यह रचना मोबाइल पर बोल कर टाइप की गयी है। पैन से मोबाइल डिक्टेशन तक का सफ़र / सूरज प्रकाश / रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

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रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2 सूरज प्रकाश यह रचना मोबाइल पर बोल कर टाइप की गयी है। पैन से मोबाइल डिक्टेशन तक का सफ़र पहली ...

रचना समय - मार्च 2016 / कहानी विशेषांक 2

सूरज प्रकाश

यह रचना मोबाइल पर बोल कर टाइप की गयी है।

पैन से मोबाइल डिक्टेशन तक का सफ़र

पहली बार तुकबंदी तेरह बरस की उम्र में की थी। हमारे चाचा रात के वक्त लैम्प की रौशनी में हम भाइयों को गणित पढ़ा रहे थे। उस वक्त गणित की ही कॉपी में पहली कविता लिखी गयी। तब पता भी नहीं था कि कविता होती क्या है। कविता से उतना ही नाता था जितना कोर्स की किताबों में पढ़ी गयी कविताओं से था। सोलह सत्रह बरस की उम्र तक आते-आते यूं ही कच्ची-पक्की तुकबंदी करने लगा था। बेशक पढ़ हम सब कुछ रहे थे। चंदामामा, राजा भइया, गुलशन नंदा, आजाद लोक, अँगड़ाई और मस्त राम और गीता प्रेस की किताबें।

अपने जीवन का पहला प्रेम पत्र 17 बरस की उम्र में लिखा था। अपने लिये नहीं, अपने दोस्त प्रदीप अरोड़ा के लिए। तब हम ग्यारहवीं में थे। प्रदीप को उसकी प्रेमिका सुमन ने यह खत दिया था। सुमन के पिता जी घर में ही छोटी मोटी दुकान चलाते थे और दोपहर को सुमन दुकान पर बैठती थी। प्रदीप को समझ में नहीं आया था कि क्या है यह। यह प्रेम पत्र भी कॉपी के बीच के पन्ने फाड़ कर लिखा गया था। अब याद भी नहीं आता कि उस खत में कितना लव था और कितना रोज़ाना के कामों की फेहरिस्त। खैर, इस लव लेटर के जवाब के संयुक्त रूप से कई ड्राफ्ट बने थे और फाइनल लव लेटर सुमन तक प्रदीप की राइटिंग में पहुंचा था।

अब तो प्रदीप का ये रोज़ का काम हो गया। दिन में दो तीन लव लेटर भी मिलते और महाकवि सूरज प्रकाश उसके प्रेम पत्रों के जवाब तैयार करते। तब तक कविवर सूरज प्रकाश को भी अपने मोहल्ले की सारी सुंदर लड़कियां अच्छी लगने लगी थीं। वे भी चाहने लगे कि उनका भी लव लेटर वाला प्यार कहीं शुरू हो। तब तक हम यही समझते थे कि अच्छा लगना ही प्रेम करना होता है। प्रदीप के लिए प्रेम पत्र लिखने से पहले हम सब बच्चों को एक काम ज़रूर करना होता था कि हम जिस मोहल्ले में रहते थे वहां यह आम बात थी कि हमें मोहल्ले की सारी चाची मासियों के लिए उनकी रिश्तेदारी के लिए चिट्ठी लिख कर देनी पड़ती थी और उनके जवाब आने पर यह जवाब भी पढ़ने होते थे।

हमारे हिस्से में भी एक अदद प्रेमिका आयी और कच्चे पक्के प्रेम करना और कच्ची-पक्की कविताएं लिखना साथ-साथ चलता रहा। ये सब लिखना इतनी शिद्दत से होता था कि पता नहीं चलता था कि प्रेम पत्र लिख रहे हैं या कविता। दोनों जगह वही बातें लिखी जाती थीं। बहुत बाद में तो एक प्रेम में ऐसा भी हुआ कि सारे प्रेम पत्र दोनों ओर से कविताओं के रूप में ही लिखे गये। उसका जिक्र फिर कभी।

जब खुद प्रेम पत्र और कविताएं लिखने का सिलसिला शुरू हुआ तो कॉपी के बीच वाले पन्ने निकाल कर लिखे जाते थे। ये कॉपी भी हम रद्दी की दुकान से तौल कर लाया करते थे। बेशक बरस के शुरू में हम नई कापियां खरीद लेते थे लेकिन बाद में ज़रूरत पड़ने पर नई कॉपी खरीदना या नई किताब खरीदना हमारे लिए किसी अय्याशी से कम नहीं होता था। हम छह भाई बहन थे और अमूमन हमारे हिस्से में पुरानी चीजे़ं ही आती थीं। चाहे वह कपड़े हों, जूते हों या किताब कॉपी ही हों।

हमारी ही क्लास में एक लड़का पढ़ता था मकसूद अली। उसकी कबाड़ी की दुकान थी और उसकी दुकान पर दून स्कूल या आइएमए वगैरह महंगे स्कूलों की बच्चों की कापियां रद्दी के भाव बिकने के लिए आती थीं। शानदार कवर चढ़ी बेहतरीन कापियां। ये हमें तौल कर मिल जाती थीं। कई बार तो ऐसा भी होता था कि इन कॉपियों में एक दो पन्ने भी नहीं लिखे होते थे या ये टेस्ट की कॉपियां होती थीं। ये कॉपियां ही हमारे लिए बहुत बड़ा खजाना होती थीं। पूरी पढ़ाई तो इन कॉपियों पर होती ही थी, शुरुआती कविताएं और प्रेम पत्र इन्हीं कॉपियों पर लिखे गए।

बाद में जब नौकरी पर आया तो दफ्तर के पैड या लूज कागज़ कविताएं लिखने के काम आते रहे। कहानी लिखना तो बहुत देर से लगभग 35 वर्ष की उम्र में शुरू हुआ। इससे पहले जो भी लिखा, साफ सुथरे बिना लाइन वाले कागज़ पर लिखा। हाशिया छोड़ कर सीधी लाइनों में लिखता। तब तक मुझे मेड इन चाइना के हीरो या विंगसंग पैन का शौक लग चुका था। पैन मेरी हैसियत से महंगा होता था। लगभग ग्यारह रुपये का। लेकिन वही इस्तेमाल करता। स्याही भी सबसे महंगी क्विंक खरीदता। बाद में शायद उसका नाम चेलपार्क हो गया था। पैन और स्याही की अय्याशियां बॉलपेन आने तक चलती रहीं। कभी कभी रंगीन कागज़ों वाले पैड खरीद कर भी प्रेम पत्र या कविताएं लिखीं। मेरे लिए दोनों एक ही थे।

तब तक उपनाम सागर रख लिया था बेशक तब तक सागर और साग़र में फर्क पता नहीं था। पूरी ज़िंदगी में बीस कविताएं भी नहीं छपी होंगी। वे भी स्थानीय अखबारों में। बहुत हुआ तो कादम्बिनी में एकाध।

अपनी कहानियां मैंने बाद में लिखीं और विश्व प्रसिद्ध कहानियों के अनुवाद पहले किये। लेकिन जो भी लिखा साफ-सुथरे, बिना लाइन वाले कागज़ पर लिखा। शुरू शुरू में अनुवाद या कहानियां हाथ से लिखकर तीन चार बार ड्राफ्ट तैयार करता था। हर बार यही मान कर चलता कि ये फाइनल कहानी हो गई है लेकिन जब कहानी को नए सिरे से देखता तो एक बार फिर फेयर करनी पड़ती।

बाद में कहानियां टाइप कराने का सिलसिला शुरू हुआ। तीन चार ड्राफ्ट तैयार करने के बाद जब लगता कि अब कहानी तैयार है तो टाइप कराता। हमारे ही सेक्शन का एक टाइपिस्ट टोपरे घर पर ये काम करता था। आम तौर पर शनिवार को कहानी ले जाता और सोमवार को टाइप करके ले आता।

एक रोचक किस्सा याद आ रहा है। अपनी तीसरी कहानी यह जादू नहीं टूटना चाहिए के तीन ड्राफ्ट तैयार कर चुका था और चाहता था कि अब इसे टाइप करा कर साफ सुथरी कॉपी हंस में छपने के लिए भेजूं। उस दिन मंगलवार था। अगले सोमवार तक इंतज़ार करने का धैर्य नहीं था। दो एक मित्र कहानी पढ़ कर पसंद कर चुके थे। मैंने टोपरे से कहा कि कहानी कल टाइप करके दोगे तो उसने कहा कि नहीं तीन चार दिन लगेंगे। कोई उपाय नहीं था। लेकिन अगले दिन सुबह जब टोपरे ऑफिस आया तो बेहद खूबसूरती से टाइप की हुई कहानी उसने मेरे सामने रखी। मुझे बधाई दी कि बहुत अच्छी कहानी है। यह अपनी किसी भी कहानी पर उससे या किसी से भी मिलने वाला पहला कमेंट था। जब मैंने पूछा कि तुम तो तीन चार दिन लगाने वाले थे। आज ही कैसे टाइप करके ले आये।

जो किस्सा उसने बताया वह खूबसूरत तो था ही मुझे मेरी कहानी के प्रति आश्वस्त भी करता था। कल जब वह घर पहुंचा और पत्नी से खाना मांगा तो पत्नी ने कहा - थोड़ी देर लगेगी। उसने सोचा खाना खाने के इंतज़ार में एकाध पेज ही टाइप कर लिया जाए। कहानी टाइप करने बैठा तो कहानी रोचक लगी। अब कहानी पढ़ने का एक ही तरीका था कि कहानी टाइप करता चले। वह पिछली रात कहानी पढ़ने के चक्कर में रात डेढ़ बजे तक कहानी टाइप करता रहा और पूरी होने तक टाइप करता रहा। और इस तरह मेरी कहानी अगले दिन सुबह टाइप होकर मुझे मिल गई थी। कहानी हंस में ही छपी और बेहद लोकप्रिय हुई।

कहानियां या इतर रचनाएं टाइप कराने का यह सिलसिला कई बरस चला। बेशक जो ड्राफ्ट हाथ से तैयार करता था अब भी साफ सुथरे बिना लाइन वाले कागज़ पर पूरी मेहनत से तैयार करता था। 1989 में जब मेरा अहमदाबाद ट्रांसफर हो गया तब तक तीन कहानियां छपी थीं, तीन कहानियां स्वीकृत थीं और चारेक कहानियों का कच्चा माल मेरे पास था। क्रम से दूसरी कहानी धर्मयुग में छप चुकी थी। अब तक मेरी आदत बिगड़ चुकी थी कि कहानी टाइप रूप में ही छपने के लिए जानी चाहिए। मैं आखिरी ड्राफ्ट तक अपने आप लिखता रहता था और फाइनल ड्राफ्ट टाइप करा लिया करता था।

तभी मैंने बहुत मेहनत करके एक और नायाब काम शुरू किया था। दो डायरियां बनायी थीं। पहली डायरी में अब तक लिखी सारी कहानियां हाथ से लिखीं और दूसरी डायरी में कहानियों पर छपने वाली पाठकों की प्रतिक्रियाओं की कटिंग चिपकाता या हाथ से लिखता। कहीं कहानी पाठ होता तो मैं अकेला कहानीकार होता जो डायरी में से पढ़ कर कहानी सुनाता। डायरी कवि से डायरी कहानीकार का सफ़र। लेकिन जब कहानियां भी ज्याादा होने लगीं और पाठकीय प्रतिक्रियाएं भी तो ये सिलसिला दम तोड़ गया।

तभी मुझे मेरे पहले कहानी संग्रह अधूरी तस्वीर पर नव गठित गुजरात हिंदी साहित्य अकादमी की ओर से 3000 रुपए का पहला अकादमी पुरस्कार मिला था। अकादमी नयी थी और कोई सिस्टम नहीं था। पुरस्कार का चेक डाक से मिला। उन दिनों हमारे ऑफिस में एक मेकैनिक आता था जो टाइपराइटर साफ करता था। उसने बताया कि उसके पास एक अच्छा हिंदी टाइप राइटर है जो मुझे 3200 रुपए में दे देगा। मैंने सोचा कि कहानियां टाइप कराने के बजाय मैं सीधे ही टाइपराइटर पर लिखूंगा। तब तक जान चुका था कि हिंदी के कई लेखक सीधे ही कहानियां टाइप करते हैं। ज्ञानरंजन जी के टाइप किये हुए पोस्ट कार्ड मैं देख चुका था और मंटो, कृश्नचंदर और अश्क जी की टाइपराइटर वाली नोक झोंक पढ़ चुका था। मैं इस बात के लिए बेहद रोमांचित था कि लेखन की शुरुआत में ही मैं टाइपराइटर वाला लेखक बन जाऊंगा। समय भी बचेगा और पैसे भी बचेंगे। तसल्ली भी रहेगी कि मैंने खुद कहानी टाइप की है। लेकिन तब मैंने यह नहीं सोचा था कि अपने सोचने की गति और टाइप करने की गति के बीच कैसे तालमेल बिठाऊंगा।

हालांकि नौकरी की शुरुआत में, या यूं कहें कि नौकरी की तलाश में बीस बरस पहले हिंदी और अंग्रेजी दोनों हिंदी टाइपिंग सीखी थी लेकिन अब खुद टाइप करना मेरे बस का नहीं था। एकाध पेज हो तो कर भी लिया जाये। अब अपनी कहानियां टाइप करना मेरे बस का नहीं था। टाइपराइटर वाला लेखक बनने का सपना जस का तस खत्म हो गया। टाइपराइटर जैसा खरीदा था, दो ढाई साल वैसे ही पड़ा रहा। मेरी किस्मत अच्छी थी कि जिस समय ट्रांसफर पर मुंबई वापिस आ रहा था और मेरा सारा सामान ट्रक में लादा जा चुका था, तभी एक स्ट्र्गलर टाइपिस्ट उस टाइपराइटर का खरीदार बन कर आया और लगभग उतने ही पैसों में टाइपराइटर खरीद ले गया। जान बची और लाखों पाये।

अहमदाबाद में ही रहते हुए ही मेरी डेस्क पर कंप्यूटर आ गया गया था। बेशक हिंदी में टाइप करना बहुत मेहनत का काम था लेकिन पहले हाथ की लिखी हुई एक कहानी धीरे-धीरे कंप्यूटर पर टाइप की थी। उस समय के कंप्यूटर में यह तकलीफ़ थी आप अलग से अपनी कहानी सेव नहीं कर सकते थे। जिस डिस्क में हिंदी पैकेज होता था आपका काम भी उसी डिस्क में सेव होता था। जब मैं अहमदाबाद से चला तो टाइप की गयी वह कहानी वहीं रह गयी।

1995 में मुंबई आने पर पहले मुझे इलेक्ट्रॉनिक टाइपराइटर मिला लेकिन उस पर काम करने का मज़ा नहीं आया। कुछ ही दिन में अलग से कंप्यूटर मिला। मैं धीरे-धीरे ही सही कंप्यूटर पर अपनी कहानियां टाइप करना सीखने लगा था। यहां ये बता दूं कि अब तक वे ही कहानियां कंप्यूटर पर टाइप कर रहा था जो पहले लिखी जा चुकी थीं। सीधे कहानी कंप्यूटर पर टाइप करने का वक्त अभी नहीं आया था। तब तक फ्लापी भी अस्तित्व में आ चुकी थी जिस पर आप अपना काम सेव कर सकते थे। तब तक मेरे जिम्मे यह काम भी आ गया था कि ऑफिस में खरीदे जाने वाले सभी कंप्यूटरों पर हिंदी में काम करने का पैकेज लोड करूं और सभी साथी अधिकारियों को हिंदी में काम करना सिखाऊं। मजे की बात तब तक मैं खुद कंप्यूटर का एबीसी सीख रहा था और सिखा भी रहा था। अगले कई बरस इसी में निकल गए।

हालांकि अब तक मैं कहानी का ड्राफ्ट पहले हाथ से लिखता था और बाद में कंप्यूटर पर टाइप करता था लेकिन जब 1997 में अपना निजी कंप्यूटर खरीदा तो कंप्यूटर पर काम करने का तरीका बदल चुका था। मैंने 1997 में जुलाई में उस वक्त तब तक की अपनी सबसे लंबी कहानी देश, आज़ादी की 50वीं वर्षगांठ और एक मामूली सी प्रेम कहानी मैंने कंप्यूटर पर ही लिखी थी और कंप्यूटर के हिसाब से मैंने 80 बार कहानी की एडिटिंग की थी। अब मैं अपना सारा लेखन सीधे ही कंप्यूटर पर करने लगा था। आफिस में अनुवाद भी सीधे ही कंप्यूटर पर करता था। यहां तक कि व्यक्तिगत पत्राचार भी, पोस्टकार्ड भी कंप्यूटर पर टाइप करके और प्रिंट करके भेजने लगा था। कुछ मित्र इस बात पर नाराज़ भी हुए थे कि मैं अपने निजी पत्र भी कंप्यूटर पर तैयार करके भेजता हूं। उनका कहना था कि इसमें संबंधों की महक नहीं होती। मेरे पास इसका कोई जवाब नहीं होता था।

उन्हीं दिनों जब मैं अपना पहला उपन्यास देस बिराना लिखने की जद्दोजहद में था तो तय किया कि उपन्यास लैपटॉप पर लिखा जाएगा। मैंने एक महीने की छुट्टी ली, ऑफिस से लैपटॉप इश्यू कराया और लंबी छुट्टी पर निकल गया। यह उपन्यास मैंने दिल्ली, लखनऊ, चंडीगढ़, शिमला, मसूरी, देहरादून, लोनावला और दमन में कई किस्तों में पूरा किया। उपन्यास लिखने का काम सुबह तीन घंटे, दोपहर तीन घंटे और शाम को दो घंटे करता था। इस तरह से बेशक उपन्यास 22 दिन पूरा कर लिया था लेकिन उसे छपने योग्य बनाने के लिए मुझे दो बरस लग गए। यहाँ यह बात जोड़ना चाहूंगा कि मैंने कभी भी नोट्स बना कर लेखन नहीं किया। जब हाथ से लिखता था तब भी और जब कंप्यूटर या लैपटॉप पर काम करने लगा तब भी लिखने या टाइप करने के बाद का जो ब्रेक होता था वही समय आगे का हिस्सा सोचने का होता था। आज भी जब मैं बीच में ब्रेक लेता हूं तब भी बेशक टाइप नहीं कर रहा होता लेकिन रचना प्रक्रिया पर चिंतन चलता रहता है। शाम की सैर मेरे लेखन के लिए आज भी बेहद जरूरी है। उस वक्त आगे का उतना ही हिस्सा सोच के दायरे में आता है जितना टाइप होना होता है। पूरी रचना का फ्रेम मेरे दिमाग में आज तक नहीं बना।

इस तरह से देखा जाए तो 1997 से लेकर अब तक मैंने सारा लिख कंप्यूटर या लैपटॉप पर ही किया है। तब से अब तक अपने लेखन के या आफिस के दस पन्ने भी हाथ से नहीं लिखे होंगे। यहां तक कि हर बरस भरी जाने वाली अपनी गोपनीय रिपोर्ट का प्रोफार्मा भी मैंने कंप्यूटर के हिसाब से सेट कर लिया था और अपनी रिपोर्ट कंप्यूटर पर तैयार करके देता रहा। बरसों तक मैं अकेला अधिकारी रहा जिसकी गोपनीय रिपोर्ट कंप्यूटर पर तैयार होती थी। बाद में मेरी देखा देखी और अधिकारियों ने ये तरीका अपनाया।

2005 में पुणे पोस्टिंग के दौरान मुझे एक सेमिनार में पता चला कि स्थानीय सी डैक ने एक ऐसा पैकेज तैयार किया है जो आपके बोले गये हिंदी शब्दों को टाइप करता है। इससे कई बरस पहले बाजार में ड्रैगन नाम का सॉफ्टवेयर आ चुका था जिसमें अंग्रेजी में बोल कर टाइप करने की सुविधा तो थी लेकिन यह काम हिंदी में नहीं किया जा सकता था। मुंबई में ही मेरे बॉस सुबह की मीटिंग के मिनट्स आधे घंटे में बोल कर टाइप करके दोपहर तक तैयार कर देते थे। उसी दिन से मेरी भी हसरत थी कि काश हिंदी में भी बोल कर टाइप करने वाला पैकेज आये तो सबसे पहले मैं ही खरीद लूं और इस्तेमाल करूं। जब मुझे पता चला कि ऐसा पैकेज पूना के सीडैक ने बनाया है तो मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मैं भागा भागा वहां गया और उसका प्रदर्शन देखा। अच्छा लगा।

उन दिनों मैं एक ऐसी कमेटी का सदस्य सचिव था जो बैंकों में हिंदी के प्रशिक्षण के बारे में निगरानी रखती थी। मैंने उस पैकेज का कई बैठकों और सेमिनारों में प्रदर्शन कराया और उसका प्रचार प्रसार किया कि किस तरह से हम हिंदी में बोल कर टाइप कर सकते हैं।

संयोग से मुझे सीडैक की ओर से यह पैकेज उपहार में दिया गया। ये शुरुआती पैकेज था और इस पैकेज की सीमाएं थीं और यह बहुत अच्छे परिणाम नहीं देता था। कुछ दिन तो मैं इस पर बोल कर टाइप करता रहा लेकिन ये गलतियां बहुत करता था। मेरी तसल्ली नहीं हुई।

उन्हीं दिनों मैं चार्ली चैप्लिन की आत्मकथा का अनुवाद कर रहा था। ये अनुवाद मैंने सीधे लैपटाप पर भी किया, हाथ से लिख कर टाइपिस्ट से भी टाइप कराया, कई बार टाइपिस्ट को डिक्टेशन देते हुए टाइप कराया, मित्रों ने, मेरे बच्चों ने मेरे लिए डिक्टेशन ली। उसके बाद बीसियों बार अनुवाद की जांच की। मजे की बात 595 पेज का मैटर ईमेल से ही प्रकाशक को भेजा गया, ऑनलाइन प्रूफ देखे और फाइनल किये।

तब तक कंप्यूटर में पूरी तरह से यूनिकोड पैकेज में हिंदी में काम करने की सुविधा आ चुकी थी। यानी एक ऐसे सॉफ्टवेयर पर काम करना जिसे सारे कंप्यूटर स्वीकार करते थे। मैंने कम से कम 1000 बैंकरों को कंप्यूटर पर काम करना और कंप्यूटर पर हिंदी में काम करना सिखाया। 2008 में अपना पहला लैपटॉप खरीदा।

इसके बाद 2009 में मुंबई आने पर भी अपनी रचनाएं कंप्यूटर पर और लैपटॉप पर सीधे ही टाइप करना जारी रखा। मुझे कभी भी अपनी सोच की गति और लिखने की गति में कोई ज्यादा आई तकलीफ नहीं हुई। इतने बरस के अभ्यास से अब मुझे कंप्यूटर या लैपटाप पर काम करना ज्यादा आसान लगता है। सबसे बड़ी बात कि आप जितनी बार चाहें अपने मैटर को एडिट कर सकते हैं, आगे पीछे कर सकते हैं, बदल सकते हैं, छोटा बड़ा कर सकते हैं और आपके पास हर समय फ्रेश कॉपी होती है। आप अपने मैटर को कभी भी कहीं से भी किसी को भी भेज सकते हैं और यह समस्या नहीं रहती कि टाइप की प्रति पढ़ी नहीं जा रही है। इसका एक और भी फायदा है कि आपकी सारी रचनाएं कंप्यूटर में, हार्ड डिस्क में, पेन ड्राइव में या सीडी में सुरक्षित रहती हैं।

अब जब से पता चला कि मोबाइल पर हिंदी या किसी भी भारतीय या यूरोपीय भाषा में बोल कर टाइप कर सकते हैं तो शायद पूरी छानबीन करके ये साफ्टवेयर लोड करने वाला मैं पहला हिंदी लेखक था। मैंने अपनी ताजा और चर्चित 35 पेज की कहानी लहरों की बांसुरी मोबाइल पर बोल कर ही टाइप की है। अभी जिस उपन्यास पर काम कर रहा हूं उसका ड्राफ्ट भी बोल कर ही टाइप हो रहा है। और उसके बाद छिटपुट रचनाएं तो रोज़ ही बोल कर टाइप करता हूं। मेरी छटपटाहट यहीं खत्म नहीं हुई। अब तक मैं मोबाइल पर बोल कर टाइप करके उसे अपने आपको ईमेल करता था और फिर लैपटॉप पर स्पैलिंग चेक करके उसे फाइनल रूप देता था। अब मैं चाहने लगा कि मैं मोबाइल पर टाइप करूं और मैटर सीधे ही लैपटाप पर नज़र आये। इस बारे में मैंने गूगल और माइक्रोसॉफ्ट वालों से भी बात की लेकिन नतीजा जीरो रहा। मैंने अपने बच्चों से बात की और आखिर हमारी संयुक्त मेहनत रंग लायी। ये जो रचना आप पढ़ रहे हैं, इसी तरह से टाइप हुई है। ड्राइंगरूम में लैपटाप में वही फाइल खुली थी और मैं भीतर वाले कमरे में मोबाइल पर बोल कर टाइप कर रहा था। मेरा मैटर दोनों जगह टाइप हो रहा था। जब से मैंने पेनड्राइव के जरिये अपने लैपटाप और मोबाइल को जोड़ लिया है, मेरा पूरा लैपटाप हर समय मेरे मोबाइल में मौजूद रहता है और मेरे मोबाइल की सारी गतिविधियां मेरे लैपटाप में सेव होती रहती हैं।

एक बात यहां रचे जाने और सोचे जाने के बीच तालमेल की। जैसा कि मैंने पहले कहा, मैं एक बार में लगातार दो घंटे से ज्यादा सिस्टम पर नहीं बैठता। एक अनिवार्य ब्रेक चाहिये ही ताकि रचना के आगे के हिस्से के बारे में सोच सकूं। जब पहाड़ पर लिखने जाता हूं तो दिन में तीन चार ब्रेक हो ही जाते हैं लेकिन जब घर पर लिख रहा होता हूं तो ये ब्रेक एक दिन का भी हो सकता है और ज्यादा दिन का भी। लेकिन एक बार में एक ही रचना पर काम करता हूं और वैसे भी पूरे बरस में एकाध ही कहानी लिखता हूं। एक कमज़ोर लड़की की कहानी लिखने का दबाव इतना ज्यादा था कि वह कहानी मैंने कई किस्तों में घर के पास बने ओबेरॉय माल के फूड कोर्ट के शोर शराबे में लैपटाप पर टाइप की थी। 39 पेज में लगभग 14300 शब्दों की यह कहानी कुल 1533 मिनट में टाइप की गयी थी और मैंने कुल 128 सिटिंग में इस कहानी पर काम किया था।

अब इस तरह से सोचने,रचने और रचने का सुख पाने का इतना अभ्यास हो गया है कि अगर मेरा लैपटाप खराब हो जाये तो मैं कोई काम नहीं करता। यात्रा पर भी अगर मैं अपने साथ लैपटाप नहीं ले गया तो मैटर मोबाइल पर बोल कर टाइप तो कर लिया जायेगा लेकिन फाइनल घर आने के बाद ही किया जायेगा।

तो ये है मेरे लेखन के बदलते तरीकों की यात्रा। मुझे पता है मेरे जीते जी ऐसा साफ्टवेयर भी आ जायेगा जो मेरे सोचे हुए शब्दों को सीधे ही टाइप करेगा। मैं उसे सबसे पहले इस्तेमाल करूंगा। मेरा भावी उपन्यास इसी तरह से लिखा जायेगा।

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पाटील,1,शगुन अग्रवाल,1,शबनम शर्मा,7,शब्द संधान,17,शम्भूनाथ,1,शरद कोकास,2,शशांक मिश्र भारती,8,शशिकांत सिंह,12,शहीद भगतसिंह,1,शामिख़ फ़राज़,1,शारदा नरेन्द्र मेहता,1,शालिनी तिवारी,8,शालिनी मुखरैया,6,शिक्षक दिवस,6,शिवकुमार कश्यप,1,शिवप्रसाद कमल,1,शिवरात्रि,1,शिवेन्‍द्र प्रताप त्रिपाठी,1,शीला नरेन्द्र त्रिवेदी,1,शुभम श्री,1,शुभ्रता मिश्रा,1,शेखर मलिक,1,शेषनाथ प्रसाद,1,शैलेन्द्र सरस्वती,3,शैलेश त्रिपाठी,2,शौचालय,1,श्याम गुप्त,3,श्याम सखा श्याम,1,श्याम सुशील,2,श्रीनाथ सिंह,6,श्रीमती तारा सिंह,2,श्रीमद्भगवद्गीता,1,श्रृंगी,1,श्वेता अरोड़ा,1,संजय दुबे,4,संजय सक्सेना,1,संजीव,1,संजीव ठाकुर,2,संद मदर टेरेसा,1,संदीप तोमर,1,संपादकीय,3,संस्मरण,730,संस्मरण लेखन पुरस्कार 2018,128,सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन,1,सतीश कुमार त्रिपाठी,2,सपना महेश,1,सपना मांगलिक,1,समीक्षा,847,सरिता पन्थी,1,सविता मिश्रा,1,साइबर अपराध,1,साइबर क्राइम,1,साक्षात्कार,21,सागर यादव जख्मी,1,सार्थक देवांगन,2,सालिम मियाँ,1,साहित्य समाचार,98,साहित्यम्,6,साहित्यिक गतिविधियाँ,216,साहित्यिक बगिया,1,सिंहासन बत्तीसी,1,सिद्धार्थ जगन्नाथ 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