रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 मुकेश वर्मा चार चतुर की बेकार कथा वे चार थे। चारों बेकार थे। पहिले वे ऐसे नहीं थे। बचपन से ही...
रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
मुकेश वर्मा
चार चतुर की बेकार कथा
वे चार थे। चारों बेकार थे। पहिले वे ऐसे नहीं थे। बचपन से ही सबके अपने कारोबार थे, जहाँ कहीं कभी कोई ना तो फिक्र थी और ना ही चिन्ता। एक साथ रहते थे। शुरुआती दिनों की बात थी। उनमें से एक कविता लिखने की धुन में रहता था। दूसरा कागज पर रंगों से खेलते रहना चाहता था। तीसरा अपनी आवाज को अंतरिक्ष तक उठाकर स्वरों में खो रहा था। चौथा नृत्य की लयात्मक मुद्राओं में अपना वजूद भूलने की हद पर था। अपने शौक में मुब्तिला वे सभी बेपरवाह और अलमस्त थे।
उन दिनों उनके पास खत्म ना होने वाले दिन और रात थे। हँसती हुईं सुबहें थीं। महकती हुईं शामें थीं। गुनगुनी धूप थी। आसमान में बेफिक्र चाँद। आँखों में उजाले थे और सपने अंधेरी रातों की गोद में से नहीं, दिन के उजालों के सरमाये में से निकलते। नींदों में डूब जाने के बाद स्याह-धूसर लिफाफों में से इतने रंगीन सपने निकले कि दुनिया के रंग चटख और रौशन हो गए। इस रौशनी ने फिर वे पगडंडियाँ दिखलाईं जिन पर से चलकर उनके पास किताबें आईं। उन किताबों के एक-एक पन्ने में खजाने छुपे थे जो खोलने पर बेतहाशा बोलते, ना खोलने पर बार-बार पुकारते और ना सुनने पर अवाक् और स्तब्ध रह जाते लेकिन उनकी अनुगूजें बन्द नहीं होतीं और फिर उधर मुड़ना ही पड़ता जिस मोड़ पर वे खड़ी होकर उनकी बाट तक रही होतीं। वे दोस्त की तरह सीने से लग जातीं और दुश्मन की तरह कभी खुद को भूलने नहीं देतीं। उन्होंने आंखों के रास्ते चलकर और कानों के पास ठहरकर वे तमाम बूझ-अबूझ बातें बताई-सुनाईं जो उनके दिल में अब तक थीं लेकिन जाने क्यों खामोश थीं। पानी की ऐसी चुप सतह जिस पर कोई अक्स ना थे लेकिन किताबों ने ऐसी हलचलें उठा दीं कि अब तक देखी गईं और अब तक ना देखी गईं तमाम सूरतें, तमाम चेहरे, तमाम किस्से और अब तक ना देखे-सुने-जाने-समझे अफसाने अगली-पिछली हजार रातों के बयान देने लगे। इस किस्सागोई में वे करामाती नक्शे और तिलिस्मी निशान थे जो कभी उनके खयालों में इस तरह तो कभी ना थे, और फिर उनमें
से निकलीं वे दिलकश उड़ानें जो सीधे उनके ख्वाबों तक पहुँचकर उन्हें वहाँ ले जाती थीं जहाँ दिल ने पहुँचने का कभी खुद से वायदा किया था और इस हसरत में फ़ना हो जाना पसंद भी किया था। हिम्मत और हौसले अपने शबाब पर थे। कुछ कर गुजरने की तमन्नाएँ दिल में सौ-सौ बल खाती थीं। कमबख्त अंगड़ाइयाँ भी इस तरह और इस कदर उठती थीं कि उम्र के पेड़ों पर कमसिनी के फल वक्त से पहिले पकने लगे थे। उन्हें वे सहारे मिले जिन्होंने उन्हें अपना सहारा माना। वक्त की थैली में रखी प्यार की इस दौलत को दुनिया की सबसे हसीन और अहम शै मानकर वे फूले ना समाये और बेतहाशा खर्च करने में तल्लीन हो गए।
अब वह आस्मान उनके हाथों में था जिसके कूचे-कूचे की सैर उन्होंने दिल्लगी के साथ की। तब उन्हें वे पत्थर भी गड़े जो लोगों ने हर उठती चीज के खिलाफ फेंके थे और जिनके सिलसिले पुरजोशी से बाद तक कायम रहे। इन चोटों से किताबों के हरे-भरे पन्ने फीके तो पड़ने लगे पर बदरंग नहीं हुए। फूलों में पोशीदा कांटों का अहसास होने लगा था और एक बार फिर दुनिया के बारे में शंकाएँ और आशंकाएँ पैदा हुईं, मगर कुछ अलग अंदाज से, कुछ अलग अंजाम के साथ। इन्हीं पेंच दर पेंच उलझनों में से ढेर सारी अनथक बहसों की धाराएँ बहीं। इस जल-थल की जड़ों से गुत्थियाँ निकलीं। विचारों के सिलसिले बने-बिगड़े। मान्यताएँ टूटीं-फूटीं। स्थापनाएँ सजी-संवरीं। कामनाएँ सुलझीं-उलझीं। सच बिखरे। झूठ ठहरे। अंधेरे में रौशनी का भ्रम और रौशनी में अंधेरे का रहस्य जगा। अजब तमाशा कि वे इनमें-उनमें फर्क ढूंढते रहे और यकीनी तौर पर हाथ कुछ ना आया। अज़ब शक्लों में गहरे मथती कशमकश और उबाल भरे तनाव हैरान-परेशान माथे में भरते चले गए।
दुनिया फुटबाल की गेंद की तरह लुढ़कती हुई कऱीब आई थी जिसके साथ उन्होंने अपनी तरह से खेलना शुरू किया। गेंद आस्मानों तक जाती और वे समुद्र की गहराइयों से उसे खींच लाते। लेकिन ज़ल्द ही गेंद ने अब उन्हें किक मारना शुरू कर दिया। पढ़ाई खत्म होने के साथ वे ना केवल क्लास-रूम से बाहर हुए बल्कि अपनी दिलचस्पियों के हर मैदान से बाहर होते चले गए। वे गहरी असमंजस के दिन थे जिसके दिन-दहाड़े अंधेरों में वे सब घिर गए। जीवन के अर्थ व्यर्थ होने लगे। ना घर में राहत, ना बाहर चैन। सड़कों पर आवारागर्दी और नौकरी की अनंत अर्थहीन तलाश। सपनों की जमा-पूंजी तेजी से खर्च हो रही थी। शीशे का शहर पत्थरों में तब्दील हो रहा था। प्रेम-पत्रों के चिथड़े उड़ने लगे। रफूगिरी का कोई अंदाज काम ना आया। मौसम नहीं चेहरे बदल रहे थे। भरे हुए पैमाने उलट रहे थे। शक उन्हें करना चाहिए था लेकिन लोग उन पर शक करने लगे थे। धरती का वज़न बढ़ रहा था जिसे वे अपनी धँस रही छाती पर शिद्दत से महसूस कर रहे थे लेकिन अथाह दलदल में डूबते जाने के अलावा कुछ भी बस में नहीं रहा। और फिर वह दौर शुरू हुआ जब अपनी नालायकी और निकम्मेपन के साथ, सपनों और बहसों का बोझ उठाए वे वीरान पार्कों की नामुराद सूखी ज़मीन पर खारिज पत्तों से असहाय पड़े रहते या सड़कों पर धूल की तरह इधर से उधर उड़ते-बिखरते। कभी जिस किस्मत से उम्मीदों का रिश्ता बनाया था, उसे अब दिन-रात कोसते लेकिन उससे क्या होना था !!!
चलते-चलते उनमें से एक ने आलीशान होटल के नायाब कालीन पर इठलाते एक जोड़ी जूतों को देखा। उन जूतों पर बेहतरीन पालिश थी। वे इतने खूबसूरत थे और अपने इस आतंक की वजह से इतने चमक रहे थे कि चकाचौंध में उन्हें देखना या उनके आस-पास देख पाना मुश्किल था। उससे भी मुश्किल उन तक पहुँच पाना था। लेकिन वह उन्हें लगातार देखता रहा होगा, तभी अचानक एक झपट्टा मारकर उन कीमती जूतों में सूराख कर भीतर घुस गया।
उन सब के लिए यह एक जबर्दस्त और आकस्मिक हादसा था। इस बारे में इस तरह से उन्होंने कभी सोचा नहीं था और आज जो सोचा, वह ग़म और ग़ुस्से के अलावा कुछ नहीं था। जितना अचरज, उससे दूनी नफरत और चौगुनी हिकारत। बस यही बबाल उठता रहा कि क्या हुआ होगा उसका ? सबने कहा कि सख्त ऐड़ियों की चोटों में कहीं पिचपिचाकर रह गया होगा। इस सारी प्रक्रिया में दया भी आई, तरस भी खाया, डर भी लगा लेकिन कहीं कुछ राहत सी भी महसूस हुई जिसके बारे में किसी की कोई कैफियत नहीं थी।
सोचते-सोचते उनमें से दूसरा उस कलफ लगी कड़कदार वर्दी के गिर्द मँडराने लगा जिसके आस-पास बरसों से उसका बाप भिनभिना रहा था और हमेशा बेटे के कान उमेठकर उस ओर खींचता रहता था। दूसरे का मन पहिले तो कभी इस काम में नहीं लगा था लेकिन एक दिन जाने क्या हुआ कि वह ग़ज़ब की तेजी से भिनभिनाता हुआ उड़ा और धीरे से वर्दी की चोर जेब में दाखिल हो गया। वे सब देखते रह गए। सबका मन नफ़रत से भर उठा, फिर भी सबने उसे कई बार पुकारा। लेकिन उसके बाप की रौबीली मूँछों की फुफकार और सख्त हाथों की आक्रामक फटकार से पास फटक ना सके। घृणा भरी थूक के साथ वे सब ज़मीन पर पटक दिए गए। फिर भी वे उसे पुकारते रहे लेकिन वह जा चुका था।
यह एक और संगीन वारदात बनी जिसके बारे में कभी सोचा नहीं गया था। उन्हें हर तरह से आश्चर्य हुआ। आखिर उसे क्या सूझा। वे उसके बारे में कितना अधिक जानते थे लेकिन ऐन वक्त जानना कितना कम पाया गया। जाते समय उसने ना कुछ पूछा, ना सलाह-मश्विरा किया, यहाँ तक कि आवाज़ भी नहीं सुनी। इस बार भी दया थी, पर कम थी। तरस भी कम था। डर ज़रूर बढ़ गया था। लेकिन इस बार राहत हो या ना हो, ईर्ष्या की हल्की लपट ने कलेजे तक आंच दी थी। उन्हें यकीन हो रहा था कि वह अब कभी उनकी आवाज़ नहीं सुनेगा। लेकिन इस बार खुद को तसल्ली देने के लिए उसे पुकारा।
पुकारते-पुकारते उनमें से तीसरा पश्चिम से आ रही गोलियों के तेज़ धमाके को गौर से सुनने लगा। बारूदी गंध के उस माहौल में वह पहिले स्तब्ध हुआ और फिर हतप्रभ खड़ा रहा। फिर तेज़ी से दौड़कर उस तरफ ग़ायब हो गया जहाँ से अभी तक बंदूकों के धमाकों की आवाज़ें आ रही थीं। खून की बौछारों के बीच धुआँ फैल रहा था। छायाएँ अस्पष्ट थीं। सिर्फ उनके काले नकाब चमक रहे थे। उनके कहकहे दिल को दहलाने वाले थे। उस सब में वह कहाँ था, कहाँ चला गया, कोई बता नहीं सका, बल्कि एक खतरनाक खामोशी फैलती चली गई। निश्चय ही उसी जलजले में कहीं वह भी शामिल हो चुका था, लेकिन अब दिखाई नहीं दे रहा था।
उनमें से अब सिर्फ चौथा बचा था। उसके पैरों के नीचे की ज़मीन खिसक चुकी थी और आसमान ऐन सिर पर खड़ा कहर ढा रहा था। वह निपट अकेला और निरीह रह गया था। उसने हिम्मत कर ज़मीन को पकड़ने का उपक्रम किया। लेकिन मुँह के बल गिरा। तभी शोर का एक ज़ोरदार झोंका आया। वह पत्ते की तरह उड़ चला और उड़ते-उड़ते सड़क पर चल रहे एक जुलूस के बीचों-बीच गिर पड़ा। हाथी, घोड़े, ऊँट, जीप, मोटर-साइकिलों, ट्रक-ठेलों, कारों, तलवारों, इश्तहारों और अखबारों की भारी भीड़ थी। उनके पास किसिम-किसिम की टोपियाँ, घोषणाएँ, शानदार संगीन नारे और धारदार रंगीन बैनर थे। वे सब आपस में इतना शोरगुल मचा रहे थे कि किसी को किसी की भी बात पल्ले नहीं पड़ रही थी। दरअसल, वे ऐसा ही चाह भी रहे थे। इस शोर में वह अपना डर भूल गया, बल्कि उसे ग़ज़ब सी त¸ाकत मिली। वह हाथ उठाकर ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाने लगा, इतना, ऐसे और इस कदर कि सभी उसे ध्यान से देखने लगे। ज्यों-ज्यों उसने इस सच्चाई को समझा, त्यों-त्यों उसकी आवाज बुलंद और नित-नये उन्माद से भरती चली गई। लोगों ने उसे कंधों पर बिठा लिया। ज़ल्द ही वह सिरों पर बैठने लगा और एक दिन उसने ऐसी छलांग लगाई कि वह सीधे हिमालय पर जा बैठा। वहाँ इतना घना कोहरा और आतंक भरी ठंड थी कि उसे देखना मुश्किल हो गया। वह फिर ज़मीन पर कभी-कभार देखा गया। जब भी देखा गया तो प्लेन या बुलेट ट्रेन चलाते देखा गया। उसका पता होते हुए भी, फिर उसका पता नहीं चल सका।
अब वहाँ कोई नहीं था। समय के बबंडर में बौखलाई पृथ्वी बेतहाशा अपनी धुरी के बाहर घूम रही थी। लोग-बाग एक जगह से दूसरी जगह तेजी से भाग रहे थे और फिर उसी जगह पहुँचते जो अब तक बिलकुल बदल चुकी होती और एक घटिया हालत में परिवर्तित हो चुकी होती। वे इसे विकास-यात्रा समझकर दूने जोश और चौगुनी थकान से फिर दौड़ने लगते। धर्म-स्थलों पर बिना रुके घन्टे लगातार बज रहे थे। हर दंगे के पहले पूजा-इबादतें होतीं और उनके थमने के बाद फिर वही मंगल-गान। सड़क से लेकर संसद तक देश-प्रेम के गीत ऊँचे कर्कश चीत्कारों में बज रहे थे जिनके बीच-बीच में फैशन-परेड की धमक, चालू लुच्चही गाने और लूट-मार के किस्से अनिवार्य रूप से गुँथे हुए थे। दफ़्तरों में कुर्सियाँ दौड़ रही थीं। कर्मचारी बेदम पड़े थे। स्कूलों में कैलेन्डर फड़फड़ा रहे थे। विद्यार्थी ग़ायब थे। घरों में रात और दिन तह किए जाकर बदबूदार लिहाफों में रखे जा रहे थे। बूढ़ों के घुलने के कारण आकार छोटे होते जा रहे थे कि उनकी औकात रद्दी की ढेरी से भी कम और हल्की हो गई थी। प्रेम-पत्र पीले पड़ने के बाद पुराने संदूकों में बंद किए जा चुके थे। पुराने लोग जा चुके थे। नए लोग आ रहे थे। फ़र्क कहीं कोई नहीं था। सिर्फ उस खाली जगह में दुनिया का हर ज़लील सन्नाटा बह रहा था। सृष्टि की अनंत फुसफुसाहटों और उनमें से रह-रहकर निकलते करुण क्रंदन के अलावा कहीं कुछ नहीं था। धरती शांत हो चुकी थी। तूफान वापस जा चुके थे।
तपते भूखण्डों की परिक्रमा करती हुई एक चींटी ने एक बार फिर दाएँ-बाएँ देखा और अपनी तल्लीनता में चलना शुरू किया। पृथ्वी इतनी बड़ी-विशाल कि जो एक बार नज़र से ओझल हुआ तो फिर उसका पता ना चले। लेकिन इतनी छोटी भी कि घूम-फिरकर एक बार मिलने वाले मिल ही जाते हैं।
उस भव्य पार्टी में अचानक वे चारों मिल गए। पहले-पहल तो वे एक-दूसरे को पहिचान ही ना सके। वे सब इतने बदल गए थे कि उन्हें पुरानी सूरतें ही याद नहीं रह पाई थीं। उनमें से एक अंधा हो चुका था। उनमें से एक बहरा हो गया था। उनमें से एक गूँगा और एक अपाहिज। उन्हें पद, पैसा, प्रतिष्ठा, प्रभुत्व सब कुछ हासिल हो चुका था। सब सम्पन्न और संतुष्ट थे। उनके प्रौढ़ चेहरे दर्प से दमक रहे थे। बातों के सिलसिले और सिगरेट के धुएँ के छल्ले साथ-साथ ऊपर ही ऊपर उड़े चले जा रहे थे। इस परम आनंद में उन्हें पुराने बीते दिन याद आए और वे बार-बार बहुत बार हँसे और हँसते रहे। वे अब रह-रहकर पछताते भी जा रहे थे कि उनने बिला वजह एक वक्त फिज़ूल बर्बाद किया। दरअसल जो वे आज हैं, उन्हें बहुत पहिले हो जाना चाहिए था। वह कमबख्त गया-गुजरा ज़माना वापस नहीं आता, यह बात दिल को टीसती थी। वक्त की बर्बादी का अफसोस कई बार और कई तरह से हुआ। एक अनावश्यक बेचैनी उन्हें फिर भी परेशान कर रही थी जिससे वे दूसरों और अपनी भी निगाह से बचना चाह रहे थे और बेशकीमती नगों से जड़ी अंगूठियों वाले खाली हाथ फिर खाली हो गए गिलासों को बेवजह थपथपाने लगते गोया कि खुद को और दुनिया को दिलासा दे रहे हों।
वे लगातार बातें कर रहे थे, अक्सर अज़ब, अनर्गल, अप्रसांगिक। वे बातों का सिलसिला तोड़ना नहीं चाह रहे थे क्योंकि टूटने के मोड़ पर एक ऐसी खामोशी खड़ी थी जिससे मुखातिब होना उनका चीर-फाड़ कर उन्हें तोड़-फोड़ सकता था। वे इस विपत्ति के आसार भांप रहे थे। वे बचना चाह रहे थे लेकिन हालात उनके हाथ से निकलते जा रहे थे और अचानक संगीत का ऐसा शोर हुआ कि उनके बीच कुछ देर के लिए खामोशी पसर गई। तब उन्होंने एक-दूसरे को गहरी नज़र से भरपूर देखा। खाली गिलासों में उनके पुराने चेहरे तैर रहे थे जिनको टपकते आँसू मटमैला करते हुए भी धुंधला नहीं कर पा रहे थे। तभी वेटर ने उनमें लेमन डाला और जिन से लबालब भर दिया। वे देख सके कि उफनती सतह पर हल्के झाग के बीच वही जवान लड़के हँस रहे हैं जिनमें से कोई कविता पढ़ रहा है, कोई पेंटिंग बना रहा है, कोई गा रहा है और चौथा नृत्य-मुद्रा में है। अज़ब सांसत में वे स्तब्ध बैठे थे। एक पल के लिए दिल की धड़कन ग़ायब हुई जो फिर नहीं लौटी, हालांकि सीनों में धड़-धड़ की बाकायदा आवाज़ें आ रही थीं लेकिन वे धड़कनें नहीं थीं, रोजमर्रा की बेकाम कवायदें थीं। इस अज़ाब के बीच वे उठे और फिर एक बार भीड़ में खो गए कि दोबारा उनका पता नहीं चला।
अब क्या दोबारा लिखने की ज़रूरत है कि तपते भूखण्डों की परिक्रमा करती हुई एक चींटी ने एक बार फिर...!!!
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संपर्क:
एफ-1, सुरेन्द्र गार्डन,
अहमदपुर, होशंगाबाद रोड,
भोपाल-43 (म.प्र.)
मो. :-09425014166
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