित्य के इतिहास में दायित्वहीनता के ऐसे कम उदाहरण मिलेंगे. हिंदी कहानी में व्यक्ति-चेतना की शुरुआत भी एक सामाजिक अथवा वर्गीय स्तर से हुई है. शेखर जोशी की 'बदबू' में इसके सही संकेत हैंजिसमें रचनाकार का संपूर्ण व्यक्तित्व, उसके निकट के
संबंध, उसके भावनात्मक आधार, उसके दष्टिकोण एक साथ संपक्त हैं, और इन सब के साथ सारी असंगतियों से गुजर कर भी उनसे तटस्थ होने की बौद्धिक क्षमता (बौद्धिक विरक्ति नहीं) विद्यमान है. और जहां इसकी कमी दीखती है, वहां भी एक विद्रूप वेदना अवश्य है. 'लंदन की एक रात' एक ऐसी ही सष्टि है.
यहां सवाल सिर्फ वास्तविकता का नहीं है, न उसके बदलते संदर्भों तक ही वह सीमित है, बल्कि रचनाकार के उस रुख का है, जो वास्तविकता के प्रति वह अख्तियार करता है, अथवा जिसके प्रकाश में वह वास्तविकता के प्रमुख सूत्रों को, उसके बीच से उभरती सच्चाइयों को ग्रहण करता है. और यह बात केवल कहानियों के संबंध में ही नहीं, किसी भी कलाकति के संबंध में कहीं जा सकती है. रचनाकार का यह रुख ही (जो उसकी रचनादष्टि का आवश्यक अंग होता है, बल्कि उसी से वह निर्धारित भी होता है) उसकी संपूर्ण रचना-दिशा को प्रभावित करता है. बल्कि यह कह सकते हैं, कि कहानी के अंत में यही उसका मूल स्वर बनकर ध्वनित होता है. 'नयी कहानियां' के पिछले परिसंवाद में प्रकारांतर से नामवर जी ने इसी तथ्य पर बल दिया है. इसी बिंदु पर उन्होंने कहानी की आधुनिकता अथवा उसके नयेपन को अलग किया है. यद्यपि इस प्रयत्न में भ्रम के लिये भी कुछ गुंजाइश रही है. जिस 'तल्खी लिये तटस्थता' को उन्होंने कहानी की
आधुनिकता अथवा नयेपन से जोड़ा है, नया जीवन-बोध वहीं तक सीमित नहीं है. इसके साथ रचनाकार का रागात्मक रुख भी अपेक्षित है. तभी 'तल्खी लिये तटस्थता' भी सार्थक है. इसके बावजूद इस तथ्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है, कि वास्तविकता के सही ट्रीटमेंट को, उसकी आधुनिकता तथा नयेपन को रचनाकार के दष्टिकोण से जोड़कर तथा उस पर बल दे कर नामवर जी ने हिंदी कहानी को एक बौद्धिक दिशा और कलात्मक परिणति दी है.
'60 के बाद की हिंदी-कहानी में रचनाकार का रुख
अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. यही कारण है, कि उसमें अतिरिक्त सजगता मात्र कलात्मक स्तर पर नहीं व्यक्त हुई है. वास्तविकता को ही ट्रीट करने का यह आवश्यक परिणाम हो सकता है. इस बीच वास्तविकता के भी नये शेड्स उभरे हैं, जो आजादी के शीघ्र बाद की या उसके निर्माण-स्वप्नों के साथ व्यक्त हुई, उन संभावनाओं से पर्याप्त भिन्न हैं, जिनकी मरीचिका पिछले दशक के अंत तक समाप्त हो जाती है. ग्राम तथा शहर के सामाजिक, आर्थिक जीवन में कहीं कोई बुनियादी फर्क नहीं आता. फर्क आता है वास्तविकता के प्रति रचनाकार के उस आलोचनात्मक रुख में, जिनकी शुरुआत मार्कण्डेय की परवर्ती रचनाओं में ही हो जाती है, 'भूदान' की कहानियों के उस व्यंग-परक ट्रीटमेंट में, जिसके कारण क्षेत्रीय प्रसंग व्यापक जीवन-स्थिति से पुनः आ जुड़ते हैं. फर्क आया है कभी के जमींदार बाबू राजा सिंह की इस विद्रूप परिणति के हास्यपरक नियोजन में.
'...मेरी आंखों में बाबू राजा सिंह की वह नाक तैर गयी, जिसे वे बार-बार कपड़े से ढंकने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन कम्बख्त लहू था कि टपका आता थाटप् टप् टप्.' (जोतसी ने कहा था, काशीनाथ सिंह) गांव के किसी दूसरे छोर पर एक आदिम औत्सुक्य तथा स्नेह के साथ अवैध संतान के वयस्क होने की उत्कट प्रतीक्षा करना नीलकांत का 'दूसरा आदमी' भी कहीं-न-कहीं से भिन्न अवश्य पड़ गया है. वह भिन्नता जो परिवेश के निरंतर परिवर्तित होने तक ही सीमित न होकर रचनाकार की दष्टि तथा उसके आलोचनात्मक रुख से जुड़ती है, 60 के बाद की ग्राम-जीवन पर आधारित कहानियों की, यद्यपि वे संख्या में बहुत ही कम हैं, केंद्रीय विशेषता है. उनमें कहीं वह रूमानी आर्द्रता नहीं है, जो शिवप्रसाद सिंह, केशव प्रसाद मिश्र तथा लक्ष्मीनारायण लाल आदि की रचनाओं में व्यक्त हुई है. प्रसंग-भार से अधिक उनमें आंतरिक तनाव की रेखायें हैं, जिसमें रचनाकार का संपूर्ण व्यक्तित्व समाहित दीखता है.
नये रचनाकार की प्रक्रिया वस्तुतः उस आलोचनात्मक स्तर पर तटस्थ होने की नहीं है, जिसका आभास कभी-कभी अमरकांत की कहानियों में मिलता है. उनकी अधिकांश कहानियां अपनी संपूर्ण कलात्मक विशेषता के बावजूद कहीं-न-कहीं से रिक्त हैं. वह बहुत-कुछ रागात्मक स्तर के अनभिव्यक्त रह जाने अथवा सूक्ष्म स्तर पर ध्वनित होने के कारण है. इसके बावजूद उनकी रचनाओं में पर्सपेक्टिव इतना साफ रहता है, कि लेखकीय स्थिति को लेकर कहीं से भ्रांति नहीं होती. असफलता और अंधकार के घिराव को अपनी संपूर्ण चेतना के साथ महसूस करते हुए, नये जीवन मूल्यों का संकेत, वास्तविकता की खोज और उपलब्धि के स्वप्न नये लेखकों में पूरी तीव्रता के साथ इसराइल ने व्यक्त किये हैं. आलोचनात्मक स्तर पर अपेक्षित तटस्थता बरतते हुए भी काशीनाथ सिंह की कहानियां, विशेषतया 'सूख' और 'चाय घर में मत्यु' भी अधिक समग्र हैं. अवश्य ही इसके मूल में एक सुनिश्चित दष्टिकोण की सक्रियता है, और वह दष्टिकोण ओढ़ी हुई समस्याओं के निषेध का है.
नयी संवेदना को भी दो स्तरों पर विभक्त किया जा सकता है, और यह विभक्तता आज की कहानी चर्चा में अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक भी हैवास्तविक जीवन-स्थितियों से कट कर, सैद्धांतिक वास्तविकता को संवेदन का आधार बनाकर लिखी जाने वाली कहानियों की दष्टि से और भी, जिनमें नये जीवन-बोध के बदले उसका छद्मवेशी स्वरूप ही अधिक व्यक्त हुआ है.
सैद्धान्तिक वास्तविकता को आधार बनाकर लिखी जाने वाली रचनायें, कवितायें और कहानियां आजादी के बाद या उसके पहले हिंदी में आयी हैं. बाह्य जीवन के अनुभवों से अथवा परिवर्तित वास्तविकता से इनका सामंजस्य न होने के कारण वे अमूर्त्त ही बनी रही. उनकी दुरूहता तथा अग्राह्यता का कारण भी संभवतः यही है, वैयक्तिक सम्मूर्त्तनों तथा प्रतीकों से कहीं अधिक. अंत-श्चेतनावाद अथवा अस्तित्ववाद के नाम पर, उनके सैद्धान्तिक सूत्रों द्वारा वास्तविकता के एक नये धरातल को कल्पना करते हुए अब तक जो कुछ लिखा गया है, इसीलिये इतना अधिक अमूर्त्त और अवास्तविक है, चूंकि उसमें सामान्य पाठक के अनुभव की कोई वस्तु नहीं है. निर्मल वर्मा की रचना 'पराये शहर में' की वास्तविकता धारणात्मक नहीं तो, और क्या है? 50 के आस-पास मनोविश्लेषण के निष्कर्षों को आधार बनाकर कुछ ऐसी ही कहानियां लिखी गयी थीं. वास्तविकता का दूसरा छद्मवेशी स्वरूप वह है, जो सूचनाओं के माध्यम से रचनाकार को प्राप्त है, विशेषतया साहित्यिक सूचनाओं के माध्यम से. किसी एक ही थीम को लेकर यत्किंचित परिवर्तनों के साथ उसे रचना का रूप देना हिंदी कहानियों में इधर अकसर देखा गया है. 'अकेलेपन' की समस्या को लेकर जो कुछ जितने प्रकार से लिखा गया है, उससे हम परिचित हैं. वही बात आत्म-हत्या, मत्यु, व्यक्ति के व्यापक आंतरिक हॉरर को लेकर भी कही जा सकती है. नये लेखकों की यह एक बहुत बड़ी सीमा है, जिसमें अनुभव की वास्तविकता न होकर, उसका सूचना-धर्मी परिवेश ही प्रकाशित हुआ है. वास्तविक जीवन-स्थितियों की तरह इसीलिये वह अधिक तीव्र और सार्थक नहीं है. मार्कण्डेय के शब्दों में कहें, तो 'सूचना-धर्मी परिवेश में यह वास्तविकताओं की बुझौबल' है. राजेन्द्र यादव पर लिखते हुए उन्होंने यह बात उठायी है इससे कुछ भिन्न संदर्भ में. लेकिन बात यहां भी वही है, कि 'लेखक पात्रों को जिंदगी के भीतर से जानता है, और उनका सहभोक्ता है, या उसकी जानकारी सूचनाओं पर आधारित हैसैद्धान्तिक सूचनाओं से लेकर साहित्यिक सूचनाओं तक. स्वयं में यह एकासशीलता है, जिसकी क्षति-पूर्ति की जाती है सूचना-धर्मी परिवेश के विस्तार अथवा अतिरेक द्वारा 'छोटे-छोटे ताजमहल' की भीड़ लगाकर या भावुकता, निषेध, तटस्थता, अकेलेपन आदि के जितने संभावित प्रसंग हो सकते हैं, इनसे जितने प्रकार की कत्रिम, कल्पित स्थितियां निर्मित हो सकती हैं, सब के प्रयोग द्वारा.
प्रयोग के ही स्तर पर इधर अ-कहानी (anti-story) के पैटर्न की भी कुछ रचनायें आयी हैं. सिर्फ प्रयोग के ही स्तर पर. यूरोप में वास्तविकता के विशिष्ट नियोजन की दष्टि से इसके साथ जो सार्थकता व्यक्त हुई है, हिंदी में उसे ग्रहण नहीं किया जा सका है. इधर की कहानी-विषयक चर्चा में अ-कहानी की जो व्याख्या हुई है (द्रष्टव्य, 'कहानीनववर्षांक' 64, क ख ग - 5) वह बहुत ही भ्रामक और सामान्य है. अ-कहानी का अर्थ उनके अनुसार है व्यंजना-मूलक, अर्थात् दुहरी, तिहरी, अन्तर्कथाओं से युक्त कहानी, और इस क्रम में कतिपय ऐसी कहानियों को उदाहृत किया गया है, जिनमें सतही कथा के समानांतर किसी-न-किसी भाव-कथा अथवा विचार-कथा या दोनों का प्रवाह है. इस व्याख्या के आधार पर आज की अधिकांश थीमेटिक कहानियों का समाहार अ-कहानी के अंतर्गत किया गया है, और अधिकांश कहानीकार अ-कहानीकार हैंश्रीकांत वर्मा से लेकर प्रयाग शुक्ल, प्रबोध कुमार, रवीन्द्र कालिया, परेश और दूधनाथ सिंह तक. जब कि वास्तविकता यह है, कि इनमें से अधिकांश की रचनायें अ-कहानी के तत्वों से अपरिचित हैं. नये कहानीकार रवीन्द्र कालिया ने सायास अपनी रचनाओं के अ-कहानी होने का दावा किया हैअक्टूबर के 'ज्ञानोदय' में इसी नाम से उनकी एक कहानी भी आयी हैउसमें किसी भी पूर्व-निर्धारित प्रसंग अथवा ऐसी घटनाओं की जो समसामयिक संबंध-सूत्रों से विकसित कही जा सकती है, योजना नहीं है. बल्कि यत्नपूर्वक उनका निषेध किया गया है. इसके बावजूद, उसमें अ-कहानी की उस प्रक्रिया का अभाव है, जो वास्तविकता का निषेध करते हुए उसके सूक्ष्य तंतुओं से नयी वास्तविकता के स्वतः उभरने अथवा विकसित होने का संकेत देती है. उनकी 'नौ साल छोटी पत्नी' भी, जिसे इस कारण अ-कहानी माना गया है, 'चूंकि पति संदेह के आक्रामक रूप में स्थिर नहीं होता' वस्तुतः अ-कहानी के बदले डिटेक्टिव किस्म की कहानी बन गयी है, और अंत में सारी स्थिति बड़े ही भोंडे ढंग से घटना का रूप धारण कर लेती है. रवीन्द्र कालिया की यह बहुत बड़ी सीमा है कि उनमें उस रचना-दष्टि का अभाव है, जिसने पश्चिम के अ-कहानी आंदोलन को विकसित किया है. पश्चिम में अ-कहानी का आंदोलन टेकनीक से अधिक वस्तुतत्व की सर्वथा नूतन धारणा का परिणाम है, जो पूर्व-निर्धारित प्रसंगों तथा घटनाओं का
निषेध करते हुए, खोयी हुई वास्तविकता के मूलभूत उपकरणों तथा तंतुओं से स्वतः विकसित नयी वास्तविकता को अपनी रचनाओं में उपलब्ध करने का प्रयत्न करता है. इस प्रयत्न में कहानी का वस्तुतत्व (अथवा थीम) सर्वथा नये संबंध स्तरों पर स्वतः प्रकाशित होने की क्षमता रखता है. अ-कहानी की इस प्रक्रिया को पश्चिमी देशों में विकसित 'साइबरनेटिक्स' अथवा स्वतः-निर्धारित गति नियमों से संबंध माना गया है. काफ्का, नथालिआ, सरात आदि की रचना-शैली में यह स्वतः विकास स्पष्ट रूप से लक्षित होता है, जिसकी प्रक्रिया एक साथ उभय स्तरों पर व्यक्त होती है-वास्तविकता के निषेध के साथ नयी वास्तविकता के निर्माण पर भी. हिंदी के नये कहानीकारों में या विशेषतया एक खास हद तक (और वह भी अ-कहानी की सीमा में नहीं) प्रबोध की कहानियों में लक्षित होती है. एक सर्वथा नये सिचुएशन को जो प्रसंगों के पूर्ववर्ती संबंध स्तरों पर कहीं से विभक्त नहीं किया जा सकता, रचने की प्रबोध में असाधारण क्षमता है. महेन्द्र भल्ला ने भी ऐसे प्रयोग किये हैं. लेकिन उनकी रचनायें शीघ्र ही एक कत्रिम तनाव से गुजरने लगती हैं, जो संभवतः लेखकीय जड़ता (आयाम बढ़ जाने से) के कारण है. परिणामतः उनकी रचनाओं में स्थितियां ही नहीं टूटती, भाषा भी बार-बार टूटती है. इसके अतिरिक्त उनकी रचनाओं में उस पर्सपेक्टिव का अभाव है, जो रचना की संपूर्ण दिशा को, उसकी वस्तु और प्रक्रिया को भी एक साथ प्रभावित करता है. '60 के बाद काशीनाथ सिंह, इसराइल, नीलकांत, अवधनारायण सिंह, मधुकर सिंह, रमाकांत आदि की प्रतिनिधि रचनाओं में उनकी पथक उपलब्धियों के साथ इस पर्सपेक्टिव को अथवा रचना-दिशा को ही देखा जा सकता है, जिनमें बदलते संदर्भों के प्रति असाधारण जागरूकता है, और सामाजिक असंगतियों के प्रति सही आलोचनात्मक रुख.'
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