समकालीन दलित कहानी: कुछ वैचारिक बिन्दु / टेकचंद / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

SHARE:

रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 टेकचंद समकालीन दलित कहानी: कुछ वैचारिक बिन्दु वैसे तो सम्पूर्ण दलित साहित्य प्रतिरोध का साहित्...

रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

टेकचंद

समकालीन दलित कहानी: कुछ वैचारिक बिन्दु

वैसे तो सम्पूर्ण दलित साहित्य प्रतिरोध का साहित्य है, लेकिन कहानी विधा में विरोध प्रतिरोध का तेवर अपेक्षाकृत ज्यादा मुखर और धारदार होता है। इसका कारण यह है कि आत्मकथा जो कि दलित साहित्य की प्रतिनिधि विधा है, व्यक्ति विशेष की संघर्ष गाथा बन जाती है, कविता कवि का आक्रोश, नाटक स्थितियों का बयान। परन्तु कहानी लेखक, पात्रों, घटनाओं, परिवेश आदि का ऐसा समग्र बिम्ब प्रस्तुत कर देती है कि पाठक के चेतन अवचेतन का हिस्सा बन जाती है। पाठक के रूप में कहानी एक मुहिम और उसका एक पैरोकार तैयार करती है।

इस अर्थ में समकालीन दलित कहानी एक उम्मीद जगाती है, एक भाव-संवेदन का वितान रचती है।

दलित कहानी के विकास पर गौर करते हैं तो एक भरी पूरी पीढ़ी दिखाई पड़ती है। पिछली पीढ़ी में ओमप्रकाश वाल्मीकि से शुरू करें तो जयप्रकाश कर्दम, मोहनदास नैमिशराय, सूरजपाल चौहान, अनीता भारती, रजनी सिसोदिया, कैलाश वानखेड़े और संदीप मील जैसे कथाकार विरोध-प्रतिरोध का एक विमर्श रचते दिखाई देते हैं। ये कहानियाँ एकरेखीय न होकर बहुअर्थी संवेदना के सूत्र हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं। इस लेख का उद्देश्य उन्हीं सूत्रों को पकड़ना है। जहाँ कहानी प्रचलित और प्रसिद्ध पाठ के बाहर कुछ अन्य अर्थों को पकड़ सके। और कहीं-कहीं कहानी बहुत चर्चित न पर जरूरी लगे, पुष्पा भारती की ‘जूता’ ऐसी ही कहानी हैं राजेन्द्र बड़गूजर की ‘इनाम’ हरियाणवी समाज में जाटों की अवसरवादिता और दलितों के प्रति उनके ‘यूज़ एण्ड थ्रो’ वाले दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। समकालीन दलित कहानी में एक नहीं अनेक स्वर हैं। आज की दलित कहानी में चेतना के धरातल इकहरे नहीं हैं। दलित कहानी जाति के अलावा, सामाजिक न्याय, साम्प्रदायिक विसंगतियों, प्रशासनिक घालमेल और शोषण के बारीक तंतुओं को भी पकड़ती है। मायने कि दलित कहानी की कथ्य भूमि पहले से ज्यादा विस्तृत और आन्दोलनधर्मी हुई है।

सत्यापन में बताया गया है कि सरकारी दफ्तरों में जो लोग फोटो व प्रपत्र सत्यापन करवाने जाते हैं, उनकी जाति का पता लगते ही एक तयशुदा सा सत्यापन उनकी अस्मिता के साथ चस्पा कर दिया जाता है। फिर उनके प्रति सरकारी तंत्र का नज़रिया ही बदल जाता है।

‘सत्यापन’ अपने मूल रूप में प्रशासनिक व्यवस्था पर व्यंग्य है। यह व्यंग्य और ज्यादा मारक इस अर्थ में है कि इसमें अनुभव दग्ध प्रामाणिकता है। इस कहानी को मानक आधार पर भी देखा जाना चाहिये। छोटे-छोटे से वाक्य वातावरण के प्रभाव और व्यवस्था के चरित्र को बखूबी पेश करते हैं, जैसे ‘बेफि़क्र आदमी अच्छा नहीं लगता, परेशान दिखने वाले को ज्यादा परेशान किया जाता है, दूसरों का हँसता चेहरा खुशी नहीं देता, हर बार यातना के दर्दनाक अनुभव से गुजरता हूँ दफ्तरों में, जो हमें नहीं जानता, नहीं पहचानता, वही हमें सत्यापित करता है, अब टेम हमारे पास भी नहीं है।’ ये वाक्य स्वाभाविक रूप से व्यवस्था के रूप और चरित्र को पाठकों के समक्ष ला पाते हैं। सत्यापन के अलावा कैलाश वानखेड़े की अन्य कहानियाँ ‘स्कॉलरशिप’ तथा ‘कितने बुश कितने मनु’ को भी इन्हीं सन्दर्भों में पढ़ा जाना चाहिये। समकालीन कहानी में कैलाश वानखेड़े की कहानियाँ इसीलिये विशिष्ट मानी जा सकती हैं कि वे एक ऐसे क्षेत्र को कहानी का विषय बनाते हैं जहाँ अन्य कथाकार नहीं जा पाते- दफ्तरी व प्रशासनिक कार्यशैली के क्षेत्र।

वरिष्ठ लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘सलाम’ जाति व्यवस्था के कुछ अलग स्तरों को दिखाती है। यहाँ परम्परागत जाति विरोध न होकर एक विखंडित अर्थ मिलता है। कमल उपाध्याय अपने परममित्र हरीश की बारात में जाता है। हरीश दलित है, उसकी उपजाति वाल्मीकि है। कमल गाँव की एक दुकान पर चाय पीने जाता है। वहां उसे बारात में आया दलित जानकर गाँव वाले उसका घोर अपमान करते हैं। दूधर उसका मित्र और दूल्हा हरीश सवर्णों के दरवाजे पर ‘सलाम’ के लिये जाने से इन्कार कर देता है। दूसरी तरफ एक दलित किशोर रोटी खाने से इसलिए इंकार कर देता है कि वह रोटी (नान) एक मुसलमान कारीगर ने बनाई है।

‘सलाम’ एक साथ जाति-व्यवस्था के कई स्तरों को छूती है। कमल उपाध्याय जातिगत उत्पीड़न को झेलता है। एक झटके में ही वह दलित समाज की पीड़ा और दमन का भोक्ता बन जाता है। हरीश पढ़ा लिखा होने के कारण ‘सलाम’ का विरोध करता है। मात्र दलित ही जाति की पीड़ा को समझ सकता है, सवर्ण नहीं।

ओमप्रकाश वाल्मीकि ‘सलाम’ के माध्यम से इस मान्यता को बदलते हैं। कमल उपाध्याय की स्थिति को वाल्मीकि जी की एक कविता के द्वारा भी समझा जा सकता है, जहाँ वे सवर्ण को आह्वान करते हैं कि-‘‘तू भी दलित बन के देख/अपने सिर पर/मैले का टोकरा उठा के देख!’’ इस कहानी में कमल उपाध्याय ऐसी ही अनुभूति से गुजरता है। तथाकथित सवर्णों को भी यह अनुभव करना चाहिये कि हज़ारों वर्षों से एक बड़ा मानव समूह इस शोषण और प्रताड़ना से किस तरह गुजरता रहा है। दूसरी तरफ आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का कथन कि ‘हिन्दू धर्म में नीची से नीची समझी जाने वाली जाति भी अपने से नीचे दो-चार जातियाँ ढूंढ लेती हैं।’’ यहाँ सच होता जान पड़ता है जहाँ एक दलित किशोर रोटी इसलिये नहीं खाना चाहता कि उसे गाड़ा (मुसलमान) बना रहा है। यहाँ जाति से सवर्णों के साथ-साथ दलितों की मुक्ति ज़रूरी मानी गई है। आज दलित समाज ही नहीं साहित्यकारों तक में भी जाति, उपजाति के आधार पर खेमेबाजी हो रही है। इसीलिये दलित साहित्य कम रचा जा रहा है, विमर्श ज्यादा हो रहा है, चिंतन ज्यादा है, चेतना मंद पड़ती जा रही है, कमल उपाध्याय और हरीश की संगत एक उम्मीद जगाती है और ‘सलाम’ की प्रथा को टाटा-बॉय-बॉय (जोर का धक्का मारने) करने का साहस पैदा करती है।

जयप्रकाश कर्दम के नाम हिन्दी दलित साहित्य का प्रारंभिक उपन्यास ‘छप्पर’ है। यह उपन्यास काफी चर्चित भी रहा है। इनकी कहानियाँ भी खासी चर्चित व सार्थक रही हैं। ‘नो बार’ एक ऐसी ही कहानी है। एक पढ़ा-लिखा, नौकरी-पेशा दलित युवक अखबार में वैवाहिक विज्ञापन देखता है। शादी के लिये उसे एक ही विज्ञापन में दिया गया रिश्ता पसन्द आ जाता है। विज्ञापन के इस रिश्ते की खासियत यह थी कि ‘हाईली एजूकेटेड फेमिली, नो बार।’ अर्थात् जाति का कोई बंधन नहीं व राजेश पत्र लिख देता है। बुलावा आता है। उस परिवार तथा लड़की अनिता से मेल मिलाप और बात शादी तक पहुंच जाती है, सब घुल-मिल जाते हैं। बातचीत से लड़की के पिता को शक होता है। पर्दे के पीछे जाकर पिता बेटी से राजेश की जाति के विषय में पूछता है। लड़की अनभिज्ञ है। वह अपनी बेटी को समझाता है। बेटी प्रतिवाद करती है ‘पर क्यों पापा, जब हम जाति-पांति को मानते ही नहीं तो...’ पिता का जवाब ‘नो बार’ का यह मतलब तो नहीं कि किसी चमार-चूहड़े के साथ...।’

कहानी यहाँ समाप्त होती है और शुरू होती है भारतीय हिन्दू समाज की महागाथा। तमाम प्रगतिशीलता के बावजूद यह समाज जाति को नहीं छोड़ना चाहता। यदि वह ‘इंटरकास्ट मैरिज’ की बात करता है तो अपने समान तथाकथित उच्च जाति में ही। ‘नो बार’ में दलित या अछूत जातियाँ नहीं आतीं। उनके लिये तो आज भी बार ही बार ;बाधा ही बाधाद्ध हैं। यह कहानी सवर्णों की छद्म प्रगतिशीलता और बनावटी व नकली आधुनिकता पर तीखा व्यंग्य करती है। इस कहानी को पढ़कर लगता है कि तथाकथित सवर्ण और प्रगतिशील तबका मानसिक रोगी है। क्योंकि जब तक राजेश की जाति नहीं पता थी सब उस पर प्यार लुटा रहे थे लेकिन जाति का पता (सन्देह) होते ही लड़की के पिता का दिमाग फिर गया। ध्यान देने की बात यह है कि-‘अनिता वहीं खड़ी रह गई थी।’ क्योंकि बाप (परिवार व समाज) द्वारा लगाई गई जाति की बार (बाधा) को वह भी पार नहीं कर सकती। या संभवतः पार करना नहीं चाहती। इतने दिनों की मुलाकातों में अनिता की राजेश से प्यार जैसा कुछ ही चला था। कहते हैं कि प्यार अंधा होता है, पर लगता है कि तमाम अंधेपन के बावजूद प्यार जाति तो देख ही लेता होगा। यह इस कहानी से प्रमाणित होता है। एक पाठ और है जो इस कहानी की समाप्ति के बाद पढ़ा-समझा जा पाया होगा? क्या उसका हाल वाल्मीकि जी की कहानी ‘सलाम’ के कमल उपाध्याय जैसा नहीं हुआ होगा? क्या एक ऐसा समाज बन पायेगा जहाँ वाकई ‘नो बार’ हो? क्या प्रगतिशीलता या आधुनिकता मात्र कपड़ों की तरह बदली, पहनी व फेंकी जा सकने वाली अवधारणाएँ हैं?

यह कहानी ऐसे अनेक सवाल उठाती है और बनाती है कि तमाम भौतिक तरक्की के बावजूद हम आज भी पिछड़े, दकियानूस और पोंगा-पंथी ही हैं। ‘जाति क्यों नहीं जाती?’ में एक पद और जोड़ लिया जाए ‘जाति क्यों नहीं जाती सवर्णों के दिमाग से?’

समकालीन कहानीकारों में कैलाश वानखेड़े का नाम महत्त्वपूर्ण है। कैलाश वानखेड़े चूंकि प्रशासनिक सेवा से जुड़े हैं अतः शासन-प्रशासन में व्याप्त जातिगत भेदभाव को वो बेहतर ढंग से चित्रित करते हैं। ‘सत्यापन’ उनकी प्रतिनिधि कहानी है। इसी शीर्षक से उनका कहानी संग्रह है। ‘सत्यापन’ करने वाली कहानी है। एक दलित युवक किसी सरकारी दफ्तर में अपना फोटो ‘सत्यापन’ (अटेस्टेड) करवाने जाता है। यहाँ उसकी कालोनी का नाम सुनकर ही क्लर्क उसे रोक देता है, घंटों खड़ा रखता है। इसी उपक्रम में वह ‘भाऊ साहेब इंगले’ से मिलता है। उसकी भी शिकायत है। अस्पताल में पत्नी की डिलीवरी करवाने के दौरान वह तमाम उत्पीड़न झेल गया लेकिन उसकी शिकायत है कि अस्पताल के काग़जों में पते के तौर पर वह ‘बौद्धवाड़ा’ लिखवाना चाहता है लेकिन नर्स ‘महारवाड़ा’ ही क्यों लिखती है। और फिर दोनों मिलकर सरकारी दफ्तर की बाबूशाही को चुनौती दे देते हैं।

अनीता भारती एक सक्रिय कार्यकर्ता और चर्चित लेखिका हैं। ‘एक भी कोटे-वाली’ उनका कहानी संग्रह है। यों उनके कविता संग्रह तथा संपादित पुस्तकों की संख्या भी अच्छी खासी है। ‘एक थी कोटेवाली’ उनकी चर्चित, संक्षिप्त और असरदार कहानी है। दलित शिक्षिका गीता का चयन एक विद्यालय में होता है। यहाँ शिक्षिकाओं का पूरा स्टॉफ ‘कोटेवालियों’ और ‘गैर कोटेवालियों’ में बंटा रहता है। गीता सुबह पहले पीरियड से ज्वॉइन करती है और हर पीरियड की घंटी के साथ इन दोनों समूहों में उसकी जाति को लेकर कयास, पूर्वाग्रह और तनाव बढ़ता चला जाता है। गीता की मैरिट और आकर्षक व्यक्तित्व भी कोई धारणा कायम करने में बाधा बनते हैं। कहानी और उसका तनाव आठवें तथा अंतिम पीरियड तक चरम पर पहुंच जाते हैं। गीता अम्बेडकरवादी है, यह जानते ही सवर्ण शिक्षिकाओं का पारा चढ़ जाता है। गीता का साथ पाकर ‘कोटेवाली शिक्षिका’ उनका कड़ा और तार्किक जवाब देती हैं। और सबकी जाति बताती हैं। यह कहानी दर्शाती है कि कार्यस्थल पर यौन-उत्पीड़न रोकने वाले नियम व समितियाँ तो बनी हैं किन्तु जातिगत भेदभाव को रोका जा सके ऐसा कोई मैकेनिज़्म भी तो होना चाहिये। सवर्ण समाज किसी व्यक्ति की जाति जानते ही निर्मम और पक्षपाती हो जाता है। सवर्ण वर्ग, शहरी परिवेश में उत्पीड़न की गंवई हरकत तो नहीं करता किन्तु संकेतों, कटाक्षों, शब्दों और शारीरिक भाषा के द्वारा वह ऐसा माहौल बना देता है कि बर्दाश्त नहीं होता। तब जाति व्यवस्था और इसके पैरोकारों के प्रति आक्रोश पनपना स्वाभाविक ही है। अनीता और श्रीमती सागर का गुस्सा जायज ही लगता है।

अनीता भारती दलित स्त्रीवाद की मुहिम चलाए हुए हैं। वे दलित स्त्री के प्रश्न को अपने ढंग से उठाती हैं। प्रस्तुत कहानी दलित स्त्री के कार्यस्थल यानी स्कूल में व्याप्त जातिगत विसंगतियों को बेनकाब करती है। दलित पुरुष चूंकि इस जगह नहीं पहुंच सकता अतः दलित स्त्री को यह भूमिका निभानी पड़ी। इसी अर्थ में दलित स्त्रीवाद उभरकर आता है, क्योंकि दलित साहित्य का पुरुष साहित्यकार यहाँ तक पैठ नहीं बना सका है।

रजनी सिसोदिया ने कम परन्तु सार्थक कहानियाँ लिखी हैं। उनके ‘चारपाई’ कहानी-संग्रह में से ‘ताड़का वध’ कहानी पर बात करना चाहूंगा। कथावाचक कॉलेज शिक्षक है। उसके घर (फ्लैट) के सामने सौमित्र रहता है जो सेना में अधिकारी है। उसके पिता की मौत नक्सलवादियों के द्वारा किये गये बारूदी सुरंग विस्फोट में हुई थी। अब सौमित्र की पोस्टिंग भी नक्सल प्रभावित क्षेत्र में हो जाती है। कथावाचक तथा सौमित्र के परिवार में तनाव का वातावरण है। हर फोन, हर आवाज़ पर कुछ अनिष्ट की आशंका होती है। जल-जंगल-जमीन का विमर्श भी चलता रहता है। पक्ष-विपक्ष के विचार भी कौंधते हैं। कथावाचक की कालोनी में चल रही रामलीला में ‘ताड़का वध’ के संवाद सुनाई पड़ते हैं। आदिवासी, नक्सल, पुलिस, राजनीति, मुख्यधारा और हाशिये का ऐसा कोलाज बनता है कि ‘ताड़का वध’ तो हो जाता है लेकिन सवाल खड़ा रह जाता है-‘हाय चाची ताड़का रोटी कौन पकाएगा? हाय चाची ताड़का रोटी कौन खिलाएगा? मुख्य-धारा के लिये कानूनी, न्यायिक और नैतिक जीत ‘ताड़का वध’ की तरह है लेकिन आदिवासियों के लिये अस्तित्व और अस्मिता का प्रश्न, रोटी का सवाल है।

मैं कहना चाहता हूं कि दलित कहानी मात्र व्यक्तिगत या जातिगत दुख दर्द को ही बयान नहीं करती। वहाँ कुछ वृहद सरोकारों, समान संघर्ष और अस्मिता के विस्तार की भरपूर संभावनाएँ नज़र आती हैं। दलित कहानी मात्र शहरी-ग्रामीण परिवेश में जातिगत उत्पीड़न तक सीमित न रहकर आदिवासियों, मानवतावादियों के संघर्ष में सहभागी होकर उसे मज़बूती और विस्तार देती है। मिथकों का रचनात्मक उपयोग यहाँ दिखाई देता है। ध्यान देने की बात यह है कि दलित कहानीकार मिथकों का उपयोग अपने ढंग से कर रहे हैं। मिथक मूल निवासियों की संवेदना से जुड़े हैं। इसके कारण प्राचीन देव-न्याय आज अन्याय की श्रेणी में आ गया है। यह एक प्रकार से ब्राह्मणवादी वैचारिकी को पलट देने का उपक्रम है।

स्वराज प्रकाश से ‘समकालीन भारतीय दलित महिला लेखन’ 2011, खंड एक में पुष्पा भारती की कहानी ‘जूता’ छपी है। छोटी सी किन्तु सारगर्भित इस कहानी में मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद का रचनात्मक तालमेल दिखाई पड़ता है। मोची रामखिलावन जूते-चप्पल गांठकर इतने पैसे कमाना चाहता है कि अपने भाई की शादी में जाने के लिए अच्छे कपड़े और जूते खरीद सके। वह बाज़ार से जूते खरीद सके इतना तो नहीं कमा पाता लेकिन जो कमाता है उससे चमड़ा, रंग और जूता बनाने का सामान ले आता है, और रातभर खटकर उसने बहुत अच्छा जोड़ा जूता तैयार किया। जूता इतना शानदार था कि एक ग्राहक ने मिन्नतें कर बारह सौ रुपये में खरीद लिया। बारह सौ में घर भर की ज़रूरतें पूरी हो जायेंगी, यह सोचकर उसने जूता बेचा था। अगले दिन जब किसी सस्ते जूते की तलाश में वह कनॉट प्लेस गया तो एक बड़े शोरूम के शोकेस में अपने जूते को दुगुने रेट की चेपी लगे देख हैरान रह गया। यह कहानी एक दलित स्त्री द्वारा, दलित पुरुष श्रमिक के श्रम और बेशी मूल्य को हड़प लेने की साजिश का पर्दाफाश करती है। मुझे नहीं लगता कि ऐसा विलक्षण कथा-प्रयोग मुख्यधारा में भी मिल पायेगा कि नहीं।

यह दुखद है कि श्रम सौन्दर्य और श्रम के शोषण की इतनी अच्छी कहानी की लेखिका अब हमारे बीच नहीं है, नहीं तो अम्बेडकरवादी समाज को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से जानने समझने के कुछ और कथा प्रयोग मिलते। यह कहानी संकेत करती है कि हाशिये पर के समाज, उसकी कला-संस्कृति और धरोहर को किस प्रकार बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और कॉरपोरेट घराने लूट रहे हैं। दिल्ली और अन्यम महानगरों में लगने वाले ‘हाट और हस्तशिल्प मेले’ लोक कलाकारों, श्रमिकों और कारीगरों को कितना मेहनताना और श्रम का लाभ दे पाते होंगे? यह एक बड़ा विचारणीय प्रश्न है। पुष्पा भारती इस संक्षिप्त सी कहानी में श्रम के शोषण का बड़ा प्रश्न उठाती हैं। इस परिवेश की आलोचनात्मक पृष्ठभूमि के निर्माण में तेज सिंह की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता। तेज सिंह मार्क्सवाद और अम्बेडकरवाद के संयोजन पर लगातार जोर देते रहे थे।

संदीप मील उस तरह से दलित रचनाकार नहीं हैं लेकिन जाति का सवाल जिस तरह से उन्होंने उइाया है उसका सरोकार दलित कहानी से जुड़ता है। राजस्थान की पृष्ठभूमि के संदीप मील का हिन्दी में एक कहानी संग्रह आया है ‘दूजी मीरा’। इस संग्रह की एक खास कहानी पर बात करना चाहूंगा, जो फॉरवर्ड प्रैस पत्रिका में छपी थी, ‘एक प्रजाति हुआ करती थी-जाट’। यह कहानी जाति व्यवस्था की पोषक खाप-पंचायतों और उनकी कार्यप्रणालियों पर बहुत तीखा और मारक व्यंग्य करती है।

कहानी पैरोडी के ढंग से शुरू होती है। नाटकीय ढंग से संवाद बोले जाते हैं। ‘प्रेम को फांसी दे दो’, ‘प्रेम करने वालों को फांसी दे दो’, ‘युवा को फांसी दे दो’, ‘शादी को फांसी दे दो’ मतलब यह कि जो भी खाप पंचायत की समझ में न अटे उसे फांसी दे दो। खाप पंचायतों का यह रवैया मात्र सजातीय के प्रति ही नहीं विजातीय के प्रति भी होता है, कई बार इसका रूप भयंकर होता है। संदीप मील ने चुटीले संवादों द्वारा खाप पंचायतों की कूढ़-मगज़ी, मूर्खता और तुगलकी मानसिकता को उघाड़कर रख दिया है।

हम सब दुलीना, झज्जर, मुर्चपुर, हिसार और भगाणा के कांड देख चुके हैं, जानते हैं कि इन बड़े-बड़े जघन्य कांडों को अंजाम देने में खाप पंचायतों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। ऐसे में खाप पंचायत पर ऐसा पक्ष आना दलित वैचारिकी के लिये ऊर्जा का स्रोत हैं

खाप पंचायतों और सामंती मानसिकता का ऐसा रूप विमर्श का तो विषय बना है लेकिन कहानी का कम। इस विषय पर अभी और कहानियाँ आनी चाहिये।

खाप पंचायतों और गाँव में दलितों पर होने वाले अत्याचारों की कहानी है मुकेश मानस की ‘अभिशप्त प्रेम’। यह कहानी अपेक्षा के अप्रैल-जून 2007 के ‘अम्बेडकरवादी कहानी विशेषांक’ में तेज सिंह के सम्पादन में छपी थी। कथावाचक जब बालक था तो दिल्ली की जे.जे. कालोनी में रहता था। गर्मियों में जब स्कूल की छुट्टियाँ पड़ जातीं तो वह उत्तर प्रदेश में अपने गाँव जाता था। वहाँ रिश्ते में लगते राघौ भइया से मेल मुलाकात होती है। बालक यह देख लेता है कि राघौ भइया का प्रेम गाँव के ठाकुर की लड़की से चल रहा है। राघौ जाटव है। कथावाचक बालक मल्ला छुट्टियाँ बिताकर दिल्ली आ जाता है। कालांतर में राघौ उस लड़की को दिल्ली ले आता है। दोनों को एक लड़का भी होता है। काफी तनाव के बाद ठाकुर शांत होते हैं और आकर इन्हें गाँव लिवा ले जाते हैं। बाद में कथावाचक को पता लगता है कि पहले राघौ भइया की पत्नी और बेटे की लाश खेत की मेड़ पर मिलती है और उसके बाद ‘उसी बरगद के नीचे... टुकड़ों-टुकड़ों में राघौ भइया की लाख मिली। ...हिन्दुस्तान के अभिशप्त प्रेम की लाश।’’

मुकेश मानस की यह कहानी खाप-पंचायतों और उनकी दकियानूसी सोच को उजागर करती है, उनके अमानवीय तथा असंवैधानिक कृत्यों को सामने लाती है तो संदीप मील की कहानी ‘एक प्रजाति हुआ करती थी-जाट’, इन खाप पंचायतों की अंदरूनी स्थिति और बेवकूफाना हरकतों पर करारा व्यंग्य करती है।

दलित कहानी शोषण ओर गैर बराबरी के सभी गढ़-मठों पर प्रहार करती है।

गाँव हो या शहर दलित कहानी शोषण की परतों को उधेड़ती है। कुछ वर्षों पूर्व इसी प्रकार का मामला दिल्ली के नरेला क्षेत्र में देखा गया था। जहाँ लड़की घर से भागकर अन्तर्जातीय प्रेम-विवाह कर लेती है। बच्चा होने के कई वर्षों बाद उसके माँ-बाप तीनों को मनाकर ;बहकाकरद्ध घर ले जाते हैं और बाद में उनकी हत्या कर देते हैं। मुकेश मानस की कहानी और उपर्युक्त घटना बताती है कि जब संविधान, व्यवस्था और सूचना तंत्र के बावजूद सवर्ण समाज इतने बड़े हत्याकांड को अंजाम दे सकता है तो पुराने हिन्दू-समाज ने हज़ारों वर्षों तक दलितों के साथ क्या-कुछ नहीं किया होगा? परन्तु समय बदला है तो चेतना में भी बदलाव आया है। सवर्ण तो बदले नहीं दलित समाज ने अपनी सोच बदली है।

राजेन्द्र बड़गूजर की ‘इनाम’ इस बदलाव की सूचक है। गाँवों में पंच-सरपंच किस प्रकार दलित वर्ग को ठगते हैं इसका उदाहरण ‘राजेन्द्र बड़गूजर’ की कहानी ‘इनाम’ प्रस्तुत करती है। यह हरियाणा के गाँवों की कहानी है। पंचायत में बी.डी.ओ. साहब आते हैं तो जाट सरपंच ताव-ताव में घोषणा कर देता है कि गाँव में आठवीं कक्षा में पहले नंबर पर जो बालक आयेगा उसे एक जहार रुपये इनाम देगा। इस घोषणा से उत्साहित दलित बालक चन्द्रशेखर मन लगाकर पढ़ता है और प्रथम आता है। चन्द्रशेखर पिता के साथ इनाम लेने सरपंच के घर जाता है तो सरपंच उन्हें दुत्कार देता है। बाप-बेटा मायूस होकर लौट आते हैं। चन्द्रशेखर का पिता शाम को जब काम पर से लौटता है तो खुश होता है वह बताता है कि- उसका बिरादरी भाई रग्घू चन्द्रशेखर के प्रथम आने की खुशी में लड्डू बाँट रहा था। बापू वही लड्डू चन्द्रशेखर को देता है और कहता है-‘‘मैंने उस समय यह महसूस किया कि सरपंच के एक हज़ार रुपये से रग्घू का एक लड्डू लाख गुणा बेहतर है।“ और रग्घू का यह कथन कि- ”तेरा बेटा फस्ट आए या मेरा, है तो हमारा ही।“ और प्रतिउत्तर में चन्द्रशेखर के पिता का रग्घू से यह कहना कि- ”लड्डू पाने के पीछे तेरी जिस भावना ने काम किया है वही तो मेरे बेटे के लिए असली इनाम है।“

वास्तव में यही भावना इस कहानी का भी इनाम है। ‘तेरे’ ‘मेरे’ की जगह ‘हमारा’ का भाव दलित समाज की बनती एकता को प्रदर्शित करता है। आज जब सरमायेदार और शोषक दृढ़ से दृढ़तर होते जा रहे हैं तब समान हितों वाले लोगों में सामूहिकता और एकजुटता का होना उनके अस्तित्व व अस्मिता के लिये बेहद ज़रूरी हो जाता है। यह कहानी हरियाणवी बोली-बाणी में बड़े स्वाभाविक ढंग से अस्मिता निर्माण की प्रक्रिया को कथा-सूत्र में पिरोकर पेश करती है। यह एक छोटी कहानी है जो एक बड़ी भाव-भूमि का निर्माण करती है। यह चेतना के बदलाव की कहानी है।

--

संपर्क

मकान न. 166, नाहरपुर, सेक्टर-7, रोहिनी,

नई दिल्ली - 1100085

मो. 9650407519

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. दलित स्त्री कहानीकारों में दिया नाम 'रजनी सिसोदिया' सही नहीं है उनका सही नाम डॉ. रजनी दिसोदिया है। ज्ञात हो सिसोदिया ' ठाकुर' होते हैं दलित नहीं ! दलित साहित्यकार होने की एक शर्त उनका जन्मना दलित होना भी है।

    जवाब देंहटाएं
रचनाओं पर आपकी बेबाक समीक्षा व अमूल्य टिप्पणियों के लिए आपका हार्दिक धन्यवाद.

स्पैम टिप्पणियों (वायरस डाउनलोडर युक्त कड़ियों वाले) की रोकथाम हेतु टिप्पणियों का मॉडरेशन लागू है. अतः आपकी टिप्पणियों को यहाँ प्रकट होने में कुछ समय लग सकता है.

नाम

 आलेख ,1, कविता ,1, कहानी ,1, व्यंग्य ,1,14 सितम्बर,7,14 september,6,15 अगस्त,4,2 अक्टूबर अक्तूबर,1,अंजनी श्रीवास्तव,1,अंजली काजल,1,अंजली देशपांडे,1,अंबिकादत्त व्यास,1,अखिलेश कुमार भारती,1,अखिलेश सोनी,1,अग्रसेन,1,अजय अरूण,1,अजय वर्मा,1,अजित वडनेरकर,1,अजीत प्रियदर्शी,1,अजीत भारती,1,अनंत वडघणे,1,अनन्त आलोक,1,अनमोल विचार,1,अनामिका,3,अनामी शरण बबल,1,अनिमेष कुमार गुप्ता,1,अनिल कुमार पारा,1,अनिल जनविजय,1,अनुज कुमार आचार्य,5,अनुज कुमार आचार्य बैजनाथ,1,अनुज खरे,1,अनुपम मिश्र,1,अनूप शुक्ल,14,अपर्णा शर्मा,6,अभिमन्यु,1,अभिषेक ओझा,1,अभिषेक कुमार अम्बर,1,अभिषेक मिश्र,1,अमरपाल सिंह आयुष्कर,2,अमरलाल हिंगोराणी,1,अमित शर्मा,3,अमित शुक्ल,1,अमिय बिन्दु,1,अमृता प्रीतम,1,अरविन्द कुमार खेड़े,5,अरूण देव,1,अरूण माहेश्वरी,1,अर्चना चतुर्वेदी,1,अर्चना वर्मा,2,अर्जुन सिंह नेगी,1,अविनाश त्रिपाठी,1,अशोक गौतम,3,अशोक जैन पोरवाल,14,अशोक शुक्ल,1,अश्विनी कुमार आलोक,1,आई बी अरोड़ा,1,आकांक्षा यादव,1,आचार्य बलवन्त,1,आचार्य शिवपूजन सहाय,1,आजादी,3,आत्मकथा,1,आदित्य प्रचंडिया,1,आनंद टहलरामाणी,1,आनन्द किरण,3,आर. के. नारायण,1,आरकॉम,1,आरती,1,आरिफा एविस,5,आलेख,4288,आलोक कुमार,3,आलोक कुमार सातपुते,1,आवश्यक सूचना!,1,आशीष कुमार त्रिवेदी,5,आशीष श्रीवास्तव,1,आशुतोष,1,आशुतोष शुक्ल,1,इंदु संचेतना,1,इन्दिरा वासवाणी,1,इन्द्रमणि उपाध्याय,1,इन्द्रेश कुमार,1,इलाहाबाद,2,ई-बुक,374,ईबुक,231,ईश्वरचन्द्र,1,उपन्यास,269,उपासना,1,उपासना बेहार,5,उमाशंकर सिंह परमार,1,उमेश चन्द्र सिरसवारी,2,उमेशचन्द्र सिरसवारी,1,उषा छाबड़ा,1,उषा रानी,1,ऋतुराज सिंह कौल,1,ऋषभचरण जैन,1,एम. एम. चन्द्रा,17,एस. एम. चन्द्रा,2,कथासरित्सागर,1,कर्ण,1,कला जगत,113,कलावंती सिंह,1,कल्पना कुलश्रेष्ठ,11,कवि,2,कविता,3239,कहानी,2360,कहानी संग्रह,247,काजल कुमार,7,कान्हा,1,कामिनी कामायनी,5,कार्टून,7,काशीनाथ सिंह,2,किताबी कोना,7,किरन सिंह,1,किशोरी लाल गोस्वामी,1,कुंवर प्रेमिल,1,कुबेर,7,कुमार करन मस्ताना,1,कुसुमलता सिंह,1,कृश्न चन्दर,6,कृष्ण,3,कृष्ण कुमार यादव,1,कृष्ण खटवाणी,1,कृष्ण जन्माष्टमी,5,के. पी. सक्सेना,1,केदारनाथ सिंह,1,कैलाश मंडलोई,3,कैलाश वानखेड़े,1,कैशलेस,1,कैस जौनपुरी,3,क़ैस जौनपुरी,1,कौशल किशोर श्रीवास्तव,1,खिमन मूलाणी,1,गंगा प्रसाद श्रीवास्तव,1,गंगाप्रसाद शर्मा गुणशेखर,1,ग़ज़लें,550,गजानंद प्रसाद देवांगन,2,गजेन्द्र नामदेव,1,गणि राजेन्द्र विजय,1,गणेश चतुर्थी,1,गणेश सिंह,4,गांधी जयंती,1,गिरधारी राम,4,गीत,3,गीता दुबे,1,गीता सिंह,1,गुंजन शर्मा,1,गुडविन मसीह,2,गुनो सामताणी,1,गुरदयाल सिंह,1,गोरख प्रभाकर काकडे,1,गोवर्धन यादव,1,गोविन्द वल्लभ पंत,1,गोविन्द सेन,5,चंद्रकला त्रिपाठी,1,चंद्रलेखा,1,चतुष्पदी,1,चन्द्रकिशोर जायसवाल,1,चन्द्रकुमार जैन,6,चाँद पत्रिका,1,चिकित्सा शिविर,1,चुटकुला,71,ज़कीया ज़ुबैरी,1,जगदीप सिंह दाँगी,1,जयचन्द प्रजापति कक्कूजी,2,जयश्री जाजू,4,जयश्री राय,1,जया जादवानी,1,जवाहरलाल कौल,1,जसबीर चावला,1,जावेद अनीस,8,जीवंत प्रसारण,141,जीवनी,1,जीशान हैदर जैदी,1,जुगलबंदी,5,जुनैद अंसारी,1,जैक लंडन,1,ज्ञान चतुर्वेदी,2,ज्योति अग्रवाल,1,टेकचंद,1,ठाकुर प्रसाद सिंह,1,तकनीक,32,तक्षक,1,तनूजा चौधरी,1,तरुण भटनागर,1,तरूण कु सोनी तन्वीर,1,ताराशंकर बंद्योपाध्याय,1,तीर्थ चांदवाणी,1,तुलसीराम,1,तेजेन्द्र शर्मा,2,तेवर,1,तेवरी,8,त्रिलोचन,8,दामोदर दत्त दीक्षित,1,दिनेश बैस,6,दिलबाग सिंह विर्क,1,दिलीप भाटिया,1,दिविक रमेश,1,दीपक आचार्य,48,दुर्गाष्टमी,1,देवी नागरानी,20,देवेन्द्र कुमार मिश्रा,2,देवेन्द्र पाठक महरूम,1,दोहे,1,धर्मेन्द्र निर्मल,2,धर्मेन्द्र राजमंगल,1,नइमत गुलची,1,नजीर नज़ीर अकबराबादी,1,नन्दलाल भारती,2,नरेंद्र शुक्ल,2,नरेन्द्र कुमार आर्य,1,नरेन्द्र कोहली,2,नरेन्‍द्रकुमार मेहता,9,नलिनी मिश्र,1,नवदुर्गा,1,नवरात्रि,1,नागार्जुन,1,नाटक,152,नामवर सिंह,1,निबंध,3,नियम,1,निर्मल गुप्ता,2,नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’,1,नीरज खरे,1,नीलम महेंद्र,1,नीला प्रसाद,1,पंकज प्रखर,4,पंकज मित्र,2,पंकज शुक्ला,1,पंकज सुबीर,3,परसाई,1,परसाईं,1,परिहास,4,पल्लव,1,पल्लवी त्रिवेदी,2,पवन तिवारी,2,पाक कला,23,पाठकीय,62,पालगुम्मि पद्मराजू,1,पुनर्वसु जोशी,9,पूजा उपाध्याय,2,पोपटी हीरानंदाणी,1,पौराणिक,1,प्रज्ञा,1,प्रताप सहगल,1,प्रतिभा,1,प्रतिभा सक्सेना,1,प्रदीप कुमार,1,प्रदीप कुमार दाश दीपक,1,प्रदीप कुमार साह,11,प्रदोष मिश्र,1,प्रभात दुबे,1,प्रभु चौधरी,2,प्रमिला भारती,1,प्रमोद कुमार तिवारी,1,प्रमोद भार्गव,2,प्रमोद यादव,14,प्रवीण कुमार झा,1,प्रांजल धर,1,प्राची,367,प्रियंवद,2,प्रियदर्शन,1,प्रेम कहानी,1,प्रेम दिवस,2,प्रेम मंगल,1,फिक्र तौंसवी,1,फ्लेनरी ऑक्नर,1,बंग महिला,1,बंसी खूबचंदाणी,1,बकर पुराण,1,बजरंग बिहारी तिवारी,1,बरसाने लाल चतुर्वेदी,1,बलबीर दत्त,1,बलराज सिंह सिद्धू,1,बलूची,1,बसंत त्रिपाठी,2,बातचीत,2,बाल उपन्यास,6,बाल कथा,356,बाल कलम,26,बाल दिवस,4,बालकथा,80,बालकृष्ण भट्ट,1,बालगीत,20,बृज मोहन,2,बृजेन्द्र श्रीवास्तव उत्कर्ष,1,बेढब बनारसी,1,बैचलर्स किचन,1,बॉब डिलेन,1,भरत त्रिवेदी,1,भागवत रावत,1,भारत कालरा,1,भारत भूषण अग्रवाल,1,भारत यायावर,2,भावना राय,1,भावना शुक्ल,5,भीष्म साहनी,1,भूतनाथ,1,भूपेन्द्र कुमार दवे,1,मंजरी शुक्ला,2,मंजीत ठाकुर,1,मंजूर एहतेशाम,1,मंतव्य,1,मथुरा प्रसाद नवीन,1,मदन सोनी,1,मधु त्रिवेदी,2,मधु संधु,1,मधुर नज्मी,1,मधुरा प्रसाद नवीन,1,मधुरिमा प्रसाद,1,मधुरेश,1,मनीष कुमार सिंह,4,मनोज कुमार,6,मनोज कुमार झा,5,मनोज कुमार पांडेय,1,मनोज कुमार श्रीवास्तव,2,मनोज दास,1,ममता सिंह,2,मयंक चतुर्वेदी,1,महापर्व छठ,1,महाभारत,2,महावीर प्रसाद द्विवेदी,1,महाशिवरात्रि,1,महेंद्र भटनागर,3,महेन्द्र देवांगन माटी,1,महेश कटारे,1,महेश कुमार गोंड हीवेट,2,महेश सिंह,2,महेश हीवेट,1,मानसून,1,मार्कण्डेय,1,मिलन चौरसिया मिलन,1,मिलान कुन्देरा,1,मिशेल फूको,8,मिश्रीमल जैन तरंगित,1,मीनू पामर,2,मुकेश वर्मा,1,मुक्तिबोध,1,मुर्दहिया,1,मृदुला गर्ग,1,मेराज फैज़ाबादी,1,मैक्सिम गोर्की,1,मैथिली शरण गुप्त,1,मोतीलाल जोतवाणी,1,मोहन कल्पना,1,मोहन वर्मा,1,यशवंत कोठारी,8,यशोधरा विरोदय,2,यात्रा संस्मरण,31,योग,3,योग दिवस,3,योगासन,2,योगेन्द्र प्रताप मौर्य,1,योगेश अग्रवाल,2,रक्षा बंधन,1,रच,1,रचना समय,72,रजनीश कांत,2,रत्ना राय,1,रमेश उपाध्याय,1,रमेश राज,26,रमेशराज,8,रवि रतलामी,2,रवींद्र नाथ ठाकुर,1,रवीन्द्र अग्निहोत्री,4,रवीन्द्र नाथ त्यागी,1,रवीन्द्र संगीत,1,रवीन्द्र सहाय वर्मा,1,रसोई,1,रांगेय राघव,1,राकेश अचल,3,राकेश दुबे,1,राकेश बिहारी,1,राकेश भ्रमर,5,राकेश मिश्र,2,राजकुमार कुम्भज,1,राजन कुमार,2,राजशेखर चौबे,6,राजीव रंजन उपाध्याय,11,राजेन्द्र कुमार,1,राजेन्द्र विजय,1,राजेश कुमार,1,राजेश गोसाईं,2,राजेश जोशी,1,राधा कृष्ण,1,राधाकृष्ण,1,राधेश्याम द्विवेदी,5,राम कृष्ण खुराना,6,राम शिव मूर्ति यादव,1,रामचंद्र शुक्ल,1,रामचन्द्र शुक्ल,1,रामचरन गुप्त,5,रामवृक्ष सिंह,10,रावण,1,राहुल कुमार,1,राहुल सिंह,1,रिंकी मिश्रा,1,रिचर्ड फाइनमेन,1,रिलायंस इन्फोकाम,1,रीटा शहाणी,1,रेंसमवेयर,1,रेणु कुमारी,1,रेवती रमण शर्मा,1,रोहित रुसिया,1,लक्ष्मी यादव,6,लक्ष्मीकांत मुकुल,2,लक्ष्मीकांत वैष्णव,1,लखमी खिलाणी,1,लघु कथा,288,लघुकथा,1340,लघुकथा लेखन पुरस्कार आयोजन,241,लतीफ घोंघी,1,ललित ग,1,ललित गर्ग,13,ललित निबंध,20,ललित साहू जख्मी,1,ललिता भाटिया,2,लाल पुष्प,1,लावण्या दीपक शाह,1,लीलाधर मंडलोई,1,लू सुन,1,लूट,1,लोक,1,लोककथा,378,लोकतंत्र का दर्द,1,लोकमित्र,1,लोकेन्द्र सिंह,3,विकास कुमार,1,विजय केसरी,1,विजय शिंदे,1,विज्ञान कथा,79,विद्यानंद कुमार,1,विनय भारत,1,विनीत कुमार,2,विनीता शुक्ला,3,विनोद कुमार दवे,4,विनोद तिवारी,1,विनोद मल्ल,1,विभा खरे,1,विमल चन्द्राकर,1,विमल सिंह,1,विरल पटेल,1,विविध,1,विविधा,1,विवेक प्रियदर्शी,1,विवेक रंजन श्रीवास्तव,5,विवेक सक्सेना,1,विवेकानंद,1,विवेकानन्द,1,विश्वंभर नाथ शर्मा कौशिक,2,विश्वनाथ प्रसाद तिवारी,1,विष्णु नागर,1,विष्णु प्रभाकर,1,वीणा भाटिया,15,वीरेन्द्र सरल,10,वेणीशंकर पटेल ब्रज,1,वेलेंटाइन,3,वेलेंटाइन डे,2,वैभव सिंह,1,व्यंग्य,2075,व्यंग्य के बहाने,2,व्यंग्य जुगलबंदी,17,व्यथित हृदय,2,शंकर पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
ltr
item
रचनाकार: समकालीन दलित कहानी: कुछ वैचारिक बिन्दु / टेकचंद / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
समकालीन दलित कहानी: कुछ वैचारिक बिन्दु / टेकचंद / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjN32yr8e6K7UGN7uI3LI_csyMfLXYmtC8gKCXPKC0U5xuA0j_37Ccvw3hqTjna-j0CV7ugKQXTj9WERSIqkUTDLQnRP1DmO0t_utOKoSgfwBYTUvMkT5b99SgoaabUpHUtcDE/?imgmax=800
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgjN32yr8e6K7UGN7uI3LI_csyMfLXYmtC8gKCXPKC0U5xuA0j_37Ccvw3hqTjna-j0CV7ugKQXTj9WERSIqkUTDLQnRP1DmO0t_utOKoSgfwBYTUvMkT5b99SgoaabUpHUtcDE/s72-c/?imgmax=800
रचनाकार
https://www.rachanakar.org/2016/06/2016-2_85.html
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/
https://www.rachanakar.org/2016/06/2016-2_85.html
true
15182217
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content