कथा कसौटी (आलोचना) वैभव सिंह ‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में कहानी पढ़ना और उसपर विचार करना जितना आसान काम है, उतना ही ...
कथा कसौटी (आलोचना)
वैभव सिंह
‘स्टिंग आपरेशन’ का गुण भी होना चाहिए कहानियों में
कहानी पढ़ना और उसपर विचार करना जितना आसान काम है, उतना ही मुश्किल काम है कहानी के बारे में अपनी अपेक्षाएं प्रकट करना। यह वैसे ही है जैसे हम फूल की सुगंध तो ले सकते हैं पर फूल में सुगंध क्यों हो, कैसी हो, कैसी न हो आदि के बारे में कोई निबंधनुमा टिप्पणी लिखना। मेरे ख्याल से तो कहानियों का दिलचस्प होना उनका सबसे बड़ा गुण है और फिर उसके बाद विचार, यथार्थ या सामाजिक सरोकार आदि चीजें आती हैं। खुद को पढ़वा ले जाना उसकी सबसे बड़ी शक्ति हो सकती है। कई बार कुछ कहानीकार कला-चेतना को ही कथा के लिए सबसे जरूरी मानते हैं। वे अपनी कहानी को चित्रकला, मूर्तिकला या संगीत बनने का लोभ पाल लेते हैं और कहानी जैसी विधा की बुनियादी बनावट से दूर जाने लगते हैं। कहानी को संगीत-चित्रकला का दयनीय डुप्लीकेट बनने के स्थान पर ठेठ तरीके से कहानी होना चाहिए, भले ही कुछ अन्य कलाओं के लक्षणों का वह अपनी शर्तों पर उपयोग कर ले जाए। उनमें समाज के साथ सच्ची सहानुभूति मौजूद रहनी चाहिए। हमारे दिलों में सो रही मोहब्बत, प्यार, त्याग और समझदारी की भावनाओं को जगाने की शक्ति होनी चाहिए। कहानियों में मनुष्य के उल्लास, रुदन और संकट व्यक्त होते हैं जो वास्तव में इंसान की धूसर-पीली ज़िंदगी को सहने लायक बना देते हैं। इंसान की ज़िंदगी में न जाने कितनी पराजय और संघर्ष हैं, जिन्हें व्यक्त करने के लिए कहानी से अच्छी विधा कोई नहीं हो सकती। पर यह सब करते हुए वे किसी नीरस उपदेश में नहीं घटित होनी चाहिए। कारण यह कि चारों ओर सिद्धांतकार, सत्य का उपदेश देने वाले महात्मा और चिंतक व ज्ञानीजन काफी बड़ी मात्रा में रहते हैं जो हमेशा इंसान को सही मार्ग पर लाने का दावा करते रहते हैं। पता नहीं क्यों सभी ज्ञानीजनों को लगता है कि इंसान में बड़ी ख़राबियां हैं और उन्हें नहीं ठीक किया गया तो दुनिया चलेगी नहीं। इसलिए वे दिन-रात मनुष्य को सुधारने के लिए बेचैन रहते हैं। वे खुद को ‘सामाजिक नियंत्रण’ की किसी एजेंसी में बदले बिना जीवन को व्यर्थ मानते हैं।
यानी, दुनिया की आधी मुसीबतों की जड़ तो यह विश्वास है कि हमारा काम दूसरों को सही रास्ते पर लाना है। कोई किसी के इश्क में पड़ जाए तो लोग बताने आते हैं कि इश्क कितनी बुरी चीज है और इससे कैसे बचें। कोई किसी की मदद करे तो भी बताने वाले आकर बताने लगते हैं कि किसी की मदद करने का ज़माना नहीं रहा अब। कोई लगातार अपठनीय होते अख़बारों की जगह कविता-कहानी पढ़ने लगे तो उसमें भी बुराई के लक्षण ढूंढ लिए जाते हैं। यानी, हर तरफ स्वनामधन्य उद्धारकर्ताओं की फौज घूम रही है। दुनिया को जरूरत से ज्यादा उद्धारक मिल चुके हैं जो दुनिया के लिए नई तरह की परेशानी है। लेकिन कहानीकार का काम इन सभी से जुदा है। वह इंसान को सही मार्ग पर लाने का दावा नहीं करता बल्कि वह इंसान को तसल्ली, आराम और सहजता के साथ जीवन जीना भी सिखाता है जो बड़ी मुश्किल से अब नसीब होते हैं। इस सभ्यता ने इंसान के आराम को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है और आगे भी नुकसान पहुंचाने के लिए तैयार बैठी है। लोग गधे का सबसे ज्यादा मजाक उड़ाते थे पर शायद उस गधे की आह लगी कि अब अधिकांश लोग गधे की तरह खटने के लिए मजबूर हो गए हैं। पुराने धर्माचार्यों व पंडितों ने भी इंसान के आराम में खलल डाला है जो लगातार यही प्रवचन देते थे कि ईश्वर या गॉड को प्राप्त किए बगैर मिलने वाला सुख-चैन किसी काम का नहीं है। इस तरह सुखी लोगों के घर में धर्म ने भी काफी आग लगाई है। ज्यादातर पुराने किस्से मनुष्य के आराम व फुर्सत के पलों से जुड़े हैं। मुल्ला नसीरुद्दीन के किस्से काफी मशहूर हैं। उन्हीं में से एक किस्सा है कि एक दरवेश एक सूनी जगह पर ध्यान लगाए बैठा था। अचानक उसे लगा कि कोई और भी आसपास मौजूद है। उसके पास दिव्य दृष्टि थी। उसने उसी दृष्टि के सहारे देखा कि एक शैतान पास ही में एक पेड़ के नीचे आराम से लेटा है। दरवेश को आश्चर्य हुआ। उसने शैतान से पूछा- ‘दुनिया में लड़ाई-झगड़े, पाप और खुराफात फैलाने के बजाय तुम यहां आराम से क्यों लेटे हो। शैतान ने ठंडी सांस भरकर कहा- इंसान तरक्की कर रहा है, नई-नई बातें सीख रहा है। सत्य की बात करने वाले चिंतक-उपदेशक चारों ओर घूम रहे हैं। अब मुझे कुछ करने की क्या जरूरत है।’ वो शैतान काफी चालाक था और उसने बगैर ज्यादा बहस किए दरवेश को इशारे में ही समझा दिया कि इंसान जिस तरह की तरक्की और सच्चाई के लिए पागल हो रहा है, वह अपने आप शैतान के हिस्से का काम कर देगी। इसलिए अब उसे आराम से सो जाना चाहिए। कहानियां भी उसी शैतान की तरह होती हैं जो हमें बताती हैं कि इंसान को ज्यादा झंझट, उपदेश या सचाई की खुराक की जरूरत नहीं है बल्कि फुर्सत के पलों की जरूरत है। तरक्की के ज्यादातर फार्मूले इंसान से उसके सुख को छीनने के लिए ईजाद कर दिए गए हैं।
अच्छी कहानियां आज भी वही हैं जिन्हें पढ़ना स्कूल का होमवर्क करने या जिम्मेदारी की तरह न लगे बल्कि जिनमें भरपूर किस्सागोई हो। कहानी पढ़ना स्वयं में काम न हो बल्कि हम लोग जिन ढेरों दूसरे कामों में मसरूफ रहते हैं, कहानी पढ़ने के बाद उन्हें पूरा करने में आसानी हो। उनमें गप, विट, मौजमस्ती और रूमानियत के गुण मौजूद हों। जो हमारे जीवन में बचे-खुचे आराम के पलों को भी बोझिल न बना दें। जो हमें समाज के बारे में इस मुश्किल ढंग से सचेत न करें कि हम यह मान लें कि समाज के बारे में सचेत होने की प्रक्रिया बड़ी जटिल होती है। उन्हें पढ़कर ऐसा नहीं लगना चाहिए कि हमारा समाज अबूझ पहेली है और हमारी कहानियां उसे सुलझाने के ऐतिहासिक मिशन पर निकली हैं और हमारा काम उस मिशन में योगदान देना है। एक सफल कहानी वह भी है जो हमारे भीतर चरित्र का बोध पैदा करती है। आम ज़िदंगी में हम लोगों से मिलते हैं, बात करते हैं और उनके बारे में कुछ न कुछ जान लेते हैं। पर कहानी चरित्र-बोध को इस तरह से पैदा करती है कि वह चरित्र किसी खास परिस्थिति या यथार्थ को पूरी तरह से आलोकित कर देता है। उस चरित्र के जरिए एक ही समय में लिपटे-गुथे बहुत सारे कालखंडों की झलक मिल जाती है। न वे इस दंभ से लिखी जानी चाहिए कि वे किसी सुधारवादी मिशन के माध्यम के रूप में प्रयोग की जा सकती हैं और न इस आत्मतोष के साथ कि कहानीकार के अपने अनुभव स्वयं में संपूर्ण हैं और उसे विचारधारा व विजन स्पर्श से खुद को बचाना चाहिए।
चेख़व की कहानी ‘वार्ड नंबर छह’ मेरी सबसे पसंदीदा कहानियों में से है। वही कहानी जिसे पढ़कर लेनिन क्रांतिकारी हो गए थे और उन्होंने कहा था कि जारशाही के अधीन पूरा रूस ही वार्ड नंबर छह में बदल गया है। यह कहानी पढ़ने के बाद किसी को भी ट्रैजडी का भरपूर अहसास हो सकता है। एक ऐसे समाज की सारी नीचताओं का अहसास हो सकता है जहां पागलों के साथ बेरहमी से पेश आया जाता है और छल-कपट में किसी सामान्य इंसान को भी पागलों के वार्ड में डालकर उससे छुटकारा पाया जा सकता है। कहानी के नायक डाक्टर आंद्रेई येफी मिच को दवाई खिलाकर लकवाग्रस्त बना दिया जाता है और उसकी मौत हो जाती है। उसका अपाहिजपन और मौत समाज के उदात्त और ईमानदारी के प्रति आकृष्ट लोगों की समाप्ति का सूचक बन जाता है। पागलखाने और कैदखाने प्रतिभाशाली लोगों से छुटकारा पाने का सबसे आसान जरिया बन जाते हैं। रूस की हालत का बयान इन शब्दों में आता है- ‘रूस में किसी तरह की दर्शन प्रणाली नहीं है, फिर भी यहां हर कोई दार्शनिकतापूर्ण बातें करता है, यहां तक कि सर्वसाधारण भी।’ यानी एक बुरी तरह लुटा-पिटा, दरिद्र समाज झूठी दार्शनिकता जताकर अपनी सारी क्रूरताओं से आंख चुरा रहा है। यह कहानी इसलिए याद रह जाती है क्योंकि यह इंसानियत की कसमें खाने वाले समाज में इंसानियत की रूटीन मौतों को दर्शाती है। सारे चर्च, वैराग्य के उपदेश या धर्म-कथाएं उसकी रक्षा करने में नाकाम हो रही हैं। यह उन लोगों की मक्कारी को सामने लाती है जो प्रायः बड़े पदों पर बैठकर जिम्मेदारियां पूरी करने का ढोंग कर रहे हैं लेकिन असल में वे समाज की सबसे सुंदर चीजों को शालीन और कानूनसम्मत तरीकों से नष्ट कर रहे हैं। यहां अपराधी केवल अपराधियों के वर्ग से नहीं आते हैं बल्कि सफेदपोश लोगों के वर्ग से निकल रहे हैं। यानी, कहानी की कसौटी यह भी हो सकती है कि वह इंसान की सारी धूर्तता और नीचता को सामने ला दे। उसे पढ़कर यह लगना चाहिए कि इंसान के देवत्व के दावे कितने झूठे हैं और उसका पतन किसी ‘कमजोर क्षण’ का मामला नहीं बल्कि पूरी सभ्यता में निहित चक्र-कुचक्र की देन है। वे कहानियां सबसे रद्दी और बोझिल होती हैं जो इंसान की अच्छाई के बारे में हमें विश्वास दिलाती हैं। उनमें इंसान को साधु-संत बना डाला जाता है और वह साधु-संत से ज्यादा निरीह इंसान प्रतीत होने लगता है। इंसान अच्छा है, उसमें अच्छा होने की संभावना भी है पर असल में वह अपनी बुराइयों पर पर्दा भी डालता रहता है। चौबीस घंटे में हमारे भीतर कितने ही बुरे विचार उठते हैं। कितने ही समाजविरोधी काम करने की इच्छाएं जन्म लेती हैं। लालच, हवस, वासना, हिंसा की न जाने कितनी ही गोपनीय भावनाओं को हम भीतर ही भीतर प्रतिबंधित (सेंसर) कर डालते हैं। धर्म और रीति-रिवाज तो पहले ही उसकी बुराइयों पर पर्दा डालते रहते हैं, साहित्य का काम उन पर्दों को नोचकर निकाल देना है। इस तरह हर अच्छी कहानी में ‘स्टिंग आपरेशन’ की तकनीक नहीं तो कम से कम उसका गुण जरूर होना चाहिए। उसमें रंगे हाथों पकड़ने का कौशल दिखना चाहिए। उसमें लिपे-पुते चेहरों को धो डालने का चालाक हुनर भी होना चाहिए।
हिंदी में जो हाल में दो कहानियां मस्तिष्क में देर तक रहीं वे थीं अनिल यादव की कहानी ‘दंगा भेज्यो मौला’ और शिवमूर्ति की ‘तिरियाचरित्तर’। अनिल यादव की कहानी में बाढ़-बर्बादी के बीच घिरे लोगों की भयावह दशा सामने आती है तो शिवमूर्ति की कहानी में दलित स्त्री का शोषण व्यक्त होता है। दोनों ही कहानियां अल्पसंख्यकों व दलित स्त्री के उत्पीड़न व धीमे-धीमे चलती उनकी तबाही को व्यक्त करती है पर ख़ास बात है तो दोनों ही कहानियां अस्मिता विमर्श के नाम पर कला-शिल्प या कथ्य के स्तर पर किसी आलोचकीय रियायत की मांग नहीं करती हैं। इन कहानियों को पढ़कर आपको कहानियों की ताकत का आभास हो सकता है। आप यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं कि अच्छे अस्मितावादी विचारों के फ्रेमवर्क में कमजोर कहानी लिख दी गई है। कहने का मतलब है कि सामाजिक रूपांतरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया के साथ दलित, स्त्री, किसान, मुस्लिम, जनवाद आदि की जो साहित्यिक श्रेणियां स्पष्ट तौर पर निर्मित हुई हैं उनमें कथाओं को भी संजीदा ढंग से प्रस्तुत होना चाहिए और कहानियों को श्रेष्ठ विचार का प्रतीक नहीं बल्कि श्रेष्ठ कला का प्रतीक भी बनाने का प्रयास करना चाहिए। हम यह नहीं कह सकते कि किसी महान आंदोलन के लिए लंबे समय तक बुरे साहित्य को भी बर्दाश्त कर लेना चाहिए। साहित्य वही सफल होता है जिसमें सामाजिक-चेतना और कला-चेतना का मेल उपस्थित रहता है।
इसी प्रकार कहानी से हमें बहुत ज्यादा डिमांड भी नहीं करनी चाहिए कि वह एक साथ ही दृश्यात्मक, बिंबात्मक, रोमांटिक, चरित्र प्रधान, नैतिकतावादी, मनोविश्लेषणवादी या यथार्थवादी आदि हो। जो कमजोर कहानीकार हैं, वे सबसे ज्यादा यह बताते हैं कि उनकी कहानियों में कौन-कौन से गुण हैं। वे खुद ही आलोचकों को फोन कर बताते हैं कि हमारी कहानी के इन गुणों पर ध्यान दीजिए। जबकि जो परिपक्व कहानीकार हैं उन्हें बस यह पता होता है कि उन्होंने एक कहानी लिखी है, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उन्हें कहानियों को चीर-फाड़ विभाग में ले जाए जाने और फिर ‘मनोवैज्ञानिक अन्वेषण’, ‘ऐतिहासिक उत्कृष्टता’ और ‘समाजशास्त्रीय गुणवत्ता’ आदि के लेबल के साथ बाहर लाने की कार्रवाई अश्लील लगती है। कहानी की उत्कृष्टता इससे नहीं पहचानी जाती कि वह कितना हमारे समाज को प्रतिबिंबित करती है, बल्कि इससे पहचानी जाती है कि वह हमारे भीतर छिपे समाज के बिंब को किस प्रकार से समृद्धकारी विस्तार, नई ऊंचाई और नई गहराई प्रदान करती है। साहित्य से बढ़ती हुई मांगें साहित्य-कला की सत्ता की उपेक्षा कर उन्हें केवल सामाजिक चेतना के माध्यम के रूप में देखने की प्रवृत्ति की भी परिचायक है। साहित्य का समाजशास्त्र लिखने वालों ने इस समस्या का हल सुझाने के स्थान पर इसे बढ़ावा दिया। कविता लिखने वाले से हम मांग करते हैं कि वह हमें पूरे विश्व की झलक दिखा दे। कहानी लिखने वाले से मांग करते हैं कि वह कुछ क्रांति, सुधार आदि के रास्ते के बारे में भी हमें बताता चले। निबंध लिखने वाले से मांग करते हैं कि वह भारी ज्ञान हमें जल्द से जल्द प्रदान कर दे। काव्यशास्त्र के सारे नवरस हमें किसी एक ही कहानी या कविता से चाहिए, तो इसका मतलब है कि हमारी अपेक्षाओं में ही कुछ खोट है। इस चक्कर में न तो विधा कुछ ज्यादा प्रदान कर पाती है और न हमारी अपेक्षाएं ही पूरी हो पाती हैं। इन अतिरिक्त अपेक्षाओं के लिए केवल पाठक नहीं बल्कि लेखक भी दोषी हैं जो विमोचनों या परिचर्चाएं आयोजित कराकर इस बात को सिद्ध कराना चाहता है कि उसने जो लिख दिया है, उसमें समूचा अनुभव जगत समा गया है। रचना ब्रह्म है जिसमें पूरी सृष्टि का वास है। हिंदी के एक ऐसे ही बदनाम किस्म के विमोचनी समारोह में मैंने हाल में ही एक आलोचक को कहते सुना था कि कहानी वह विधा है जिसमें समाज का संपूर्ण सत्य समा जाता है। ऐसे पवित्र मुखोद्गार व्यक्त करने वाले उन आलोचक महोदय से पूछा जा सकता था कि यह ‘संपूर्ण सत्य’ अभी खोजा नहीं गया है तो कहानी में कैसे समा गया? संपूर्ण सत्य की चिंता पुरी के शंकराचार्य जी करें तो समझ में आता है, साहित्यकार करे तो चिंतित होने की जरूरत होती है। इसलिए कमजोर कथाकार व कमजोर आलोचक, दोनों ही अक्सर संपूर्ण सत्य के पीछे भागते हैं, जबकि जेन्युइन कथाकार अपने संपर्क में, सहजता से समझे जाने वाले और संवेदित किए जाने वाले सत्य को कहानी में व्यक्त करते हैं, न कि किसी संपूर्ण सत्य को खोजने की चेष्टा करते हैं। ऐसे करते हुए जटिल तर्क नहीं बल्कि सरलता का भी साधक हो सकता है।
यह सही है कि पिछली पूरी एक सदी में विकसित हुआ ‘व्यक्ति’ ज्यादा तर्क करने वाला व्यक्ति है और वह दुनिया के निर्माण के पीछे काम करने वाली सारी तार्किक योजनाओं को समझने की कोशिश करता है। यह बात भी सही है कि उसकी बौद्धिकता का लगातार विकास हो रहा है। पर ये सारी सही बातें भी इस तथ्य को झुठला नहीं सकती हैं कि वह बौद्धिकता, सरलता व तार्किकता को भी सरल बनाने का प्रयास करता रहता है। हमारे साधारण जन ही नहीं बल्कि सर्वश्रेष्ठ मेधाएं भी जटिलता को ग्रहण करने के लिए सरलता की मांग कर सकती हैं। इसलिए कहानी बहुत पेचीदा विधा बनने के स्थान पर सरल विधा बनने की तरफ बढ़े, तो उसका भविष्य ज्यादा प्रकाशमय रहेगा। लेकिन सरलता का गुण कहानी के रूपगत पक्ष में होना चाहिए, दृष्टि में नहीं। सरलता का अर्थ उथलेपन, मूर्खता या सपाटपन में नहीं ढूंढा जाना चाहिए। वह अल्पज्ञता या मानसिक श्रम के अभाव को भी व्यंजित करने वाली नहीं होनी चाहिए। सरलता संप्रेषण की समस्या से जुड़ा मसला है, न कि दृष्टि या समझदारी से जुड़ा हुआ। एक गहरी बेधक, यथार्थ को तार-तार कर देने वाली, उसकी सारी जटिलता को उभार देने वाली सरल संप्रेषणीयता की हमें जरूरत होती है और इसीलिए हम सरलता को आवश्यक समझते हैं। हमें उल्टा नहीं चलना है कि दृष्टि तो सरल है, पर संप्रेषण में जटिलता है। एक मँजी हुई बौद्धिकता के बगैर हम न अपने शहरी समाज का ठीक से चित्रण कर सकते हैं, न गांवों का। जैसे कि इधर गांव पर लिखी कुछ कहानियों को पढ़ा तो लगा कि गांव के किसान का चित्रण केवल इतने तक सीमित रह जाता है कि वह कितना भला है और अपने जानवरों को कितना सच्चा प्यार करता है। उसे अपने हल-बैल या जमीन से कितना लगाव है। वह अपने मरकहे बैलों को कसाई से बचाता है। पर ये किसान की बेहद मासूमियत से भरी छवि है और इससे किसान जीवन या गांव की असल चुनौतियां नहीं उभरती हैं। प्रेमचंद ने भी ऐसे मासूम किसान का चित्रण नहीं किया है बल्कि उनका किसान भी चालाकी से डांडी मारने वाला, भाई की गाय को ज़हर देकर मार डालने वाला, जमींदार को खुश रखने की चिरौरी करने वाला और कैसे भी हो पर अपनी ‘मरजाद’ को बचाने वाला जटिल सामाजिक प्राणी है। अर्थात कहानीकार को किसी विषय का चयन करते समय यह ध्यान रखना चाहिए कि उसके पास उसे लेकर एक सधी हुई सामाजिक दृष्टि भी हो, वरना वह उस विषय को लेकर एक अपरिपक्व रचना गढ़ देगा।
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