आलोचना प्रमोद कुमार तिवारी कहानी से कुछ गप्पें विश्व की प्राचीनतम कहानियों की संपादित पुस्तक ‘कथा संस्कृति’ की भूमिका में कमलेश्वरजी कहत...
आलोचना
प्रमोद कुमार तिवारी
कहानी से कुछ गप्पें
विश्व की प्राचीनतम कहानियों की संपादित पुस्तक ‘कथा संस्कृति’ की भूमिका में कमलेश्वरजी कहते हैं कि
‘‘विश्व की समस्त अर्वाचीन, लुप्त-विलुप्त और प्राचीनतम सभ्यताओं के नीचे से यदि कहानियों के आधार स्तम्भ हटा दिए जाएँ तो सारी सभ्यताएँ भरभराकर कच्ची मिट्टी की तरह गिर पड़ेंगी।’’
इसी प्रकार किस्सागोई को व्यवसाय से जोड़नेवाले माइकल मारगोलिस कहते हैं- ‘‘हम जो कहानियां सुनते-सुनाते हैं वास्तव में उनसे दुनिया बनती है। अगर आप दुनिया बदलना चाहते हैं तो आपको कहानी को बदलना होगा। यह बात व्यक्ति और संस्था दोनों पर लागू होती है।’’
क्या सच में कहानी इतनी महत्त्वपूर्ण होती है? क्या सच में हम जैसी कहानियों के बीच रहते हैं वैसे ही हो जाते हैं? क्योंकि सच में हमें रामायण, महाभारत, जातक कथाओं, वृहत्त कथाओं, पंचतंत्र आदि ने बनाया है? क्या पंचतंत्रों की फैंटेसी ने हमारे यथार्थ का निर्माण किया है?
ऐसा क्या कर देती है कहानी? इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है कहानी? बचपन से ही एक आत्मीय संगी और स्नेहिल गुरु की तरह कहानी क्यों जुड़ जाती है? कहानी पर बात करते समय ऐसे कई सवाल मन में घुमड़ने लगते हैं। मसलन, कहानी क्या है?
कहानी कब से है? कहानी इतनी लोकप्रिय क्यों है? कहानी इतनी महत्त्वपूर्ण क्यों है? कहानी क्या केवल कहानी में ही होती है या दूसरी विधाओं में भी यह रची, बसी, छुपी होती है? यानी कविता में, आलोचना में, निबंध में, यात्रा वृतांत, संस्मरण आदि में यह कितनी होती है? उपन्यास, नाटक, महाकाव्य, आदि में तो यह होती ही है। कुल मिलाकर मुद्दा ये कि कहानी में कहानीपन कहां से आता है? कहानी हमें मज़ा क्यों
देती है? कहानी में रोचकता का मूल उत्स क्या है? कहानी में ऐसा क्या है जो उसे विभिन्न आयुवर्गों का आत्मीय बना देता है? वह क्या है जो कहानी को विभिन्न समयों, विभिन्न देशों तक की यात्रा करा देता है? कहानी का समय और इतिहास से क्या रिश्ता है? आदि-आदि।
इतना तो तय है कि कहानी में ‘समय’ होता है। ‘एक राजा था, एक समय की बात है, बहुत पहले एक लकड़हारा था या एक बार ऐसा हुआ।’ जैसे वाक्य समय का संकेत देते हैं और उसमें भी अक्सर व्यक्ति को पकड़ते हैं। ‘कहानी में समय होता है’ की जगह क्या यह कहना गलत होगा कि ‘समय में कहानी होती है?’ हर कहानी वास्तव में अपने समय और उसकी प्रवृत्तियों को पकड़ने की कोशिश ही तो करती है। या फिर यह भी तो कह सकते हैं कि कहानी समय के बंधन से मुक्त करने की कोशिश करती है। उपरोक्त वाक्यों में समय है पर निश्चित नहीं, ‘एक राजा’ या ‘एक बार की बात’ किसी भी राजा किसी भी समय की बात हो सकती है। कहानी चीजों को बांधती नहीं खुला छोड़ देती है, यह निश्चित को अनिश्चित में घंघोल देती है, बंधे-बंधाए इतिहास को तिथियों और नामों के पगहे से मुक्त कर खुले आकाश में उड़ान भरने के लिए पंख दे देती है। यह समय तक को तरल बना कर छूट देती है कि बुद्ध के समय में 21वीं सदी का पाठक डुबकी लगा ले या ‘थेरीगाथा’ के बहाने हजारों साल पुरानी स्ति्रयों से आज की नवयौवना बतिया ले।
कहानी लुका-छुपी का खेल खेलती है, नये-नये स्वांग भरती है। अक्सर जब बच्चे कहानी सुनने की जिद कर रहे हों और सुनानेवाली का मूड बिलकुल न हो तो वह एक कहानी सुनाती है-
एक था राजा, एक थी रानी। दोनों मर गए खतम कहानी।
क्या सच में कहानी खत्म होती है। या कि कहानी न शुरू होती है न खत्म, बस चलती रहती है, जीवन की तरह, समय की तरह, नदी की तरह। अलग-अलग कहानीकार आते हैं, जाते हैं, पहले से बह रही कहानीरूपी नदी में से कुछ अंजुली जल निकाल लेते हैं, उसमें कुछ अंजुली अपना मिला देते हैं। कहानी अपनी रौ में बहती रहती है। इसी बात को बढ़ाते हुए यह भी कहा जा सकता है कि कोई भी कहानी न तो एक व्यक्ति कहता है, न कोई अकेले उसे सुनता है। हर कहानी वास्तव में एक भरा-पूरा समाज कह रहा होता है और उसे भरे-पूरे समाज का एक अंश सुन रहा होता है। इस कहने-सुनने का माध्यम भाषा होती है, चूंकि भाषा एक सामाजिक संरचना है और कहानी समाज में ही जन्म लेती है सो वह भाषा से मुक्त नहीं हो सकती। शायद यह भी कहा जा सकता है कि भाषा भी एक तरह की कविता या कहानी है। भाषा भी अपने मन की कहने-सुनाने की कुलबुलाहट और अपने अनुभवों को दूसरों तक ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पहुँचा पाने की बेचैनी से पैदा हुई होगी। भाषा के मूल में नैरेशन है, इसीलिए भाषा को एक बहुत बड़ी कहानी या तमाम कहानियों का समुच्चय कहा जा सकता है। एक शब्द या कोई नाम लेते ही हमारे मन में तमाम कहानियां सक्रिय हो जाती हैं। वह शब्द मां, राजा, दासी या इंद्र या राम कुछ भी हो सकता है। और इन शब्दों से अलग-अलग व्यक्तियों के मन में उनके संस्कारों और परिवेश के अनुसार अलग-अलग कहानियां गूंजने लगती हैं। कहानीकार (जिसकी कल्पना अक्सर मैं स्त्री रूप में करता हूं) इन शब्दों या संज्ञाओं में निहित छोटी-छोटी कहानियों को जोड़कर एक नयी कहानी बना देती है। इस प्रकार भाषा और कहानी एक दूसरे को थामे हुए यात्रा करते रहते हैं और इस यात्रा को नया मानी देने का काम, इनके पुराने मानी में कुछ जोड़ने-घटाने का काम समाज, समुदाय या संस्कृति विशेष और उसके रचनाकार अपने ढंग से करते रहते हैं। समाज अपने ढंग से जादू कथाओं, मिथकों, पुराणों, इतिहासों आदि को नया संदर्भ और जीवन देता चलता है।
हिस्ट्री (History) में अंतर्निहित स्टोरी को छोड़ भी दें तो अंग्रेजी में कहानी के लिए दो रोचक शब्द मिलते हैं एक- नैरेटिव (Narrative), इसका अर्थ ही है संबंध बनाना, कुछ कहना, या सुनाना। दूसरा है ‘यार्न’(Yarn) जिसका मतलब है धागा या कोई सूत्र। कहानी किसी सूत्र के एक सिरे को पकड़ती है और उसका सिरा किसी और को पकड़ाती है। यह ‘कोई और’ खुद कहानीकार भी हो सकता है। पहली कहानी तो हमारे भीतर ही जन्म लेती है, उसके पहले किस्सागो और पहले श्रोता भी हम ही होते हैं। निश्चित रूप से वह कहानी केवल हमारी नहीं होती, ठीक वैसे ही जैसे भाषा, शब्द और उसके अर्थ या मुहावरे केवल हमारे नहीं होते। इसे व्यक्ति और समाज दोनों मिलकर गढ़ते हैं। हम खुद को कहानी सुनाते समय हजारों कहानियों के साथ संवाद कर रहे होते हैं, पूर्व की कहानियों के साथ अंत:क्रिया कर रहे होते हैं। इस सूत्र को पकड़ने के लिए भोजपुरी एवं अन्य भाषाओं के इलाके में सुनायी जानेवाली चर्चित गीतकथा का उदाहरण ले सकते हैं जिसे मैंने भी मां की सुरीली आवाज में बार बार सुना था -
बढ़ई-बढ़ई,खूंटा चीरऽ खूंटा में मोर दाल बा
का खाईं का पीहीं का ले के परदेस जाईं
राजा-राजा तू बढ़ई डांटऽ बढ़ई न खूंटा चीरे
खूंटा में मोर दाल बा का खाईं का पीहीं का ले के परदेस जाईं
इसी प्रकार चिड़िया बारी बारी से रानी, सांप, लाठी, आग, सागर आदि के पास जाती है और कोई मदद नहीं करता अंत में सूरज सागर को सोखने के लिए तैयार होता है और फिर बारी-बारी से सब तैयार होते जाते हैं। इसमें कई सूत्र देखे जा सकते हैं, एक सूत्र इसके पात्रों के पदक्रम का है, एक सूत्र दाल के एक दाने के महत्त्व का है, एक सूत्र कहानी को कविता और कविता को कहानी बनानेवाला भी है आदि आदि ....। कोई चाहे तो एक सूत्र भोजपुरी इलाके से होनेवाले प्रवासन से जोड़ सकता है, बिदेसिया के तर्ज पर चिंरई परदेस जाना चाह रही है। जिस प्रकार कोई धागा या रस्सी अनेक महीन रेशों से बनी होती है उसी प्रकार कहानी के इन सूत्रों में भी विचार और संस्कृति के अनेक महीन रेशे तलाशे जा सकते हैं।
हिन्दी और इसके पास की भाषाओं में कहानी के लिए कथा, कहानी, गल्प, आख्यान, उपाख्यान, वृत्त, इतिवृत्त, कादम्बरी, गाथा, वार्ता जैसे नाम थोड़े भिन्न अर्थों के साथ चलते रहे हैं। सूत्र जोड़ने, कहने, गप्प हांकने, बात में से बात निकालने, संबंध जोड़ने यानी नैरेटिव वाला तत्व लगभग इन सभी नामों में विद्यमान है। दरअसल कहानी का सीधा संबंध मौखिक भाषा से जुड़ता है। क्योंकि ज्यादातर भाषाएं और कहानियां लिपि के आविष्कार से पहले से चली आ रही हैं। कहानी कही और सुनी जाती थी इसीलिए कहन का अंदाज या दास्तानगोई इसे खास बनाती है। कहानी को गल्प (बांग्ला में) या गप्प कहना इस बात को बताता है कि इसका एक ओर बोलने से और दूसरी ओर कल्पना से बहुत गहरा रिश्ता है। पर गल्प या कल्पना का तात्पर्य हवा-हवाई नहीं होता कल्पना के लिए भी यथार्थ की जमीन जरूरी होती है इसीलिए गप्प होते हुए भी कहानी का एक पाँव कहीं न कहीं जमीन को छूता नजर आता है। इस गप्पी को हम चाहें तो झूठा कह सकते हैं। झूठ शब्द कुछ खास अर्थों में रूढ़ हो गया है वरना यह इतना भी बुरा काम नहीं है। अगर झूठ में कोई निजी स्वार्थ न हो तो यह खासा रचनात्मक होता है। असल में बिना सच के झूठ बोला ही नहीं जा सकता। झूठ बोलने के लिए भाषा चाहिए और साथ ही कुछ सच्ची घटनाएं चाहिए। जबतक ये दोनों न होंगे झूठ भी नहीं होगा, यह बात कहानी पर भी लागू होती है। गल्प अथवा गप्प में स्वार्थ का तत्व नहीं होता, बल्कि कुछ घटनाओं के बहाने इसमें कल्पना की उड़ान होती है। और इस उड़ान में एक खास तरह की सूत्रात्मकता होती है।
इस सूत्रात्मकता को या संबंध जोड़ने की क्षमता को कहानी के मूल तत्वों में से एक माना जा सकता है। इसे हम कहानी का ही नहीं सृजनात्मकता का भी मूल तत्व कह सकते हैं। किसी वस्तु का संबंध कितने प्रकार से कितनी चीजों से जोड़ा जा सकता है, किस प्रकार पिंड में ब्रह्मांड समोया जा सकता है या तिल का ताड़ बनाया जा सकता है इसी से सृजनात्मकता का पता चलता है। उदाहरण लेकर बात करूं तो प्राचीन महाकाव्यों, जातक कथाओं और पौराणिक कहानियों में गजब की सूत्रबद्धता मिलती है। तमाम प्रकार के रिश्तों और संबंधों के इन धागों के सिरे इतनी दूर तक पहुंच जाते हैं कि इनकी व्यवस्था को देखकर कई बार आश्चर्य होता है। किस जन्म में कौन क्या था, उनकी इच्छाएं-आकांक्षाएं क्या थीं और वे कैसे फलित हुईं, किसके शाप या वरदान से अगले जन्म में कौन क्या बना, फिर उसकी पीढ़ियां कैसे आगे बढ़ीं। इन सूत्रों को संभालना और इनके बीच एक कार्य-कारण संबंध निर्मित कर इन्हें एक तार्किक आधार देना मामूली काम नहीं है। यह यूं ही नहीं है कि भारत में सैकड़ों की संख्या में रामायण-महाभारत मिल जाते हैं और इन कथाओं पर बार-बार कलम चलानेवाले सैकड़ों लेखक आज भी मिल जाएंगे। यह मामला केवल कहानी कहने का नहीं है, इन कहानियों को सदियों तक, पीढ़ियों तक अनवरत गतिमान रखने का भी है। तमाम तरह की भिन्नताओं के बावजूद एक खास तरह की अविरल अंत:संबद्धता और अंत:सूत्रता का भी है। इनमें निहित व्यक्ति और समाज के बीच की अनवरत द्वंद्वात्मकता का भी है।
दरअसल थोड़ा आगे बढ़ कर बात करें तो हमारे जीवन में दो चीजें बहुत महत्त्व रखती हैं एक, स्मृति और दूसरी कल्पना। बल्कि एक स्तर पर तो मेरा ये कहने का मन होता है कि इन दोनों में इतना गहरा रिश्ता है कि इन्हें एक ही कहा जा सकता है। जिसके पास कोई स्मृति न हो वह कल्पना कैसे कर सकता है। भाषा और कहानी स्मृति को जीवन देते हैं और स्मृति कल्पना को जमीन देती है। इस प्रकार स्मृति और कल्पना एक ही धरातल पर खड़े होते हैं। स्मृति सबसे ज्यादा भाषा में निवास करती है परंतु यह स्थिर नहीं होती। सदियों पुरानी भाषा, कहानी और स्मृति आपस में मिलकर एक खास तरह के स्पेस का निर्माण करती हैं। एक ऐसा स्पेस जिसमें अतीत और भविष्य, कल्पना और यथार्थ, भाव और विचार, सच और झूठ आपस में इस तरह घुले-मिले होते हैं कि इनके बीच कोई विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती और अगर खींच भी दी जाए तो उससे कुछ खास बनने बिगड़नेवाला नहीं होता। कहानी द्वारा निर्मित यह अवकाश (स्पेस) ऐसा होता है जिसमें आकर कटु यथार्थ मृदु बन जाता है, तपता हुआ कठोर सच, कोमल किंतु सार्थक झूठ से स्थानांतरित हो जाता है। कहानी एक जादू रचती है जिसमें आप वर्तमान में रहते हुए भी अतीत और भविष्य में जा सकते हैं, धरती पर रहते हुए भी नभ में, जल में या किसी दूर स्थान की यात्रा कर सकते हैं। इस जादू को रचनेवाला जादूगर यानी कहानीकार एक ऐसे वातावरण का निर्माण करता है जिसमें सब कुछ संभव है। इस माध्यम का लचीलापन इसे खास ताकत देता है जिससे किसिम-किसिम की कहानी बन जाती है। आज का अत्यंत लोकप्रिय जनमाध्यम फिल्म भी वस्तुत: एक कहानी ही तो है जो बाइस्कोप से बढ़ते-बढ़ते एनिमेशन और थ्री डी, फोर डी तक पहुंच गया है। पहले भी कथाकार जादू रचता था अब उसे कैमरे और तकनीक का सहारा मिल गया है। कहानी रूपी फिल्म केवल कथाकार के दिमाग में चला करती है, सिनेमा के रूप में उसे दर्शक की आंखों के सामने रखा जा सकता है। परंतु कहानी एक छूट देती है, वह पाठकों की कल्पना के लिए बहुत कुछ छोड़ देती है, यह छोड़ देना सबकुछ दिखा देने से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है। यह छोड़ देना कई नयी कहानियों के लिए, नये चरित्रों के लिए संभावनाएं पैदा करता है। यही नहीं, सुनायी जानेवाली कहानी में किस्सागो, पाठक की मन:स्थिति और अपने मूड के अनुसार हर बार कुछ दृश्य बदल देता है। कहानी वही होकर भी वही नहीं रह जाती है, ठीक वैसे ही जैसे शास्त्रीय गायक एक ही राग हर बार अलग ढंग से गाता है, राग के सुर वही होते हैं परंतु उनमें एक नयी बात पैदा हो जाती है, ठीक वैसे ही जैसे एक जैसे ही पदार्थों से बना भोजन हर बार अलग स्वाद देता है।
शायद इसी लचीलेपन के कारण कहानी को साहित्य का सबसे स्वाभाविक और अत्यधिक स्वच्छंद रूप माना जाता है। कहानी का यह बहुरूपिया स्वभाव इसकी सबसे बड़ी ताकत है इसीलिए यह तमाम विधाओं का रूप धर लेती है। यह श्रोता, समय और किस्सागो की प्रकृति के अनुसार कविता, नाटक, संस्मरण, सिनेमा, उपन्यास, गीत आदि बन जाती हैं। मूलत:कहानी गीली मिट्टी की तरह होती है जिसे अनंत रूप दिया जा सकता है, इसमें दृष्टांत, चुटकुले, मजाक से लेकर जीवन के गंभीरतम पक्ष तक सब घुले-मिले होते हैं। दरअसल हममें से प्रत्येक व्यक्ति रोज हजारों-लाखों कहानियों के बीच से गुजरता है। इन्हीं घटनाओं, सूचनाओं और दृश्यों को अपने अनुभवों, कल्पनाओं और स्मृतियों से जोड़कर वह एक ऐसा रूप दे देता है जो परिचित होते हुए भी कुछ अनचीन्हा-सा, पुराना होते हुए भी कुछ टटका-सा और काल्पनिक होते हुए भी कुछ प्रत्यक्ष-सा लगने लगता है और हम कहते हैं कि ये तो बड़ी अच्छी कहानी है।
हमारे मिथक, हमारी स्मृति, हमारे ज्ञान व्यापार, वर्तमान घटनाओं पर हमारी प्रतिक्रियाएं ये सब एक विशाल कहानी के अंश है, इन्हीं अर्थों में शेक्सपीयर इस दुनिया को रंगमंच कहते हैं। हजारों सालों से इस रंगमंच की अनंत पटकथाएँ लिखी जा रही हैं, हम सब उस पटकथा में लगातार कुछ जोड़ते-घटाते रहते हैं। हमारा वजूद इन्हीं कहानियों पर है। हम कहानी में हैं और कहानी हममें है। हम हैं, इसलिए कहानी है; कहानी है, इसलिए हम हैं। इसीलिए जब शास्त्र विकसित नहीं हुए थे तब भी कहानी थी।
एक सीधा सा सवाल हो सकता है कि हमें कहानी क्यों अच्छी लगती है सवाल का जवाब इस सवाल से जुड़ता है कि कहानी कैसे बनती है? कहानी कैसे का सीधा जवाब देना थोड़ा टेढ़ा काम है। कुछ चीजें हमारे इतने करीब होती हैं कि हम उन्हें महसूस तो कर सकते हैं, उसे बना के दिखा भी सकते हैं पर जो वह है उसकी सही-सही व्याख्या नहीं कर सकते। हम सामान्य ढंग से कह सकते हैं कि कहानी कुछ तत्वों से बनती है परंतु वह केंद्रीय तत्व क्या है जो कहानी को कहानी बनाता है? सीधा सा जवाब हो सकता है ‘जीवन’। कहानी उतनी ही कहानी है जितना उसमें जीवन है। कहानी एक तरह की यात्रा है ठीक वैसे ही जैसे हमारा जीवन एक यात्रा है। जिस प्रकार सरल से सरल जीवन भी तमाम घटनाओं से भरा होता है उसी प्रकार कहानी की यह यात्रा भी सपाट, शांत या बाधाहीन यात्रा नहीं बल्कि हलचल और संघर्षों से भरी यात्रा है। यह संघर्ष या द्वंद्व कहानी को महत्त्वपूर्ण बनाता है। चूंकि जीवन से बड़ा संघर्ष नहीं इसीलिए जीवन से बड़ी कोई कहानी भी नहीं। इस बात को स्पष्ट करने के लिए हम प्रेमचंद की मशहूर कहानी ‘दो बैलों की कथा’ का उदाहरण ले सकते हैं।
कल्पना करें कि झूरी के दोनों प्यारे बैल हीरा और मोती हमेशा झूरी के ही घर पर रहते। अच्छा खाते, सबका स्नेह पाते और खूब मेहनत से खेतों में काम करते और कहानी उनके बूढ़े होने और मरने के साथ खत्म हो जाती। न तो बैलों को झूरी की पत्नी की अवहेलना सहनी पड़ती, न उन्हें भूखा रहना पड़ता, न सांड़ से उनकी मुठभेड़ होती और न ही उन्हें कांजी हाउस में बंद होना पड़ता। क्या तब भी हमें ये कहानी अच्छी लगती। असल में कहानी में हम अपने संघर्षों और सपनों को खोजते हैं और कहानी के नायक की विजय में अपनी विजय देखते हैं। कहानी उतनी ही बड़ी होती है जितना बड़ा और जितना बहुआयामी संघर्ष होता है। यह संघर्ष आंतरिक भी हो सकता है और बाह्य भी। कहानी के सबसे चर्चित एवं प्रिय पात्र वास्तव में सबसे ज्यादा संघर्ष करनेवाले या सबसे ज्यादा त्रासदी झेलनेवाले पात्र होते हैं। सावित्री, सीता से लेकर कर्ण, घटोत्कच, बुद्ध, गांधी, अंबेडकर तक की सार्थकता इनके संघर्ष और इनके जीवन की विडंबनाओं में निहित है। केवल इन चरित्रों के ही नहीं हममें से प्रत्येक के जीवन में वे सारे तत्त्व होते हैं जिन्हें हम कहानी के तत्त्वों के रूप में रेखांकित करते हैं। उसे चाहे जो नाम दें, पात्र, कथोपकथन, संवाद, नाटकीयता, चरम उत्कर्ष आदि-आदि पर मूल तत्त्व तो परिस्थितियों का टकराव ही है। इन्हीं के कारण कहानी चकित करती है। आगे क्या होगा, फिर क्या हुआ उसके बाद, नयी परिस्थिति से पात्र कैसे निपटा। यह कुतूहल भाव, यह रोमांच, पाठक या श्रोता को कहानी से जोड़ता है। कहानी हमारे भीतर निहित विस्मय और कुतूहल भाव का उपयोग करती है। घटनाओं के घात-प्रतिघात, उठा-पटक, साजिश, सहयोग, नाटकीयता से श्रोता या पाठक ऊर्जा प्राप्त करते हैं और इससे उनकी संवेदना और अनुभूति निखरती है। यही कारण है कि प्रारंभ में बच्चों को जादूगर की, परियों की, चांद तारों की, अज्ञात की, कहानियां ज्यादा आकर्षित करती हैं। रहस्य और रोमांच की कहानियों से लगाव का भी यही कारण है। इस प्रकार, कहानियां बिना जीवन को जीये हमारा उससे परिचय करा कर हमारी समझ का विकास करती हैं। ये हमें समाज अथवा इतिहास के बारे में महत्त्व पूर्ण सूचनाएं देती हैं। यही नहीं इनका अंतर्पाठीय अध्ययन कहानी कहने-सुननेवाले की भी पोल खोल देता है उनकी रूढ़ मान्यताओं, पक्षपातों, पुराने मूल्यों और पूर्वग्रहों के बारे में सहज ढंग से हमें बता देता है। राजकुमारी अपनी मुक्ति के लिए किसी राजकुमार का इंतजार करती मिलती है। राजाओं को केवल या अधिकतर पुत्र ही पैदा होते हैं, पुरुष बहादुर, मजबूत और उदात्त गुणों से संपन्न होता है। कुछ जातियों यहां तक कि जानवरों की भी रूढ़ छवि का पुरानी कहानियों में प्रयोग होना उस समय और समाज की सोच बताता है।
कहानी एक तरह के खुलेपन का निर्माण करती है जिसमें एक ही कहानी को तमाम लोग अपने ढंग से व्यक्त कर सकते हैं। यानी कहानी सुनने और सुनाने के लिए अवकाश देती है। इसमें कल्पना शक्ति से तिल को पहाड़ बना देने की छूट होती है। प्रेमचंद या टालस्टाय की एक ही कहानी दो पेज से लेकर बीस पेज में मिल जाती है। यह छूट कविता जैसी विधाएं नहीं देतीं, उनमें वाक्य छोड़ने की कौन कहे शब्द का परिवर्तन भी अनर्थ कर देता है। यह कहानी की तरलता ही है कि ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी रचनाओं पर 5 मिनट से लेकर ढाई घंटे तक की फिल्म बन जाती है। एक ही कहानी विभिन्न भाषाओं में थोड़े बदले रूपों में मिल जाती है। पंचतंत्र की कथाएं चीन से लेकर अरब तक फैली हुई हैं। यह कहानी की संरचना का लचीलापन ही है जिसके कारण हम उसमें इतना कुछ जोड़ या घटा पाते हैं। इस प्रकार हम पाते हैं कि कहानी अन्य विषयों और विधाओं की तुलना में पाठकों को सहज ढंग से मनोनुकूल अवकाश देती है। इसमें व्याकरण या छन्द का कठोर नियम नहीं होता, गणित के सूत्र या विज्ञान के कार्य-कारण संबंध वाली निश्चित बाध्यता नहीं होती। कहानी के पास हमेशा विकल्प मौजूद होता है जो केवल कथा कहनेवाले पर ही नहीं बल्कि श्रोता की मनःस्थिति के आधार पर भी बदल जाने की योग्यता रखता है।
छोटे आकार के कारण कहानी की गति तेज होती है। इसमें किसी एक पात्र पर ही फोकस होता है, अन्य पात्र बस उस मुख्य पात्र को सहारा देने के लिए आते हैं। जैसे ऊपर संदर्भित कहानी दो बैलों की कथा को लेकर आगे बढ़ती है। जब वे गया के घर से भागे थे तो वहां क्या हुआ या जिस सांड़ को उन्होंने सींग मारी थी उसका क्या हुआ, कांजी हाउस से जिन जानवरों को आजाद किया था उनका क्या हुआ आदि बातों का जिक्र कहानी में नहीं है। कहानी किसी घटना की प्रक्रिया की जटिलता और उसके उपाख्यानों और उपकथावस्तुओं के विवरण की बजाय किसी घटना या अनुभव विशेष पर केंद्रित होती है। अगर संपूर्ण परिस्थितियों का लेखक वर्णन करने लगे तो फिर वह उपन्यास हो जाएगा।
आखिर में एक बात, कहानी कहां ख़त्म होती है? क्या कथा से मुक्ति मिल सकती है? क्या कथातीत जैसा कुछ होता है? अगर होगा तो कैसा होगा? जिस प्रकार हम शब्दातीत को पकड़ने की कोशिश करते हैं, अर्थ से परे जाने की कोशिश करते हैं क्या उसी प्रकार कथा से भी बाहर निकल सकते हैं? या फिर कथातीत होना समयातीत होना है। जीवन से, सुख दुख से परे हो जाना है। कहानी सुख-दुख में से कहां खत्म होती है? एक विद्वान ने कहा है कि अगर आप कहानी का सुखद अंत चाहते हैं तो यह इस बात पर निर्भर करेगा कि आप कहानी को कहां रोकते हैं। क्या इसी सुख की तलाश में ज्यादातर फिल्में, प्रेमियों के मिलन या खलनायक के अंत के साथ समाप्त हो जाती हैं या कहें समाप्त कर दी जाती हैं। फिर यह भी सवाल आएगा कि क्या दुख, जीवन का स्थायी भाव है? क्या मृत्यु ही अंतिम सत्य है इसलिए कहानी दुखांत या त्रासदी की ओर झुक जाती है? रामायण, महाभारत से लेकर ग्रीक महाकाव्यों तक ज्यादातर का दुखांत होना क्या इनके रचनाकारों की प्रौढ़ता का सूचक है? पांडव विजय या राम के राजतिलक के साथ कहानी रोकी जा सकती थी, फिर इनके मूल रचनाकारों ने इन्हें क्यों आगे बढ़ाया, पांडवों को बर्फ में गलाने या राम को सरयू में डुबोने की क्या जरूरत थी, इनके क्या निहितार्थ हैं?
सारे सवालों के जवाब कहां मिलते हैं, अगर मिल जाएं तो कहानी आगे कैसे बढ़ेगी?
सच्चाई तो यह है कि कहानी खत्म नहीं होती, वह रिले दौड़ की तरह बस अपना बेटन अगले कहानीकारों को पकड़ा देती है।
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संपर्क:
गुजरात केन्द्रीय विश्वविद्यालय
गांधीनगर- 382030
मो. 09228213554
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