रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 तरुण भटनागर प्रथम पुरुष लिंगो पेन जंगल का देव हुआ। वह इंसान था। कहते हैं वह अठारह वाद्य यंत्र...
रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2
तरुण भटनागर
प्रथम पुरुष
लिंगो पेन जंगल का देव हुआ। वह इंसान था।
कहते हैं वह अठारह वाद्य यंत्र बजाता था। जंगल में कोई कितनी भी बढ़िया किंदरी बजा ले, तोहेली, डुमरी या रामबाजा बजाये, चाहे कितना भी डूबकर मादरको पीटे और आकाश को लक्ष्य बनाकर तुरही की प्रतिध्वनियाँ गुँजाता रहे, कितना ही मदमस्त होकर और लंबी तान के साथ भोंगा बजाये, कितना भी गाये जंगल को कंपाता, किसी धुन को गुने चुप्पा-चुप्पा... पर जिन लोगों ने लिंगो को सुना था, वे मानते थे, कि वह सबसे बेहतर था।
...बस्तर के जंगलों में वारंगल के राजा को आने में अभी देर थी। हजारों बरसों की देर। तब दूर-दूर तक यह बात न थी कि कभी कोई राजा आयेगा। जंगल के खयालों में राजा नाम का शब्द भी न था। तब भाषा न थी, न थे भाषा के शब्द ही। संबोधन थे, आवाजें थीं, इशारे थे, चेहरे पर खिंच आने वाली रेखायें थीं, चित्र थे, रंग थे, एक दूसरे की समझ थी, बहुत सारा खाली समय था, कोई चिंता न थी, दुनिया से कोई शिकायत न थी, पर स्वप्न थे, नृत्य थे, रहने को घर न थे, चूल्हे न थे, खाली समय के बाद भी न था एकाकीपन...बस नहीं थी तो एक भाषा ही, न थे तो बस शब्द ही। वह आज से हजारों साल पहले का समय था। जंगल बस इतना आगे बढ़ पाया था कि वह जंगल से लाकर आग जला लेता था। पर वह खेती करना नहीं जानता था। कहते हैं तब उसने पहली बार आग भी नहीं जलाई थी। वह जंगल के दावानल से आग लाता था। आग थी, पर अपने हाथों से उसे जलाने का हुनर नहीं था। पर तब भी स्मृतियाँ थीं और स्वप्न आते थे और इस तरह यह कथा आज तक चली आई।
लिंगो पेन आठों भाइयों में सबसे छोटा था। यद्यपि उस समय भाइयों जैसा संबोधन नहीं था। भाइयों जैसे संबंध भी नहीं थे। वे आठों बस एक ही जगह एक ही गर्भ से पैदा हुए थे। वे एक साथ पले बढ़े और यूं पास-पास रहते थे। वहाँ कोई और बस्ती न थी। तब बस्तियाँ भी नहीं होती थीं। लोगों की एक दूसरे को जरूरत सामुहिक शिकार के लिए इकट्ठा होने तक रहती थी, उससे ज्यादा नहीं। आज उस कथा में यह बताया जाता है कि लिंगो उन आठों में सबसे सुन्दर और बलिष्ट था। पता नहीं तब सौंदर्य की कोई चेतना जंगल में इस तरह से विकसित हुई भी थी या नहीं। मालूम नहीं देखने में किस तरह के लोग अच्छे लगते थे। कहते हैं समय के साथ-साथ यह बताया गया कि किस तरह से दीखने को सुँदर माना जाय। पर उस युग में क्या ऐसा कोई कोई भेद रहा होगा? कहते हैं कि उस दौर में इंसानी सौंदर्य की कोई चेतना न थी। हो सकता है जंगल में भी न रही हो और बाद में कह दिया गया हो कि लिंगो ही सबसे सुंदर था। यह कथा प्रक्षप्तियों से भरी लगती है। जब अतीत को याद करते हैं, तो उसकी प्रक्षप्ति बनती है। जंगल ने ऐसी बहुत सी प्रक्षप्तियों को इस कथा में बहुत आत्मीयता से जोड़ा है। बहुत से झूठ जो स्मृतियों का हिस्सा हो गये और इस तरह कथा पूरी हुई। आज भी अबूझमाड़ का दण्डामी माँझी आँखें बंद कर इसे सुनाता है। छाती पर हाथ रख, गुनगुनाते हुए, धीरे-धीरे...। कभी गाता है, कभी एकदम चुप हो जाता है, कभी धीरे-धीरे कहता है मानो कोई मंत्र पढ़ रहा हो, कभी आँखें खोल सामने जंगलों को निहारता इस तरह कथा कहता है मानो खुद से बतिया रहा हो, कभी तर्जनी उठाता हाथों से इशारा करता लगातार बेबाक कहता जाता है बिना रुके...इस तरह शताब्दियों का झूठ सच बनता जाता है। झूठ पर अविश्वास एक धोखा लगता है। आँखों में छलछला आने वाला झूठ, छाती पर हाथ रख गुनगुनाने वाला असत्य, जंगल के सनातन मौन में धीरे-धीरे पकता झूठ...कथा का झूठ जो जुड़ा और इस तरह पूरी होती गई कायनात।
लिंगो अकेले में कोई वाद्ययंत्र बजाता था। जंगल के बहुत भीतर। कहीं किसी नदी के किनारे। तब किसी ने बाजा बजाना नहीं जाना था। कहते हैं, लिंगो ने कई वाद्य यंत्र बनाये। उनकी थापों को, ध्वनियों को बरसों तक गुना। वह खुले कण्ठ से गाता और थाप देता। जंगल के लोग बेतरतीब और क्रम से सुनाई देनी वाली आवाजों के भेद को जानते थे। जंगल में तरह-तरह की आवाजें थीं। सूखे पत्तों की सरसराहट से लेकर जंगली जानवरों की आवाजों तक बहुत सारी विचित्र और रोज की आवाजें वहाँ थीं। उनमें से कुछ आवाजें तरतीब से एक क्रम में चलती थीं। वे एक चक्र पूरा करतीं। वे जहाँ से शुरू होतीं लौटकर फिर वहीं आतीं। फिर से शुरू होतीं और फिर वापस वहीं आतीं जहाँ से शुरू होतीं। उनका क्रम था। चक्र था। बारिश की बूँदों की आवाजें जो एक क्रम में टीपटिपातीं और फिर वापस उसी क्रम में फिर से टिपटिपाना शुरू कर देतीं। बारिश में पत्तों के कोनों से गिरने वाला टिपकता, धार से गिरता, फिर से टिपकता पानी या पोखर में कमल के पत्तों पर लगातार एक धुन से टपटपाती बूँदें या ध्यान से सुनने पर देर रात को सुनाई देने वाली पहाड़ी नाले की छलछलाती लय...हर जगह ध्वनियों की एक क्रमबद्धता होती, एक तरह से एक से क्रम में लगातार चलने वाली क्रमबद्धता। रात के एकांत में सुनाई देने वाली झींगुरों की लयात्मक किरकिराती ध्वनियाँ या मेंढकों का भिन्न-भिन्न सुरों में टर्राना जिसमें निश्चित समय अंतराल के बाद एक अगली ध्वनि और फिर से पुरानी और फिर वही ध्वनि क्रम मे सुनाई देतीं। इन आवाजों में लय थी। एक तरह की तालबद्धता। जंगल का इंसान इसे बार-बार सुनना चाहता। वह इंसान जिसके पास रहने को घर न था, चूल्हा न था, जो खेत-खलिहान नहीं जानता था, जिसके पास कपड़े नहीं थे, नहीं थी भाषा, न बोलचाल, न गीत... वही आदमी संगीत को समझता था, सुनता था, गाता था, बजाता था। वह ऐसी आवाज बनाना चाहता जो टुकड़ों-टुकड़ों में हो और एक क्रम से चले और फिर वहीं लौटकर जहाँ से वह शुरू हुई अपना चक्र पूरा करे और फिर उसी क्रम में चल पड़े चक्र को पूरा करने। यूँ वे एक से स्वर में आवाजें निकालते। उन तालों पर थिरकते। पुरुष या स्त्री की आवाज़ में मानव स्वरों की वह बहुत पुरानी दुनिया थी। पर तब तक आदिम आवाज़ों के साथ वाद्य यंत्र नहीं जुड़े थे।
कहते हैं लकड़ी के खोखल पर हिरण का चमड़ा माढ़कर उसने सबसे पहला मादर बनाया। उसे भान था कि खोखल में से आवाज़ उठेगी। कहा तो यह भी जाता है कि उसे स्वप्न आया था। पर हकीकत यह है कि उसने इसे गढ़ा था। बनाया था। उसने एक तरह से इसकी तलाश की थी। किसी खोखल पर हाथ मारने से वह भंभाती सी आवाज करता था। यह आवाज उसे अच्छी लगती। वह जंगल में ऐसे खोखल ढूँढता। उसके एक खुले भाग को हाथ से ढँकता और दूसरे पर हाथ मारता। इसी से उसे खयाल आया कि हाथ रखने की बजाय अगर वह उसे बंद ही कर दे तो ठीक रहेगा। बंद कर देने से आवाज गूँजती थी। वह खोखल के भीतर कैद होकर उछल-कूद करती, खोखल की दीवार से टकराती, गूँजती, झनझनाती, भंभाती... इस तरह ताल और थाप के लिए आवाज बनती। उसने हिरण के चमड़े से खोखल को बंद किया था। बहुत सालों के बाद उसे धीरे-धीरे समझ आया था, कि इसी खोखल को अगर एक तरफ़ से फूँका जाये तो कई ध्वनियाँ और आवाज़ें निकल सकती हैं। जंगल में बहती हवा से उठते स्वर को वह बहुत गौर से सुनता। बाँस के झुरमुटों से गुजरने वाली हवा की सीटी बजाती आवाज को वह बहुत पास से सुनता। जब तक तेज हवा बहती वह बाँस के झुरमुट के पास बैठा रहता। उस पर कान दिये रहता। उसे गौर से देखता। उसने कई तरह से बाँस के टुकड़ों को हवा में घुमाकर और फूंककर हवा से आवाजें पैदा कीं। वह दो तरह के वाद्य यंत्र बना पाया था। पीटकर बजाये जाने वाले, याने थाप वाले बाजे और फूँककर बजाये जाने वाले याने सुषुर वाद्य।
...संसार के किसी भी वाद्य यंत्र को खोजने के इतिहास में लिंगो का नाम नहीं आता। दुनिया शायद ही कभी जान पाये कि आज से सैकड़ों सालों पहले जब इंसान के कण्ठ अकेले थे, तब उसी ने सबसे पहले वाद्य यंत्रों की बात सोची थी। तब वारंगल का राजा बस्तर नहीं आया था। जो था वह सिर्फ जंगल का था। जंगल की कहानी थी। जंगल की ही स्मृति। तब जंगल को पता नहीं था, कि कभी उससे उसकी यादें भी हिरा सकती हैं।
जंगल के सरसराते पेड़ों और बाँसों के झुरमुटों से सीटी बजाकर बहती हवा की तान के साथ वह बरसों तक गाता रहा। वह हवा की दिशा और बल के अनुपात में अपने कण्ठ से आवाज़ें निकालता और वे आवाज़ें जंगल से आने वाली ताल और सुषुर ध्वनियों के साथ संगत करने लगतीं।
वह सारा दिन यही सब करता। उसके सातों भाई शिकार पर चले जाते। वह अकेला रह जाता। वह कभी शिकार पर नहीं गया। उसने संगीत को अपना काम बना लिया। संगीत याने जंगल से जानवर मार लाना। गाना और ताल देना याने जलती लकड़ी पर मांस पकाना। वाद्य यंत्रों के साथ जुगलबन्दी याने आग में पकते माँस से टपकती चर्बी। उसके पास एक वाजिब काम था। उसे काम पर नहीं जाना था। असुनी आवाजें और अनगढ़ धुनों को ढूंढने वाला वह पहला इंसान था। उसका काम आवाजों और धुनों का काम था। दुनिया में तब तक यह कोई काम नहीं था। तब दुनिया बहुत पुरानी थी। पर आज भी यह कोई काम नहीं माना जाता। गाने को, बजाने को, काम न मानने की रवायत तब से चली आई बे रोक टोक। लिंगो को नहीं पता था, कि हजारों साल बीतने के बाद भी उसके इस काम को काम कहलवाने में समय लगेगा। लोग मानेंगे कि भला आवाजों और धुनों का काम भी कोई काम होता है। लोग लिंगो को पूजेंगे। उसे तर्पण करेंगे। वह सर्वप्रमुख हो जायेगा। पर उसका काम...लोग हजारों साल बाद भी कहेंगे भला यह भी कोई काम हुआ। पर तब यह चेतना भी न थी, कि इस तरह का कोई खयाल आता। तब एक तरह की दीवानगी थी, झक थी, कौतूहल था... खयाल न था।
भाई जब काम पर जाते तब भाइयों की औरतें अकेली घर में रहतीं। पता नहीं भाई की पत्नी के लिए तब क्या सम्बोधन रहा होगा। तब न तो पत्नियां होती थीं और न भाभियां। तब वे औरतें थीं। सिर्फ औरतें, न कि पत्नि या भाभी। तब पुरुष भी पति या देवर न थे। वे सिर्फ आदमी थे। औरतें अक्सर लिंगो को सुनतीं और हँसतीं। दिन बीतते गये और जुगलबन्दी दुरुस्त होती गई। वह मादर बजाता और गाता। बाँस की तुरही को फूँकता।
सबसे पहले तीसरे नम्बर वाली औरत ने वह आवाज और धुन सुनी थी। वह एक धुन थी, जिसके साथ कोई गा रहा था। कथा में इसे भाभी बताया गया है। पर आदिम समय में ऐसा कुछ नहीं होता था। तब परिवार का ढाँचा बन रहा था। संबंधों की समझ नहीं थी, ‘भाभी’ जैसे संबोधन तो हो भी नहीं सकते थे। एक सी चढ़ती उतरती आवाज में वह धुन और उसके साथ ताल मिलाती मादर की आवाज कहीं आसपास से ही आ रही थी। वह चुपके से उसे सुनने गई थी। यह लय, यह गान उसने पहली बार सुना था। इसलिए वह थोड़ा डरी हुई भी थी। वह झाड़ियों में छिपकर लिंगो को गाता देखती रही। उसे नहीं पता था कि वह संसार का सबसे पहला संगीत सुन रही है। वह उस संगीत से डर रही थी। पर एक कौतूहल भी था, जो डर के पीछे दुबका हुआ था। बाद में दो औरतें और आ गई थीं। तीनों ने खुद में डूबे गाते-बजाते लिंगो को सुना। छिपकर उसे देखा। नदी किनारे की रेत पर वह बेतरह गा रहा था। उसकी आँखें बंद थीं। मादर की काँपती आवाज़ से नदी का पानी काँप रहा था। हवा में एक अजीब सा कंपन था। जंगल में एक बेतरह सी स्थिरता। लिंगो को कुछ भी पता नहीं था। उसे न तो भूख लगती थी और न नींद आती थी। वह पूरी रात, पूरा दिन गाता-बजाता रहता। औरतें झाड़ियों की ओट में बैठकर उसे देखतीं। उसे सुनतीं।
औरतों के आदमी लौटते और रहवास में उन्हें बुझी हुई आग मिलती। उन्हें खाली सूनी ओट और दूर तक पेड़ों के नीचे फैली रिक्तता मिलती। तब यह तय नहीं था, कि कौन माँस पकायेगा। पर एक आदत बन गई थी। वे आते और उन्हें आग के चारों ओर बैठी औरतें मिलतीं। जो अक्सर आग पर माँस पका रही होतीं। उनके आने पर वे खुश होतीं। पर कुछ दिनों से ऐसा नहीं हो रहा था। वे औरतों को आसपास ढूंढते। औरतें वहाँ नहीं होतीं। वे बहुत देर तक उनका इन्तज़ार करते। औरतें बहुत बाद में लौटतीं। आदमी उन्हें हँसते चहकते लौटते हुए देखते। आदमी हतप्रभ होते। औरतें हँसतीं। आदमी अचरज से उन्हें घूरते, वे कुछ गातीं। आदमी उन्हें अजीब तरह से ताकते, वे बेफिक्र चहकतीं। आदमियों को अजीब लगता। यह उनके जीवन में खलल डाल रहा था। रोज की एक सी दिनचर्या टूट रही थी। तब तक आदमियों ने औरतों पर गुस्सा करना नहीं सीखा था। बस उनकी दिनचर्या टूटती थी। एक अनहोनी घट रही थी। वे चकित से थे। वे नहीं जान पा रहे थे कि इस पर कैसे रिएक्ट करें। पर वे ऐसी किसी चीज को नहीं चाहते थे जो उन्हें चौंका दे, जो अब तक न हुई हो, जिसको वे न जानते हों... इस तरह वे इसे रोकना चाहते थे।
आदमियों को पता नहीं था कि यह क्या हो रहा है? तब तक दुनिया में किसी को भी संगीत का कहाँ पता था? कहां पता था, कि आवाजें सिर्फ आवाजें नहीं हैं, वे कोई धुन भी हो सकती हैं। एक दिन आदमियों ने सोचा वे जंगल में छुपकर देखेंगे कि क्या होता है। क्या है जो दुनिया को बदल रहा है? कुछ तो है, जिसने सीधे सरल जीवन में खलल डाली है? क्या है? क्यों है? वे शिकार पर नहीं गये और उन्होंने छिपकर देखा।
...तब तक लिंगो को औरतों का पता चल चुका था।
...उस दिन वे सब एक साथ गा-बजा रहे थे। एक स्त्री मादर को थाप दे रही थी। दूसरी बाँस की तुरही बजा रही थी। वे उसी तरह बजाने की कोशिश कर रही थीं, जिस तरह लिंगो बजाता था। वे उसकी नकल कर बजा रही थीं। पर फिर भी उनकी लय और ताल टूट रही थी। उस समय तक वाद्य यंत्रों को ठीक से पहचाना नहीं गया था। यह जानना मुश्किल था कि वह मादर है और यह रामबाजा। तब सिर्फ़ ध्वनियों के भेद थे। किसी ध्वनि को सुनकर यह बताया जा सकता था, कि वह किस वाद्य यंत्र का है। इशारा करके वाद्य यंत्र को चिह्नित किया जा सकता था। उनके नाम न थे। उनके लिए कोई संबोधन न था। लिंगो और स्त्रियाँ नाच-गा रहे थे। क्षत-विक्षत, बेतरतीब, नग्न...। एक स्त्री ने लिंगो को अपनी बाँहों में जकड़ लिया । वह उससे प्यार करने लगी। उसके होंठ उसके होंठ में थे। वह गीत का वह भाग था, जहाँ सिर्फ़ वाद्य यंत्रों की आवाज़ होती है और इंसान की आवाज़ गुम जाती है। पुरुष झाड़ियों में छिपे यह सब देख रहे थे। फिर वे धीरे-धीरे बाहर निकल आये।
स्त्रियाँ चाहती थीं कि वे भी उनके साथ नाचें-गायें। पर पुरुषों के तेवर कुछ और ही थे। वे अचंभित थे। वे घबराये हुए भी थे। वे बस इतना ही चाहते थे, कि औरतें लिंगो को छोड़कर उनके साथ चली चलें। जैसा कि बताया गया कि वह आदिम समय था और शुक्र था कि तब तक स्त्री को लेकर पुरुष के क्रोध की शुरुआत नहीं हुई थी।
तय हुआ लिंगो साथ नहीं रहेगा। लिंगो के रहने से दिनचर्या टूटती है। उसके रहने से कुछ ऐसा होता है, जो पहले नहीं हुआ। यह तय करना कठिन है कि जो हो रहा है, वह दुरुस्त है या नहीं? जो हो रहा है वह अचरज में डालता है। डराता है। वह पुरुषों को डराता है। पर यह पता नहीं कि यह ठीक है या नहीं। संगीत आकर्षित करता है। पर पता नहीं इस तरह संगीत रत हो जाने से क्या हो? क्या पता यह ठीक है या नहीं? पुरुषों के सामने दुनिया का पहला संगीत अचानक आकर खड़ा हो गया था। वे हतप्रभ थे। वे एकदूसरे को ताकते। उनके चेहरों पर एक साथ किंकर्तव्यविमूढ़ता और भय दोनों दीखता। जब लिंगो का संगीत उठता, वे चौंककर एकदूसरे को देखते। उनकी आँखें उस हिरण की आँखों की तरह हो जातीं जो आसपास किसी खूँखार जानवर को महसूस कर हो जाती हैं। यंत्रवत, क्षण भर को जड़। वे संगीत को सुनकर सतर्क हो जाते। चौंक जाते। औरतों को घूरते मानो देखना चाहते हों कि उन पर संगीत का क्या प्रभाव पड़ता है। उन्होंने तय किया कि लिंगो यहाँ नहीं रहेगा। उनमें से तीन आदमियों ने लिंगो के रहवास के सामने बड़ा सा पत्थर रख दिया ताकि वह अपने रहवास में घुस न पाये और यहाँ से चला जाये।
पर स्त्रियाँ अड़ी रहीं। तय हुआ लिंगो को जाना ही होगा। स्त्रियों ने कहा वे भी चली जायेंगी। तय हुआ... कि एक गुप्त योजना बनायी जाये। तय हुआ लिंगो यहीं रहे, पर यह भी कि एक दिन इसे खत्म कर ही दिया जाये। जो स्त्रियों को वशीभूत कर ले उसे खत्म करना ही होगा। जो खोजे नई आवाजें और तानें उसे समाप्त करना ही होगा। जो बनाये नया गीत और पैदा कर दे जीवन में कोई कौतुक। जो खोजे नई ध्वनियां। उसे। हाँ, उसे खत्म करना ही होगा। आदिम दुनिया को आगे बढ़ना था। आगे बढ़ने के लिए लिंगो का खत्म होना जरूरी था। आज की ही तरह तब भी दुनिया इसी तरह आगे बढ़ रही थी। हर नये को खत्म करके।
'शिकार पर चल।’
पहले पुरुष ने धूल भरी ज़मीन पर खर्राटे भरते लिंगो को पैर से कोंचा। लिंगो ने घर के सामने रखी विशाल चट्टान को देख लिया था। औरतों ने उसे इतना सरका दिया था, कि वहाँ जगह छूट गई थी। रहवास का प्रवेश थोड़ा खुल गया था। इतना कि एक अकेला आदमी भीतर जा सकता था। पर लिंगो बाहर ही लेट गया। उसे लगा कि अगर वह भीतर चला गया तो हो सकता है फिर वे सब आकर चट्टान रख दें और वह अपने रहवास में कैद हो जाये। सो वह बाहर ही जमीन पर पसर गया।
'चल।’
' न।’
'आज चल कल भले न जाना।’
जो उससे कहा गया उसके तात्पर्य यही थे। लिंगो नहीं जाना चाहता था। उसे उन लोगों के साथ नहीं जाना था, जो उसके रहवास के सामने चट्टान रख गये थे। पर उसे यह भी लगा कि ये लोग शायद दोस्ती करना चाहते हैं। इनके साथ चलने से शायद मामला खत्म हो जाये। उस आदिम समय में भी यह चेतना थी, कि कौन गुस्से में है और कौन दोस्ती करना चाहता है। इस बात में शिकार को फंसाने जैसा कुछ भी नहीं लगता था। लिंगो उठकर खड़ा हो गया। उसने उन सातों को इस तरह देखा मानो कह रहा हो ‘ठीक है।’
तभी एक बेरचे (गिलहरी जैसा एक जंगली जंतु) वहाँ से भागा। एक पुरुष ने उस पर सटाक से तीर छोड़ा। बेरचे भाग गया। पुरुष लिंगो को देखकर मुस्कुराया।
'तू क्या करेगा शिकार। तू तो ढोल पीट।’
(तब ढोल नाम का शब्द नहीं था, शायद ये संवाद भी इसी तरह न हुए हों। बोलने का तरीका ठीक-ठीक इजाद न था। फिर जैसा कि पता है कि कथा में बहुत सी प्रक्षप्तियाँ जुड़ीं। यह यहाँ भी हुआ। कहा गया कि संवाद हुआ था, जबकि तब तो भाषा भी न थी और इंसान ने बोलना नहीं सीखा था। कथा बार-बार कहती है सातों ने लिंगो को यह कहा, वह कहा। पर संवाद नहीं था। सिर्फ मतलब थे। आवाजों और कहन के अनगढ़ मतलब। आशय भले यही थे, पर यह किसी और तरह से जतलाया गया था।)
लिंगो ने पुरुष के तीर धनुष को देखा। उसके हाथ से धनुष और तीर ले लिया और तीर को धनुष पर चढ़ाकर उसी तरफ़ निशाना साधे चलने लगा, जिस तरफ़ बेरचे गया था। तीर धनुष पकड़ने के उसके तरीके पर पुरुष हँस पड़े। मादर बजाते और बाँस की तुरही फूँकते वह बरसों पहले ही तीर चलाना भूल गया था। सातों ने उसे अपने शिकार के समूह से अलग कर दिया था। वे सात इकट्ठा शिकार करने जाते। शिकार के लिए लिंगो को वे भूल चुके थे। उन आदिम दिनों में वे लोग तीर धनुष अलग तरह से चलाते थे। वे उसे कंधे के पास प्रत्यंचा खींचकर नहीं चलाते थे। बल्कि ठीक समाने रखते। दोनों हाथें को तानकर सामने रखते। धनुष को ठीक सामने खींचकर रखते और उसमें तीर फंसाये रहते। फिर शिकार की आहट पाकर या नदी में से मछली के ऊपर आने पर उस पर सटाक से एक झटके में छोड़ते। कभी शिकार के पीछे धनुष को इसी तरह खींचे-खींचे दौड़ते और सही मौका पाते ही शिकार पर तीर छोड़ते। तीर छोड़ते समय खुद भी आगे को लपकते। कूदकर आगे को छलांग लगाते। मानो इस तरह छलांग लगाने से तीर और तेज जायेगा। जबकि ऐसा करने से अक्सर निशाना चूक जाता था। शिकार को मार डालने की उत्तेजना में वे ऐसा करते। पर यह तरीका बन गया था। अभी इंसान को सभ्य होने में हजारों साल बचे थे। तीर धनुष चलाने के तरीके के बदलने में भी हजारों साल लगने थे। लिंगो धनुष को खड़ा पकड़ने की बजाय आड़ा पकड़े था, जिसे देखकर सब हँस पड़े थे। पर लिंगो को कोई अंतर न पड़ा। वह बेरचे के पीछे उसी तरह तीर धनुष ताने दौड़ पड़ा।
तब तक दूसरे पुरुष भी आ गये। सब लिंगो के पीछे चल दिये। उन्होंने लिंगो का खूब मज़ाक बनाया। लिंगो मन ही मन गुस्से में था। रहवास के सामने चट्टान रखने वाली बात और फिर उस चट्टान को हटाने के समय हुए बवाल वाली बात जो उसे औरतों ने बताई थी, को जानकर वह गुस्से से भर गया था। वह यह मानता था कि उन औरतों पर उन पुरुषों से ज्यादा उसका अधिकार है। वह उन औरतों को अपना जानता था। सारा दिन वे उसके साथ रहती थीं, उसके साथ नाचती गाती थीं, उससे प्यार करती थीं। वे उसकी ही थीं। पर वह जानता था, कि पुरुष सात हैं और वह अकेला। उन दिनों यह चेतना थी, कि किससे लड़ा जा सकता है और किससे नहीं। यह इस बात पर निर्भर करता था कि कौन शक्तिशाली है और कौन नहीं। पुरुष लिंगो को चिढ़ा रहे थे। उस पर हँस रहे थे। लिंगो का गुस्सा और बढ़ रहा था। पर चूँकी वह लड़ नहीं सकता था सो उसे किसी और तरह से प्रतिकार करना था। एकबारगी उसने सोचा कि आज वह दिखा देगा कि वह भी शिकार कर सकता है। उसे पुरुषों के ताने और हँसी सुनाई दे रही थीे और वह तीर धनुष ताने बेरछे के पीछे भागा जा रहा था। पुरुष उसके पीछे भाग रहे थे। वह एकबारगी उस बेरछे को मारकर टुकड़े-टुकड़े कर देना चाहता था। पर वह झाड़ियों में छिपकर भागता हुआ, घास के मैदान में आ गया था और सरपट भागा जा रहा था। क्रोध के मारे लिंगो के हाथ काँप रहे थे। उसने दो तीन बार तीर छोड़ा जो सटाक से जमीन से टकराकर खड़ा हो गया। तभी वह बेरचे झाड़ियों में दुबकता हुआ दिखा। लिंगो ने फिर उसी तरफ तानकर तीन मारा। तीर ज़मीन में जाकर गड़ गया। बेरचे भाग गया।
पुरुष जोर से हँस पड़े। लिंगो बेरचे के पीछे सरपट दौड़ा। बेरचे झाड़-झंखाड़, पत्थर, टीला... सरपटाता, कूदता-फांदता भागता गया और लिंगो उसके पीछे-पीछे दौड़ता गया। लिंगो के पीछे हाँफते-दौड़ते पुरुष दौड़ रहे थे। उन पुरुषों ने लिंगो को मारने की योजना बनाई थी। बेरचे के पीछे दौड़ते लिंगो को पता नहीं था कि वह एक संकट में फँसता जा रहा है। वह गुस्से के मारे दौड़ता जा रहा था। आदिम दुनिया में हत्या एक आम बात थी। वे इसी तरह समझते थे, कि अगर कोई जानवर हल्ला करे तो उसे तीर मार दो। अगर कोई इंसान बेहूदगी करे तो उसे खत्म कर दो। बस वे इतना समझ गये थे, कि लिंगो को औरतों के सामने मारना ठीक नहीं है। वे जानते थे, उनकी आदिम चेतना समझती थी, कि अगर कोई किसी से प्यार करता है, तो उसे उसके सामने नहीं मारा जा सकता है। इसलिए यह युक्ति बनाई गई। युक्ति भी क्या थी, बस एक सरल सा बहाना था, कि किस तरह लिंगो को औरतों से दूर रखा जाय और मौका ताड़ते ही मार दिया जाय।
बेरछे बीजा के एक पेड़ पर चढ़ गया। उसके पीछे-पीछे पीठ पर तीर धनुष लटकाये लिंगो भी बन्दर की तरह पेड़ पर चढ़ गया। उन दिनों पेड़ पर चढ़ना आसान था। हर कोई बंदर की तरह पेड़ पर चढ़ जाता था। पेड़ बहुत ऊँचा और घना था। इतना ऊँचा कि वहाँ से दूर के पहाड़ और नदियाँ भी दिखाई देती थीं। इतना ऊँचा कि पंछी उस पेड़ के नीचे तक ही उड़कर आ पाते थे। यह भी बताया गया कि वह इतना ऊँचा था कि उसका ऊपरी हिस्सा बादलों से भी ऊपर था। हो सकता है इसका कोई मतलब हो। पेड़ को इतना ऊँचा बताने का कोई मतलब। कोई निष्कर्ष निकलता हो। जैसे नूह की नाव और मनु की नाव वाली कहानी से यह निष्कर्ष निकला कि मध्य एशिया में जिस जगह आर्य लोग रहते थे वहाँ कभी कोई बाढ़ आई होगी और इस तरह एक साथ एशिया माइनर और भारत के सप्त सैंधव के इलाकों में एक सी कथा सुनाई दी। ऐसा ही कोई सरल सा अर्थ होगा, उस पेड़ के इतना बड़े होने में कि वह बादलों के पार तक ऊँचा उठा था।... दण्डामी माझी उस पेड़ के बारे में बताते हुए कोई माड़िया गीत गाता है। उसका कोई मतलब है, जो समझ नहीं आता। झूठ का गीत... जो किसी बेखयाली में आया होगा, क्रमबद्ध और बेचैन, इस तरह इस कथा में जुड़ा होगा... दण्डामी माझी एक सी लय में गाता है, एक से शब्दों को बार-बार दुहराता है, जो लोग उसके गीत को समझते हैं, मानते हैं कि पेड़ सचमुच इतना ऊँचा रहा होगा कि वह बदलों के पार हो गया...। भागते बेरछे के पीछे भागते लिंगो की इस कथा में इतिहास का कोई तथ्य है और इस तरह वह पेड़ इतना ऊँचा है कि वह बादलों को भेदकर आकाश तक है। यह सिर्फ कल्पना भर नहीं। जैसे मनु की नाव सिर्फ कल्पना भर नहीं। जैसे दण्डामी माझी का गीत जो समझ नहीं आता, समय के किसी ठहराव पर वह कथा से इस तरह जुड़ गया कि उसका हिस्सा हो गया है। बेरछे पेड़ पर चढ़ता गया। सरपट, बेतहाशा। उसके पीछे लिंगो भी पेड़ पर चढ़ गया। पेड़ के तने पर अपने दोनों पैर मोड़कर उकडू, दोनों हाथों से बीजा के पेड़ के तने को थामे वह कूदता सा ऊपर चढ़ता गया। हर कूद के साथ ऊपर उठता हुआ। बेरछे इतना ऊपर चला गया कि वह दीखता न था। वह वहाँ तक पहुँच गया था जहाँ से जमीन पर खड़े पुरुष चींटी जैसे छोटे-छोटे दीख रहे थे और लिंगो अभी बहुत नीचे था, वह तने को पकड़े उस पर कूदता सा ऊपर चढ़ा आ रहा था। पुरुष नीचे खड़े थे। यही मौका था। एक ऐसा समय जब लिंगो को खत्म किया जा सकता था। उन्होंने उसी तरफ तीर चलाये जिस तरफ लिंगो पेड में घुसा था। पर उनका अंदाज गलत था। सरपट कूदता सा ऊपर चढ़ता लिंगो बहुत ऊपर जा चुका था। वे अंदाज से ताबड़तोड़ तीर मार रहे थे। ज्यादातर तीर बीजा के पेड़ के तने में घुस गये। तीरों के वार से तने की छाल उधड़ गई। डालियाँ टूट गईं। कुछ जगहों पर तने के खरपच्चे उड़ गये। तने पर जगह-जगह से बीजा का लाख और रस बहने लगा। गहरे लाल रंग का यह रस बहकर तने के सहारे नीचे आने लगा। बीजा का रक्ताभ द्रव पहले तो बहुत धीरे-धीरे बह रहा था। पर फिर उसकी कई सारी धारें तने पर बहने लगीं। द्रव्य बहकर पेड़ के तने के सहारे-सहारे नीचे तक आने लगा। पेड़ का तना लाल द्रव से नहा गया।उस रक्ताभ द्रव को देखकर लिंगो के सातों भाई खुश हुए और उछलते-कूदते चले गये।
...पुरुषों ने घर में जश्न मनाया। औरतें उदास थीं। औरतों की आँखों में खुश होते पुरुष का एक ही दृश्य था। अक्सर कई दिनों के बाद, अपने कंधे पर लकड़ी के लट्ठे से लटकाये किसी मरे हुए शिकार को लेकर, सुबह, दोपहर, शाम या रात, कभी भी वे जब आते थे, तब वे अजीब-अजीब आवाजें बनाते हँसते-मुस्कुराते थे। वे आज भी हँस-मुस्कुरा रहे थे, पर कहीं कोई शिकार नहीं था। लिंगो नहीं लौटा था। औरतें लिंगो को बाहर तक देख आईं। वह नहीं था। पुरुषों ने लिंगो के रहवास को तोड़ दिया। उसकी छानी और लकड़ी को उखाड़कर फेंक दिया। औरतें दूर से यह सब देखती रहीं।
लिंगो बेरछे को ढूँढ़ता रहा। पर बेरछे बादलों के पार पेड़ की सबसे ऊपर की फुनगी से थोड़ा नीचे पत्तों के झुरमुट में छिपा था। मेरे एक मित्र का मानना है कि पेड़ इसलिए बड़ा था क्योंकि लिंगो देवता माना गया और फिर भी वह बेरछे को नहीं मार पाया था, इसलिए पेड़ को इतना ऊँचा बताया गया। हो सकता है यह जंगल के लोगों का लिंगो से प्यार हो कि वे उसके हार की कोई वाजिब वहज गढ़ना चाहते हों। क्योंकि जिसने संगीत ढूँढा, जीवन को एक नया मायने दिया वह इतना कमजोर कि एक बेरछे को नहीं पकड़ पाया। उसकी हार सिर्फ उसकी हार भी नहीं, वह सबकी हार है। अगर वह नहीं कर पाया तो इसकी कोई वजह होगी ही। तभी वह पेड़ इतना बड़ा था, कि फिर कभी नहीं हुआ, सिर्फ इस कथा के अलावा।
पेड़ से उतरते समय उसने तनों पर गड़े असँख्य तीरों को देखा। टूटी डालियों, उधड़े तनों, लटकती छालों, पत्तों के झुरमुटों में फंसे कई तीरों को उसने देखा। तने पर नीचे तक बहते रक्ताभ द्रव को देखा, जो कुछ जगहों पर जमकर चिकना और कड़ा हो गया था। देर शाम जब वह पेड़ से उतरा तो वहाँ किसी को न पाकर उसे कोई अचरज न हुआ। उसका मन कड़वाहट से भर गया। पर वह जुझारु था। एक-एक वाद्य यंत्र को उसने बरसों तक भिड़े रहने के बाद बनाया था। लकड़ी के खोखल पर हिरण का चमड़ा चढ़ाने में उसे पाँच साल लगे। पहले वह सिर्फ खोखल को हाथ से पीटता था। उसमें से भाँय-भाँय सी आवाज आती थी। फिर एक दिन वह रहवास के सामने से हिरण का चमड़ा उठा लाया। पुरुषों ने हिरण का शिकार किया था। माँस खाकर खाल फेंक दी थी। लिंगो ने उसे उस खोखल पर लपेटकर बाँध दिया। उसी रस्सी से, जो बटी हुई हुई होती थी और जिससे पुरुष लट्ठे पर मरे हुए जानवर को बाँधकर लटकाकर लाते थे। यह रस्सी औरतें बटती थीं। उन दिनों समय को नापने की कोई युक्ति नहीं थी, पर जंगल की कथा में है कि पूरे पाँच साल लगे तो यह मान लेते हैं, कि पाँच साल लगे। वह भिड़ा रहा। उसने हार नहीं मानी। उसे इस तरह भिड़ा रहना कभी भी बेतुका नहीं लगा। जब वह हिरण के चमड़े को लाया था, तो पुरुषों ने उसे हिकारत से देखा था। मानो वह कोई जंगली जानवर हो। पर उसे कोई अंतर नहीं पडता था। वह आवाज के जादू में था। उसे पता नहीं था कि वह आवाज के जादू में है।
देर रात रहवास के पास आग जलती। जंगल में जब दावानल भड़कता पुरुष वहाँ से कोई जलती लकड़ी ले आते। औरतें कुछ और लकड़ी इकट्ठा कर उस जलती लकड़ी की आग को बढ़ा लेतीं। वह आग जलती रहती। सुबह-शाम पूरे समय। उसके बुझने का मतलब था फिर से दावानल का इंतजार ताकि फिर से आग जलाई जा सके। कभी बारिश हो जाती और आग बुझ जाती। औरतें उदास हो जातीं। पुरुष फिर किसी दावानल का इंतजार करते। वे आग के चारों ओर बैठकर माँस पकाते, खाते। लिंगो उनसे बहुत दूर होता। भूखा और जागता हुआ। वह जोर-जोर से कुछ गाता। एक से सुर में गाता। मादर बजाता। अपनी भूख को भुलाने की कोशिश करता। वह भिड़ा रहता।
लोग आग दावानल से लाते थे, जबकि रहते रहवास में थे। लगता है यह रहवास वाली बात बाद में आई होगी। लट्ठों और टहनियों से बना रहवास आदिम झोंपड़ियों से पुरानी चीज थी। सभ्यता शायद तब तक इतना नहीं बढ़ी रही होगी। मित्र की बात मानें तो यह दुनिया की सबसे पुरानी कथा है और पच्चीस हजार साल पुरानी है। हो सकता है तब से अब तक आते-आते उसमें बहुत सारी बातें जुड़ गई हों। फिर इंसान की चेतना भी इतनी सक्षम कहाँ कि वह झूठ को पकड़ पाये। ऐसी दुनिया की कल्पना कर पाये जिसमें घर, चूल्हा, कपड़े कुछ भी न हों, यहाँ तक कि भाषा भी नहीं। जब खेती नहीं थी, जब लोग गुफाओं में रहते थे, तब या तो वे शिकार करते थे, सहवास करते थे, खाते थे, सोते थे, गाते थे, नाचते थे और चित्र बनाते थे। वे नग्न थे, पर वे चित्र बनाते थे। वे गुफाओं में रहते थे, पर नाचते थे। वे गाते थे, पर तब भाषा न थी, शब्द भी न थे, पर वे गाते थे...। ऐसे में किसी लिंगो के किये को जान पाना कितना कठिन था। उसकी कथा को वैसा ही बता पाना जैसे यही बताना कि शब्द नहीं थे पर गीत था या यही कि चूल्हा नहीं था, भूख का इंतजाम न था, घर न था, कपड़े न थे, ...पर तब भी रंग थे, स्कैच थे, चित्रांकन था। वे आदिम लोग जिन लोगों ने भीमबैठिका, बुर्जहोम... और न जाने दुनिया की कितनी असँख्य गुफाओं में चित्र बनाये, उनमें रंग भरे... उनकी दुनिया देसी ही तो थी। लिंगो की कथा ऐसे ही दौर की कथा है, जब वह सब था जो लगता है शायद नहीं था। इसलिए वह तमाम ऐसी कथाओं से भर गया जो सच नहीं थी। वह उन स्मृतियों की गिरफ्त में आ गया जो उसकी दुनिया को समझने में नाकाबिल थीं। लिंगो की कथा ऐसी ही नाकाबिल स्मृतियों से भर गई लगता है।
वह पूरी रात चलता रहा। अगली सुबह वह फिर उस जंगली रहवास के पास पहुँच गया, जो अब ध्वस्त कर दिया गया था। उस ध्वस्त रहवास के पास वह उकडू बैठ गया। यह पक्का था कि वह लड़ नहीं सकता था। वे सात थे और वह अकेला। अब उसे लड़ना निरर्थक लग रहा था। उसे गाने-बजाने का मन कर रहा था। उसे अभी और गाना बजाना था और इस तरह उसे लड़ने का खयाल बेतुका लग रहा था। मामला सिर्फ सात विरुद्ध एक का भर नहीं था। वह जीना चाहता था। क्योंकि उसे गाना था, उसे आवाजों से खेलना था। उसे लगा वह इस सबसे कहीं दूर चला जाये, कहीं जहाँ कोई न हो। वह औरतों को भी छोड़ देगा। गाने बजाने के लिए वह सबकुछ छोड़ सकता है। उसे ज़िन्दा आता देख पुरुषों को घोर अचरज हुआ। औरतें भी अचरज में पड़ गईं। औरतों को पता चल गया था कि पुरुषों ने उसे मार दिया है। एक औरत यह जानकर खूब रोई कि वह मर गया है। कुछ और औरतें उदास हो गईं। पर उसको वापस आता देखकर वे सब एक किस्म के आश्चर्य मिश्रित खुशी से चहक उठीं। पता नहीं कैसे, पर कहते हैं कि औरतें पुरुषों को यह समझा पाईं कि लिंगो को मारना ठीक नहीं है। अगर उसका संगीत छुड़ाना है और स्ति्रयों से उसके संसर्ग पर लगाम लगानी है तो इसका एक और तरीका है। वह यह कि लिंगो के लिए भी एक स्त्री ले आई जाये। स्त्री, जो सिर्फ़ लिंगो की स्त्री हो। जैसे पुरुष अपनी-अपनी स्ति्रयों पर दावा करते हैं, उसी तरह एक स्त्री पर लिंगो का दावा हो। पुरुषों की घबराहट तब तक कम हो चुकी थी। वे यह भी मान चुके थे कि लिंगो शिकार कर सकता है। बेरछे के पीछे दौड़ते और तीर चलाते लिंगो को देखकर वे यकीन करने लगे कि वह बेहतरीन शिकारी हो सकता है। रोज के खाने के जुगाड़ में उसकी एक महत्त्वपूर्ण भूमिका हो सकती है। औरतें शायद ठीक कहती हैं कि, उसे मारना ठीक नहीं। जो लाभदायक हो उसे क्यों मारना?
लिंगो के लिए एक औरत लाई गई। वह दूर पार कहीं कुछ और लोगों के साथ रहती थी। पुरुष उसे लिंगो के लिए ले आये थे। जबरदस्ती लाये थे। उन्हें पता था वहाँ दूर कुछ लोग रहते हैं। वे वहीं भटकते रहे थे और एक दिन उन्हें वह औरत वहाँ मिल गई थी। थोड़ा समय लगा पर फिर वह औरत लिंगो के साथ रहने लगी। कुछ दिनों बाद वह लिंगो के साथ घूमती। उसका गाना बजाना सुनती। फिर वह भी कुछ-कुछ गाने बजाने लगी। लिंगो कभी शिकार पर नहीं गया। पुरुषों की उम्मीद पर उसने पानी फेर दिया। शिकार के पीछे कूदते-फांदते लिंगो को देखकर पुरुष उत्साह से भर गये थे। वे लिंगो को शिकार पर चलने के लिए बार-बार कहते। पर वह नहीं गया। कहानी फिर वहीं पहुँचकर अटक गई। वही गाना बजाना, वही तफरी। वही दुनिया के बिगड़ने का खतरा। वही औरतों का भटकना। फिर से पुरुषों ने लिंगो से मुक्ति पाने की तरकीब सोची। वे यह जानते थे कि अगर उन्होंने लिंगो की औरत को भगा दिया तो उसे भी भागना पड़ेगा। पुरुषों ने एक दिन औरतों से कह दिया कह दिया कि लिंगो की औरत एक जादूगरनी है। एक टोनही।
लिंगो की औरत को बेदखल कर दिया गया। लिंगो भी उसके साथ बेदखल हो गया। जब वे दोनों जा रहे थे, तब पुरुष उन पर खूब हँसे। इस बार औरतें भी लिंगो के साथ नहीं थीं। लिंगो अब उनकी ओर ध्यान न देता था, बल्कि उसे अब अपनी औरत ही सबसे प्यारी लगती थी। फिर उसे यह भी भान था कि इन औरतों के कारण ही पुरुषों ने उसकी हत्या की योजना बनाई थी। वह किसी भी झंझट में नहीं पड़ना चाहता था। इसलिए भी वह अपनी औरत के साथ ही रहता था। जब उसकी औरत के टोनही होने वाली बात पुरुषों ने फैलाई तो औरतों ने भी उनका साथ दिया। वे भी चाहती थीं कि वे सब वहाँ से चले जायें। लिंगो की औरत आगे-आगे थी और लिंगो उसके पीछे। पुरुष लिंगो पर हँसे। लिंगो पहला पुरुष था, जो अपनी औरत के बेदखल होने से बेदखल हुआ था। जो अपनी डायन से प्यार करता था।
पुरुष जानते थे कि दोनों जंगल में भटक-भटक कर एक दिन खत्म हो जायेंगे। जो शिकार नहीं करता उसका खत्म होना तय है। जो भटकता है, जो खोजता है, जो फितूरी है, जो कुछ नया और अबूझ करता है, जो दीवानों की तरह किसी अदेखे- अनजाने काम में लगा रहता है, जो आवाज और धुन का दीवाना है, औरतें जिसकी दीवानी हैं, जो जाने किस चीज का तो दीवाना है...उसका खत्म होना तय है। पर फिर भी उन्होंने जाते वक्त उसे लोहे की धातु का एक ‘यू’ आकार का टुकड़ा दे दिया। पर लगता है यह टुकड़ा उन्होंने नहीं दिया होगा। क्योंकि जिस दौर में आग भी जंगल से लाई जाती थी उस दौर में लोहा कहाँ होता होगा। कुछ लोग यह भी कहते हैं, कि लोहे का यह टुकड़ा उसे जंगल के बाहर मिला था। वहाँ सभ्यता थोड़ा आग बढ़ चुकी थी। पूरे दस हजार साल से भी ज्यादा आगे। याने जंगल के भीतर और जंगल के बाहर पूरे दस हजार सालों का अंतर था। बाहर के लोग खेती जान चुके थे और लोहे से परिचित थे। तो यह उसे वहीं मिला था, जंगल के बाहर किसी खेत के पास। आज के बस्तर के जनजातीय समाज में यह ‘मोहर’ कहलाता है। इसी पर लोहे का हल टिकता है। यह धुरी की तरह है। लिंगो को तो शिकार का ही ठीक-ठीक पता नहीं था। वह भला मोहर का क्या करता? पर उसे पाकर वह चमत्कृत था। उसने इससे पहले ऐसी कोई चीज न देखी थी।
लिंगो और औरत जंगल में भटकते रहे। बहुत से खरहे, हिरण, तीतर, बटेर... उनके सामने से दौड़कर निकलते, लिंगो और औरत उसे पकड़ने को लपकते। लिंगो तीर से निशाना साधता। पर उसका निशाना न लगता। उस दिन भी अगर वह गुस्से से भरा हुआ न होता तो बेरछे के शिकार का वह कौशल न दिखा पाता। वह उसकी क्षमता न थी, बल्कि सिर्फ एक उत्तेजना थी कि वह बेरछे के पीछे भागा गया। वह कभी शिकार कर ही नहीं सकता था। जब भूख सताती लिंगो किसी जंगली जानवर को पकड़ने तीर धनुष छोड़ बेतहाशा दौड़ता। पर परिणाम सिफ़र। लिंगो और औरत भूखे पेट जानवरों को पकड़ने दौड़ते। उन्होंने पत्ते खाये और कुछ कन्द भी, जिन्हें औरत जानती थी। औरत को कुछ अनाज का भी पता था, जो घास के साथ उगता था और जिसके बीज झाड़कर खाया जा सकता था। तब सागौन और बीजा के उस घनघोर जंगल में मांस के अलावा कुछ और था भी नहीं खाने को। सैंकड़ों बरसों बाद इंसान ने महुआ, तेंदू और इमली को खूब लगाया, ताड़ी, सल्फ़ी और छिन्द के पेड़ उगाये। पर उस समय कुछ भी तो नहीं था। वे कई दिनों तक भूखे भटकते रहे और फिर एक दिन जंगल के बाहर फैले एक मैदान में निकल आये।
वह एक अगल दुनिया थी। जंगल के बाहर की दुनिया। वहाँ झोंपड़ियाँ थीं। ऐसे रहवास उन दोनों ने कभी नहीं देखे थे। जंगल में छिपकर वे यह सब देखते रहे थे। झोपड़ियों के चारों ओर खेत थे, मैदान थे। ये खेत और मैदान जंगल को काटकर, साफ कर वहाँ रहने वाले लोगों ने तैय्यार किये थे, जो जंगल के लोगों से बहुत दूर उस बाहरी दुनिया में रहते थे और जहाँ कई दिनों से भटकते वे दोनों निकल आये थे। उस मैदान के इर्द-गिर्द ‘वलेक’ के पेड़ थे। वलेक याने सेमल। चारों ओर सेमल के पेड़। एक गोलाई में उगे हुए। उनके बीच एक विशाल खाली जगह थी। एक रात वे जंगल से बाहर निकलकर उस मैदान तक आ गये। वहाँ अन्न निकालने के बाद पड़े पुआल का ढेर था। वे पुआल के ढेर के पीछे छिप गये। पुआल में कहीं-कहीं कुछ अन्न के दाने लटक रहे थे। लिंगो की औरत को पता था, कि इस पुआल में दाने होते हैं। घास के साथ उग आने वाले इस पौधे को वह जानती थी। जो बरसात के पहले उगता था और ठण्ड आते-आते पक जाता था। दूधिया सा इसका बीज खाने में स्वादिष्ट था। तब उसका कोई नाम नहीं था, बाहर की दुनिया में उसे धान कहा गया बहुत बाद में, बहुत बहुत बाद में।
तभी एक आदमी वहाँ आ गया। उसे देख वे दोनों थोड़ा डर गये। पर भूख बहुत तेज थी। उसने उस बाहरी आदमी से पूछा। उसे नहीं पता था कि उस बाहरी आदमी को बाहर की दुनिया में किसान कहते हैं। उसे किसान के बारे में नहीं पता था, किसान ही क्या उसे तो खेती के बारे में भी नहीं पता था। उसने किसान से पूछा कि क्या वह उस अन्न के दानों को निकाल सकता है। किसान उसकी बात समझ नहीं पा रहा था। पर जब कुछ समझ आया तो उसने अपनी गरदन हिला दी। मतलब ‘हाँज्। लिंगो उस ‘मोहर’ से उस पैरे के ढेर को पीटने लगा। भूख से बेहाल स्त्री उससे कुछ दूर ज़मीन पर निढाल होकर बैठी थी। वह अपनी औरत को देखता और उतनी ही जोर से पैरे की ढेर पर ‘मोहर’ को मारता। अन्न के दाने टूट-टूटकर गिरने लगे। वे झड़ते गये, लगातार। इतना झड़े कि अनाज का एक ढेर सा लग गया। किसान अचरज में था। उसने पहली बार देखा था कि कोई इतना अनाज भी निकाल सकता है, वह भी सूख गये पैरे से। कहानी में यूँ है कि अन्न के दानों को पता था, कि यह लिंगो है और यह मुहर है। कि इससे खेती होगी। कि इससे ही भूख का नाश होगा, इसलिए वे खूब झड़े इतना कि किसान की आँखें अचरज से फैल गईं। दण्डामी माझी जब कथा के इस भाग को कहता है, तो जोर-जोर से कहता है, हर शब्द पर जोर देता। पर अब हम जानते हैं, कि यह ठीक-ठीक ऐसा नहीं हुआ था। वहाँ भूख थी, वहाँ खेती की चेतना नहीं थी, वहाँ अनाज को पा लेने की भयावह आतुरता थी...वह जादुई नहीं था, वह बहुत कठिन और दारुण था।
लिंगो और स्त्री ने वह अनाज खाया। चारों ओर गहन अँधेरा था। दूर एक किसान बैठा उनको देख रहा था। वह खुश था। वह अचरज में था। उसे यकीन नहीं नहीं हुआ, कि धातु के एक टुकड़े से इतना अनाज झर सकता है। कथा में कहा गया है कि, उसने बड़े आत्मीय और सम्मान के भाव से लिंगो को देखा। उसने अचरज से जरूर देखा था। उसे वे किसी दूसरी दुनिया के बेहद अलग लोग लगे थे, जो लगातार पैरे को पीटकर अनाज झड़ा सकते थे। किसान को भूख का तो पता था, पर ऐसी किसी अनिश्चित भूख का पता न था, जिसके बुझने का कोई समय तय न हो...जो कई-कई दिनों तक चले...जो बेहद आदिम युग में थी, किसी दीवानगी में, धुन और लय की दीवानगी के साथ जिस भूख ने पसराये थे अपने पैर...शिकार पर न जाने सदिच्छा और जिद ने जिस भूख को पैदा किया...जो अज्ञात थी, अबूझ सी, जिसका कोई इतिहास नहीं हुआ...जिसकी कथा में जुड़ती गयी अज्ञान से भरी स्मृतियाँ, झूठ के आख्यान...जिस पर लिखे गये असत्य भाष्य...जो उपजी थी आवाजों को तरतीब देने के असह्य लालच में...जो नकार थी इंसान के तारतम्य से भरी जिंदगी का...। फिर कहीं ऐसी भी भूख...ऐसी भूख जिसके लिए कोई चूल्हा नहीं होता। कोई खेत नहीं होता। ऐसी भूख जिसके लिए कहीं कोई रोटी नहीं होती। अनाज नहीं होता। दस हजार साल पीछे छूट चुकी भूख, जिसकी कोई तरतीब नहीं, कोई इबारत नहीं, कोई किस्सा नहीं...जो जंगलों में जानवरों से लड़ते-भिड़ते इंसानों के पुरखों ने गुजारी, कभी खुद शिकार बनते और कभी शिकार करते। जंगल की कितनी पुरानी भूख, जो हमारे पुरखों के चेतना में थी। इतिहास के गर्त में..।
...बस्तर में एक गाँव है, जिसका नाम है सेमर गाँव। वहाँ जंगल खत्म होता है। सेमल के छितर पेड़ों का एक विशाल जंगल है। उस जंगल के बीच एक खाली छूटी जगह है। उसमें दूर तक फैले कुछ खेत हैं। कुछ बहुत पुराने खेत। कहते हैं लिंगो इसी जगह पर आया था और उसने अपनी डायन औरत के साथ भूख मिटाई थी।
...बरसों बाद जंगल के लोगों को लिंगो का पता चला। पता चला कि उसने अब गाना बजाना छोड़ सा दिया है। वह अब नया कुछ करना चाहता है। कहते हैं वह घास के पौधों से अन्न झड़ाता रहता है। उसके पास कुछ है, कुछ अजीब सी चीज जिसे वह सूखे घास के ढेर पर मारता है। वह बहुत से ऐसे पौधे उगाना चाहता है जिसमें से अनाज झरता है। पर कैसे? वह नहीं जानता। उसने बाहर की उस दुनिया में देखा था, कि वे पौधे एक साथ एक जगह पर उगे थे। वह आदमी उनकी ओर इशारा करके उसे ‘खेत’ कह रहा था। वह जानना चाहता था, कि कैसे खेत बनता है? कैसे उगते हैं पौधे एक साथ? पर उसे नहीं पता था, कि उसके और उस आदमी के बीच दस हजार साल का अंतर था, वह उसकी बात नहीं समझ सकता था और वह उसकी दुनिया पर अचंभित होने के अलावा कुछ और नहीं सोच सकता था।
....कुछ दिनों बाद लिंगो वापस आ गया। कई दिनों की बहुत लंबी यात्रा के बाद। उसी जगह जहाँ से वह चला था। मालूम हुआ अब सिर्फ पाँच पुरुष ही रह गये थे। दो को जंगली जानवर खा गये थे। एक औरत बीमार हो गई थी। वह रात दिन गाना गाती और जमीन पर लकड़ी पीट-पीटकर ताल देती। पाँचों पुरुषों ने पाया कि लिंगो उस डायन औरत को बहुत प्यार करता है। उन्होंने कहा कि उस डायन का जादू अब लिंगो के शरीर में उतर आया है। अभी एक औरत बीमार हुई है कल को सारी औरतें बीमार हो जायेंगी। लिंगो के भाइयों ने औरतों को बताया था, कि जिस पुरुष में स्त्री का टोनहा आ जाये वह पूरे जंगल, पूरे आकाश का संहार कर सकता है। वह नई सृष्टि गढ़ सकता है। वह सर्वनाश कर सकता है। वे लिंगो को खत्म कर देना चाहते थे। उनके अनुसार वह अब सारी दुनिया के लिए खतरा बन गया था।
'एक बार काले आकाश के नीचे लेटी डायन औरत उदास थी। उन दिनों आकाश में चाँद तारे न थे। आकाश काला था, निपट काला, बेरौनक और बेरौशनी। लिंगो ने उसके लिए एक चाँद बना दिया, जो अक्सर रात उस डायन औरत के चाहने पर आकाश में उतर आता। उसने बहुत से तारे बनाये और उनको आकाश में छोड़ दिया।'
दण्डामी माझी लगातार कह रहा था। मुझे लगा मुझे उसे टोकना चाहिए। बताना चाहिए कि मूल कथा बदल दी गई है। बहुत पहले ही। इस तरह कि पता भी नहीं चलता कि वह लिंगो की ही कथा।
'चांद तारे बनने की कहानी अगल है। वह यह कहानी नहीं है।'
मैंने एकदम से कहा था। दण्डामी चुप हो गया। दो और लोग भी वहाँ थे, वे मुझे घूरने लगे। दण्डामी चुप रहा फिर धीरे से कहने लगा।
'...जो नई बात करता है, वही गढ़ता है वही बनाता है, वह भूख पर भी शिकार को नहीं जा पाता, वह बनाता रहता है और इस तरह दुनिया बनती है। हम पढ़े लिखे नहीं हैं, इसलिए नहीं मानते कि जिसने आग ढूँढ़ी, संगीत ढूँढा, खेती ढूँढी...उसके अलावा कोई और है जिसने दुनिया को बनाया। यह जो दुनिया है, यह लिंगो की है, क्योंकि उसने इसकी शुरुआत की...। आप यकीन करो यह चाँद-तारे उसी ने बनाये।’
मुझे लगा कि कभी दण्डामी को बताऊँगा, सत्य और असत्य के भेद को...प्रक्षप्तियों के झूठ को, टीकाओं के छल को...उस असत्य को जो भरमाता है यादों को, गढ़ता है बेतुकी स्मृतियाँ...कभी बताऊँगा चाँद-तारे बनने के सच्चे किस्से को...बिग-बैंग को...आज के विकास के कौतुहल को। पर यह तो जंगल में रहता है। इसके गाँव तक कोई रास्ता नहीं आता। अबूझमाड़ के धुर अंतरतम में, दुनिया से बेवफा, जहाँ इंतजार भी बेमानी है, ‘आस’ एक खत्म हो चुकी दुनिया का शब्द है जहाँ...वहाँ खुद से इतना आश्वस्त और संजीदा... इसे कैसे समझाऊँगा कि एक दुनिया है, बहुत आगे बढ़ चुकी दुनिया, जो नहीं मानती कि जो पहला है, भूख और जीवन से जुदा...भटकता है अपनी धुन में पागलों की तरह, ढूँढ लाने कोई नई बात, कोई नई धुन...वही रचयिता है एक नई सृष्टि का, नहीं मानती कि जिसने ढूँढा उसने ही शुरुआत की...अंततः उसी ने...। अबूझमाड़ के इस बियाबान में तुम्हारी यह सोच कितनी तो अकेली है दण्डामी। यह खयाल, यह स्वप्न कितना तो जुदा है...। तुम किस दुनिया के बाशिंदे हो दण्डामी? क्या तुम्हें नहीं लगता कि लिंगो की इस कथा के साथ तुम अकेले छूट गये हो? इस निर्जन बियाबान में बिल्कुल अकेले। जब उस अकेले, हम दो चार लोगों को वह सुनाते हो अपनी छाती पर हाथ रख, किसी गीत से बताते हो उस झूठ के मर्म को, उस खयाल को, उस स्वप्न को जो आता रहा होगा पुरखों के युग से एक सा...तब लगता है पता नहीं कितने लोग होंगे जो जान पायें तुमको...।
'...जब वह गाता, तब बारिश होती। भरी गर्मी में महुआ के फूल बेतरह टपक-टपक कर पानी में गिरते। उसमें सड़ते और एक अजीब-सी मदमस्त खुशबू जंगल-जंगल दौड़ती। लिंगो और औरत सड़े महुआ का वह पानी पीते। छककर। नशे में निढाल वे रात-दिन नाचते, उत्सव मनाते, संभोग करते। उन्हें नहीं पता था, कि बरसों बाद दुनिया इस पेय को एक नाम देगी... ‘शराब’ और उसे पता भी नहीं होगा कि, एक लिंगो था और एक उसकी स्त्री।ज्
दण्डामी डूबकर कहता है। मानो पहली बार कह रहा हो, मानो हर बार यह कहानी बदल जाती हो। वह कहता है कि सिर्फ लिंगो ने गढ़ी यह दुनिया। भले लोग न मानें, न जानें पर वह लिंगो ही था। मैं उससे पूछना चाहता हूँ कि क्या वह ईश्वर के बारे में जानता है? या यही कि क्या वह उसके बारे में जानना चाहता है? क्या वह कुछ और जानना चाहता है, इस बारे में कि यह दुनिया कैसे बनी? जैसे यही कि ग्रीस में कोई ज्युपिटर था, हमारे यहाँ ब्रम्हा, कि कोई रा था इजिप्ट में... लाखों दावे, लाखों किस्से कि किसने बनाई दुनिया...क्या वह जानना चहता है?
फिर एक दिन लिंगो को उन पुरुषों ने पकड़ लिया। लिंगो रोज कुछ न कुछ नया बनाता जा रहा था। वे मानते थे कि जो नया बनाता है, वह अनुपयुक्त है। जो नई बात करता है वह घातक है। जो नया सोचता है, नया ढूँढता है दुनिया को उसकी जरूरत नहीं। जिस तरह संगीत को खोजकर उसने उनकी दुनिया में संकट पैदा किये वैसे ही और उससे भी भयानक संकट वह पैदा कर सकता है। वह खोज सकता है कोई नया स्वप्न, बोलने-बतियाने का कोई नया तरीका, कोई कविता, कोई अनहोनी सी वस्तु, वह सेाच सकता है आकाश में उड़ने के बारे में, समुद्र में बहुत गहरे उतरने के बारे में, वह सोच सकता है चाँद पर जाने के बारे में...दुनिया के लिए कितना तो बेतुका होगा ऐसा इंसान। वे सोचते रहे हजारों बरसों तक। इस तरह वे पाँचों लिंगो को सृष्टि का विनाशकर्ता मानते थे। एक दिन उन्हें लिंगो मिल गया। डरे घबराये उन पाँचों ने लिंगो को पकड़ लिया। उसको आग में जला दिया। ‘...जंगल में जो आग जलती है, उसमें से आज भी अठारह वाद्य यंत्रों की आवाज़ सुनाई देती है। उसमें हवा की सरसराहट और सीटी से अपना गला मिलाती एक धुन सुनाई देती है। उसमें प्यार की एक लय है। उस आग से शराब की एक मादक गंध उठती है, आज भी।'
दण्डामी कहता है। अटकता हुआ। संभलता हुआ। चुप होता हुआ। वह नहीं जानता अबूझमाड़ में होने का मतलब। उसे नहीं वास्ता अकेले पड़ जाने की किसी बात से। कभी कुछ लोग आते हैं। कई-कई महीनों के बाद। कभी कोई उससे किस्सा सुनना चाहता है। कभी उसका मन होता है। कभी उसका मन नहीं होता है। कभी वह सुनाता है। कभी वह सुनने आने वालों को भगा देता है। उसे यकीन है। अबूझमाड़ की निपट निर्जनता और अकेलेपन के बाद भी, घने बियाबान में खुद को कभी बेहद अनजान और बेतुका महसूस करने के बाद भी...कि वह सही है, बाकी सब गलत।
उसे यह बताना आसान नहीं कि बहुत पहले कभी बस्तर में आया था वारंगल का राजा। वह अपने साथ बहुत से देवी-देवता लाया था। धीरे-धीरे वे देवी-देवता ही मान लिये गये। बीतते इतिहास के साथ-साथ जंगल के देवता हारते गये। उनके किस्से मिथकों में बदल गये। उनका सच एक आदिम गप्प हो गया।
--.
संपर्क:
३५, रेसकोर्स रोड,
ग्वालियर ४७४००२ (म. प्र.)
मो.-०९४२५१९१५५९
COMMENTS