बुशी का भूत / कहानी / तेजेन्द्र शर्मा / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

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रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 तेजेन्द्र शर्मा बुशी का भूत... फ़िल एस्टन को एकाएक विश्वास नहीं हुआ। भला अचानक यह कैसे हो सकता ...

रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

तेजेन्द्र शर्मा

बुशी का भूत...

फ़िल एस्टन को एकाएक विश्वास नहीं हुआ। भला अचानक यह कैसे हो सकता है? क्या किसी को पैसे से भी एलर्जी हो सकती है?

वह पिछले दो सप्ताह से बीमारी की छुट्टी पर है। उसे वॉटफ़र्ड जनरल अस्पताल में न जाने कितने टेस्ट करवाने पड़े हैं। उसके हाथ की उंगलियों में एक अजीब सी एलर्जी उत्पन्न हो गई है। उसे सिक्के गिनने में बहुत कठिनाई होने लगी है और कई बार तो नोट गिनते गिनते उसकी उंगलियों में कट लग जाता था और लहू की पतली सी लकीर निकलने लगती थी। उसकी एलर्जी का नाम भी खासा ग्लैमरस था - निकल एलर्जी... यानि की निकल से बनी किसी भी वस्तु से एलर्जी....

फ़िल पिछले बीस वर्षों से बुकिंग ऑफ़िस में काम कर रहा है। उसे कभी बुकिंग क्लर्क कहा जाता था तो कभी टिकट ऑफ़िस क्लर्क। फिर ब्रिटिश रेल का निजीकरण हो गया और रेल्वे निजी कंपनियों में बंट गई। उसकी रेल्वे को सिल्वरलिंक कहा जाने लगा। अब उसे कस्टमर होस्ट कहते हैं। फ़िल का पूरा नाम फ़िलिप है मगर बुशी का हर यात्री उसे फ़िल के नाम से ही पुकारता है।

बीस साल में फ़िल ने कभी एक बार भी ‘सिक रिपोर्ट’ नहीं की... यानि कि वह कभी बीमार नहीं हुआ। जब कभी उससे इसका राज़ पूछते तो हँसते हुए कह देता है, ‘‘शादी नहीं की न...!’’

फ़िल बुशी स्टेशन को केवल स्टेशन नहीं मानता । उसे स्टेशन की एक एक ईंट से प्यार है। मैं उसे देखता रहता। उसे समझने का प्रयास करता। कभी कभी जी चाहता कि उसका मज़ाक उड़ाऊं फिर अचानक दिल उसका सम्मान करने लगता। कभी कभी सनकी भी तो लगता है। उसे बुशी के बारे में सब कुछ मालूम है। वह बताने को आतुर

रहता है कि बुशी स्टेशन 1841 में बना था यहां 1917 से 1982 तक बेकरलू लाइन की अण्डरग्राउण्ड ट्रेन चला करती थी। पहले इस स्टेशन को बुशी और ऑक्सी कहते थे... वह ये बातें बार बार दोहरा सकता है। कभी थकता नहीं है।

उसकी वरिष्ठता को देखते हुए अधिकतर नये प्रशिक्षाणर्थी उसके पास ही भेज दिये जाते हैं। और वह बार बार लगातार अपने ज्ञान को उन नये कर्मचारियों में खुशी खुशी बांटता रहता है।

मैं जब पहली बार उसे मिला तो बस देखता ही रह गया। उसने मुझे कोई तव्वजो नहीं दी। जब मैंने अपना नाम बताया तो भी उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मेरे मैनेजर ने उसे बताया कि दो दिन तक फ़िल की देखरेख में मुझे काम सीखना है। उसने मैनेजर की किसी बात की तरफ़ ध्यान नहीं दिया और अपना काम करता रहा। मेरी भारतीय मानसिकता परेशान हो रही थी कि यह आदमी अपने मैनेजेर का अपमान कर रहा है। शाम तक सस्पेण्ड हो जाएगा। वैसे उसके व्यवहार को देख कर यह भी सोचने लगा था कि साला पूरा रेसिस्ट है... मुझे मेरी औकात बताने की कोशिश कर रहा है... मगर नहीं फ़िल को समझने के लिए फ़िल को जानना बहुत ज़रूरी है।

बुशी स्टेशन और फ़िल - एक दूसरे के पर्यायवाची। सुबह की शिफ़्ट में फ़िल सुबह चार बज कर पचास मिनट तक स्टेशन पर पहुंच जाता है। सबसे पहले यात्री सूचना पट पर आज की तारीख लिखता है सुबह का समय लिखता है और गुड सर्विस के स्टिकर लगता है। बुशी में छः प्लैटफ़ॉर्म हैं। हर प्लैटफ़ॉर्म के पूरे चक्कर लगाता है; एक एक लाइट चेक करता है; देखता है कि हर प्लैटफ़ॉर्म यात्रियों के लिये सुरक्षित है या नहीं... हेल्पलाइन के बटन दबा कर बात करता... उसे हर चीज़ चेक करने की खब्त सी है।

उसका साथी कर्मचारी साढ़े छः बजे काम शुरू करता है। उसके आने तक साइकिल स्टैण्ड खोल देता है और अपडेट-बोर्ड पर ताज़ा सूचनाएं लिख देता है। बोर्ड के नीचे अपने यात्रियों के लिये कोई न कोई संदेश लिखना नहीं भूलता। ज़रूरी समझता है कि उसके और यात्रियों के बीच एक संवाद बना रहे। हैरानी होती है कि इसने तो बचपन में अमूल मक्खन नहीं खाया और न ही अमूल के विज्ञापन देखे हैं, फिर भला कैसे इतने हाज़िर जवाब संदेश लिखता है।

स्टेशन का चक्कर तो वह लगाता ही है, स्टेशन के साथ सटे कार पार्क की खबर लेना भी नहीं भूलता। सोच पूरी तरह से कर्तव्यनिष्ठ है। यदि कार पार्क में किसी यात्री के साथ कोई हादसा हो जाए तो कौन ज़िम्मेदार होगा। कार पार्क रेल्वे का है तो उसकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी तो उसी की होगी न।

स्टेशन पर बनी न्यूज़ एजेन्ट की दुकान की ज़रूरतों का भी ख्याल रखता है। दुकान को हमेशा रेज़गारी की ज़रूरत बनी रहती है। खुद ही दो दिन बाद पूछ लेता है।... मगर बोलता बहुत कम है। जब तक ज़रूरत न हो एक शब्द फ़िज़ूल का नहीं।

उसकी एक आदत से हम सब परेशान रहे हैं। वह चाहता है कि सभी उस पर विश्वास करें मगर वह स्वयं किसी पर विश्वास नहीं करता। हर काम स्वयं ही पूरा करना चाहता है। यहां तक कि जब वह काम पर होता है तो उसका प्रयास यही रहता कि वह किसी को भी उस सेफ़ को हाथ न लगाने दे जिस में कैश रखा होता है। वह हमेशा कैश सेफ़ के साथ वाली खिड़की पर ही काम करना पसन्द करता है। दूसरी खिड़की हम सबके लिये छोड़ता है।

यात्रियों के टिकट खरीदने के लिये लगीं टी.वी.एम. मशीनें भी खुद ही खाली करता है... अब अचानक ऐसे आदमी को हो गई निकल एलर्जी।

फ़िल के दिल में, शरीर में, आत्मा में हर जगह केवल और केवल बुशी स्टेशन बसता है। उसका बस नहीं चलता वर्ना वह बुशी स्टेशन से शादी कर लेता। उसे खासा ज़ोर का झटका लगा जब रेल्वे के डॉक्टर ने उसे चेक करने के बाद अपनी चिट्ठी भेजी कि वह अब बुकिंग ऑफ़िस में काम करने के लिये फ़िट नहीं है। उसे कोई दूसरा काम दे दिया जाए।

फ़िल उस चिट्ठी को देखे जा रहा था... उसके टेस्ट तो वॉटफ़र्ड जनरल अस्पताल में ही हुए थे। मगर इस देश में टेस्ट के नतीजे सीधे डॉक्टर के पास भेज दिये जाते हैं। मरीज़ को डॉक्टर ही दिखाता है और आगे की कार्यवाही निश्चित करता है।... रेल्वे के डॉक्टर ने उसके सामने ही कम्पयूटर के स्क्रीन पर उसके टेस्ट के नतीजे पढ़ते हुए बताया था, ‘‘फ़िल, यह निकल एलर्जी भी कमाल की चीज़ होती है। हम कहते तो इसे निकल एलर्जी हैं मगर यह बहुत से मेटल्स से हो जाती है। ज्यूलरी, सेल फ़ोन, सिक्के, बेल्ट का बक्कल, पेन्ट की ज़िप यानि कि किसी भी मेटल से हो सकती है।’’

फ़िल को इतने विवरण में शायद रुचि नहीं थी। उसे केवल एक बात जाननी थी- क्या वह वापिस काम पर जा सकता है?

‘‘देखो फ़िल, अब तुम ऐसा कोई काम तो नहीं कर पाओगे जिसमें तुम्हें सिक्के गिनने पड़ें। यानि कि अब तुम्हें निन्यानवे के फेर में पड़ने की ज़रूरत नहीं।’’ फ़िल को डॉक्टर के इस बेवक्त के मज़ाक में कोई दिलचस्पी नहीं थी। वह लगभग सन्नाटे में बैठा था। सोच रहा था कि भविष्य ने उसके साथ वर्तमान में क्या मज़ाक कर डाला है... वह उम्र के जिस पड़ाव पर पहुंच गया है उसके बाद तो आदमी रिटायरमेण्ट के बारे में सोचने लगता है। और उसे इस उम्र में एक नयी नौकरी शुरू करनी होगी... चाहे अपनी ही कम्पनी में...

एक डर और सताए जा रहा था... कहीं मुझे ज़बरदस्ती रिटायर तो नहीं कर देंगे। सीधा यूनियन के प्रतिनिधि के पास पहुंच गया। धीमे धीमे और धीरे धीरे उसने अपनी बात लॉरेंस के सामने रख दी। लॉरेंस गंभीरता से बात सुनता रहा, ‘‘देखो फ़िल, तुम्हें नौकरी से कोई निकाल नहीं सकता। तुम तो वैसे भी ब्रिटिश रेल के दिनों के कर्मचारी हो। प्राइवेटाइज़ेशन से पहले के। तुम तो प्रोटेक्टिड स्टाफ़ हो। मैं यह तो वादा कर सकता हूं कि तुम्हें कोई न कोई नौकरी तो ज़रूर दी जाएगी। मगर वो तुम्हारी पसन्द की हो... इसका ज़िम्मा मैं नहीं ले सकता। हाँ, इस बात का ज़िम्मा ले सकता हूं कि तुम्हें नौकरी कोई भी मिले, तुम्हारी पगार कम नहीं की जाएगी।’’ यानि कि भविष्य अभी भी अनिश्चित ही था।

मैं उसे देख रहा था। उसकी बेबसी को समझ रहा था... मगर उसके लिये कुछ कर नहीं पा रहा था। मैं जानता हूं कि बिना बुशी स्टेशन के उसका जीवन लगभग निर्रथक हो जाने वाला है।... मैं अपने जीवन में कभी किसी को नहीं कह पाया कि भगवान सब ठीक करेंगे... अगर उनको ठीक ही करना होता तो पहले बिगाड़ते ही क्यों। मेरा दिमाग़ चला, ‘‘फ़िल, हम दोनों अपने अपने लेवल पर गूगल सर्च करते हैं कि आखिर यह निकल एलर्जी होती क्या है। मुझे याद है मेरी भांजी को भी यही एलर्जी थी मगर उसे तो नकली ज्यूलरी पहनने से हो जाती थी। वह केवल बाइस कैरट सोने के गहने ही पहन सकती थी।’’

गूगल बाबा ने हमें बहुत से वैब-पेज दिखाए... निकल एलर्जी का एक्सपर्ट बना दिया। अब अगर कोई कहता तो हम निकल एलर्जी पर पूरा लेक्चर दे सकते थे। मगर हमारी सारी मेहनत कोई रंग नहीं ला पा रही थी। फ़िल की उंगलियों और हथेलियों पर लाल लाल धब्बे, फफोले और खुजली... कुछ नहीं रुक पा रहे थे। कभी कभी तो पपड़ियां उतरने लगतीं। फ़िल को अपनी दर्द, असुविधा और कष्ट से अधिक यह ख्याल सता रहा था कि अब वह इस पोस्ट से हटा दिया जाएगा।... किसी भी अन्य स्टेशन पर जा कर काम करने का ख्याल ही उसे बेचैन किये जा रहा था।

सोच बार बार एक ही बिन्दु पर पहुंच जाती है, ‘‘क्या हमारा जीवन किसी प्रारब्ध से जुड़ा है? क्या भाग्य के सामने मनुष्य बौना हो जाता है? तो फिर कर्म क्या है? फ़िल तो अपना कर्म किये जा रहा था। उससे ऐसी क्या ग़लती हो गई कि उसे निकल एलर्जी हो गई? क्या गीता, कुरान या बाइबल के लेखकों को निकल एलर्जी की जानकारी रही होगी? क्या किसी भी धार्मिक किताब में इसका इलाज लिखा होगा?... क्या हमारी ज़िन्दगी एक पी.डी.एफ़ डॉक्युमेण्ट है जिसमें एडिटिंग की कोई गुंजाइश नहीं?’’

फ़िल जीवन के उस मुकाम पर खड़ा है जहां वह अकेला है निपट अकेला... विवाह किया नहीं... मां की पिछले ही साल मृत्यु हो गई... भाई बहन कोई है नहीं... इस उम्र का अकेलापन भी तो अधिक ज़ालिम होता है। दोस्तों के नाम पर घर की दीवारें और छत... बस घूरते रहो और देखते रहो टी.वी... वैसे अंग्रेज़ होने का एक फ़ायदा है कि उसे भारतीय चैनलों के घटिया सीरियल नहीं देखने पड़ते। क्या उम्र के इस पड़ाव पर उसे दोबारा संघर्ष शुरू करना होगा?

एक दिक्कत यह भी है कि फ़िल को कोई शौक नहीं... उसे किसी भी सृजनात्मक काम में रुचि नहीं है। रेल्वे ही उसका जीवन है। बुशी उसके जीवन का केन्द्र है और बुशी के यात्री उसके रिश्तेदार। उसे रेल्वे से बहुत शिकायत है वह यात्रियों को ग्राहक मानने से साफ़ इन्कार करता है। यात्री एक मेहमान है और उसे एक मेज़बान की तरह उनका ध्यान रखना चाहिये। विश्व में बढ़ते हुए ग्लोबलाइज़ेशन और बाज़ारवाद ने यात्री का रुतबा कम करके उसे ग्राहक बना दिया है। फ़िल का बस चले तो वह अपने यात्रियों के लिये बिछ जाए। वह अपने यात्रियों के कभी किसी भी काम के लिये मना नहीं करता।

कभी कभी तो वह इस मामले में अपनी हदें भी लांघ जाता। जैसे बुशी से वैम्बले सेन्ट्रल की टिकट महंगी पड़ती है मगर यही टिकट अगर बुशी से तीन स्टेशन पहले वॉटफ़र्ड नॉर्थ से ले ली जाए तो करीब चार पाउण्ड सस्ती हो जाती है। बस हो गया निर्णय। कभी भी किसी भी यात्री को बुशी से वैम्बले सेन्ट्रल की टिकट नहीं बेचता था। और खास तौर पर जब फ़ुटबॉल का मैच हो तो लोगों को ग्रुप डिस्काउण्ट का अलग लाभ देता था।

दिक्कत हम जैसे सीधी सादे काम करने वालों की होती... यात्री कहता कि फ़िल ने तो सात पाउण्ड की टिकट दी थी फिर आप भला ग्यारह पाउण्ड की टिकट क्यों दे रहे हैं। हम परेशान.. डेनिस बेचारा तो यह पहेली हल नहीं कर पाता कि बुशी से वैम्बली भला सात पाउण्ड की टिकट दे तो कैसे दे...

डेनिस, फ़िल और मैं... तीन ही तो काम करने वाले थे बुशी स्टेशन पर... अलग अलग शिफ़्टों में काम करते थे। सुबह की शिफ़्ट में दो लोग और दोपहर की शिफ़्ट में एक अकेला।... मैं समझता था कि फ़िल के तौर तरीकों से सहमति हो या न हो, उससे सीखने का मौका हाथ से नहीं जाने देना चाहिये था। उसे बुकिंग ऑफ़िस के काम की बारीकियों की पूरी जानकारी थी। ‘‘नरेन, याद रखो, अगर अच्छा वर्कर बनना है तो जो काम करने हैं वो तो इम्पॉर्टेण्ट हैं हीं मगर उतने ही इम्पॉर्टेण्ट हैं जो काम नहीं करने हैं।... नो शॉर्टकट... जो सिस्टम बनाया गया है उसको पूरी तरह फ़ॉलो करो।... इस नौकरी में ग़लती का कोई स्कोप नहीं है। जब तुम अच्छा काम करते हो तो कम्पनी कहती है कि तुम्हें नौकरी इसीलिये दी गई है क्योंकि तुम्हें अच्छा काम करना है। जहां ग़लती हुई तो कम्पनी पकड़ लेती है कि ग़लती करने को कहां कहा था। एक वक्त पर बस एक ही काम करो... एकाग्रता और फ़ोकस - बस यही हैं सफलता के दो रहस्य... ‘’

उसे मज़ा आता था सिखाने में। जैसे एक जन्मजात अध्यापक था। सच तो यह है कि डेनिस और मुझे कहीं न कहीं जलन भी होती थी कि हम फ़िल की तरह लोकप्रिय क्यों नहीं हैं। कैसे फ़िल सभी यात्रियों के नाम याद रख लेता है। यात्रियों को भी अच्छा लगता है अपने पहले नाम से पुकारा जाना।... मैं उन्हें सर या मैम कहता और डेनिस ‘मेट’... मगर इन शब्दों में फ़िल वाला जादू कहां।

जादू टूट गया और फ़िल को अगली मीटिंग में बता दिया गया, ‘‘देखो फ़िल, हम तुम्हारी सेहत को ले कर चिन्तित हैं। अब तुम टिकट विण्डो पर काम नहीं कर सकते। हमने एक नई पोस्ट बनाई है- कस्टमर केयर एम्बैसेडर। हमें लगता है कि तुम जैसे कर्मठ कर्मचारियों के लिये ही यह पोस्ट बनाई गई है। तुम्हारा काम केवल ग्राहकों के आराम का ख्याल रखना होगा।... लाउड स्पीकर तुम्हारे हाथ में होगा। तुम उन्हें सूचनाएं दोगे... और निरंतर वार्तालाप करते रहोगे।... और हाँ, इस पोस्ट में अधिकतर वही लोग होंगे जो किसी कारण अपनी पोस्ट पर किन्हीं कारणों से काम नहीं कर पा रहे हैं या जिन्हें फ़ालतू घोषित कर दिया गया है। इसलिये तुम्हारी पगार पर कोई असर नहीं पड़ेगा। तुम्हारे बैंक में हर महीने उतनी ही पगार जाएगी जितनी आज जाती है।... हाँ, तुम्हें अलग अलग स्टेशनों पर भेजा जा सकता है... फ़िलहाल तुम्हें विल्ज़डन जंक्शन पर रखा जाएगा।’’

विल्ज़डन जंक्शन से कितनी यादें जुड़ी हैं मेरी...मैं वहां से बुशी आया था और फ़िल यहां से वहां जा रहा है... फ़िल को उतना ही दर्द बुशी से वहां जाने में हो रहा है जितना कि मुझे वहां से यहां आने में हुआ था।... यही संवाद मेरे साथ भी हुए थे।

फ़िल के लिये दर्दनाक पल थे... उसे अपना बुशी का लॉकर खाली करना था। आंखें कुछ नम हो आईं थीं। मुझे अपने मित्र की लिखी कविता याद आने लगी...‘‘ये आंसू भी कितने अजीब होते हैं। दिल के बोझ को बूंदों में ढोते हैं। भावनाओं के ग़ुबार को पानी से धोते हैं, फिर गीली पलकों से, नाज़ुक हथेलियों से जाने कहां ग़ायब हो जाते हैं।’’ आंसू उस दिन फ़िल के व्यक्तित्व का हिस्सा बन गये थे... न बाहर आ रहे थे और न ही भीतर रह पा रहे थे... बस आंखों की दहलीज़ पर आ कर खड़े हो गये थे।

जब मैनेजर ने उससे स्टेशन की चाबी वापिस मांगी तो आंसुओं की सबसे कठिन परीक्षा होने लगी। फ़िल को पहली बार बढ़ी हुई दाढ़ी के साथ देखा था। साफ़ सुथरा पाको रबां कोलोन लगाने वाला फ़िल मुर्झाया, उलझा परेशान था। शायद बेटी की विदाई के समय भी इतना दर्द पिता नहीं महसूस करता होगा जितना कि फ़िल को चाबी वापिस करते हुए हो रहा था। एक रिश्ते का अन्त... एक अनिश्चित भविष्य की तरफ़ पहला कदम।

अब बुशी स्टेशन से फ़िल की उंगलियों के निशान आहिस्ता आहिस्ता मिटना शुरू कर देंगे... मगर फ़िल का दिल तो यहीं अटका हुआ है... मैं एक दिन चुपके चुपके विल्ज़डन जंक्शन गया... जानना चाहता था कि फ़िल नए काम के साथ कैसा महसूस कर रहा है। फ़िल को घोषणाएं करने का शौक तो बुशी में भी बहुत था... ‘‘लेडीज़ अण्ड जेण्टलमेन लंदन यूस्टन जाने वाली आपकी अगली गाड़ी प्लैटफ़ॉर्म नम्बर छः पर तीन मिनट में पहुंचने वाली है। इस गाड़ी में आठ डिब्बे होंगे। आपकी यात्रा सुखद रहे।’’... हर दस पंद्रह मिनट में एक घोषणा हो जाती। फ़िल की आवाज़ बुशी से गाड़ियों के आवागमन की पहचान....

फ़िल ने विल्ज़डन जंक्शन पर भी अपने लाउड स्पीकर का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। उसके भीतर का रेल्वे-मैन यहां भी सक्रिय है। मगर आवाज़ में अपनापन कहीं ग़ायब हो गया लगता है... आवाज़ सधी हुई और प्रोफ़ेशनल... बुशी में लगता था कि वह अपने मेहमानों से बात कर रहा है... यहां अपने ग्राहकों को सूचना दे रहा है... उसकी यात्रा मेहमानों से ग्राहक तक की हो गई थी। जब वह कस्टमर होस्ट था तो ग्राहक यात्री थे अब वह कस्टमर सेवा दूत है तो यात्री ग्राहक बन गये हैं।

मेज़बान से दूत तक की यात्रा बहुत आसान नहीं रही। बुशी के फ़ोन की घन्टी बजी, ‘‘नमस्कार, बुशी स्टेशन!’’

‘‘हैलो नरेन, मैं फ़िल। लन्दन मिडलैण्ड के पोस्टर बदलने की तारीख तुम्हें पता है न? प्लैटफ़ॉर्म नंबर पांच पर भी पोस्टर फ़्रेम हैं। उनको खाली मत छोड़ देना। स्टेशन पर साइकल की अनुमति नहीं है... वो वाला ए-फ़्रेम सुबह सुबह स्टेशन के दोनों प्रवेश द्वारों पर लगाना होता है... ‘’

फ़िल के लिये यह स्वीकार कर पाना आसान नहीं था कि अब वह बुशी स्टेशन का हिस्सा नहीं रहा। उसे यह ग़म खाए जा रहा था कि नया स्टेशन, नये यात्री, नये साथी... सब कैसे होंगे... सच तो यह है कि यात्री भी उसे याद करते थे... ‘‘फ़िल नहीं दिखाई देता आजकल?... उसको कहना कि हम उसे याद करते हैं... मिस करते हैं...! यह चॉकलेट का पैकेट फ़िल के लिये...।’’

एक समस्या यह भी है कि अब वो सारे काम मुझे और डेनिस को ही करने होते हैं जो हम आसानी से फ़िल के लिये छोड़ देते थे। स्टेशन के लिये सिक्कों का ऑर्डर करना; पोस्टर और लीफ़लेट मंगवाना; सी.सी.टी.वी. को लगातार चेक करना; हर दस मिनट के बाद उद्घोषणाएं करना... ये सब फ़िल स्वयं करता था... उसे हम पर विश्वास ही नहीं था। हम भी खुश रहते कि चलो हमें यह सब नहीं करना पड़ेगा।

फ़िल को कुछ ऐसी आशा थी कि बुशी स्टेशन उसके बिना चल नहीं पाएगा। उसे भूल गया था कि चर्चिल और थैचर के बिना भी देश चल रहा है... किसी के मरने पर दुनिया नहीं रुकती। जीवन नदी है, बादल है, सूर्य है, धरती है... किसी के आने जाने से जीवन पर कोई असर नहीं होता... सूर्य निकलता है ढलता है... बादल आते हैं बरसते हैं चले जाते हैं... धरती अपने गर्भ में रहस्य छिपाए सूर्य के इर्द गिर्द घूमती जा रही है... नदी की धार बहे आगे, मुड़ के न देखे... फ़िल बार बार मुड़ मुड़ कर देख रहा था।

कुछ लोगों का कहना है कि फ़िल रात को उस समय आकर स्टेशन पर चक्कर लगाता है जब बुकिंग ऑफ़िस बन्द हो जाता है... कुछ रहस्यमयी बातें सुनने को मिलती हैं फ़िल के बारे में... लगता है किंवदन्तियां ऐसे ही बनती होंगी... सुबह पांच बजे बुकिंग ऑफ़िस खोलते हुए लगता है कि जैसे अभी अभी फ़िल यहां से गया है... फ़िल के जिस्म की खुशबू बुशी स्टेशन के बुकिंग ऑफ़िस का हिस्सा बन कर रह गई है... हैरानी तब होती है कि न तो डेनिस ने पोस्टर बदला होता है और न ही मैंने... मगर अगले दिन ठीक समय पर बदला हुआ पोस्टर दिखाई दे जाता है...

फ़िल बुशी को नहीं छोड़ सकता... कम से कम मैं तो यही सोचता रहा... डेनिस कभी कोई टिप्पणी फ़िल के बारे में नहीं करता। वह आगे बढ़ने में विश्वास रखता है। कभी कभी चिड़चिड़ा हो जाता है जब यात्री बार बार फ़िल के द्वारा जारी किये गये टिकटों की मांग उससे करते हैं। उसे लगता है कि फ़िल बुशी का भूत बन कर उसके दिमाग़ पर छाया जा रहा है...

फ़िल लाउड स्पीकर पर विल्ज़डन जंक्शन पर घोषणा करता है और उसका असर बुशी में बैठे डेनिस पर होता है... डेनिस अपनी परेशानी ज़ाहिर किये बिना रह नहीं पाता, ‘‘नरेन, मुझे समझ नहीं आता यह फ़िल आखिर अपने घर क्यों नहीं जाता... माना उसने शादी नहीं की मगर हमारे सिर पर क्यों भूत की तरह सवार रहता है? ‘’

मुझ में एक बदलाव आना शुरू हो गया है... मैं आहिस्ता आहिस्ता फ़िल बनता जा रहा हूं।... स्टेशन के लिये सिक्कों का ऑर्डर करना; पोस्टर और लीफ़लेट मंगवाना; सी.सी.टी.वी. को लगातार चेक करना; हर दस मिनट के बाद उद्घोषणाएं करना... ये सब मेरे चरित्र का हिस्सा बनते जा रहे हैं... अब मैं बुशी को अपना घर समझने लगा हूं... फ़िल तो अपनी मां के साथ रहता था... मैं तो निपट अकेला रहता हूं... बच्चे बड़े हो गये हैं... पत्नी के नाम पर सिर्फ़... बस मैं, मेरे घर की दीवारें, छत और टीवी... फ़िल मुझे ज़िम्मेदार बना गया है...

परसों ही एक लिफ़ाफ़ा पोस्ट से बुशी स्टेशन के पते पर पहुंचा है। उस पर मेरा नाम लिखा है। मैं दो दिन के रेस्ट के बाद बुशी आया हूं... उस लिफ़ाफ़े को खोलता हूं... लिफ़ाफ़े के अन्दर एक कार्ड रखा है - सादर बुलाया है... फ़िल शादी कर रहा है... फ़िलिप और एलिसन... शादी अगले रविवार की है... मुझे खास तौर पर आने के लिये कहा है... लगता है अब बुशी स्टेशन की मुक्ति होने वाली है...

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ जोशी,1,सी.बी.श्रीवास्तव विदग्ध,1,सीताराम गुप्ता,1,सीताराम साहू,1,सीमा असीम सक्सेना,1,सीमा शाहजी,1,सुगन आहूजा,1,सुचिंता कुमारी,1,सुधा गुप्ता अमृता,1,सुधा गोयल नवीन,1,सुधेंदु पटेल,1,सुनीता काम्बोज,1,सुनील जाधव,1,सुभाष चंदर,1,सुभाष चन्द्र कुशवाहा,1,सुभाष नीरव,1,सुभाष लखोटिया,1,सुमन,1,सुमन गौड़,1,सुरभि बेहेरा,1,सुरेन्द्र चौधरी,1,सुरेन्द्र वर्मा,62,सुरेश चन्द्र,1,सुरेश चन्द्र दास,1,सुविचार,1,सुशांत सुप्रिय,4,सुशील कुमार शर्मा,24,सुशील यादव,6,सुशील शर्मा,16,सुषमा गुप्ता,20,सुषमा श्रीवास्तव,2,सूरज प्रकाश,1,सूर्य बाला,1,सूर्यकांत मिश्रा,14,सूर्यकुमार पांडेय,2,सेल्फी,1,सौमित्र,1,सौरभ मालवीय,4,स्नेहमयी चौधरी,1,स्वच्छ भारत,1,स्वतंत्रता दिवस,3,स्वराज सेनानी,1,हबीब तनवीर,1,हरि भटनागर,6,हरि हिमथाणी,1,हरिकांत जेठवाणी,1,हरिवंश राय बच्चन,1,हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन,4,हरिशंकर परसाई,23,हरीश कुमार,1,हरीश गोयल,1,हरीश नवल,1,हरीश भादानी,1,हरीश सम्यक,2,हरे प्रकाश उपाध्याय,1,हाइकु,5,हाइगा,1,हास-परिहास,38,हास्य,59,हास्य-व्यंग्य,78,हिंदी दिवस विशेष,9,हुस्न तबस्सुम 'निहाँ',1,biography,1,dohe,3,hindi divas,6,hindi sahitya,1,indian art,1,kavita,3,review,1,satire,1,shatak,3,tevari,3,undefined,1,
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रचनाकार: बुशी का भूत / कहानी / तेजेन्द्र शर्मा / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
बुशी का भूत / कहानी / तेजेन्द्र शर्मा / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
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रचनाकार
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