रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 शेखर मल्लिक रे अबुआ बुरु बुरु गे आलेये’ आबा कानाय! हापड़ाम कानाय... बुरु रेदो को ताहेना बोंगा ...
रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
शेखर मल्लिक
रे अबुआ बुरु
बुरु गे आलेये’ आबा कानाय! हापड़ाम कानाय... बुरु रेदो को ताहेना बोंगा बुरु, बुरु दोले बोंगा सेबाये कान, बुरु दोय ऐमा लेया दा: सेगेंल आर साहान। सिबिल हरियाड़ बुरु ताले। झरना डाड़ी दा: लिंगिंना बुरु खोन। आजार बेमार खोन बानचाव लागिद बुरु खोन ले खोजोआ रान मुरगान कोये आले, बाहाँ ऐमा आले में, सिबिल ऐमा आले में, मारसाल ऐमा आले में... ओ मरांग बुरु! रे अबुआ बुरु...!
सुकांति किस्कू हमारे बचपन का एक गीत गा रही है। उसी बचपन में जब हम दालान में खटिया पर या बलुई धरती पर पसरे होते थे, आकाश पर अनगिनत चमकते, धुंधलाते तारों को विस्मय से देखते रहते थे। घनी अँधेरी रातों में पहाड़ी ठंडी हवा के साथ ये बोल कहीं से सफर करते हुए हमारे पास चले आते थे। ऐसे गीतों की सिर्फ़ लय उस समय आकर्षण के कारण हमारे होंठों पर टिक जाया करती थी। मुझे याद यह भी आ रहा है कि, हम कई बार स्कूल जाते हुए रास्ते में कई तरह के गीत गाते थे। गाँव के गीत गाँव की लड़कियों और औरतों को कितनी अच्छी तरह से आते हैं। और जब वे गाती थीं, हम लड़कों को भी गाने का मन करता था! गाँव के पास का पहाड़ हमारे साथ चलता था, क्योंकि हमें उसके किनारे किनारे से होकर जाना होता था। पगडंडियों के पास पोखर थे, धान के खेत थे, पत्थरों और छोटे-बड़े चट्टानों की शानदार सजावट थी। उस पहाड़ की तलहटी में छोटा सा माध्यमिक स्कूल था हमारा। कई तरह के मौसमी फूलों और आम, नारियल के पेड़ों से सजा-संवरा। लाल रंग का राजकीय स्कूल!
पुराने पहचाने रास्तों पर चलते हुए बहुत कुछ पुराना याद आने लगता है। स्कूल की याद आई तो उसके बाद की यादें भी पिछलग्गू बनके आ रही हैं... दसवीं तक पढ़ने के बाद मैं राँची चला गया। क्योंकि आगे पढ़ना था। गाँव में सबने कहा, बाहर जाओ। गाँव में कौन बच रहा है? ना खेत बच रहा, ना खेतिहर! आदमी ना आदमी का भविष्य! मेरे साथ कान्हू, दुलाल भी पढ़ने बाहर गए। जबकि रामसिंग, धनु और कुछ लड़के बाहर
काम करने गए। मुझे यह भी लगा कि सुकांति, पायो, दुली, जोबा, सिंगो जैसी लड़कियाँ भी बाहर जाकर पढ़ सकती हैं। काम के लिये तो बाहर जाती हैं, ब्याह करके भी बाहर चली जाती हैं, तो पढ़ाई करने के लिये क्यों नहीं? मैं सुकांति को हमेशा साथ रखना चाहता था, शायद इसलिए ये तर्क अपने आपको देता था। अपने गाँव में सबने मुझे बुद्धिमान लड़के के रूप में देखा था। पढ़ाई में मैं बहुत अच्छा छात्र था और किसी तरह मुझे उच्च शिक्षा हासिल कर एक अच्छी नौकरी करने की चुनौती पर खरा उतरना था। घर की पस्त हाल जिंदगी का दबाव भी था कि आगे पढ़कर अच्छा कमाने - धमाने लगूं। इसलिए सुकांति को साथ ले जाने के लिये किसी से लड़ने का वक्त नहीं मिला मुझे और मैं अकेला ही कॉलेज में पढ़ने शहर चला गया।
रांची में पढ़ाई करते हुए ही एक दूकान में नौकरी की. एम.ए. के आखरी साल में था, कर्मचारी चयन आयोग ने अनुवादक की रिक्तियां निकालीं, तो उसमें आवेदन कर दिया. लिखित परीक्षा, फिर साक्षात्कार में सफलता मिली। इसके बाद सरकारी नौकर बनकर राँची में ही रहने लगा. शहर में नौकरी करने वाले आदमी गाँव जाना भूल जाते हैं, मगर मैं तो पहाड़िया आदिवासी हूँ ना! सरकारी नौकरी में कोटे से घुसाया गया! गँवार, काला और ओड़ो ! मैं नियम से सालाना दो-तीन बार अपने पहाड़ी गाँव आता रहता हूँ! बा: बोंगा पर्व पर और करम-पूजा पर तो जरूर... पिछले साल करम के दो दिन पहले बुखार में ऐसा पड़ा कि सप्ताह भर बिस्तर पर रहा। गाँव जाने की हिम्मत और ताकत देह में नहीं रही. आयो (माँ) से कह दिया था कि मौसमी बुखार है। चिंता ना करे। बाद में आऊँगा। बाद में कोई छुट्टी निकली नहीं। और दिनचर्या इतनी तंग कि अवकाश निकालने की चेष्टा भी नहीं की। सो इस बार सरहुल यानि बा: बोंगा पर आया हूँ. यानि ठीक एक साल बाद...
प्रदेश की सीमा पर मेरा गाँव जंगल, पहाड़ और झरनों का गाँव है। प्रदेश की राजधानी में रहते हुए मुझे अपना गाँव याद आता है... एक अकेले लड़के के लिये गाँव की याद में गाँव का सबकुछ होता है... मरियल कुत्ते, कोयल, आम, महुआ, केंदू गाछ, खेत, पोखर, पहाड़ियाँ, उत्सव, रात, भोर, घर-दुआर और प्रेम... प्रेम, जिसके बारे में बात नहीं की दुलाड़िया (प्रेमिका) से!
बाबा अब नहीं हैं। आयो अकेली रहती है. इस पुश्तैनी जमीन पर, मिट्टी-खपरैल के पुश्तैनी घर में... जैसे कई पुश्तों से रहती आयीं मालूम पड़ती हैं! अपनी मुर्गियों को फटकारतीं... अपनी कमजोर होती आँखों को कोसतीं... शहर में आँख के डॉ. को दिखाकर बनवाए नज़र के चश्मे को कभी लगाती, कभी नहीं लगाती... आँगन में बिना बैलों के, पहिये के सहारे टिके उठंगे बैलगाड़ी को देखते बैठी रहती हैं. कई बार देखा है उनको... अब वह बैलगाड़ी जर्जर होकर गिरने को है... उसके पहिये आधे मिट्टी में धंस गए हैं... इतने सालों में. मगर आयो दुआर पर बैठी उसे तकती रहती हैं... आँगन में अब सिर्फ़ दो पेड़ बचे हैं... पहले छह: थे... नीम का एक, आम का एक, केले के दो, सहजन का एक और सेमल का एक. कुछ साल पहले आँधी-पानी में सेमल गिर गया था... केले के पेड़ पानी के अभाव में एक साल मर गए। कीड़ों की वज़ह से सहजन कटवाना पड़ा... बस अब नीम और आम हैं।
सुबह सुबह घास पर पैरों की चाल और झाड़ियों से रगड़ते पैरों की जर-जर आवाज़ है... और धीमे धीमे गुनगुनाने की तरह सुकांति का गाना... सुकांति के साथ मुझे भी गाने का मन कर रहा है। बचपन में भी तो इसी तरह उसके गाते ही गाने का मन हो उठता था. मैं भी गाने लगा हूँ. बुरु हो ताहेना, जहाँ तिस आबोबोन दुलाड़ा, जीबिबोन खांडावा, जीबि खान्डाव काते बोन गुजुआ... बुरु दो ताहें याका ताहेना जहाँ तिस आबो वांगबी ताहेना... हुड़िग- हुड़िग नवा बाहा कुची डार रे फुटवआ... बुरुय गेल बोनाम दोहड़ा आबो, बुरु दोय होहोया सुरसडगे होड़ लेका आजा: ओड़आ रे... ंद्ममाबोन दोहड़ा, आबो आबोरीन गीद् रा रेबो ताहेना... यही गीत तो था, लेकिन इस पंक्ति को हमने अबूझ रहने के कारण कभी नहीं गाया। शायद इसलिए सुकांति ने मुड़कर मेरी ओर देखा है। देखने में हमेशा एक मुस्कान होती थी। आज नहीं है। इसलिए मैं भी उसे कुछ गौर से देख रहा हूँ।
एकाएक चिड़ियों की चहचहाट सिर के ऊपर से होती हुई, जंगल की तरफ बढ़ जाती है। मेरी दृष्टि उस तरफ सरक जाती है, और सुकांति का गाना भी रुक जाता है।
क्या हम उसी रास्ते पर नहीं जा रहे हैं, जिधर गाँव का मरांग बुरु है?... बुरु यानि पहाड़... मरांग बुरु, बड़ा पहाड़! दो छोटे से पहाड़ों के पीछे से घूमकर जाने पर सामने खड़ा... हालांकि इसकी ऊँचाई भी छोटे बुरुओं से तुलनात्मक रूप से बहुत अधिक नहीं है, मगर फिर भी वह गाँव के लिये मरांग बुरु है! मान लेने पर क्या नहीं हो सकता! समझौता, संतोष, प्रेम, विश्वास, भरोसा!... और हमलोग ‘मानते’ हैं... हमारा समाज ‘मानने’ वाला समाज है... इसलिए हमने प्रकृति में ही सब माना... धरती को आबा... सूर्य को बोंगा!
पहाड़ की बात सोचते ही राँची में अपने एक दोस्त से किसी सवाल के जवाब में अपना बोला याद आता है, पहाड़ों का आकर्षण अद्भुत होता है, गाते (मित्र)। हमलोगों के लिये पहाड़ एक घर है! हाँ, मैं भी यह जानता हूँ. कि पहाड़, हमारा एक अपना निजी वास है, जहाँ हम फूल चुनते हैं, फल खाते हैं। बादलों के गलबहियाँ डालते हैं, और देर तक उदास बैठे गीत गाते हैं... पतले बांस को ओंठ से लगाकर उसमें साँस फूंकते हैं... उसका संगीत नीचे घाटियों तक पहुँचता है, तब बकरियाँ मिमियाती हैं, गायें रम्भाती हैं... बैल सिर हिलाते हैं, और मुर्गियाँ भागकर दुआर से निकल जाती हैं! बुरु पर जब भूरे, स्लेटी बादल चढ़ते हैं, हम दौड़ लगाते हुए घर की ओर भागते हैं... कई तरह के गंवार खेल खेलते हुए सारे बच्चे... जलावन, दतुअन और वनोपज चुनकर इक्कट्ठा करती लड़कियाँ और औरतें भागती हैं... पहाड़ के निचले हिस्से में चरती हुई बकरियाँ, गायें भी... अरे! झिर-झिर... वर्षा होने वाली है. चलो भागो! अंधड़ चलने पर बुरु का रंग बदलता है. तेज हवा से गाछ और लंबी घास दोहरे हुए जाते हैं... गाँव के बड़े- बूढ़े कहते थे कि पहाड़ मेघों को इक्कट्ठा करके पानी बरसाता है... गाछ पानी रोककर रखते हैं, तभी तो मिट्टी के भीतर का पानी, नाले का पानी फसलों को हरा ताजा कर देता है!
सुकांति, पहाड़ पर चल रहे हैं तो आज थोड़ा ज्यादा देर बैठेंगे. मैं सुकांति से कह रहा हूँ। मुझे मालूम है कि मैं कितना उत्साहित हूँ। लेकिन सुकांति, लगता है, बगैर किसी उत्साह के बस यूँ ही मुझे वहाँ ले जा रही है! क्यों? इसका उत्तर नहीं। उत्तर का अनुमान कानों में बजती कोयल की बाँसुरी देती है... एकांत अपने पास कर देता है। एकाएक गुमसुम... सिर्फ़ होने के लिये होना होता है। मौजूद होकर भी निर्लिप्त! सुकांति मुझे हमारे उस निजी वास में ले जाकर कुछ कहेगी... उस कहने में जो रोमान होगा, शायद उसी को बुन रही है! या फिर कोई दुःख...
मैं इधर से गुजरता बस अपने बचपन तक पहुँच रहा हूँ. जो बहुत कुछ हमारा साझा बचपन है। सुकांति के साथ पहाड़ की चोटी तक जाने वाली कई सारी पगडंडियों, जो पहाड़ पर जाने वालों के पैरों के नियमित चलने से बने हैं, में से उस एक पगडण्डी तक मैं इसी रास्ते से जाता था, जो हमें पहाड़ की सबसे सुन्दर जगह पर आसानी से पहुँचाती थी... धुँध से भरी पथरीली जगह। जहाँ तेज हवा चलती तो कानों में बांसुरी सी बजती। और जिसके सिरे पर जाकर बैठने पर नीचे गाँव और नदी ऐसे दिखते जैसे क्लास में हममें से किसी ने चित्रकला की कॉपी में एक सुंदर चित्र बनाया हो! हरा, भूरा, सर्पीली और चौकोर खानों के रंग और आकृतियाँ...
सुबह बढ़ रही है. धूप साफ़ निकल आई है। सुकांति के कोमल, मगर धूप में सीझे चेहरे पर देर से प्रतीक्षित पाहुन की तरह एक मुस्कान आई है। क्या हम उस बुरु पर फिर चढ़ने जा रहे हैं? मैं पूछता नहीं। मैं जानता हूँ सुकांति हंसकर कहेगी, अरे हाबला (बोका), हर बात पूछता है! मैं बिना अपने पूछे, बिना उसके ये कहे, झिझककर हँस देता हूँ। सुकांति ने गाना बंद कर दिया है। वह कहती है, धूप हो गयी है, लेकिन चलना अच्छा लग रहा है। मैं कहता हूँ, साथ चल रहे हैं, इसलिए अच्छा लग रहा है. अकेला कोई इधर आयेगा ही नहीं। बिना किसी काम के! मैं फिर पूछता हूँ, बुरु पर रहेंगे ना देर तक? तुम घर जाने के लिये मत हड़बड़ाना. सुकांति मुझे ऐसे देखती है कि कुछ कहेगी। फिर भी कुछ नहीं कहती।
हमारे गाँव के पास बहुत लंबी पहाड़ी श्रृंखला है। लेकिन खास तो तीन पहाड़ हैं. मरांग बुरु यानि बड़ा बुरु,फिर दो छोटे बुरु... साथ-साथ, सटे-सटे. पहाड़ों का रोमांच और खिंचाव... एक आदत, एक अद्भुत उदासी... खुद को गुम कर देने वाला एहसास... और याद है, अपने इस गाँव के उस बड़े बुरु पर सुकांति के साथ अनगिनत बार, प्रायः रोज चढ़ता रहा था. हरे भरे, लंबे लंबे शाल गाछ और जंगली झाड़ियों से ढंके, सफेद चकमक पत्थरों का घर... ये बुरु! उत्तर दिशा की तरफ से ये दूर से दिखता है... कहीं से गाँव लौटो तो रेल की खिड़की से उस बुरु की भूरी-हरी चोटी आसमान पर देख, मन खुशी और विश्वास से किलक उठता, कि लो अब घर आ गए. अपना गाँव पहुंच गए!
अप्रैल का महीना है, लेकिन आसमान में आज सुबह हल्की बदली है. उमस और धुन्धाया सा वातावरण. सुकांति मुझे एकदम सुबह ही बुलाने आई थी.
चलो।
किधर?
चलेगा कि नहीं?
क्यों नहीं!
तो फिर पूछता काहे है?
नहीं, पहले भी नहीं पूछता था... तो अब क्यों? नहीं पूछूँगा... बस उसने बुलाया तो साथ चल देना है... और मैं उसके साथ चलता हुआ, अपनी पहचानी हुई पगडंडियों, मेड़ों से गुजर रहा हूँ. इतना बोलने वाली सुकांति कुछ नहीं बोलती। चल रही है, और सिर भी नहीं उठाती। और मैं बचपन में इधर जब आता था, उन दिनों की बातें उससे कर रहा हूँ। मैं आयो की बात से शुरू कर रहा हूँ कि जब माँ के साथ पहाड़ की तरफ जाता था, जिधर मेरा ननिहाल था, जितना मैं चलता, पहाड़ उतना ही दूर होता जाता। फिर मुझे मालूम हुआ कि पहाड़ जितना पास दिखते हैं, उतने होते नहीं। और यह बचपन का निष्कर्ष था। बाबा मुझे गोद में उठाकर दूर दिखाते, वो देखो, वो जो दूर लाल लाल सा दिख रहा है, वह है हमारा बुरु! घने पेड़ों के बीच लाल मिट्टी आकाश के पास दिखती। थोड़ा होश आने और अपने पैरों पर सरपट भाग सकने लायक होने पर मैं खुद तुम्हारे और दूसरे बच्चों के साथ, फिर सिर्फ़ तुम्हारे साथ ही पहाड़ तक जाता रहा। अपना बुरु उतना दूर नहीं लगा। यही तो रास्ता है। इधर से ही हम गए हैं...
सुकांति बोलो, बुरु पर जब बैठेंगे, तुम्हारी उदासी शाल पत्ते पर ठहरी रात की ओस की तरह उड़ जायेगी ना?
रास्ता बहुत अच्छा नहीं है। पहले तो जब आते थे, इधर पुटुस, बेर और बबूल की झाड़ियाँ होती थीं। पीले छोटे छोटे फूलों से भरे गाछ, जिनका मैं आज तक नाम नहीं जानता, रास्ते पर झुके होते थे... बीच बीच में देशी खज़ूर और ताड़ के पेड़। आसमान में उड़ती रहतीं बारिश लाने वाली बड़ी ‘राजा तितलियाँ’... बड़े-बड़े काले भौंरे उड़ते रहते. या झाड़ियों पर खिले पीले-सफ़ेद नन्हें फूल और उनपर बैठतीं पीली-सफेद तितलियाँ... उनमें से कुछ भी नहीं है। कोई गाछ-झाड़ी नहीं है। केवल कुछ तिरछे हुए खजूर के पेड़ डह गई मीनार की तरह रास्ते के किनारे पर धकेल दिए गए से दिख रहे हैं...साफ़ करके रास्ता चौड़ा किया गया है। रेतीला, सूखा। लाल-भूरी धूल उड़ रही है। रास्ते पर गड्ढे और मोटे टायरों के निशान खुदे हैं... इसलिए यह कच्चा रास्ता समतल नहीं है। मैं थोड़ा रुका। सुकांति को देखने लगा, जो मुझसे थोड़ी तेज चलती हुई बायीं ओर चली गई है। सुकांति की पीठ का ताँबा सूरज से पिघलने लगा है। वह पीठ एक पहचाने हुए दृश्य पर ठहर गयी। यह वही जगह तो है। वही...
सुकांति झुकी और बैठते-बैठते मुड़ गयी मेरी तरफ... ओढ़नी से ढंका चेहरा दिखा, आओ, इधर। थोड़ा बैठेंगे। मैं भी बड़ी देर से कहीं बैठ जाना चाह रहा था। सुकांति इतनी निर्लिप्त होकर चल रही है, जबकि हमेशा कि तरह मुझे बुलाकर वही लायी है! मैं कहता हूँ, सुकांति, आजकल गर्मी बहुत बढ़ गई है। गाँव में भी। पहले तो इतनी नहीं होती थी। दुनिया गर्म हो रही है...
वह बैठी है वहीं। बरगद के पुराने पेड़ के नीचे। उस पेड़, जिसे हम बच्चे बचपन में दादा पेड़ कहते थे, की जड़ें उभरी हुई थीं। डालियों से झूलती हुई वटों को पकड़ कर हम तब झूलते थे। शायद आज भी गाँव के बच्चे-बच्चियाँ झूलते हैं। मैं इसका अंदाजा इसलिए लगा रहा हूँ क्योंकि, सामने देख रहा हूँ कि किसी के छोटे छोटे एक जोड़ी लाल चप्पल वहाँ छूट गए हैं। चप्पल के फीते पर एक तरफ मरम्मती सिलाई है... नन्हीं एड़ियों के दबाव से दबा एड़ी वाला हिस्सा, जहाँ गोल सा छेद हो गया है। पेड़ की डालियों के नीचे घनी छाया है। उसी छाया में हमने एक-टंगड़ी, बाघ-बकरी, लाल-डंडा से शुरू कर गुलेल से निशान लगाने के खेल खेले हैं... उसकी घनी छाँव के नीचे हँडिया बेचती काकियों को देखा है, जो हाट के दिन बहुत सुबह से ही आकर बैठ जाती थीं। बीगेन काका इसी बरगद के नीचे दोपहर को भी मिल जाते तो कहानी सुनाने लगते थे, बिना हमारी फरमाइश के ! कहानी सुनाते हुए बीड़ी पीते... हर बार कहानी तब खत्म हो जाती थी, जब उनकी बीड़ी खत्म होती थी... और वे खत्म हुई बीड़ी फेंककर चल देते थे. जिसका एक सिरा घास या झाड़ी में लाल जुगनू की तरह थोड़ी देर चमकता फिर खत्म हो जाता था।
सुकांति उन जड़ों में से एक अधिक उभरी और मोटी जड़ पर बैठी है। जंगल के पास होने पर जैसी शांति और महीन सी अशांति एक साथ! चिड़ियों की आवाजें. कोयल का बोलकर रुकना, फिर बोलना। हवा में एक भारी गंध, जिसे मैं कई दिनों बाद महसूस कर रहा हूँ, लेकिन आज भी नाम नहीं दे सकता। वह इस गाँव के साथ खड़े जंगल से हमेशा आती है. सुकांति नीचे गिरे हुए पत्तों से खेल रही है। सब चीन्हा-चीन्हा सा है। और मुझे लग रहा है, मैं जैसे कल यहीं ही था. जैसे घर से भाग आया हूँ ऐसे ही मौज में... ऐसी ही महक, ध्वनियों और छायाओं के बीच। शांति का एक अंतराल आने पर एक बेमेल और कर्कश आवाज़ जो पहले कभी नहीं सुनी है, आ रही है... ये आवाज़ जंगल और आसपास के पूरे सम्मोहन को तार-तार कर रही है। सुकांति की ओर देखता हूँ, उसकी पत्ती पर एक बड़ी सी काली चींटी चढ़ रही है। वह उसे देख रही है. मैं पूछता हूँ, सुकांति, ये क्या आवाज़ है? वही, पत्थर खदान! वह कहती है।
मैं क्रशर मशीन की घर्र-घर्र सुन रहा हूँ। जो शायद थोड़ी ही दूर पर है। लारियों के इंजन की आवाजें भी आ रही हैं। जंगल में मशीनी आवाजें हैं! सुकांति बड़ी सावधानी से एक चींटे को अपने पैरों से परे कर रही है। चींटा कहीं उसके पैरों के नीचे आ ना जाय। अजीब सा लगने लगा है। जंगल में, पहाड़ी में ये घुसपैठी आवाजें सुकांति को कैसी लग रही हैं? पूछूं? लेकिन इतने प्रश्न क्यों पूछना चाहता हूँ? जब से सुकांति बुलाकर इधर लायी है, हर चीज में एक सवाल है, और मैं सुकांति से उसका उत्तर मांगना चाह रहा हूँ!
सुकांति के बाबा ने कल बताया था, गए साल से पहाड़ काटने की मशीनें गाँव में लग गयी हैं. बम यानि डायनामाईट से पहाड़ फोड़ते हैं... गाँव के कई औरत-मर्द और कम उम्र के लड़के लड़कियों को वहाँ मजदूरी मिली है. सुकांति भी काम करती थी। लेकिन आगे नहीं भेजेंगे। उधर का काम ठीक नहीं। देह को हानि करता है. पायो मुण्डा को शहर ले जाकर दिखाना पड़ा। डॉ. बोला छाती का बीमारी हो गया है। इसका इलाज़ सस्ता नहीं। पैसा का मदद लेने बहुत जगह गया, लेकिन मदद नहीं ला पाया उसका आदमी। पायो नहीं बची। गाँव में सब डरा, लेकिन काम चार पैसा कमाने के लिये कर रहा है। छोड़ नहीं पा रहा। सुकांति तो बच्ची है। इस बुतनी को कोई बीमारी हो गया तो हमलोग क्या करेगा?
सुकांति के बाबा ऐसे बोलते हैं कि मैं डर गया था। धूल के फेफड़ों में लगातार जाते रहने से होने वाली बीमारी ‘सिलकोसिस’ सीमेंट फैक्टि्रयों, शीशा कारखानों जैसी धूलकण पैदा करने वाली जगहों पर मजदूरों को होती हैं... स्टोन-क्रशर के काम में भी इसके खतरे हैं। सुकांति की तरफ मन भर कर देखता हूँ, मन में आता है, क्या इतना कोमल चेहरा क्रशर में पत्थर तोड़ने, ढोने से... प्रदूषित हवा में सांस लेने से पत्थर जैसा ही इतना कठोर हो गया है? क्या ये चुप्पी क्रशर के शोर से उपजी है!
पास आकर मैं भी सुकांति की बगल में तने से पीठ लगाकर बैठ गया। उसका गुमसुम चेहरा कुछ देर मुझे भी ठस कर देता है। फिर मैं क्रशर, जहाँ कहीं भी चल रहा है, की आवाज़ की कर्कशता और धूप में उड़ती चिड़ियों की चहचहाहट में सामंजस्य बिठाने की कोशिश करता हूँ। मेरे कानों में कई तरह की आवाजें हैं... बेमेल, कोई संगीत नहीं, जिसकी उम्मीद और आशा करता रहा था... जिसे गाँव आकर अपने अनुभवों में हमेशा जोड़ता रहा हूँ. जो मेरे देह-मन की गठन में रचा-बसा है। मैं बात करना चाहता हूँ। आकाश की, जंगल की, केंदू की, पेड़ों की, चिड़ियों की, बुरु की... और सुकांति से सुकांति की।
सुकांति, तुमने कितने दिन काम किया है क्रशर में?
जब से यहाँ लगा है।
अब मत करना...
बाबा भी यही बोलते हैं।
जान का खतरा है।
पायो हुडिंग आयो (पायो मौसी) मर गयी, इसलिए?
हाँ, उनके जैसे देश में और भी मजदूर मर रहे हैं।
तुम अब गाँव का आदमी नहीं। शहर में सरकारी काम करता है। सब कुछ जानता है।
हाँ, बहुत कुछ जानता हूँ। शहर में रहने से नहीं, पढ़ने से। मैं बहुत सारा पढ़ता हूँ। मेरे मकान में किताब की छह: आलमारियां हैं, वहाँ!
जादू जानता है?
जादू!
हाँ, जिससे चीज सब गायब हो जाता है. फिर जादूगर हँसता है। लोग ताली बजाता है।
वह हाथ की सफाई होती है सुकांति।
मतलब?
मतलब, नजर का धोखा। चालाकी...
धोखा, चालाकी माने जादू! है ना रे?
मैं सुकांति को गौर से देख रहा हूँ। मैं उसकी उदासी से परेशान हो चुका हूँ। यह भी हवा के थपेड़ों, झींगुरों की बोलियों, बिजली की गड़गड़ाहट, शाल पत्तों पर गिरती बरसात की झर-झर या जंगल में लगी आग की चिट-चिटाहट जैसी कोई अनूठी भाषा है! उसकी इस भाषा का क्या भावार्थ लूँ, समझ नहीं पा रहा तो अपने भीतर की भाषा में उसका अनुवाद नहीं कर सकता! मैं निकम्मा अनुवादक हूँ!
सुकांति, तुम हमसे कुछ कह नहीं रही हो, लेकिन बहुत सारा सोच रही हो ना? सिर्फ़ यही कह देता हूँ।
सुकांति की बड़ी आँखें मेरी ओर घूमती हैं। बस।
मैं इधर उधर देख रहा हूँ। इधर एक कच्चा रास्ता अमराई की ओर जाता था। वह रास्ता भी नहीं दिख रहा। जब वह नहीं बोल रही, तो मैं भी नहीं बोलूँगा. जब वह बोलेगी, तभी बोलूँगा. सुकांति एक सूखी डाल उठाकर उसके टुकड़े करने का खेल खेल रही है। चट चट... टक टक की नन्हीं आवाजें...
सुकांति खेल रोककर मुझे पुकारती है, सुनो!
मैं उसकी ओर देख रहा हूँ. पसीने से नम त्वचा से मानवीय गंध उठ रही है, और उसके चेहरे पर उजली ऑंखें...
सोच रहे हैं कि जब अपना बहुत सुंदर चीज कोई खराब कर देता है तो कितना दुःख होता है!
क्या खराब हुआ है सुकांति? तुम्हारा चीज खराब किया है? कौन...
हमारा चीज़ है वह... हमलोगों का था.
मुझे बताओगी या नहीं?
सुकांति सिर हिलाती है. स्वीकारोक्ति! मुझे अचानक खुशी हुई...
मैं बरगद से पीठ टिकाये आँख मूँद कर बैठा हूँ। आँख मूँद लेने से कितना कुछ दिखने लगता है। बचपन की धूप, पुराने मौसम, कही सुनी कई सारी बातें... बीत चुके दूर के दिन... करम गाछ दुआर में गाड़कर करम पूजा करने के दिन, कई साल पहले हराधन काका ने कहा था, करन, तुम बाहर शहर जा रहा। गाँव का और लोग भी गया, किन्तु तुम गया पढ़ने के कारण। तुम पढ़ कर बहुत कुछ जानेगा। देखेगा। हम तुमको एक बात बोलता। पढ़कर तुम हो सकता है, कभी इधर नहीं आयेगा। गाँव से जो निकल गया, गाँव नहीं आता। आयेगा भी काहे? अपना जात बिरादरी, अपना मानुष सब भूल जाता है। काहे कि अपने को हम लोग से ऊपर सोचने लगता है। फिर ओ हमारा नहीं रहता। तुम सोच के देखना बेटा, अपना माटी - देस से कट के रहने से क्या हमलोग का अच्छा होगा?
सुकांति मेरा कंधा पकड़ कर उठ गयी। हम फिर चलने लगे हैं। बुरु पर जाकर उससे बहुत सारी बातें करने की कल्पना से मेरा मन हिलोर रहा है। सुकांति नहीं जानती कि बचपन में जिसको शैतान लड़की, और बड़ी होने पर बकबकी बोलने वाला मैं, उसके एकदम जवान हो जाने के बाद उसे कुछ और कहना चाहता हूँ। उसे बुरु की कसम देकर कुछ पूछना है मुझे। बचपन में हम कोई भी बात की या अपनी ईमानदारी प्रमाणित करने के लिये बुरु की कसमें खाते थे! बुरु सब देखता है। बुरु मरांग आबा है...!
सुकांति मानों एक अनदेखी डोर से मेरा हाथ बांध कर ले चल रही है। मैं छोटे बच्चे जैसा उसके पीछे चला जा रहा हूँ। सुकांति एक बार भी मुड़कर नहीं देखती कि मैं उसके उड़ते हुए, पसीने से भीगे, खुले बालों की सोंधी गंध से बौरा गया हूँ। मुझे प्यास लगी है। पैरों के खुले हिस्से में, जहाँ धूप लग रही है, वहाँ जलन हो रही है। सामने और अगल बगल अब कुछ झाड़ियाँ हैं, पेड़ नहीं। धूप सीधे सिर पर गिर रही। सुकांति को पीछे से देखता हूँ तो लग रहा, वह जैसे कभी रुकेगी नहीं। पलटकर मुझसे पूछेगी नहीं। वह मौन चलती जायेगी, धरती के छोर तक और मैं उसके पीछे इस आशा में कि आयेगा हमारा बुरु। खत्म होगी उदासी, चुप्पी और यह यात्रा...!
अब हम गाँव के बाहरी हिस्से में आ गए हैं। बुरु पास ही है... मुझे कुछ खुशी सी लगती है... सुकांति अब मेरे आगे नहीं, बगल बगल चल रही है। उसने ओढ़नी अपने सर पर लपेट ली है। यहाँ आवाजें साफ़ और ऊँची हैं. जिसने मेरी आँखों को उधर मोड़ दिया। तो यहाँ लगी हैं क्रशर माइंस। सामने दो क्रशर मशीनों की कानफोडू घर्र-घर्राहट से कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा। काला उठता धुआँ और गडर-गडर, गड़- गड़- गड़... शोर! कई जगह पत्थरों के तराशे हुए टुकड़े। कई आकार के पत्थर. चिप्स, गिट्टियाँ। इंधन के रूप में कोयले की ढेर। अस्सी-सौ रेजा और कूली। नीले आसमान में काले धुएँ की मोटी श्रृंखला बनी हुई है। सुकांति मेरा हाथ झिंझोड़ती है। उसकी तरफ देखता हूँ। यहाँ बात सुनाई नहीं दे सकती। इस शोर में जंगल की आवाजें बिला गई हैं। वो दायीं ओर उँगली से दिखाती है। साफ़ मैदान है... गड्ढेदार मैदान। लाल धूल और कीचड़... दो तीन आकार के कटे हुए पत्थरों के ढेर। आते जाते गँदले रंग के ट्रकों के मोटे पहियों से भूमि पर गड्ढे बने हुए... यह क्या है? इसमें देखने की क्या बात है ? मुझे एकाएक समझ में नहीं आता. सटीं- सटीं पहाड़ियाँ... छोटे बुरु... फिर...
सुकांति मेरे कान के पास मुँह ले आकर जोर से कहती है- हमारा बुरु वहीं था ना। देखो अब कुछ नहीं है।
सचमुच कुछ नहीं है! इतना बड़ा पहाड़ नहीं है। पहाड़ के पेड़ वनस्पतियाँ नहीं हैं। इस पर उगे जंगल में रहने वाले पक्षी, साँप, हजारों तरह के जीव नहीं हैं! मुझे लग रहा है, ऐसा मेरे किसी सपने में नहीं था। जब घर के बाहर सुकांति की पुकार सुनी थी, ऐसा नहीं था। रास्ते भर जब यादों, ख्यालों और आशाओं के साथ आ रहा था, तब ऐसा नहीं था। सुकांति के ये कहने तक कि ‘हमारा बुरु नहीं है!’ ऐसा नहीं था. बस ये अभी हुआ है। मरांग बुरु अभी गायब हुआ है! सुकांति के दिखाने के साथ ही एकदम से...
आधी रात जब ट्रेन से गाँव उतरा तो क्या अँधेरे में देख पाया था बुरु की छाया को?... सुबह जब सुकांति ने हांका दिया तो निकल पड़ा था... और जिस तरफ से हम आये हैं, उधर से कुछ दूर तक घने पेड़ों की नजदीकी वजह से क्या बुरु की आकृति को साफ़ साफ़ देखा था मैंने?... छोटे बुरुओं की कुछ ओट भी हो जाती है। रास्ते भर कोई खटका नहीं हुआ, आसमान की ओर भी जब देखा तो ना गौर किया, ना चौंका कि एक रिक्ति है उधर...! शायद इसलिए कि बुरु हमेशा मन में था... धरती के कुछ वर्गक्षेत्र पर, वहीं था... वह नहीं हो सकता है, इसकी कल्पना भी क्योंकर हो सकती थी? सुकांति के बाबा ने क्रशर माइंस गाँव में लगने की खबर सुनाई थी, तब भी तो नहीं सोचा. सोचा, गाँव के बाहर कितने पहाड़ हैं, किसी का भी पत्थर काटते होंगे। सुकांति की उदासी पर कई सवाल मन को मरोड़ते रहे, लेकिन ऐसा कुछ अंदाजा भी लगाना असंभव था मेरे लिये... और चाहे, कोई भी पहाड़ हो, पत्थर के लिये उसे समूचा खत्म कर मैदान में बदल दिए जाने की बात एक भय और रोमांच पैदा करने वाली कोई गल्प की तरह ही दिमाग में आती, अगर ऐसी बात की कल्पना कभी करता भी!
गड्ड गड्ड गरड़ गरड़ गरड़... क्रशर और टूटे हुए पत्थरों को ट्राली से लाते हुए मशीनी चकरियों के लौह फट्टों की आवाजें। इंजन का शोर और भाप, धुआँ... मेरी आँखें और कान इतना अजीब महसूस करने लेगे हैं, कि वहाँ मौजूद रहना तिलमिला दे रहा है...
सुकांति की बाजू पकड़े उसे उस शोर से दूर खींच लाता हूँ। वह बिना कुछ कहे खींची चली आती है। उसकी तरफ देखता हूँ, सुकांति मेरी तरफ देख रही है। बहुत गाढ़ी आकुलता उसकी उजली बड़ी आँखों में भर आई है! ये ऐसी ही है, जैसी तीर से बिंधी हुए हिरनी की निस्तेज आँखों में होती है! सुकांति, तुम सिर्फ़ एक उजाड़, एक ध्वंस दिखाने के लिये एक आदिम नैसर्गिक आर्त जो, तुम्हारी धमनियों में इतने वक्त से गुजर रहा है, के साथ मुझे यहाँ ले आई थी! फिर भी चुप! यह प्रशांति!
वह फिर से वही कठोर चुप्पी अपने चेहरे पर ले आई है. पठार सी छाती करके कोई दुःख सह जाना होता है. सुकांति की आँखों में मेघ हैं लेकिन बारिश कहीं नहीं... मेघों के पहाड़ से टकराने से ही तो बारिश होती है! मैं भी तो तड़प उठा हूँ... वह हमारा बुरु था... हम सबका बुरु था। आज आदमी सब भकोस सकता है...जंगल खा सकता है, नदी खा सकता है, बुरु खा सकता है! सुकांति का चेहरा भट्टी में पकते ईंट सा लाल हो रहा है. या मुझे कोई भ्रम! बुरु की जगह ऊबड़-खाबड़ मैदान देखकर मुझे अजीब तरह से बुरा लग रहा है। जैसे गुस्सा नहीं, भीतर किसी केन्द्र से फूटने वाली बेचैनी! शिथिल कर देने वाला अनमनापन...
सूरज मुर्मू ने एक बात कही थी, करन दादा, इतना जान लो कि जंगल और पहाड़ में हमारा पुरखा पुरुष और स्ति्रयाँ हमेशा से रही हैं। जंगल का पास रहने वाला, जंगल से जो मिला, उसी पर जिया। आज भी तुम्हारे और मेरे गाँव में क्या है, यही तो है! लेकिन मेरे गाँव में जंगल की जमीन का पट्टा लेने के लिये कितना टाइम से लड़ाई चल रहा है। कुछ नहीं हुआ। जिसका जिंदगी जंगल से चलता है, उसको उतना जंगल दे दो। जंगल रहेगा तब तो आदमी रहेगा! हमलोग को सिर्फ़ जीने भर के लिये चाहिए। लेकिन सरकार, प्रशासन, वन विभाग का कारकून... सब खुद उसी जंगल-पहाड़ को दुहना चाहता है। लेकिन उसको हम लोग को देना नहीं चाहता. एक टुकड़ा भी नहीं. उसका लेने और हमलोग का लेने में अंतर नहीं है क्या दादा? हमको जंगल बुरु काट-फाड़ कर बनाया उस फैक्ट्री में नौकरी नहीं चाहिए दादा, जिसके प्रदूषण से हमारे गाँव का मिट्टी-पानी बर्बाद हो जाय. खेत का गाभिन माटी से धान लेंगे कि उसको बधिया करके इस्पात और लोहा? हमलोग क्या खाके जियेंगे और बाल बच्चा को जिलायेंगे?
सूरज दोस्त है मेरा. राँची विश्विद्यालय में संताली साहित्य विभाग का शोध छात्र। कहानी लिखता है। संताली भाषा में। पलामू के एक देहात में पुश्तैनी घर है, लेकिन राँची में किराए पर रहता है, मेरे ही किराये के मकान के निचले हिस्से में।
सूरज से कहा था मैंने, दोस्त! लूटने को जब भी बाहरी लोग आये उसका हमने जोरदार मुकाबला किया। इतिहास में है यह। लेकिन जब अपना लोग अपना ही घर लूटेगा तो कैसे बचेगा, कैसे लड़ेगा!
लेकिन बचना होगा दादा, लड़ना होगा। बाहर वालों से भी ओर घर वालों से भी।
सुकांति की बाजू नहीं छोड़ता हूँ। वह नहीं छुड़ाती. हम दोनों चुप हैं। अब मैं स्तब्ध हूँ... हम खत्म हुए बुरु और क्रशरों के आक्रांत करते वातावरण से धीरे धीरे चलकर दूर आ गए हैं। वापसी उसी रास्ते से नहीं। दूसरे से। ये कोई सामूहिक या तयशुदा निर्णय नहीं था, बस हम चले आये हैं... अनजाने, अनायास ! सुकांति, मैं पुकारता हूँ तो उसकी धीमी हुंकार सुनाई देती है, हूँ। उसे देखा, पूर्णिमा के पहले घंटों के चंद्रमा का ताम्बई रंग उसके चेहरे पर है। याद आ रहा है, सुकांति का पिछला चेहरा, जब उसे भरपूर देखा करता था। टेसू जैसा दहकता रंग। महुआ-कुसुम जैसी उजली आँखें. काले मोटे बाल. नई छिदायी बाएं नथुने में खोंसी हुई नीम की काठी। खेतों के बीच से गुजरती पहाड़ी नाले सी छल छल, कल-कल बोली. लेकिन आज उस सुकांति का कोई हल्का सा चिन्ह कहीं ढूँढना होगा। मैं चाहता हूँ कि सुकांति हँसे. लेकिन सोचता हूँ कि क्या मुझसे उसने कहा कि अब हँसो, अगर हँस सकते हो, मैं हँस सकूंगा ?
सुकांति, कब गया हमारा बुरु?
जब तुम आये, उससे कुछ ही दिन पहले वहाँ का काम खत्म हुआ है।
एक ही साल के भीतर, इतना बड़ा बुरु को!
बहुत जोर से काम हुआ रे। हम रोज देखे हैं, हमारा बुरु खत्म हो रहा था। और हम लोग सब पगार के लिये मजदूरी कर रहे थे.
कोई कुछ नहीं बोला ?
क्या बोलेगा! उन लोग के पास पुलिस है, पैसा है, नेता लोग है। इधर गाँव में उनलोग से लड़ने-बोलने वाला कौन है? और किसको इतना सोचने, करने का सक्ति है कि... कोई आदमी डर से चुप रहता है, कोई आदमी पैसा पा रहा तो चुप रहता है... ज्यादा आदमी कुछ नहीं समझ सकता इसलिए चुप रहता है।
तुमने भी वहाँ काम किया?
नहीं। हम तो इस तरफ था. लेकिन हम भी कभी नहीं सोचा कि ये लोग पूरा बुरु को ही तोड़ देगा, खोद देगा!
दिन का दूसरा पहर अभी होने को है। पेड़ों पर पत्तियां तेज धूप से चमक रही हैं... पसीना हमारी कनपट्टी पर रेंग रहा है!
सुकांति को देखा, उसकी पूरी देह इस समय एक भाषा बनी हुई है। और मैं आगे कुछ नहीं कहता... दिमाग में चलता एक प्रलाप सा है... कितने जीव का घर था वह। कितने लोगों का रोजगार था उसमें! और कुछ लोग ने अपने लाभ के लिये उसको काट कर बेच दिया! अब बारिश कैसे होगी सुकांति? अब हवा कैसे साफ़ होगी? अब हमें फल, लकड़ी और बूटियाँ कहाँ से मिलेंगी। एक बुरु कितना पुराना होता है! इतना पुराना कि हम उसको पुरखा कहते हैं, आबा कहते हैं, पूजते हैं।
मेरी सारी आशाएं स्खलित हो गई हैं! वो बुरु सचमुच नहीं है! यह कोई जादू नहीं है। यह मजाक भी नहीं है। एक धमकी है! मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ... लेकिन यह सच है। मैंने देखा है अभी अभी। सोचता हूँ,पहाड़ काटकर रास्ता निकाल देने वाला भी आदमी हुआ था, बाबा दशरथ माझी। पहाड़ को तोड़ने वाला नहीं, पहाड़ से लड़ने वाला, लोक की भलाई में।
दोपहर हो चुकी है. चापाकल से मुँह-हाथ धोकर, पानी पीकर हमने सुकांति की लायी रोटी और नेनुए की तरकारी खाई। पहले जब भी मैं गाँव आता था, वह मुझे बुलाकर कभी नदी के बीचों बीच के किसी पत्थर पर ले आती। या जंगल के बीच की उन जगहों पर हम जाते, जिनके बारे में, हमारे मुताबिक सिर्फ़ हमको मालूम था। वे हमारे मन से निकले हुए नक्शे थे, जिनको जानने का अधिकार किसी को नहीं था। सुकांति घर से खाने के लिये रोटी और साथ में खाने को कुछ ना कुछ लाती थी। हम खाकर फिर चलने लगे हैं... सुकांति अब चुपचाप नहीं है. वह धीरे धीरे लगातार कह रही है... बस यही दिखाने लाए रे तुमको। बस यही चीज हमारा खराब हुआ है। जंगल, बुरु नहीं रहने से देखो गाँव कैसा होता जा रहा है? तुम देख रहा ना? हर बार तुम यहाँ से जब इसको छोड़ कर जाता है, लौटने पर वही सब मिलता है? गाँव का किनारे किनारे गाछ, पोखर, पत्थर, माटी कुछ भी... सखुआ साल महुआ केंदू का जंगल किधर बिराता जा रहा है? अब इस साल इस गाँव का बुरु ही नहीं रहा! एक ही साल में खतम ! अभी उसके साथ वाला उस तरफ का दोनों बुरु को तोड़ने का काम चल रहा है... देखा ना. आस्ते-आस्ते, वह भी साफ़ हो जायेगा...
जाते हुए जो कुछ भी था, अब लौटते हुए बदल गया है! खुशी, संभावनाओं और कल्पनाओं से भरा मन, दिन का तापमान, और चुप सुकांति भी। अब सुकांति लगातार बोल रही है, उसका बोलना जैसे मांदर की बेफिक्र उत्तेजित थाप है!... उस बुरु पर सावन में कैसा झरना फूटता था! उसी से निकला नाला में तुमलोग कितना नहाता था! साल पत्ता और काठ का बोझा लेकर जब बाबा उतरते थे, हमलोग कैसे उनके आसपास दौड़कर पहुँच जाते थे, घेर लेते थे। फिर बाबा बेर, केंदू, इमली, अपना गमछा की पोटली से निकालते और हमलोग को बाँटने लगते थे। उसी बुरु के नीचे एक जाहेर थान जैसा हम बच्चा लोग ने बनाया था। वहीं से थोड़ा पश्चिम की ओर से मांदर बजता था, बाहा परब में, तो उसी को सुनकर हमलोग कितना नाचता था।
हमारे बचपन का पहाड़... हमारे बाप-दादा का पुरखा बुरु... मिट गया है! काट खाया गया है उसका शरीर नोंच नोंच कर! एक बुरु गया और बाकि छोटे बुरु भी टूट रहे हैं। कट रहे हैं। धीरे धीरे धरती पर कोई बुरु नहीं रहेगा... जंगल नहीं रहेगा... नदी-नाला नहीं रहेगा। जब बुरु-जंगल-नदी नहीं रहेंगे तो ना चिड़िया रहेगी, ना हाथी ना मानुष ! जीवन नहीं रहेगा... तो?
क्रशरों की दूर से सुनाई दे रहीं खूँखार गड़गड़ाहटें... इन्हीं निर्दयी आवाजों के बीच एकदम पास से सुकांति के हांफने की आवाज़। वह थोड़ी देर से खाँस रही थी, जिस पर मेरा ध्यान नहीं था। उड़ती हुई पीली-लाल धूल घास पर, नीम और अन्य पेड़ों की पत्तियों पर जमकर मोटी होती गयी है। धूल चारों तरफ बढ़ रही है। धूल आसमान पर चढ़ रही है...
तुम भी तो जब आते थे, बुरु पर चढ़कर उस पत्थर पर जाके नहीं बैठते थे, जिसके नीचे खाई थी। हम मना करते तो तुम कहते, कुछ नहीं होगा। अपना घर में कोई डर नहीं। उसने बस ऐसे कहा था, जैसे वह चावल बीनते हुए मुर्गियों से बात करती है... जैसे कुँएं से पानी खींचते हुए बड़ी बहन से तरकारी की बात करती है ! इतना ही सामान्य ढंग से कहती है सुकांति हर बात...
वह अब चुप है, लेकिन मैं जैसे उसके भीतर की आवाजें सुन रहा हूँ... हम जानते हैं, गाँव में लोग कहते हैं... हमारा बुरु, हमारा जंगल... सचमुच जो जिस जमीन का है, उस जमीन का घास-पात को भी अपना मानता है. जंगल-बुरु-नदी हमको अपना मानते हैं... हम उनको। कौआ, कोयल, मैना, गौरैया, चील, बगूले, बन्दर, सियार... भालू, हाथी... केंकड़े, मछली... गोरू, बकरी... परवल-कुंदरू, नेनुये-कुम्हड़े की घर की टाली पर चढ़ी लताएँ... आम-कटहल-नीम, साल, सखुआ, सेमल... सब को हम अपना मानते हैं. बाहाबोंगा पूजते हैं... हम इनको खोना नहीं सह नहीं पाएंगे. हमसे बर्दाश्त नहीं होगा...
चलते हुए बीच में एक नाला मिला तो हमने देखा, उसकी अध-टूटी पुलिया पर एक बच्ची अपने दो भाइयों के साथ खेल रही है। इतनी धूप में, उल्लसित पहाड़िया बचपन... बच्ची मुझे देखते ही अपने दोनों छोटे भाइयों को लेकर भागी है... उसका नन्हा शरीर अपने घिसटते भाइयों को खींच रहा है... यह डर है! उनके हाथों से डालियों के टुकड़े नीचे गिर पड़े हैं, जिनसे वे खेल रहे थे। मुझे एक तेज वितृष्णा होती है... आदमी से आदमी डर रहा है! यही हमारी सभ्यता की उपलब्धि है! राँची विश्वविद्यालय में बुंडू से आई गीता डांग एक संथाली कविता सुनाती थी, जिसमें माँ अपनी बेटी को अपने गाँव की दो स्थितियों के बारे में बोलती है, इसमें एक साथ उल्लास, मोह चेतावनी और निराशा का स्वर है...
‘अबुआ दिशोम हरा भरा
अबुआ माटी लाल धरा
अबुआ खेत, बगीचा, मचान
अबुआ हाट, पाड़ा, दूकान
अबुआ बुरु, बोंगा, पहान
रे दुली, मांदर, तिरयो (बाँसुरी) बजाना
किनारे अबुआ पोखर, नदी, झरना
अबुआ दिशोम, ना राज अबुआ
गोली, बंदूक, लाठी, गिफ्तारी
भाग रे दुली, लेके आया
फौज, चाकलेट, मीठी निम्बोरी
यह कविता खुशहाल पहाड़िया, जंगली, प्राकृतिक भोले निरीह जीवन में धोखे और षड़यंत्र का विष लेके आने वाले को चिन्हाती है। यह छोटी सी बच्ची मेरे कपड़ों और शहरी हो गए चेहरे और बाने से डर गई! असम्भव है कि इसकी माँ ने इसे ऐसी कविता सुनाई होगी। लेकिन मेरे गाँव के आसपास पहुँचते रक्तपाती मुठभेड़ों और फौजी कार्रवाइयों ने पिछले कुछ सालों से इस स्वत:स्फूर्त ‘डर’ को पहाड़ और जंगल के पास रहने वालों के मन में भरा है। मुझे इन्टरनेट पर उस तस्वीर की याद आई, जिसमें सीरिया की एक बच्ची फोटोग्राफर को कैमरा निकालते देख खौफ़ से अपने दोनों हाथ ऊपर उठा देती है, आत्मसमर्पण की मुद्रा में, यह सोचकर कि सामने वाला बंदूक निकाल रहा है, और उसे ‘शूट’ कर देगा! आतंक जहाँ की हवा में बसने लगता है, वहाँ ऐसा ही होता है... डर, एलियनेशन...
अब मुझे इस बार गाँव आना बहुत अलग अनुभव करा रहा है। पसीना मेरी आँखों में चला गया है, और जलन हो रही है। मैं सुकांति को जल्दी घर चलने को कहता हूँ। हम तेजी से घर की ओर लौटने लगते हैं। कच्चे रास्ते पर पत्थर-गिट्टियों से भरे ट्रकों की एक छोटी कतार गुजरती है। घास पर चलती सुकांति ठिठक जाती है। हम ट्रकों को गुजर जाने तक देखते हैं। काला धुआँ और डीजल की गर्म गंध नाक में लगती है। जंगल की ओर उड़ते हुए कुछ पक्षियों की परछाई कच्ची पगडंडी पर पड़ती है। पगडंडी थोड़ा आगे से मुड़कर जंगल और उसके आगे छोटे बुरु तक जाती है। मुझे याद आ रहा है, इसी रास्ते बुरु की तरफ जाते हुए बारिश के मौसम में घास के बीच कहीं कहीं छोटे छोटे कुकुरमुत्ते उगते हैं। सुकांति की नज़र उनपर पड़ती तो चुन चुनकर अपने दुपट्टे में इकट्ठी करती थी। कुकुरमुत्ते की सब्जी मुझे बहुत पसंद है। सुकांति की माँ बहुत बढ़िया राँधती है।
अब खुद से पूछते भी डर लग रहा है कि क्या अब भी उगते हैं, कुकुरमुत्ते!
केंदू चुनकर लाती हुई रायमुनी से भेंट हुई है। गोद में बच्चा लगभग लटक सा गया है... छोटे बुरु से आ रही है। तुम आया है! वह मुझे देखकर आश्चर्य करती है. सुकांति को देखकर तुमको दया नहीं आता है रे? दया! क्यों? मैं अब विस्मय से उसे देखता हूँ. वह मुझे जबाव देने के पहले सुकांति को देखती है...
सुकांति उसे रोकती है, जा ना यहाँ से! तेरी हान् हार आयो (सास) रास्ता देख रही होगी।
काहे को अब जल्दी जाएँ. क्या मिला? ये थोड़ा सा मादल पाका (केंदू)... इससे तो बूढ़ी और गुस्सा होगी। पर सुकांति, क्या है रे यहाँ! ना बुरु है, ना जंगल है पहले का जैसा! सुवरनरेखा नदी में तो पानी भी नहीं है रे! पता नहीं क्या होगा...
सुकांति मेरी ओर देखती है। बहुत देर बाद कुछ देर देखती है। बहुत देर बाद बोलती है, लाल आँखें, दलदली आवाज... तुम सोच रहा था ना कि हमसे सादी को बोलेगा। मैं चौंकता नहीं कि उसने मेरे मन की बात ताड़ ली थी... मुझे पता है, उसने पिछली बार बा: बोंगा में लयबद्ध नाचते हुए मांदर और तुरही-सिंग्बाजा के थापों, उच्च तानों के बीच मुझे हँसकर कहा था, तुम हमसे कोई बात छुपाके कभी नहीं रख सकता। तुमको बहुत अच्छा से जानता है हम! सुकांति बचपन से मेरे हर बर्ताव, फैसला और व्यंजना में कही गई बातों को आराम से समझ जाती है... कभी मुझे उसे कोई बात समझानी नहीं पड़ी। गाँव में कोई मेरा इतना अभिन्न नहीं हो सका... वह मेरे मन को समझ गई है, तो आश्चर्य क्या?
सुकांति बोल रही है, तुमसे हमारा सादी हो जायेगा। ठीक। हमारा घर कहाँ होगा? राँची? चाईबासा? टाटा? गिरिडीह? पलामू? हमारा जो बच्चा होगा, उनका धरती कहाँ होगा रे? सिंहभूम, कि कहीं नहीं?... दलमा बुरु से भाग भाग कर गाँव, शहर में घुसते हातिको (हाथियों) जैसा, जिनका कोई घर नहीं बच रहा... उसी तरह हमारा बच्चा भी भटकेगा ! भटकेगा, भटकेगा, खतम हो जायेगा... कुछ रहेगा रे? हम सब लोग खतम हो जायेंगे. हमारा कोई निसान नहीं बचेगा... फिर तुम कैसा सपना देख रहा ! तुम आगे का देख रहा तो बोलो क्या देख रहा? अपना बुरु, जंगल में घूमेगा और धरती पर झूमर नाचेगा? मुट्ठी में मुट्ठी जोड़के, तारेन (कंधा) से तारेन लगाके बाहा, करम, सोहराय, माघे परब में! तुम शहर से सपना देखके आता है... इधर गाँव में असल बात देखो। समझो... सबकुछ जो तुम्हारा मन और सपना में है, इधर बचा ही नहीं है! फिर भी तुम खाली सुन्दर सुंदर सपना ही देखेगा रे? बोलो...
मैं उसकी बातों से तड़प रहा हूँ। मेरे मन में सचमुच खिलने वाला गदराया सेमल-फूल झड़ गया है, और एक भद्दे से ट्रक के पहिये के नीचे कुचल गया है... इक्कीस साल की सुकांति, सिर्फ़ माध्यमिक शिक्षा तक सीमित रह गयी धुर गँवारू लड़की, की बात ने मुझे बिंध दिया है। मुझे अब समझ में आ रही है, चे-गुएरा की एक बात, ‘साइलेंस इज आर्ग्युमेंट केरिड आउट बाय अदर मींस.’ सुबह से उसका वह सुदीर्घ मौन समझ में आ रहा है. सुकांति की अब तक की चुप्पी भी एक तर्क है!
आज इतना कुछ देख रहा हूँ, सुन रहा हूँ... ये कैसा दिन है! पहाड़ को खत्म कर दिया जाना सिर्फ़ एक संकेत है। एक डेंजर-बेल...! ये धीरे धीरे हमारे खत्म होने के शुरुआत की चेतावनी है. अखबारों और सोशल मिडिया पर पढ़े कई आलेखों से कहीं अधिक तीव्र और कचोटने वाला एक धक्का! एकदम पास से! मेरे, सुकांति और हम सबके पैर तले की जमीन को थर्रा देने वाला तेज विस्फोट!
उस दिन की शाम को मैं सुकांति के घर ही बैठा हूँ। उसकी आयो बकरियों को हांक कर घर ला रही है। एक काली बकरी और उसके तीन मेमने। उसके बाबा कहते हैं... यही रोजगार है बेटा। खस्सी (बधिया किया बकरा) का दाम हाट में अच्छा मिल जाता है। परब का टाइम कुछ ज्यादा दाम पर भी बिक जाता है। बेच कर रुपया मिलता है तो अच्छे से कुछ दिन घर का खर्च चल जाता है। इधर कोई काम नहीं था, लोग बाहर काम में जाता था। अभी भी जा रहा है। हमलोग नरेगा काड भी बनाया था। तालाब बनाने का काम किया. लेकिन कितना महीना काम करने का पगार नहीं मिला. पत्थर खदान का सुनकर हमलोग को कुछ आसा हुआ। पत्थर काटने का मसीन महीना भर में लग गया। उसके बाद दूसरे दिन से कुछ लोग काम करने को आ गया था। लेकिन बाहरी मजदूरों को इस देहात में काम करने में खतरा लगा, लोकल आदमी को काम नहीं मिला तो बवाल करेगा। इसलिए भाग गया। मालिक को भी बात समझ में आ गया। लोकल मजदूर के लिये गाँव में आदमी भेजा। और तभी बहुत लोग भरती हुआ, सुकांति के बाबा खटिया बीनते हुए कह रहे हैं। करन होपोन (बेटा) तुम तो बाहर है। तुम पढ़ा लिखा है। तुम क्या नहीं समझता कि जिसको भात-नून नहीं मिलता, उसको बहला लेना मुश्किल नहीं होता।
सुकांति भी क्रशर में काम करने गयी। क्योंकि खस्सी रोज रोज तैयार नहीं हो सकते, रोज रोज नहीं बिकते। भात - नून का अभाव समझ सकता हूँ। मैंने सुकांति के घर को नज़दीक से देखा है। माड़ (उबले चावल का पानी) और कलमी या कोई भी साग खाकर रह जाने वाले गाँव के कई परिवारों की तरह सुकांति का परिवार है। आयो, बाबा ने पूरे बदन का कभी कपड़ा नहीं पहना। अपने को किसान मानते हैं, लेकिन स्टेट हाइवे के बगल की एक बीघा जमीन गर्मी में फटी हुई परती-भूमि और आषाढ़ में वहाँ झाड़-झंखाड़ उगे रहते हैं. ना बीचड़ा, ना बुआई, ना हलाई! हल बैल किसी जमाने में थे। जमाना हुआ उनको बिके। बीज, खाद, कीटनाशक, पानी और जोताई की व्यवस्था, इतने महंगे कि खेती की ना सहूलियत, ना हिम्मत जोड़ पाए! यानि मुँह बोलने को एक खेती थी, खत्म हो गयी। फिर सुकांति के बाबा ने मौसमी रोजगारी पकड़ी। ठेकेदार के साथ कभी यहाँ, कभी वहाँ. कभी टाटा, कभी बंगाल, कभी चेन्नई!
सुकांति और रुकांति दो लड़कियाँ, दो बहनें। आयो बाबा ने लाड़ दुलार से पाला। चार साल पहले, रुकांति को एक आदमी से प्यार हो गया। ट्यूशन पढ़ाने वाला था। चौदह की थी रुकांति, एक साल बड़ी सुकांति से और सिर्फ़ सातवीं क्लास में पढ़ रही थी। भाग गयी। बिहार में जाकर मंदिर में शादी कर ली। खबर भेजी थी गाँव में। हम खुशी से हैं। चिंता मत करना। मगर गाँव कब आएँगे, नहीं जानते। बेटियों से जान देकर प्यार करने वाले सुकांति के बाबा रुकांति के चले जाने के बाद भीतर से खुश्क हो गए। अनमने से काम पर जाते रहे. और एक दिन तो ऐसा कुछ होना था। दूसरे माले पर ढलाई चल रही थी। मसाले का तसला उठाकर बाँस की सीढ़ियों से जा रहे थे। ध्यान में घर का दुःख था, सो ध्यान पानी से फिसल्ला हो गए पायदान पर ऐतिहात के साथ रखने का ना रहा। फिसले और दो माले नीचे जमीन पर जा गिरे। दायां पैर टूटा और पीठ पर जोर की चोट आई। जान बच गयी लेकिन दाना पानी आने का रास्ता बंद हो गया।
जब क्रशर मशीनें लगीं, गाँव में बात चलने लगी कि अब बाहर मजूरी के लिए नहीं जाना पड़ेगा। यहीं गाँव में काम आ गया है। औरत मर्द लड़की लड़का सबके लिये काम है। मजदूरी का रेट सरकारी वाला रेट है। सुकांति आयो के साथ काम मांगने गयी। सुकांति के बाबा ने यह कहा और उठकर छत की बल्ली से हांड़ी उतारने लगे...
मैं सुन रहा हूँ। सोच रहा हूँ... गाँव छोड़कर बेहतर जीवन के लिये शहर चला गया। मौका मिला और मैं आगे बढ़ गया... अगर यहाँ रहता तो ये सब सुन - देख नहीं रहा होता, उसका अनायास ही बन गया हिस्सा होता। ना उच्च स्तर का ज्ञान, ना चेतना... ना विचार ना विवेक, ना इतना विश्लेषण करने की बुद्धि! उच्च शिक्षा ने मुझमें चेतना को गढ़ा है। चेतना है, तो संकट का एहसास भी है... यह एहसास भाले की नोंक जैसा तीक्ष्ण है!
यह जो मैं देख रहा हूँ, सपना है, या इतिहास के किसी भावी कालखंड की कोई जबरदस्त घटना!
मैं रात को दालान में खटिया डालकर लेटा था तो, साफ़ आकाश पर तारे और किसी उड़ते जहाज की टिमटिमाती लाल रौशनी के बिन्दु को देखते -देखते शायद नींद आ गई थी। अब जो मैं देख रहा हूँ, उसमें खुद भी शामिल हूँ, क्योंकि यह सब एकदम मेरे सामने हो रहा है... सुकांति सिर पर तसली उठाकर पंक्तिबद्ध खड़े गंदले ट्रकों की ओर जा रही है। तसली में पत्थरों के टुकड़े हैं। सुकांति का समूचा चेहरा गमछे से ढंका है, सिर्फ़ वे आँखें हैं, जो अब उजली नहीं हैं, लाल और मटमैली हो गयी हैं। सुकांति ट्रक के पास खड़े कुली को तसली सिर से उतार कर देते हुए कहती है, मेरे बुरु का टुकड़ा है। ये सब मेरे बुरु का मांस है। कुली बीड़ी का आखरी कश लेकर उसे नीचे फेंक देता है, सुकांति के हाथ से तसला लेकर उसके अंदर के बुरु के टुकड़ों को ट्रक के डाला के भीतर उछाल देता है।
उसी बुरु पर रहने वाला हाथी का कुनबा बुरु के एक बचे हुए हिस्से से नीचे उतर रहा है। उसमें से सबसे छोटा बच्चा दल से छिटक कर इधर आ निकला है। सुकांति उसे वापस उसके दल की ओर भेजने के लिये हांकती है। गज शावक की कोमल चिंघाड़!
कुछ लोग एक तेंदुए को मार कर एक बांस पर उल्टा लटकाए लिये जा रहे हैं। वे शिकारी नहीं हैं... गंवार लोग हैं... और उनके साथ पीछे पीछे कुछ शहरी लोग अपने पाँयचे ऊपर किए कीचड़ फांद-फांद कर आ रहे हैं...
क्रशर मशीन का शोर पता नहीं कितने जोर से उठ रहा है, कि मुझे एकदम से कुछ भी सुनाई देना बंद हो गया है। औरतें सोहराय का कोई गीत गा रही हैं, लड़के-लड़कियाँ करमा में झूमर नाच रहे हैं... मर्द हँड़िया पीकर झूम रहे हैं... लेकिन मुझे कुछ सुनाई नहीं दे रहा... विस्फोट की जबर्दस्त चिंगारियां और आग के बीच से उड़ते हुए पत्थरों के टुकड़े हैं... भयानक आवाज़ भी होगी लेकिन मुझे सुनाई नहीं दे रही... उस विस्फोट के बाद पहले का कोई भी दृश्य नहीं बचा है... सोहराय की सजी हुई गायें नहीं, युवा दल नहीं, नाच नहीं, गीत नहीं... जंगल नहीं... और... मरांग बुरु का आकार अचानक कम होने लगता है, कम होता जाता है। धीरे धीरे जैसे सूरज डूबता है, बुरु भी मिट जाता है।
धीरे धीरे देश के, पृथ्वी के सब पहाड़, सारे बुरु विलुप्त हो गए! खत्म... धरती की पीठ से खनिजों से भरे कूबड़ साफ़ हो गए! यह दु:स्वप्न है, या एकदम प्रकाश की गति से हमारे अस्तित्व से टकराने आ रही एक सच्चाई!
एक विराट सूर्य की पृष्ठभूमि है...
मैं पानी में डूब चुके एक विशाल पत्थर के बचे हुए सिरे पर खड़ा होकर चिल्ला रहा हूँ, आ जाओ ! इधर आओ, देखो हमारा बुरु अभी डूबा नहीं है... ये बचा लेगा हमको... सुकांति किसी ओर से बहते हुए आकर उसी चट्टान से अटकी है, मैं उसका हाथ पकड़ कर खींच लेता हूँ. वह जोर से चीखती है - आलेयाह बुरु दो आलोम हातावा बाखान दोले तुं गो’ मेया!
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