शोध आलेख पुराख्यान तथा मिथकीय काव्यभूमि - ‘‘कनुप्रिया’’ डॉ . सीमा शाहजी क वि धर्मवीर भारती ने पुराख्यान तथा मिथकों पर आधारित सशक्त क...
शोध आलेख
पुराख्यान तथा मिथकीय काव्यभूमि - ‘‘कनुप्रिया’’
डॉ. सीमा शाहजी
कवि धर्मवीर भारती ने पुराख्यान तथा मिथकों पर आधारित सशक्त कविताएं और काव्य प्रबंध लिखे हैं. उन्होंने पुराख्यानों और मिथकों पर जहां बहुत ही सामयिक यथार्थ और युगोचित रूप में प्रयोग किया है, वहीं उसके कोमल रूप को भी दर्शाया है. कवि ने कृष्ण काव्य परम्परा का निर्वाह करते हुए ‘‘कनुप्रिया’’ के माध्यम से युगीन संदर्भों का विश्लेषण प्रस्तुत किया है. परम्परित राधा कृष्ण की जोड़ी को, उनकी प्रणय गाथा, राधा के प्रणव भाव को इस कृति का आधार बनाया है. मिथकीय कथा वस्तु में नायिका की सम्वेदन भरी बेचैनी और छटपटाहट है. कथा के सूत्र तो पुराख्यान के हैं, परन्तु अपनी निजी मिथकीय काव्य सृष्टि पर
राधा को रूपायित किया है.
‘‘कनुप्रिया की कविता अधिकतर अप्रकट या ओट में छिपी हुई पौराणिक गाथा ही है, यद्यपि उसका प्रभाव अधिकतर विशिष्ट अर्थदीप्ति के साथ अप्रतिहत है, पर प्रत्यक्ष रूप से वह बिम्बों प्रतीकों और स्मृति प्रसंगों की कविता है.’’
जैसा कि स्पष्ट है राधा का उल्लेख भागवत पुराण में आया है इसके पश्चात सुर ने भी राधा को अपने काव्य का आधार बनाया. इसके पहले जयदेव ने अपने काव्य में राधा को स्थान दिया था. रीतिकाल में राधा का अलग ही प्रेमिका के रूप में वर्णन मिलता है. कनुप्रिया राधा के प्रणयील भावों के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयत्न है. इसमें कवि ने क्षणवादी धारणाओं को नवीन भावभूमि में प्रतिष्ठित किया है. भारतीजी के अनुसार ‘‘ऐसे भी क्षण होते हैं जब हमें लगता है कि यह सब जो उद्धेग है. महत्व उसका है जो हमारे अन्दर साक्षात होता है- चरम तन्मयता का क्षण जो एक स्तर पर सारे बाह्य इतिहास की प्रक्रिया से ज्यादा मूल्यवान सिद्ध हुआ है. जो क्षण हमें सीपी की तरह खोल गया है, इस तरह कि समस्त बाह्य अतीत, वर्तमान और भविष्य सिमटकर उस क्षण में पुंजीभूत हो गया है और हम, हम नही रहे...’’(2)
कवि भारती ने राधा के परम्परित रूप के साथ साथ उसे आधुनिक नारी के रूप में भी चित्रित किया है. ये वैष्णव परकीया भी है. काम कलाओं में निपुण राधा नागरी भी है. सृजन संगिनी भी है. कृष्ण के सारे संकल्प राधा से जुड़कर ही सार्थकता पा सकते हैं अन्यथा नहीं. वे राधा के चरित्र को बड़ी सहजता और भावुकता से हमारे सामने रखते हैं.
‘‘कि मैं बावली लड़की हूं न
जो पानी भरने जाती है
तो भरे हुए घड़े में
अपनी चंचल आंखों की छाया देखकर
उन्हें कुलेल करती हुई चटुल मछलियां समझकर
बार बार पानी ढुलका देती है.’’(3)
राधा की इस मुद्रा का चित्रात्मक वर्णन हमें कवि नन्ददास के साहित्य में पहले भी मिलता है. वह कृष्ण प्रेम में बावली हो गयी है. बाजार में, गलियों में श्याम-श्याम पुकारती घूमती है. कवि नन्ददास की पंक्तियां कुछ यूं कहती हैं.
‘‘बड़ी बेर बीती जबै, तब सुधि आई नैक स्याम! स्याम! करिबे लगी एक ही बार जु द्वेव बदती ज्यों बावरी....’’(4)
कभी राधा के आंचल में कृष्ण दुबक गए हैं या कभी कृष्ण के अंक में आधा छिपी हुई है, दोनों को एक रूप माना गया है अतः कनुप्रिया का यह कहना काफी सहज लगता है कि-
‘‘तुम छोटे से शिशु हो
असहाय/वर्षा में भीग भीग कर
मेरे आंचल में दुबके हुए’’ (5)
कल्पना संयोजन, काव्यभूमि का भाव राधा के चरित्र को मिथकीय फलक पर उदघाटित करते हुए विभिन्न आयामों के साथ चित्रित हुए हैं. कवि भारती ने कृष्ण को भी एक सम्पूर्ण चरित्र के रूप में प्रतुत किया है वह सभी गुणों से युक्त है. उन्हें पुराणों में ‘‘सोलह कला सम्पूर्ण’’ कहा गया है. वे राजा है...गोपाल है...योगी है...भोगी है...कामी है...संयमी है...सहज है...चतुर भी. एक ओर तो बाल लीला का मुग्ध रूप है तो दूसरी और गीता का
धर्म उपदेशक रूप भी.
कनुप्रिया पुराकथा की दृष्टि और मूल्यान्धता से भिन्न और अंधायुग की प्राश्निक समस्या के परिणाम से भिन्न उस बिंदु से प्रारम्भ की कथा है जिसमें समस्याओं का निदान नहीं, बल्कि प्रश्नों का सिलसिला है. कनुप्रिया को अंधायुग की पूरक कृति के रूप में देखा जा सकता है.
‘‘कनुप्रिया में नर नारी के सम्बन्ध, पुरुष और प्रकृति के
सम्बन्ध, कवि और कविता के सम्बन्ध प्रेम और समाज के सम्बन्ध इन सभी समस्याओं का भावात्मक संश्लेषण प्रस्तुत किया गया है.
कनुप्रिया में हमें दो केन्द्र बिंदु मिलते है...‘‘क्षण और सहज’’. कनुप्रिया कृष्ण की प्रिया है. उसमें शौर्य सुलभ मनःस्थितियां विद्यमान हैं. जो विवेक से अधिक तन्मयता, इतिहास की उपलब्धियों से
अधिक सहज जीवन में सार्थकता पाती है...(6)
कनुप्रिया में राधा का मुखौटा जड़ नहीं ह,ै गतिशील है. शुरू से अंत तक कवि ने राधा को अपना स्वर दिया है. ‘‘पूर्व राग’’ के पांचों गीत कवि की विषयगत सम्वेदना को प्रकट करते हैं. प्रतीक्षारत छायादार अशोक वृक्ष जो कनुप्रिया की प्रतीक्षा में कई जन्मों से पुष्पहीन खड़े हैं. राधा के असीम सौन्दर्य, नारी सुलभ लज्जा एवं पुलक का सूक्ष्म चित्र हुआ है. कनु का प्रेम आत्मा का प्रेम है, समर्पण का प्रेम है. इन गीतों में राधा के प्रेम की सुन्दर अभिव्यक्ति है. राधा के प्रेम में निश्छल भावनाओं की स्थिति है. प्रकृति के कण कण में कनु की छवि देखना, यमुना में नहाते समय कृष्ण को निहारना, गृहकार्य से अलसाकर कदम्ब की छांह में शिथिल अनमनी पड़ी रहना- जैसे अनेक भाव प्रेषण चित्रण इन गीतों में झिलमिलाए हैं. ‘‘मंजरी परिणय’’ में वह अतीत की मनःस्थितियों के द्वारा कवि के रोमानी भावबोध को हमारे सामने रखती है. प्रश्नाकुलता और निजता के द्वंद कृति के शुरू में कही गई भूमिका की याद दिलाते हैं. ‘‘सृष्टि-संकल्प’’ में आकर कवि सीधे तौर पर अपनी दृष्टि को प्रकट करता है. राधा का मानसिक उद्वेलन वस्तुतः कवि का ही द्वंद है. ‘‘इतिहास खण्ड’’ में फैंटेसी का प्रयोग हुआ है. वर्तमान को समझने के लिए वह स्थितियों को निजी राग द्वेष के साथ व्यक्त करती है. कनु की प्रिया जिसके हृदय में प्रतिक्षण कनु ही व्याप्त रहता है, ऐसी कनुप्रिया सम्पूर्ण रचना में छाई हुई है.
कवि भारती की राधा को कभी कनु अपना अन्तरंग सखा लगता है तो कभी रक्षक, कभी लीला बन्धु कभी आराध्य और कभी लक्ष्य. ऐसा प्रतीत होता है कि सरिता के समान उमड़ घुमड़ कर प्रिय सांवले समुद्र के पास आई उसने धारण भी किया, फिर भी सदा अबूझे से बने रहे .
‘‘विलीन कर लिया
फिर भी आकुल बने रहे
मेरे सांवले समुन्द्र तुम
आखिर मेरे हो कौन ?’’(7)
‘‘हाथ मुझी पर रख मेरी बाहों से
इतिहास तुम्हें ले गया...’’(8)
राधा का नारी सुलभ अभिव्यक्ति भाव भरा अभिव्यंजना का वर्णन अपनी सम्पूर्ण गरिमा, समग्रता, प्रेम निष्ठा के साथ गेयता की लयबद्धता के साथ प्रस्तुत हुआ है. भारती जी ने कनुप्रिया को पुराख्यान का आधार मानकर लिखा है. लेकिन पुराख्यान का इसमें इतना ही योग है कि राधा को भागवतपुराण से ग्रहण किया है. उसके बाद उसके वर्णन में कल्पना और मिथक का सहारा लेकर पूरी कथा को नये संदर्भों, नए आयामों से मंडित किया है. पूरी कथा राधा के आधार पर चलती है, परन्तु वह प्रश्नों के माध्यम से आधुनिक नारी की मानसिकता को अभिव्यंजित करती है. अस्तित्व की समस्या, युद्ध की समस्या को मानवीकरण के रूप में उठाया है.
कृष्ण (कनु)
भारती जी ने कृष्ण (कनु) का व्यक्तित्व युग पुरुष के रूप में स्थापित किया है. कनु अपने युग का सचेत व्यक्ति है जो एक ओर तो अपने जीवन के राग विरागों के प्रति भी उन्मुख और ईमानदार है दूसरी ओर युगधारा के वेग से भी अंसपृक्त नहीं है...(9)
कनुप्रिया में कृष्ण के दो रूप हमारे सामने उभरते हैं- पहला रूप चिरन्तन प्रेमी के रूप में जो अडिग, निर्लिप्त, वीतराग और निश्चल प्रतीत होता है, दूसरा रूप उनका लीला भूमि छोड़कर युद्धभूमि में उतरना है.
कृष्ण का प्रेम अद्भत है, जों वासनाओं से परे लोकोत्तर आदर्शो पर टिका है-
‘‘सुनो ! तुम्हारे अधर,
तुम्हारी पलकें
तुम्हारी बाहें
तुम्हारे चरण
तुम्हारे अंग प्रत्यंग
तुम्हारी सारी चंपकवर्णी देह
मात्र पगडंडिया हैं,
जो चरम साक्षात्कार के क्षणों में
रहती ही नहीं रीत-रीत जाती है.’’(10)
यही राधा और कनु का विशिष्ट नाता है और कवि की अद्भुत सृष्टि पाठक को चमत्कृत करती है.
कृष्ण का राधा के पांवों में महावर सजाना, उसकी क्वांरी उजली मांग को आम्रबीर से भरना उसके अलौकिक भाव, मन को छू लेते हैु.
‘‘यह सारे संसार से पृथक पद्धति का
जो तुम्हारा प्यार है न
इसकी भाषा समझ पाना क्या इतना सरल है.’’(11)
कृष्ण को कवि ने आधुनिक मानव के रूप में प्रतिष्ठित किया है, जिसे वर्तमान जगत में युद्ध संघर्ष से व्याप्त विषमताओं से जूझना पड़ता है. कृष्ण के युद्धरत चरित्र को समझने में राधा अपने को असमर्थ पाती है.
कनु का धर्मोपदेश रूप जिसमें कर्म- स्वकर्म-न्याय-अन्याय-
धर्म-अधर्म सम्बन्धी अपने निर्णय की घोषणा करना चाहते हैं. कृष्ण ने इतिहास की निर्मित चिंता में राधा को भुला दिया प्रेम के कोमलतम क्षणों को राष्ट्र के निर्माण में लगा दिया, राधा के शब्दों में-
‘‘कौन था वह
जिसके चरम साक्षात्कार का एक गहरा क्षण
सारे इतिहास से बड़ा था, सशक्त था.’’(12)
भारतीजी की कनुप्रिया के दोनों पात्र- कनु और कनुप्रिया अभी तक के कृष्ण काव्य परम्परा में चित्रित राधा कृष्ण से अलग हैं. वे अपनी प्रेम विह्वलता के साथ साथ युगांतकारी जीवन मूल्यों की रक्षा करने में समर्थ सिद्ध होते हैं.
राधा के मिथक पर आधारित भारतीजी की इस कृति में मिथकीय काव्यभूमि राधा की वैयक्तिक पीड़ा का भाव बोध कराती है. पुराख्यान के माध्यम से नवीन तथ्यों और युगोचितता को सफल रूप में प्रस्तुत करती है.
कनुप्रिया के विषय में डॉ. रामजी तिवारी लिखते है ‘‘राधा कृष्ण के प्रेमपूर्ण भाव संवेदन’’ के माध्यम से स्त्री पुरुष सम्बन्धों को आधुनिकता के धरातल पर आंकलित करने के साथ प्रकृति और पुरुष के सनातन सम्बन्धों का भी संकेत किया है...युद्ध के कुशल संचालक गीताज्ञान के व्याख्याता, योगेश्वर कृष्ण आत्यन्तिक रूप से हताश होकर राधा के कंधे का सहारा लेते हैं. युद्ध किसी समस्या का समाधान नही है. इस शाश्वत सत्य से भारती हमें साक्षात्कार कराते हैं. आज के मानसिक संत्रास, विक्षोभ, विद्रूप और बिखराव के समाधान के लिए युद्ध नहीं, प्रेम का आश्रय चाहिए. राधा मानवीयता की संजीवनी, शक्ति की प्रतीक रूप में चित्रित की गई है, जो आज विकृत सम्बन्धों के लिए विश्वसनीय समाधान प्रस्तुत करती है.
कवि ने कनुप्रिया में पुराख्यान को आधार बना कर मिथक के बिम्बों की हीर कनियों को इस तरह जड़ कर आभायित किया है कि वे अपनी चमक से चमत्कृत तो करते ही हैं, साथ ही भारतीजी को अपनी काव्य कृति कनुप्रिया में भावनाओं संवेदनाओं को आत्मीय तादात्म्य से पाठक के अंतस में अंकित कर...एक नया अध्याय रचकर...मानवीय संसार के लिए चिन्तन की भावभूमि का ठोस धरातल सृजित कर लेते हैं.
सन्दर्भ ग्रन्थः
1. नयी कविता और पौराणिक गाथा- डॉ. रामस्वार्थ सिंह, पृष्ठ 141,
2. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, भूमिका से
3. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 28,
4. हिंदी साहित्य में राधा- श्री भारती, पृष्ठ 326
5. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 35
6. डॉ. लक्ष्मणदत्त गौतम (सम्पा.) डॉ. रमेश कुंतल मेघ- धर्मवीर भारती का लेख, पृष्ठ 188
7. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 40
8. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 60
9. नयी कविता की नाट्यमुखी भूमिका- डॉ. हुकमचंद- राजपाल, पृष्ठ 179
10. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 29
11. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 33
12. कनुप्रिया- धर्मवीर भारती, पृष्ठ 62
सम्पर्कः 325 महात्मा गांधी मार्ग, थांदला
जिला-झाबुआ (म.प्र.)
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