रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 नीरज खरे जादू , यथार्थ और कहानी हिंदी कहानी में जादुई यथार्थवाद की चर्चा अब भी नई मानी जाती है...
रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
नीरज खरे
जादू , यथार्थ और कहानी
हिंदी कहानी में जादुई यथार्थवाद की चर्चा अब भी नई मानी जाती है। यद्यपि इसकी सर्वप्रथम चर्चा आलोचक चंचल चौहान ने कहानीकार पंकज बिष्ट और उदय प्रकाश की कुछ कहानियों को लेकर कोई ढाई दशक से भी पहले आरंभ की थी। वैसे तो जादुई यथार्थवाद का संबंध दक्षिणी अमेरिका के देशों से है। लातीनी अमेरिकी देशों में जादुई यथार्थवाद के उद्भव और विकास का अपना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य रहा है। वहाँ 1950 के बाद कथा साहित्य में यह एक आंदोलन की तरह उभरा। हिंदी कथा साहित्य में जादुई यथार्थवाद की चर्चा कम होना आश्चर्यजनक है। जबकि जादुई यथार्थवाद की जन्मभूमि दक्षिणी अमेरिका की जमीनी विरासत और परिस्थितियाँ भारत से काफी मिलती जुलती हैं। पर इस ओर रचनाकारों का ध्यान उतना नहीं गया। बल्कि, जब कहानियों में इन प्रवृत्तियों का प्रयोग हुआ तो आरोपों से उन्हें हतोत्साहित किया गया। यह ठीक है कि यथार्थ कहानी की प्राण-चेतना है। बिना इसके कहानी निष्प्राण हो जाएगी। कहानी ही नहीं, यथार्थ किसी भी कला का ज़रूरी घटक है। पर कोरा यथार्थ या नग्न यथार्थ, कहानी के कहानीपन की क्षति करके आता है, तो उसके आने पर एक बार विचार होना चाहिए। समय या देशकाल का यथार्थ सामने रखकर रचना के यथार्थ को परखने की बहुप्रचलित पद्धति की समस्या यही है कि हम यथार्थ को सिर्फ कुछ मानकों के नजरिए से देखने के अभ्यस्त हैं। जबकि कहानी की उत्पत्ति इस अभ्यास के विरु( ही हुई है। भले ही जादुई यथार्थ की अवधारणा का आरंभ कहानी के सफर में काफी बाद ;नौवें दशक के आरंभद्ध में हुआ हो। पर इसकी जडें ‘कथा’ की मूल प्रकृति से गहरे जुड़ी हैं।
कहानी की मूल प्रकृति श्रुति-स्मृति परंपरा में मौखिक रही है। तब कहानी के लिए यथार्थ पहाड़ जैसा सवाल नहीं था। मिथक, आख्यायिका, गल्प, रूप, निजंधरी-कथा और लोक कथा के आभासी देशकाल के बीच जीवन मूल्य की अभिव्यक्ति ही उसका
यथार्थ था। कहानी की निष्पत्ति जितनी महत्त्वपूर्ण थी, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण था कि कहानी में वह निष्पत्ति होती कैसे है? यही कहानी की खूबी थी, जिसे चमत्कारिता, कौतूहल, रोचकता, औत्सुक्य और कभी अलौकिक भी कहा गया। अतिरंजना और अतिलौकिकता या अद्भुत कल्पना से ही कहानी, कहानी बनती थी। ‘बल’ से बड़ी ‘बुद्धि’ होती है-यह कहने में खरगोश और सिंह के रूपकों में ढली कहानी अधिक आकर्षित करती है, न कि सिर्फ उसकी दी गई सीख! आशय यह कि कहानी के भीतर उसकी निहित बनावट में कोई न कोई असाधारण या असामान्य आयाम ही कहानी होने को चरितार्थ करते हैं। इन आयामों को सुविधा के लिए कहानी का ‘जादूपन’ भी कहा जा सकता है। भारत का प्राचीन कथा साहित्य, लोक-कथा और आख्यानों की वाचिक परंपरा में ‘कहद्रनी का जादूपन’ भरा पड़ा है। यही विरासत आधुनिक हिंदी कहानी की पृष्ठभूमि है। इस विरासत को जब पश्चिमी कहानी के रूप-विन्यास और कला का प्रभाव मिला, तो कहानी सृजन की नवीन आधुनिक विधा के रूप में प्रस्फुटित हुई। आधुनिक होने के क्रम में कहानी की सारी जद्दोजहद अपने देशकाल को जानने-पहचानने के बीच कहानी के जादूपन को बचाए रखने में रही। कहानी की विरासत में यथार्थेतर संसार इस तरह यथार्थ में उद्घाटित होता था कि वह कहीं अलग से लाया गया प्रतीत नहीं होता था। हिंदी कहानी ने अपनी इस विरासत से काफी कुछ संजोया। पर कहानी ने जब अपने वाचिक संसार को छोड़ यानी ‘कहने’ और ‘सनुने’ को छोड़ मुद्रित पाठ यानी ‘लिखने’ और ‘पढ़ने’ में रूपांतरित किया, तभी कहानी लौकिक सच्चाइयों को अर्जित करने में तत्पर होती गई।
इस प्रक्रिया में कहानी मिथकों, पौराणिक संदर्भों, दंत कथाओं में रची-बसी तर्कातीत, अतिप्राकृत, अतिरंजित और उपदेश-शिक्षा की सामुदायिक-जातीय स्मृतियों और धारणाओं से मुक्त होती गई। आधुनिकीकरण की प्रक्रिया के चलते देशकाल में फैले यथार्थ और यथार्थ के विभिन्न रूपों के उद्भासित होने के संदर्भों का यहाँ विस्तार करना आवश्यक नहीं है। कहानी विधा के आगे आधुनिक युग के निरंतर बहुरूपी होते देशकाल को समझने और अपने ढाँचे में समो लेने की चुनौती थी। आधुनिक हिंदी कहानी ने अपने प्रादुर्भाव और यात्रा के अगले मुकामों पर अपनी शक्ति ‘यथार्थ’ को आयत्त करने में खपा दी। जाहिर है अन्य विधाओं की तरह कहानी के भी आधुनिक होने के यही मापदंड थे। निःसंदेह यही होना भी चाहिए। जीवन, समाज और समय की सच्चाइयों के बिना कोई भी साहित्यिक विधा आगे बढ़ भी कैसे सकती है? यह गुणात्मक परिवर्तन अपनी विरासत से बहुत कुछ जान- सीख कर कहानी में प्रेमचंद ने घटित किया। अकारण नहीं कि वे कहानी में यथार्थवादी-समाजोन्मुख कथा-धारा के मानक कथाकार हैं। उन्होंने भारतीय कहानी की विरासत को अपने सरोकारों की अभिव्यक्ति के लिए वस्तुतः आधुनिक बनाया। उनकी सामाजिक पक्षधरता, वैचारिकता और कथा-दृष्टि के चलते आलोचकों ने उनके कथा साहित्य को यूरोपीय यथार्थवादी पद्धति के निकट माना है। कहानी को मुकम्मल राह पर ले आना उनका ऐतिहासिक योगदान है। पर यह भी देखना चाहिए कि अनके यथार्थवादी-आदर्शवादी नजरिए की कहानियाँ लिखते हुए, वे कहानी में ‘अनहोनेपन’ को महत्त्वपूर्ण मानते थे। यह ‘अनहोनापन’ उनकी अतिप्रसिद्ध ‘कफन’ और ‘पूस की रात’ जैसी यथार्थवादी कही जाने वाली कहानियों में भी है। प्रेमचंद के विपुल कहानी-संसार में ही ‘दो बैलों की कथा’ ‘मूठ’ ‘मंत्र’ और ‘नागपूजा’ जैसी कहानियाँ भी हैं। इनमें रूपक, जादू-टोना, झाड़-फूंक या ऐसे मत-मान्यताओं का जिक्र आया है। हालांकि, अधंविश्वास और धार्मिक रूढि़यों का अपने लेखन में विरोध करने वाले प्रेमचंद पर इस तहर के मुद्दों पर कहानियाँ लिखने को लेकर आरोप भी लगे! पर अधिकांशतः वे उनके खंडन-मंडन के बजाए उनके सहारे अपने निहित उद्देश्य या मूल्य को संप्रेषित करते हैं। यहाँ कहानी के यथार्थेतर आयामों के चलते यथार्थ की ओर जाने की चेष्टा है। अगर प्रेमचंद ने यूरोपीय ढाँचे को अपनी कहानी के लिए विचारणीय माना है, तो अपनी विरासत से प्राप्त कहानी के ‘अनहोनेपन’ (जिसे जादूपन भी कहा जा सकता है) को भी तरजीह दी है।
प्रेमचंद के बाद कहानी में विकसित कथा दृष्टि के मुहावरों में यथार्थ की उपस्थित सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होती गई। प्रगतिवादी दौर में कहानी के चमत्कारिक-जादुई एहसास का क्रमशः क्षरण हुआ। आश्चर्य कि यह सब प्रेमचंद की परंपरा के अनुकरण में नाम पर हुआ -जिन्होंने यथार्थग्राही होते हुए भी, कहानी में किसी न किसी जादुई एहसास ;उनके अनुसार अनहोनापनद्ध को अर्जित किया था। किस्सागो प्रेमचंद की हिंदी कथा आलोचना में यथार्थवादी लेखन के ‘मॉडल’ की तरह इतनी चर्चा होने की क्षति यह हुई कि उन्हें भारतीय कथा के स्वाभाविक विकास के नजरिए से नहीं देखा गया। उनकी जिन कहानियाँ में यह संभावना अधिक नजर आती है तो उनको आदर्शवादी मॉडल या कमजोर किस्म की कहानियों में रखकर हाशिए में डाल दिया। बहरहाल नई कहानी के दौर में आधुनिकतावादी-अनुभववादी चलन की कहानियों के बीच कहानी की ‘कला’ पर नए सिरे से विचार हुआ। नई कहानी में कई बँटवारे थे। पर कहानी को अपनी जमीन से भी देखने की कोशिश हुई। राजेंद्र यादव की ‘सिंहवाहिनी’ कमलेश्वर की ‘अपने देश के लोग’ और मुक्तिबोध की ’ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ जैसी कहानियों में यह कोशिश दिखती है। जादुई यथार्थ की पूर्वपीठिका में यहाँ फैंटेसी शिल्प के जरिए रची गई है और यथार्थ के किसी आयाम तक कहानी पहुँच गई है। हरिशंकर परसाई की ‘भोलाराम का जीव’ और ‘इंसपेक्टर मातादीन चाँद पर’ तो बिल्कुल भिन्न अंदाज की फैंटेसी है। ऐसी कहानियों में उल्लेखनीय है- अयथार्थ के आयामों की आकर्षक उपस्थिति। परसाई की कहानियाँ अयथार्थ के इंद्रजाल में काल को लाँघकर अपने ‘वर्तमान यथार्थ’ पर आकर ठहर जाती हैं। मसलन ‘भोलाराम का जीव’ में नारद, चित्रगुप्त या यमराज जैसे चरित्रों की अपनी स्वायत्त सत्ता वास्तविक नहीं है, पर वे कहानी के निहितार्थ को व्यंग्य-शिल्प में ढालने, अहम भूमिका निभाते हैं। रेणु की ‘तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम’ कहानी को विशेषतः आंचलिकता के कारण पहचान मिली है। यह भी देखना चाहिए कि यहाँ लोक तत्त्वों के भरोसे कहानी को विकसित करना, कहानी के यूरोकेंद्रिक मुहावरे को बदलता है। पश्चिमी कहानी से हिंदी कहानी के प्रभावित होने का मिथ भी टूट जाता है। कहानीकार महुआ घटवारिन की लोक कथा को प्रतीकात्मक उपस्थिति द्वारा अधिक समृद्ध और विश्वसनीय बना देता है। कहानी में लोक या पौराणिक कथाओं की प्रतीकात्मकता की शक्ति ऐसी कहानियों का उल्लेखीय पक्ष है।
नई कहानी के बाद हिंदी कहानी किसिम-किसिम के आंदोलनों के उद्घोषों में घूमती-फिरती रही। इस बीच कहानी में कितनी ‘कहानी’ बची, कहना मुश्किल है। पर कहानी के मूल स्वभाव को जानने-पहचानने के क्रम में इन आंदोलनों का अपना ऐतिहासिक महत्त्व है। यहाँ उल्लेखनीय है सातवें दशक के बाद कहानी के पुनः यथार्थवादी होने की जद्दोजहद और प्रेमचंद की परंपरा में फिर लौटने की कोशिश। मालूम नहीं कि प्रेमचंद की परंपरा गुम कब हो गई थी! क्या प्रेमचंद की परंपरा केवल वही है, जिस पर चलने की बार-बार गुहार लगाई जाती है? आठवें दशक में कहा गया कि ‘वर्ग संघर्ष’ के नजरिए से कहानीकार अपने दौर की सच्चाई देखने की कोशिश कर रहे थे। चंचल चौहान ने ठीक लिखा है कि ”सत्तोत्तरी हिंदी कहानी में चित्रित मनुष्य हाड़-मांस का और हमारे देशकाल का मनुष्य न होकर कलाकार द्वारा गढा़ हुआ, किसी अन्य समाज या काल्पनिक दुनिया का आसमान से टपका मनुष्य होता था। इस तरीके से यथार्थ को समझने और चित्रित करने को ‘समाजवादी यथार्थ’ की संज्ञा दी जा रही थी जबकि सत्य यह कि दृष्टि और प्राणाली के तौर पर इस तरह की रचनाएं बूर्जुआ ‘आलोचनात्मक यथार्थवाद’ के सकारात्मक स्तर तक भी नहीं पहुँच पा रही थीं।“ ‘हिन्दी कथा साहित्य: विचार और विमर्ष-चंचल चौहान, पृ. 152द्ध यह भी कहा जा सकता है कि नवें दशक के पूर्व तक हिंदी कहानियाँ कमोबेश अपने समय, स्थितियों और अतंर्विरोधों की ‘आलोचना’ करते हुए लिखी जाती रहीं। नौवाँ दशक इस मायने में काफी महत्त्वपूर्ण है कि कहानी रूमानी क्रांतिकारिता और रूढ़ जनवाद से पृथक होकर जीवन की वास्तविकताओं और बदल रहे यथार्थ को उसकी परिवेशजन्य संश्लिष्टता में ग्रहण करती है। अब तक चली आ रही आलोचनात्मक यथार्थवाद और समाजवादी यथार्थवाद से भिन्न कथा साहित्य में जादुई यथार्थवाद की अवधारणा- नयी पद्धति की तरह प्रचलन में आयी।
जादुई यथार्थवाद के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में न जाकर रोचक यह जानना होगा कि अब तक प्रचलित यथार्थ की कोटियों से भिन्न जादुई यथार्थवाद क्या है? साथ ही भारतीय संदर्भों में इसकी प्रासंगिकता क्या है? संक्षेप में कहा जाए तो जादुई यथार्थवाद का तात्पर्य कहानी की ऐसी शैली से है जिसमें लोक कथाओं, मिथकों और दंत कथाओं की तर्ज पर चमत्कार, पुनर्जन्म, अंधविश्वास, जादू-टोना, अफवाहों, किंवदंतियों, पारलौकिक घटनाओं, धर्म-कर्म और लोक आस्थाओं के तत्त्वों का अवलंब लेकर यथार्थ को रचनांतरित किया जाता है। इन तत्त्वों का खंडन या मंडन करना कहानीकार का ध्येय नहीं होता, ध्येय तो यथार्थ ही होता है- ये तो कहानी के प्रयोग में उपकरण होते हैं, परिणाम ‘अभिप्रेत कथ्य’ होता है। जैसा कि उल्लेख किया भी गया कि भारत में जादुई यथार्थवादी पद्धति के एक मौलिक कथा शैली के रूप में उभरने के लिए स्वाभाविक परिस्थितियाँ मौजूद थीं। कहानी परंपरा में भी इस अपेक्षाकृत नए जादुई यथार्थवाद के मौजूदा तत्त्वों की पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने की कोशिश इस लेख के आरंभ में की गई है। वस्तुतः जिस समाज में जादू-टोनों, कर्मकांडों और तंत्र-मंत्र की छाया में जीवन चलता हो, जहाँ हर बात को पिछले जन्मों के फल से जोड़ा जाता हो, जहाँ शरीरी और अशरीरी का भेद ढूँढ़ना मुश्किल हो, जहाँ हर गाँव-मोहल्लों के अपने-अपने भूत-प्रेत चुड़ैलों और नाग-नागिनों के किस्से मौजूद हों, जहाँ चमत्कारों की जय-जयकार होती हो, जहाँ कार्तूसों में गाय-सुअर के चर्बी की सूचना आग की तरह फैलकर सैन्य विद्रोह का कारण बन सकती हो, जहाँ विज्ञान एवं सूचना-क्रांति को धता बताकर एक दिन में गणेश प्रतिमाओं के दुग्ध-पान की खबर सारे देश में फैल जाए और दूध लिए मंदिरों में लोगों की भीड़ लग जाए, वहाँ से अच्छी जमीन जादुई यथार्थवादी शैली के लिए और कोई नहीं हो सकती। जादुई यथार्थवाद एक कथा पद्धति है और शिल्प का अनूठा प्रयोग भी। हिंदी कहानी में इसकी बहस की शुरूआत पंकज बिष्ट की ‘बच्चे गवाह नहीं हो सकते’ ‘आवेदन करो’ ‘खिड़की’ और ‘मोहेंजोदड़ों’ तथा उदय प्रकाश की ‘टेपचू’ और ‘तिरिछ’ जैसी कहानियों के जरिए आयी।
नौवें दशक में यथार्थ अभिव्यक्ति की इस नई तलाश की ओर चंचल चौहान ने अपनी समीक्षाओं से ध्यान दिलाया था। वे उदय प्रकाश और पंकज बिष्ट को इसलिए विशिष्ट कहानीकार मानते है कि ‘उन्होंने अपनी कहानियों में जादुई यथार्थवाद की पद्धति का इस्तेमाल करके यथार्थ को बहुत ही प्रभावकारी ढंग से सामने रखा।’ ;वही, पृ.87द्ध हालांकि कि वे हिंदी में मुक्तिबोध की -ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ को जादुई यथार्थवाद की पहली कहानी मानते हुए, जादुई यथार्थवाद को परिभाषित करते हैं- ”अपने देश और समाज के विश्वासों और अनेक मान्यताओं को सारगर्भित अर्थ में प्रयुक्त करते हुए यथार्थ के चित्रण का नाम ही जादुई यथार्थवाद है।“ ;वही, पृ.87-88द्ध वे यह भी मानते हैं कि ”हिंदी के कथा साहित्य में जादुई यथार्थवाद का शुरुआती रूप देवकीनंदन खत्री के साहित्य में था, किन्तु उसे हमारे यहाँ विकसित नहीं किया गया।“ ;वही, पृ.86द्ध मुक्तिबोध की इस कहानी को फैंटेसी मानने वाले आलोचक चंचल चौहान की इस मान्यता से असहमति व्यक्त करते हैं। फैंटेसी में रचनाकार कल्पना से एक संसार रचता है-वहाँ यथार्थ कुछ इस ढंग से आता है कि विस्मय से भर देता है। फैंटेसी में अतिप्राकृत तत्त्वों की उपस्थिति भी पाठकों को आकर्षित करती है और पाठ को रोचक बना देती है। कहा जा सकता है कि रचना को यथार्थ और फैंटेसी से संबंधित विचार या कल्पना प्रयोग का समानुपातिक योग श्रेष्ठ बनाता है। इस लिहाज से देखें तो फैंटेसी का जादुई यथार्थवाद से एक गहरा रिश्ता बना है। जादुई यथार्थवाद की पृष्ठभूमि आसानी से फैंटेसी युक्त रचनाओं में खोजी जा सकती है। यद्यपि दोनों कला युक्तियाँ अलग-अलग भी हैं। इसीलिए फैंटेसी युक्त रचनाओं में जादुई यथार्थ का भ्रम हो जाना अवश्यंभावी है। फैंटेसी की परंपरा अनेक रूपों में कहानी में विद्यमान रही है। नई कहानी से अब तक उसका एक व्यवस्थित रूप कहानियों में रहा है।
नई कहानी के दौर की ऐसी कुछ कहानियों का उल्लेख किया गया। इसी दौर के कहानीकार रामनारायण शुक्ल की एक कहानी ‘नागमणि’ इस मिथक पर आश्रित है कि ‘नाग के मणि होती है।’ इसी तहर विद्यासागर नौटियाल की कहानी ‘पीपल के पत्ते’ इस विश्वास पर टिकी है कि ‘पीपल के पत्ते पवित्र होते हैं’। इन कहानियों के आशय देखें, तो यह भ्रम टूट जाता है कि कहानी मिथक या विश्वास के महिमा मंडन के लिए हैं। परसाई की ‘भोलाराम का जीव’ भी प्रचलित मिथक को आधार बनाती है। लोक प्रचलित कथा रूढि़यों का प्रयोग भी कहानियों में होता रहा है। मनुष्येत्तर प्राणियों को पात्र बनाकर कहानियों की अभिव्यक्ति ‘कथा की विरासत’ में ही नहीं प्रकारांतर से नए संदर्भों को जोड़ती रहीं। एक समय प्रेमचंद ने ‘दो बैलों की कथा’ में दो बैलों को पात्र बनाया था। उदय प्रकाश की पीढ़ी के कथाकार हरि भटनागर की कहानी ‘बजरंग पांडे के पाडे़’ उसमें नई कड़ी जोड़ती है। पालतू पशुओं के जरिए कर्मठ और कामचोर आदमी के जीवन की वास्तविकता का सटीक आकलन इसमें हुआ है। बजरंग पांडे के यहाँ दो पड़वे पैदा होते हैं। बड़े होने के बाद एक, जिसका नाम भोला है-वह खूब मेहनती और आज्ञाकारी निकलता है। लेकिन दूसरा चंदुआ अकर्मण्य और चालाक। किन्तु अंत में भोला के हिस्से आता है-कसाई की छुरी के नीचे कटना और बदमाश व कामचोर चंदुआ को प्राप्त होता है, पशु मेले में पहला पुरस्कार और नस्ल सुधारने के लिए लगातार संभोग! गहरे व्यंग्य-बोध में यह कहानी इंसानी समाज का ही विरोधाभास बयान करती है। ऐसी कहानियों को जादुई यथार्थ की कहानियाँ सिद्ध करना हमारा ध्येय नहीं है। इनके उल्लेख के मार्फत हिंदी कहानी में जादुई यथार्थवाद की उर्वर भूमि को दिखलाना है। जिस जमीन पर जादुई यथार्थवाद के पनपने के अनेक अवसर मौजूद हैं।
हिंदी कहानी की परंपरा में लोक-वार्ताओं, पुराण- कथाओं, मिथकों और लोक-विश्वासों की कथानक-रूढि़ का प्रयोग सफलतापूर्वक हुआ है। हिंदी कहानी को ऐसी शैलियाँ-शिल्प समृद्ध करते हैं। उनका प्रयोग सिर्फ कौतूहल, मनोरंजन, हास्य या चमत्कार के लिए नहीं, यथार्थ के आयामों को उद्भासित करना ही रचनाकार का लक्ष्य होता है। विश्वनाथ त्रिपाठी ने अकारण नहीं लिखा कि ”जादुई यथार्थवाद में जादू तो सिर्फ कहने को होता है यथार्थ ही ज्यादा होता है। वस्तुतः यथार्थ ही अपनी धार बनाने के लिए कार्य-कारण का क्रम लाँघकर झटके में एक फैंटेसी रचता है, वेदना की धार की पहचान कराने में सक्षम बिंब का उच्छलन करता है।“ ;कुछ कहानियाँ: कुछ विचार-विश्वनाथ त्रिपाठी, पृ.136द्ध पंकज बिष्ट की कहानी ‘मोहन राम (दास), आखिर क्या हुआ?’ में एक गरीब लड़का (नौकर) मालिक के लड़के से उसके जूते के दाम सुनकर भौचक रह जाता है। बेलगाम उपभोक्तावाद किसकी दुनिया को मार रहा है? लड़के का अपनी परिचित दुनिया से पलायन का अयथार्थ स्वप्न में घटित हुआ। रात को जूता हवाई जहाज बन जाता है, जिसमें बैठकर वह अपने गाँव की यात्रा कर रहा है। वायुयान का टूटकर गिरना और लड़के का मर जाना। इस पूरे वृतांत को जादुई यथार्थ की शैली ने प्रभावी बनाया। विश्वनाथ त्रिपाठी यदि यह लिखते हैं, तो ठीक ही कि ”आखिन-देखी या सामने की तर्कसंगत दुनिया से हटकर हम स्मृति की दुनिया में प्रवेश करते हैं। कल्पना का लोक, स्मृति से निर्मित दुनिया है। पुराण, लोक-वार्ता, मिथक आदि को जातीय स्मृति कह लीजिए। जादुई यथार्थ भी सामान्य तर्क तोड़कर बनी हुई दुनिया है। सामान्य तर्क तोड़कर वह निर्बंध होता है इसीलिए स्वप्न से मिलती-जुलती है।“ ;वही, पृ.137द्ध उदय प्रकाश की ‘टेपचू’ के मजदूर टेपचू का पूरा शरीर गोलियों से छलनी हो चुका है। वह मर भी जाता है। पुलिस उसकी लाश पोस्टमार्टम के लिए भेज देती है। पर डॉक्टर के सामने आँखें खोलकर अपने मारे जाने की सच्चाई बोलते हुए, वह गोलियाँ शरीर से निकाल कर बचाने की प्रार्थना करने लगता है। इस कहानी को किसी वैचारिक आरोपण से बचाकर, घटना और पात्र को सामाजिक परिस्थितियों में विकसित होने दिया है। इसलिए अपने समय की क्रांतिकारी यथार्थ गढ़ने वाली ढेरों कहानियों में एकदम अलग है। इसे सांकेतिक अर्थवत्ता का विधान अद्भुत बनाता है। ‘कला के तीन क्षण’ भी यहाँ चरितार्थ होते हैं, इसीलिए कला-दृष्टि से जादुई शिल्प की सफल रचना माना गया है। यहाँ वास्तविकता भी कायम है और कहानी ‘चकित’ भी करती है। कहानी अपने वस्तुगत सौंदर्य के साथ उद्देश्य को सार्थक करती है, तो इसमें शिल्प की अहम भूमिका है। मिथकीय चेतना के स्तर पर कहानी उद्घोष करती है कि श्रमशील जनता सत्ता के दमन और आतंक के विरुद्ध बार-बार खड़ी होकर अपने अस्तित्त्व रक्षा के लिए अडिग रहेगी।
उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’ कहानी कला के तीन क्षणों से होकर जादुई यथार्थवाद की अभिव्यक्ति को भले ही पूर्णतः चरितार्थ न करती हो, पर अपने संवेदनात्मक लक्ष्य को इसी कला के सहारे प्रभावपूर्ण बनाती है। जादुई यथार्थ के लेखक के लिए जरूरी हो जाता है कि वह जिस परिवेश को चित्रित करना चाहता है उसकी गहरी जानकारी होनी चााहिए। तिरिछ में ‘तिरिछ’ के बारे में प्रचलित लोक विश्वास की पूरी वस्तुनिष्ठता का ध्यान रखा गया है। जादुई यथार्थवाद प्रेरित कहानियों में यथार्थ छिपा रहता है और कहानी के पाठ में ‘अद्भुत’ या ‘जादुई तत्त्व’ ही तैरते हुए नजर आते हैं। तिरिछ जो इस कहानी में शहरी सभ्यता के दुश्चरित्र का प्रतीक बनकर आया है-उसके माध्यम से कहानी अपने अभिप्राय की सार्थक और सफल अभिव्यक्ति करती है। तिरिछ एक विषैला जंतु है, जिसके काट लेने पर मृत्यु अवश्यंभावी है और इसे लेकर जो लोक विश्वास हैं, उन सभी का उनकी ही अवधारणाओं में निहित व्यक्ति के बचने के तर्कों का समाधान कहानी में पिताजी की घटनाओं के साथ हो जाता है। जैसा कि सामान्यतः लगता है कि पिताजी की इतनी प्रताड़ना के पश्चात् अंततः मृत्यु का कारण तिरिछ का ज़हर है। जबकि कहानी में तमाम सूचनाओं और घटनाक्रम का संकलन मृत्यु के वास्तविक कारण की खोज है। इसी के चलते उदय प्रकाश के इस शिल्प को जादुई यथार्थवाद के लेखक मार्केस की प्रसि( रचना ‘पूर्वघोषित मृत्यु का खबरनामा’ (क्रानिकल ऑफ दि डेथ फोर टोल्ड) से प्रभावित माना गया। यहाँ भी विभिन्न अलग-अलग घटना स्थितियों का संकलन हुआ है। इस कहानी में निहित यथार्थ और शिल्प के मेल ने सिद्ध किया कि कहानी यथार्थ की कोरी रपट या विवरण नहीं- आख्यान और यथार्थ को उद्घाटित करने का कलात्मक साधन भी है।
दंत कथाओं, लोक कथाओं और अफवाहों के सहारे जादुई यथार्थवाद की अभिव्यक्ति का उम्दा उदाहरण संजय खाती की कहानी ‘बापू की घड़ी’ है। बापू के दर्शनों की भीड़-भड़क्के में भुवनचंद्र को एक जेब-घड़ी पड़ी मिल जाती है। उसके पहाड़ी गाँव सुभान बगड़ और पूरे इलाके में उस घड़ी और भुवनचंद्र के अनेक किस्से, वाकये और चमत्कार जुड़ गए। वह भविष्यवाणियाँ करने लगता है। उसकी कही बातें चमत्कार की तरह सच होने लगीं। यह अफवाह फैल जाती है कि गाँधी जी की हत्या के बाद घड़ी से एक किरण निकलकर उसके शरीर में प्रवेश कर गई थी और उसका जीवन बदल गया, उसे गाँधी की सिद्धि मिल गयी। उसके घर में दरबार और मेला भरने लगा। अब वह जैहिंदी के नाम से विख्यात है। कहानी में दिलचस्प मोड़ तब आता है, जब वह लोगों के कहने से कालीगंगा नदी पर पुल बनवाने के लिए सत्याग्रह पर बैठ जाता है। प्रशासन और पुलिस बल प्रयोग से उसका आंदोलन तोड़ देती है। कलेक्टर धमकाकर जैहिंदी से माफीनामें पर दस्तखत करवा लेते हैं। घटना के बाद जैहिंदी के चमत्कारों की चर्चा खत्म हो जाती है। वह जेब घड़ी जैहिंदी से उसके ताऊ गोपालदत्त ले जाते हैं जिनका बेटा गौरीदत्त चुनाव लड़ रहा है। गौरी दत्त कांग्रेस का बड़ा नेता बन जाता है, तो जैहिंदी का विश्वास हो गया कि घड़ी का चमत्कार अभी बाकी है। वह पोते के साथ घड़ी लेने दिल्ली पहुँचता है। किंतु गौरीदत्त ने घड़ी म्यूजियम में दे दी थी। जैहिंदी चुपके से म्यूजियम पहुँचकर शीशे तोड़ कर घड़ी निकालते वक्त पकड़ा जाता है। म्यूजियम में वह घड़ी आज भी ठप पड़ी है। कहानी का यह अंश उल्लेखनीय है कि नीरज खरे जिस आदिम समाज में जादू-टोनों कर्मकांडों की छाया में जीवन चलता हो, जहाँ शरीरी और अशरीरी का भेद इतना धुंधला हो कि बँट न सकें, उसमें जैहिंदी के चमत्मकार कोई बड़ा आश्चर्य नहीं थे। आश्चर्य तो यह था कि पारलौकिक विधि-विधानों के इस घटाटोप में, जहाँ हर कोस पर चावलों को देखकर भविष्य पढ़ लेने वाले पुछारे और गाँव में देवता को शरीर में जमा लेने वाले डंगरिए मौजूद हों, वहाँ जैहिंदी दो दशक तक लोगों के जीवन पर शासन करता रह सका। जैहिंदी की यह ताकत उस घड़ी में निहित थी। लोग जानते थे और जैहिंदी भी कि पूछारे धुर्त हो सकते हैं, डंगरिए झूठे हो सकते हैं, लेकिन बापू का वचन गलत नहीं हो सकता।’’ (इंडिया टुडे, साहित्य वार्षिकी 2000, पृ. 95-96) जनता के इस अटूट विश्वास के दूसरी ओर देश के नेता हैं जिन्होंने गाँधी का नाम सिर्फ वोट काटने में इस्तेमाल किया और जब गाँधी के विचारों को अमली जामा पहनाने का मौका मिला तो गाँधी को म्यूजियम में कैद कर दिया। म्यूजियम में ठप पड़ी घड़ी, गाँधीवाद को देश से खारिज किए जाने का सटीक प्रतीक बन जाती है। पंकज बिष्ट और उदय प्रकाश की जादुई शिल्प की कहानियों के बाद बीती सदी के ठीक अंत में लिखी गई यह कहानी, हिंदी कहानी में जादुई यथार्थवाद की उपादेयता सिद्ध करते हुए अगली कड़ी जोड़ती है।
हिंदी कहानी में जादुई शिल्प को अपनाकर यथार्थ- दृष्टि विकसित करने की कोशिशें कम हैं। जब भी ऐसी कोशिशें हुईं, अलग पहचानी गईं। बीती सदी के बाद जिस नई पीढ़ी का कहानी में उन्मेष हुआ। उस पीढ़ी के एक कहानीकार रवि बुले की कहानी ‘लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ वैसे तो आज की राजनीतिक प्रक्रिया के मूल चरित्र को सामने रखना चाहती है। लेकिन, कहानी जादुई मिक्ंसिग के जरिए प्रचलित यथार्थवादी पाठ को निरस्त करती है। कहानी की सफलता निहित यथार्थ के पाठ की रोचकता से है, जिसका चरम नाटक के मंच से नत्थू के लापता होने में घटित होता है। कहानी में आरंभ से अंत तक की गई प्रयोगधर्मिता जादुई शिल्प का भिन्न अंदाज है। जरूरी भी नहीं कि जादुई यथार्थवाद हमेशा अपनी सैद्धांतिकी के साथ घटित हो! युवतम पीढ़ी के एक कहानीकार शिवेंद्र की लंबी कहानी ‘कहनी’ (पल प्रतिपल-78, जुलाई-दिसंबर 2015) समकालीन कहानी की असाधारण उपलब्धि की तरह रेखांकित होना चाहिए। अपनी बनावट के लिए यह कहानी अपने लोक की विरासत की मूल जड़ों से अपना संबंध जोड़कर, अपने विस्तार को समाज, इतिहास से होकर वर्तमान तक ले जाती है। एक कथा फलक पर इतने समयों की चेतना एकाग्र करना, जो पढ़कर हैरत में डाल दे! ऐसी कहानी बडे़ कौशल का प्रतिफल होती है। कहानी में एक अंश आता है, जो कहानी विधा के लिए भी उल्लेखनीय है ”समय के साथ हर कहानी बदलनी चाहिए। अगर कोई कहानी अपने वक्त के साथ नहीं बदल रही तो इसका मतलब है कि वह पीढ़ी या तो काहिल है या कायर या फिर कल्पनाशील नहीं है।“ (वही, पृ. 335) यह कहानी खुद इस बदलाव का मुकम्मल पाठ है, जो लोक कथा में समकाल को उपस्थित करती है। हिंदी कहानी में दो समानांतर कहानियों से कथ्य की मुकम्मल अभिव्यक्ति के उदाहरण कई हैं। नई कहानी के कथाकार कमलेश्वर की ‘राजा निरबंसिया’ से लेकर युवा पीढ़ी के ही कहानीकार आशुतोष की ‘मरें तो उम्र भर के लिए’ मरें यह प्रयोग हुआ है। पर शिवेंद्र की कहानी में वह अवधारणा बदल जाती है-एक ही कहानी के कई समानांतर पाठ हैं। बच्चे अपनी दादी से कहानी सुनते-सुनते,वे कहानी को स्थगित कर कथा के काल में पहुँच जाते हैं। कथा काल कई-कई कालों से टकराता है। कहानी में ‘समय’ की सभी प्रचलित धारणाओं को निरस्त कर दिया गया है। लोक कथा की कहानी में यथार्थ के इतने आयामों को छू लेना- सचमुच चमत्कार जैसा ही है। अब इसे कोई जादुई यथार्थ की कहानी माने या न माने, पर इसमें जादू है और यथार्थ भी। इस तरह ‘जादू’ और ‘यथार्थ’ के मेल की परंपरा कहानी में बनती हुई दिखती है। जाहिर है हिंदी कहानी को अपनी उर्वर जमीन पर समर्थ होने की संभावनाएँ अनंत हैं।
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