रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 सौमित्र तलछट उन दिनों मैं बहुत तेज भागता था। या शायद ऐसा मुझे लगता होगा बस। क्योंकि कुछ लोग त...
रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
सौमित्र
तलछट
उन दिनों मैं बहुत तेज भागता था। या शायद ऐसा मुझे लगता होगा बस। क्योंकि कुछ लोग तो मुझसे पहले ही अपने अपने ठिकाने पहुँच गए। मैं तब बहुत छोटा था। तीन-चार बरस की उम्र रही होगी मेरी। मेरे बहुत से नन्हें-पतरे साथी थे। मैं सबका नेता। हम सब सुबह-सुबह घर से स्कूल को निकल जाते एक लारी में बैठके। माँ बालों में तेल डालके तैयार कर देती थी। उससे पहले मार के उठाती भी थी। नल के नीचे बिठाने के बाद मुझे निकाल लिया जाता। मैं नल के नीचे उखरु बैठा रोता रहता। फिर मुझे तौलिया से पोछा जाता। उस तौलिया की खरखरी मेरी पीठ पर बहुत चुभती थी। साथ में जब सर पोछा जाता तो दिमाग में घुम्मी आ जाती। नेकर-कमीज पहनकर, मैं खाने का डिब्बा ले के पड़ोस वाले शीशम के पेड़ के नीचे आ जाता, लॉरी का इंतजार करने। लॉरी के आगे टैक्टर लगा रहता और वो पचास सीटों वाली एक छोटी सी बस को खींचता। उस बस में घुसते ही मैं नेता बन जाता था। मेरी शादिर्गी में बहुत से छूटकू पुटकु थे। चुटकी पुटकियाँ थीं। मैंने उन सब महिलाओं और पुरुषों को अपने बचपने में रोते पोतते देखा था जो आज न जाने कहाँ कहाँ हैं। लॉरी में हम लोग खूब चिल्लाते थे। लॉरी उस कसबे का पूरा चक्कर लगा के स्कूल तक पहुँचाती। पहले पहल बहुत से क्वार्टर्स पड़ते। फिर दूसरे स्कूल। फिर बड़ा बाज़ार। फिरे रेलवे स्टेशन। फिर फैक्टरी की चहारदीवारी। बीच में बहुत से खेत। रास्ते में खूब बंदर दिखते थे। हम सब जोर से चिल्लाते-बंदर ले रोटी। तेरी माँ मोटी। उन दिनों मैंने एक नया मखौला किसी छोकरे के मुँह से और सुना था।
लाम नाम छत्त है
पंडित जी का वत्त है
पंडित जी आलू नहीं ठाँएँगे।
मुझे पहली बार सुनने में नया और अजीब लगा था। पर क्योंकि मतलब की ज़रा भी समझ नहीं थी सो मैं भी ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाता।
लाम नाम छत्त है।
स्कूल में पहुँचते ही लॉरी में से एक आया हम सबको उतारती। उतरते ही हम सब भागते। क्योंकि मैं उन सबका गुरु था, सो मैं सबसे पहले भागता था। आया हाय-हाय करके हम सबके बमों पर मुक्के मारती और खूब गालियाँ देती। हमें उसे छेड़ने में बहुत मजा आता। कभी-कभी हममें से कुछ गिर पड़ते और ठुड्डी और घुटनों में से खून बह निकलता। रोते-पड़ते, हँसते-कूदते हम लोग प्रार्थना के लिए खड़े होते। हमारी टीचरें हाथ में एक फुटा रखती। जो प्रार्थना के वक़्त बात करता नज़र आता, उसे एक तड़ के पड़ती। स्कूल के पीछे एक बड़ा खेत था। और उसके बाद एक बड़ी नहर। हम सब बच्चों को उस तरफ न जाने की सख्त हिदायत थी। अक्सर दूसरी तरफ बहुत से जानवर घूमते मिलते और साथ ही बहुत बार उधर चीलों को मँडराते भी मैंने देखा था। उस तरफ शायद एक शमशान घाट भी था। हमारे स्कूल का रुख कुछ इस तरह था कि हम बरसों बरस वहाँ पढ़ते रहते पर उसकी उपस्थिति का पता न चल पाता। खेतों और नहर के बीच एक छोटे दायरे का घना जंगल भी था। सब बच्चों को पता था कि वहाँ लॉयन और टायगर रहते हैं सो हम लाग कभी उस तरफ जाने की सोचते भी नहीं थे। नहर के किनारे की सड़क मुख्य हाइवे से एक संकरे रास्ते से जुड़ी थी। उस पर एक छोटा सा मंदिर, एक दो ढाबे और कुछ फूलों की दुकानें थीं। वहाँ अक्सर लोग आते रहते होगे क्योंकि वहाँ से बहुत से स्कूटर, रिक्शे, बुग्गियाँ, साइकिलें आती जाती रहतीं। ऐसा मैंने तब देखा था जब किसी त्योहार के दिन पापा-मम्मी मुझे वहाँ नहलाने लाए थे। नहर के घाट की पत्थर की सीढि़यों पर बैठकर मम्मी ने खूब रगड़-रगड़ के मुझे नहलाया था। पापा ने गुडपी-गुडप तीन चार डुबकियाँ लगवा दी थीं मुझे, उस नहर के ठण्डे-ठण्डे पानी में। उस रोज़ वहाँ छोटा-मोटा मेला ज़रूर रहा होगा। हाथ बल्ली में भूसे के छाते वाले बहुत से खिलौने लगाए घूम रहे थे। बुढि़या के बालों वाली मीठी गुलाबी और हरी भूस बिक रही थी। मूँगफली और चाट वाले ठेला लगाए खड़े थे। बहुत सी बूढ़ी औरतें और आदमी रिक्शों में बैठे-बैठे आ रहे थे। उनके हाथों में पूजा का बहुत सा सामान था। कुछ पंडित और नाई मिलकर बहुत छोटे-छोटे बच्चों के बालों में उस्तरा फेर के उनके बाल उतार रहे थे। मुझे वो क्षण याद नहीं रहता पर मम्मी ने जैसे ही तौलिया के खरखरे रोयों से फिर पीठ पोछी, मुझे चुभन से होने वाली रुलाई छूटने ही वाली थी कि वही शब्द मेरे कान में पड़े।
‘राम नाम सत्त है
लाम नाम छत्त है।’
मैंने दृष्टि चारों ओर फेंकके ढूढ़ने की कोशिश की कि कहीं मेरा लॉरी वाला दोस्त तो आसपास नहीं। पर वो कहीं नहीं था। पन्द्रह-बीस लोगों की भीड़ थी। पाँच छः के कंधों पर बाँस की चारपाई की तरह कुछ था। उसपर कोई आदमी शायद कम्बल ओढ़े लेटा था। बहुत से गेंदे के फूल ऊपर बिखरें थे और सामने एक लड़का मट्टी की हाँड़ी लिए आगे-आगे चल रहा था। माँ ने उधर देखके मुझे साड़ी की ओट में खींच लिया। पापा ने शीश पर हथेली रख दी। मुझे लगा कि ऊपर लेटे पंडित का वत्त खत्म होने वाला है और शायद अब वह आलू खा सकेगा।
हरीश जिसे तुतला नितेदंर हलीद कहता था, मुझसे बहुत हड़कता था। मैंने उसे छोटा जानकर कई बार लात-घूते धर दिये थे। विशेषकर उसके पेट में, जहाँ घूसा मार मुझे अजीब सी तृप्ति होती। मैं पूरी मुट्ठी बनाके अमिताभ बच्चन की तरह जोर से घुमाके देता। साथ ही मुँह से ध्वनि निकलती ‘भिशुभ।’ हरीश भाग के निकल जाता और फिर कहीं छिप के देर तक रोता रहता। मुझसे पिटकर वो कभी-कभी आया के पास चला जाता। आया उसे मैडम के पास ले जाती। मैडम बड़ी मैडम को बोलती। बड़ी मैडम मुझे खड़े फुटे से पीटती। हरीश का नेकर हमेशा ढीला हरता। और उसकी कमीज हमेशा गुजली रहती। मुँह पे ढेर सी फुंसियाँ। उससे कोई ज़्यादा बात नहीं करता था क्योंकि सब उसे गंदा समझते। वो हर दूसरे-चौथे दिन नेकर में पेशाब कर देता। आया उसे नल के नीचे ले जाके नंगा कर देती। और फिर वो घंटे-दो घंटे सारे स्कूल में नंगा घूमता। हम सब उसे नंगू-धड़ंगू कहके चिढ़ाते। खेलने के वक़्त वो सबसे धीमा खिलाड़ी होता। खाने के वक़्त कोई उसका खाना नहीं खाता। वो अकेला खाने का डिब्बा खोल के कुछ-कुछ चबाता रहता। नितेन्द्र जिसे सब बन्दर कहते थे, ने बताया था कि वो भंदी का लड़का है। नितेन्द्र, जो भंगी को भंदी कह पाता था, वो सब जानता था इसके बार में। इसके माँ बाप उसके घर के पास के एक क्वार्टर में रहते थे। उसने इसके बाप को तमाम भंदियों के साथ, घेरकर सुअर मारते देखा था। नितेन्द्र अब सुअर को मरता देख नहीं डरता था। जबकि पहले ऐसा देखके वह चिल्ला चिल्लाकर रोता था। मैंने नितेन्द्र से पूछा था ‘ये भंदी क्या होता है?’ उसने बस इतना बताया कि ‘भंदी वो होता है जो सबकी टट्टी साफ करता है।’ मेरी टट्टी तो बहुत बार मम्मी साफ करती थीं सो तब कुछ दिनों तक मुझे लगा कि शायद मम्मी भी भंदी हैं।
हरीश की मम्मी को मेरी मम्मी जानती थी। पर मुझे कई दिनों बाद ही पता चल पाया। एक दिन स्कूल में जब हरीश बहुत रो रहा था, तब आया ने चपरासी को साइकल पर भेज उसकी मम्मी को बुलावा भेजा। वो एक पुरानी पोलिस्टर की साड़ी लपेटे थीं, जिसके पीले रंग पर मैल की गहरी परतें और गुथीं हुई स्थाई सिलवटें थीं। उसने गुलाबी ब्लाउज़ पहना था, जिसका बाँहों पर ऊपर तक चूडि़याँ चढ़ी थीं। उसके चमकते हुए पीले दाँत थे और माथे पर बड़ी सी लाल बिन्दी। वो बालों को तेल में पिरो के गूंथी थीं। उसका पेट बड़ा सा, बहुत फूला-फूला जान पड़ता था। तब मुझे समझ नहीं थी पर आज जानता हूँ कि वो उस वक़्त गर्भवती थीं। वो हरीश का हाथ पकड़ कर खींचके ले गई। हम तीन चार लड़के हरीश का जाना देख रहे थे। मैं उस औरत को पहचान गया था। तब तक नितेन्द्र ने एक और सूचना दी- ‘जे लामलौताल दमादाल ती दूछती बीवी है।’ मतलब कि ये रामौतार जमादार की दूसरी बीवी है। पहली ने बहुत पहले कमरा बन्द करके मिट्टी का तेल छिड़क के आग लगा ली थी जिसमें वो और हरीश की बड़ी बहन जलकर खत्म हो गए थे। ऐसी सूचनाओं से मेरा जी बहुत घबरा जाता था उन दिनों।
हरीश की दूसरी मम्मी हमारे यहाँ काम करने आती थी। मुझे उसकी आँखों में लगा गहरा काजल और मुँह में ठँुसी बीड़ी की आज तक याद है। पापा जब संडास में बैठे होते तब मम्मी अक्सर मुझे आँगन का दरवाज़ा खोलकर घर से बाहर की नाली पर बैठा देतीं। दूर नज़र दौड़ाने पर मुझे अपने जैसे और दस पाँच बच्चे नाली पर बैठे नज़र आ जाते। वहीं बहुतबार मैंने उसकों नाली में अपनी सीकों वाली झाडू फिराते देखा था। जब वो हमारे घर की तरफ आती, तो घर की किवाड़ खड़खड़ा के मम्मी को बाहर बुला लेती। मम्मी बाल्टी भर के पानी छपाक से नाली में फेंक देती और वो खरखरी झाडू से, धार का फायदा उठा सब गंदगी खीच लेती। मुझे उन दिनों, उस झाडू की नाली में घिस घिस के उठती आवाज़ बहुत कौतूहल देती। अक्सर मम्मी उसे रात की बची रोटी और साग दे देतीं, जिसे वह अपनी कमर में लिपटी, पालीथीन की झोली में रख लेती।
जिस दिन मुझे पता चला था कि हरीश की मम्मी जलके मर गई, उसके कई रोज बाद तक मैं सहमा-सहमा रहा था। नितेन्द्र ने ये भी बताया था कि उसकी माँ के जूलूस में कुछ लोग ‘लाम-लाम छत्त है’ बोल रहे थे। ऐसा वो क्यों बोलते थे ये न मुझे मालूम था, न नितेन्द्र को। पर शायद हरीश को जरूर पता होगा, ऐसा मैं सोचता था। मम्मी को जब पता चला कि शांति, हरीश की नई माँ, का लड़का मेरे स्कूल में पढ़ता है तो वो भी विचलित हो गयी थी। मुझे याद है पापा ने बहुत प्यार से बुलाकर मुझे समझाया था कि शांति के लड़के से मैं दूर रहूँ। सरकारी स्कूलों में बच्चे पढ़ाने का शायद यही एक नुकसान था, कि सब तबकों के लोग अपने बच्चे भेज सकते थे वहाँ, ऐसे में छोटे में ही बच्चों को गंदी बातें सीखने को मिल सकती थीं। स्कूल में भी शायद ऐसे बच्चों को रखने-पढ़ाने का तरीका कुछ अलग था। पाँच टीचरों वाले स्कूल में हमेशा कुछ टीचर, ऐसे बच्चों को छूने से बचती। मुझे याद है जब सब बच्चों की कॉपी जाँच रही होती तो हरीश की कॉपी को बिना छूए एक मैडम ऐसे ही उसे थामें रखने को बोलती। भलमनसी के लिए शायद उसे गुड बोलकर, अपना काम निकाल लेती। आयाओं के लिए ये मजबूरी थी। कुछ आयाएं शायद उसी तबके से आती होंगी। वो अपना अलग झुण्ड बनाकर बैठतीं। उनके साथ बाकी आयाएं खाना नहीं खातीं। जबकि चेहरे से और वेशभूषा से वो बहुत अलग आर्थिक स्थिति वाली न लगतीं। हम सब आयाओं को आन्टी कहते। और उनसे ऐसे बात करते जैसे-आन्टी आन्टी! छूरेछ ने छूछू तर दी है बड़ी मैडम ने आप को बुलाया है। वो वाली आया कहती-मुझे नहीं रामकली को बुलाया होगा। ठहर मैं अभी भेज देती हूँ। फिर वो धीमे मुँह कुछ बकती हुई रामकली रामकली चिल्लाने लगती।
काफी दिनों बाद एक दिन मैंने फिर शांति को स्कूल में देखा था। उस दिन हरीश को सुबह से दस्त आ रहे थी। रामकली और फूलकली उसे साफ कर करके सुचाते-सुचाते परेशान थीं। बड़ी मैडम ने उसे नल के पास बिठाने को बोल दिया था। वो नल एक हैण्डपम्प था जिसके नीचे सीमेंट का चबूतरा था। हरीश शर्ट और नीचा स्वेटर पहने था और आया ने उसका नेकर उतारकर पास की घास पर रख दिया था वो उकडूँ बैठ के रोए जा रहा था। रेसिस के टाइम में आप-पास पन्द्रह-बीस बच्चों ने हैण्डपम्प के पास घेरा लगा लिया था। सबको हरीश को नंगू देखते रहने की ख्वाइश थी ताकि अगले दिन उसे फिर चिढ़ा सकें। मैं भी उस घेरे में था। हमेशा की तरह मैं हरीश को देखके आतंकित सा हो गया था। मुझे बहुत विचित्र सी भयाीय अनुभूति होती उसे देखकर। शांति जब रिक्शे से उतरी तो उसे देखके सारी तमाशबीन भीड़ तितरबितर हो गयी। नितेन्द्र बोला-चल दूर चलें। भंदन है। वो मुझे हाथ पकड़के ले गया। फिर मैं दूर बेंच पे बैठा-बैठा उन्हें देखता रहा। शांति का पेट बहुत फूला हुआ था। उसकी आँखें बहुत सूजी-सूजी लग रही थीं। उसके कपड़े वैसे ही मटमैले चमकीले रंगों वाले। आया उससे बोल रही थी।
‘ऐं यों सुबो से दस्तम दस्त किए जा रहा है, का खिलाया था याको।’
शांति बिना उत्तर दिये, हरीश का हाथ पकड़ के उसको ले गयी। हफ्ता दस दिन तक हरीश नहीं आया स्कूल उसके बाद।
मैं उन दिनों बहुत तेज भागता था। अपने छोटे-मोटे साथियों का मैं नेता था। उस रोज़ हम लोगों को खूब शरारत चढ़ी थी। हम पाँच छः बच्चे सबकी नज़र बचाके, बाउंडरी के तारों में से लेट के निकलकर भाग आए थे स्कूल से। नितेन्द्र को सबसे पहले ये बात सूझी थी। उसी ने बताया था कि सामने के खेतों में जहाँ खूब गन्ने लगे हैं, वहाँ ईख के पास कुछ मकान हैं, वहाँ कुछ जगहों पर दन्ने का रछ निकालके दुड़ बनाता है। हम नेकर बुशर्ट में भाग चले थे दुड़ थाने। खेत में चलते चलते कुछ दूरी पर वो जंगल दिख रहा था जिसके पार नहर थी। सब आतंकित थे कि गुड़ के चक्कर में शेर चीते न मारके खा जाये हमको। दुपहरी भर खेत में भटकने पर जब कुछ नहीं मिला तो हम जंगल में भाग चले। जंगल क्या था, वो अमरूद और जामुन के पेड़ों का बाग था। वहाँ से थोड़ी दूर पर नहर साफ दिखती थी। मुझे देखते ही ध्यान हो आया कि यह वही जगह है, जहाँ पापा-मम्मी नहलाने लाए थे मुझे। मैंने सबको सम्बोधित करके कहा। ‘चलो नहर तक की दौड़ लगाते हैं।’ मेरा बस कहना था सब उस तरफ दौड़ने लगे। इस तरफ मैं कुल मिलाके दूसरी बार आया था। पहली बार की याद करके मैं इधर-उधर उन लोगों को ढूढ़ने लगा जो वैसे कंधे पर चारपाई में लेटे आदमी लादे चलते थे। बात ही बात में एक आठ-दस लोगों का जूलूस दिखाई दिया। ठीक उस दिन की तरह, पर जूलूस वाले लड़के-आदमी वैसे साफ सुथरे न थे। गेंदे के फूल भी बहुत कम दिख रहे थे। चारपाई के कम्बल में से एक तेल चिपड़ी चोटी बाहर खिसक आई थी।
राम नाम सत्य है!
नितेन्द्र देख के चिल्लाया-भादो!! लामऔताल जामादाल है। मैं थोड़ी देर वहाँ खड़ा रहा। रामऔतार अजीब सी शक्ल बनाकर चिल्ला-चिल्ला के आगे बढ़ रहा था। वो बेहोशी में बोल रहा था- ‘खाती न थी, पीती न थी। मर गई। मर गई। खाती न थी। पीती न थी।’
मैं भयाक्रांत वहाँ से भगने लगा। मैं डर गया था। मैं उन शब्दों को सुनके हमेशा डर जाता था। लॉरी ने हमको शाम तक घर छोड़ दिया। एक आया ने हमको खोज निकाला था। फिर फुटे से हमारी खूब मरम्मत हुई थी। शांति के मरने की खबर मम्मी को भी थी। मोहल्ले की सारी औरतों में केवल इसी बात की चर्चा थी। शांति की बातों को याद करके मम्मी कई रातों तक नींद में उठ-उठ कर बैठ जाती थीं। पर बात वहीं खत्म नहीं हुई थी। मुझे हमेशा ये ध्यान आता कि हरीश अब स्कूल क्यों नहीं आता है? एक दिन मैं आया रामकली के पास गया और उससे पूछा।
‘हरीश अब स्कूल क्यों नहीं आता?’
रामकली बात छुपाती सी बोली। ‘तुझे का करना बाबू तू जा के खेल।’
मेरे ना मानने पर बोली- ‘बेटा वो माता को चढ़ गया। उसे खूब बुखार हुआ। फिर डॉक्टर उसे बचा नहीं पाए।’
मुझे ऐसे लगा जैसे वो कहीं दूर जाके रहने लगा है। शाम को मैं मम्मी जी से चिपक गया और फिर खेलने भी नहीं गया उस दिन। उसके बाद मैंने रामौतार जमादार को एक बार तब देख वो होली के बाद त्यौहारी माँगने आया था। मैं उसे देखते ही दौड़ गया था भीतर। उन दिनों मैं बहुत तेज दौड़ता था। शायद मैं इतना दौड़ा हूँ कि तब से उन सब स्थितियों से दूर निकल आया हूँ। लौट के देखने पर सब गया गुज़रा लगता है।
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