आलोचना अमिय बिन्दु समकालीन हिन्दी कहानी का स्त्री पक्ष मनुष्य शब्द से एक विचारशील, विवेकशील और स्वतंत्रचेतस प्राणी की अनुभूति होती है जि...
आलोचना
अमिय बिन्दु
समकालीन हिन्दी कहानी का स्त्री पक्ष
मनुष्य शब्द से एक विचारशील, विवेकशील और स्वतंत्रचेतस प्राणी की अनुभूति होती है जिसके पास अपना एक मानसिक संसार होता है। बिडंबना यह है कि मनुष्य कहते ही आमतौर पर ज़ेहन में पुरुष की आकृति उभर आती है। इससे भी अधिक संघनित बिडंबना यह है कि विचारणा, विवेक और स्वतंत्रता की त्रयी के पैमाने पर स्त्रियों को कमतर समझा जाता रहा है। कितनी बारीकी से स्त्रियों के मनुष्य होने पर प्रश्न उठाया गया और उन्हें समाज में दोयम दर्जा दिया गया इसका सबसे मौलिक और ट्रांसफॉर्मेशनल अध्ययन सिमोन द बोउवार ने किया है। उनकी मौलिकता यह है कि उन्होंने सदियों से प्रचलित समझ को परत दर परत उघाड़ते हुए बिल्कुल उस बिंदु से सोचना शुरू किया जबकि मार्केज के औपन्यासिक गांव की तरह अभी दुनिया बननी शुरू ही हुई थी, हर चीज का नामकरण नहीं किया गया था। उन्होंने प्रकृति को सीधे प्रश्नगत किया कि क्या वह पुरुषों के सम्मुख एक और प्राणी रचने के लिए विवश थी? क्या स्त्री को उसने दूसरे तत्वों से बनाया था? क्या स्त्री की पहचान मात्र उसके जेण्डर के चलते है? विकासवाद को धता बताते हुए उन्होंने कई प्रस्थापनाएं भी दी थीं कि किस तरह जटिल संरचना वाले प्राणियों में भी इस तरह का जेण्डर विभाजन अनिवार्य तत्व नहीं है। मगर अफसोस! उनका यह प्रयास बाद के बरसों में एक बहस में तब्दील होकर रह गया। बहस का औजार भाषा थी जिसका निर्माण पुरुषों ने किया था। कितनी संजीदगी से इस अंतर को व्याकरण में स्थान दिया गया और भाषा स्वयं अपनी प्रवृत्तियों में लैंगिक बन गई। मानो सारे अंतर, सारे मूल्य और सारे दृष्टिकोण प्राकृतिक करार दिए गए हों। यदि व्याकरण में लिंग की अवधारणा नहीं आई होती तब भी क्या स्त्रियों की यही स्थिति होती? क्या बिल्कुल सिरे से प्रकृति के सारे तत्व दो समूहों में विभक्त थे? कि नदियां स्त्रैण थीं और पहाड़ पुरुष? साहित्य तो भाषा का विस्तृत, व्यवस्थित और संघनित रूप मात्र है।
साहित्य शून्य में जन्म नहीं लेता। वह आसपास के वातावरण से प्रभावित होता है। इस वातावरण में समाज, संस्कृति, सभ्यता, राजनीति, अर्थव्यवस्था सब कुछ शामिल है। वातावरण का प्रभाव कथ्य के साथ-साथ साहित्य के शिल्प जिसे हम रूपाकार कह सकते हैं, पर भी पड़ता है। कहानी विधा कहने को हिन्दी साहित्य के लिए नई विधा है मगर कथा-कहानियां सदियों से हमारे संस्कारों में रची बसी हैं। बिलकुल शुरूआत से समाज पण्डितों ने जान लिया था कि विचारधारा के निर्माण में कथाएं सबसे अहम हैं। कथाओं को नाटकों और नृत्यों के माध्यम से पेश किया गया और दृश्यावलियों के माध्यम से एकाधिक ज्ञानेन्दि्रयों को नत्थी कर पूरे समाज में विचारधारा को मजबूत किया गया। देश में साहित्य मात्र पठनीय कभी नहीं रहा। मानसिक संसार में एक कल्पनालोक तो बनता ही है मगर भौतिक मंचों पर भी इन्हें प्रस्तुत किया गया। रामायण और महाभारत जैसे ग्रन्थों का इतना व्यापक मंचन शायद ही किसी राष्ट्र की संस्कृति में शामिल हो। हम मनसजीवी हैं तो इसके पीछे सदियों और सहस्त्राब्दियों की वह शाब्दिक परंपरा है जो जनमानस में इतने गहरे से रच बस गई है कि हम उसे खुरच खुरच उतारते हैं फिर भी छुटकारा नहीं पाते, ऐसा महसूस होता है।
स्त्री, आधी दुनिया है थोड़ा भी कम नहीं बल्कि कुछ बेशी ही। संख्या की बात तो राजनीतिक है, मगर समाज, सभ्यता और कायनात में उसकी भूमिका को लेकर ऐसा कहा जा सकता है। इस विषय पर कलम उठाना भी भारी काम है फिर साहित्य के आईने में एक लेख के माध्यम से उनका पक्ष रखना और भी मुश्किल। समकालीन शब्द भी अपने में व्यापक अर्थों को समेटे हुए और बहुस्तरीय है। इसलिए स्पष्ट कर देना चाहूँगा कि लेख में ऐसी कहानियां हैं जो प्रथमतया ईसवी दो हजार और उसके बाद प्रकाशित हुई हैं या फिर इस दौरान वे चर्चा में रही हैं और उनका सरोकार स्त्रियों की समस्याओं से रहा है। हाल के दशकों में लेखन में जबर्दस्त उछाल आया है और बहुतेरे लोग लिख रहे हैं। कुछ लंबे समय से तो कुछ ने नई पारी शुरू की है तो कुछ बिलकुल नए लोग भी आए हैं। कोशिश रही है कि सभी को प्रतिनिधित्व मिले लेकिन स्थान, समय और क्षमता की सीमाओं के चलते बहुत कुछ छूट भी गया है। सहूलियत का तकाजा यह भी कि रचनाओं को किसी प्रतिनिधिक धारा के रूप में शामिल किया गया है लेकिन सभी धाराएं भी समेटी नहीं जा सकी हैं।
आदिकाल में निश्चित रूप से पुरुषों के पास अधिक समय और स्पेस था। मातृत्व का दायित्व संभालने के चलते स्त्रियों के लिए इन दोनों चीजों की सीमितता थी। इसी बढ़त का फायदा उठाते हुए पुरुष अधिक सक्रिय हुए और समाज की रचना इस तरह होती गई कि वह अधिक से अधिक पुरुष प्रधान होता गया। मातृपूजा वाली सभ्यताओं में महिलाओं को तवज्जो तो दी गई लेकिन उनके रूप पूजन को महत्ता देकर वास्तविक नियंत्रण पुरुषों ने बनाए रखा। यह सब कुछ इतनी शुरूआत से हुआ है कि समाज के इस विभाजन को साहित्य में भी सहज और प्राकृतिक समझ लिया गया है। हिन्दी में खड़ी बोली साहित्य की शुरूआत आधुनिकता बोध के बाद हुई और उस समय तक स्त्रियों के लिए आवाजें उठने लगी थीं। स्वतंत्रता के बाद सातवें आठवें दशक में जिस नारीवादी आंदोलन ने जोर पकड़ा वह मूलगामी था। साहित्य में इसकी धमक राजेन्द्र यादवजी जैसे पुरोधाओं के सान्निध्य में काफी तेज सुनाई पड़ी। स्त्री लेखकों के आगमन और भोक्ता के यथार्थ की अवधारणा से अच्छी गति मिली और साहित्य में स्त्री अधिकारों पर बोल्ड और सार्थक रचनाएं पढ़ने को मिलीं। सदी का बदलना समय के रेखीय प्रवाह में कोई आकस्मिक बदलाव नहीं है लेकिन नब्बे के दशक में वैश्वीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की त्रयी ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी पक्षों पर प्रभाव डाले। इसके प्रभाव की ठसक नई सदी के साथ मुखर होती गई। कुछ रचनाएं उस दौर की भी हैं जिनसे इस बदलाव को समझने में सहायता मिल सकती है।
जब भी स्त्रियों की स्थिति पर चर्चा होती है पुरुष बड़ी सहजता से यह कहता हुआ निकल जाता है कि स्त्रियां ही स्त्रियों की ज्यादा बड़ी शोषक हैं और बदले में सास-बहू, ननद-भौजाई जैसे संबंधों को गिना देता है। जबकि उसके पीछे सदियों की मानसिक कंडीशनिंग और पितृसत्तात्मक सोच के महीन धागों की बुनावट को उधेड़ने की जहमत नहीं उठाता। मन्नू भण्डारी अपनी रचनाओं में इन रेशों को बिना शोर मचाए उधेड़ती चलती हैं। इस क्रम में उनकी कहानी ‘अकेली’ की याद आती है जिसकी नायिका सोमा बुआ बुढ़िया हैं, परित्यक्ता हैं और अकेली हैं। इन प्राथमिक शब्दों से ही वे पितृसत्ता के रेशों को अलगाती चलती हैं। पुरुष जिस स्त्री को शोषक मानता है सोमा बुआ वैसी ही बुढ़िया हैं। उनके पति जीवित हैं लेकिन जवान पुत्र के असामयिक निधन के कारण मानसिक संत्रास से निजात पाने हरिद्वार में शांतिलाभ कर रहे हैं और इस त्याग के कारण सोमा बुआ अकेली हैं। मन्नू भंडारी की नायिकाएं बहुत मुखर नहीं रहतीं और न कोई मूलगामी निर्णय लेती हैं लेकिन स्त्रियों के मानसिक जगत की सैर बखूबी कराती हैं।
यह ‘शोषक स्त्री’ किस तरह जीवन के उत्तरादर्ध में भी सामाजिक संरचना के चलते पिस रही है, कहानी बखूबी उकेरती है। बरस में एक महीने के लिए फूफा आते हैं लेकिन उस दौरान भी वे अपने पूर्वाग्रहों से ऊपर नहीं उठ पाते। हरिद्वार में शांतिलाभ की उनकी चेष्टा बेमानी है। वे समाज की सड़ चुकी मान्यताओं को ढोने को तत्पर हैं। जवान पुत्र की मृत्यु का ज्यादा असर माँ पर होना चाहिए लेकिन उसके मानसिक संसार की चिंता किसी को नहीं है। क्यों? क्योंकि पुत्र केवल संतान नहीं होता वह विरासत को आगे बढ़ाने वाला भी होता है। क्या जवान बेटी की मृत्यु पर भी सोमा बुआ के पति इस तरह हरिद्वार चले जाते? बुआ के साथ रहते समय वे पितृसत्तात्मक संरक्षक के रूप में उपस्थित रहते हैं और सोमा बुआ पर शासन चलाते हैं। इस अधिकार की टूटन पुरुषों में बड़ी तड़प पैदा करता है। वह किसी भी तरह इसे छोड़ना नहीं चाहता। इसलिए स्त्रियों का अपने अधिकार की बात करना अक्सर पुरुषों के विरुद्ध खड़ा हो जाता है। हरि भटनागर की कहानी ‘शर्म’ ऐसे ही पुरुष सत्ता के दरकने की टीस को उभारती है। कहानी की नायिका गाँव की एक ऐसी औरत है जिसका संबंध क्षेत्र के दुर्दांत डाकू गुर्जर से है। गुर्जर के पीछे पुलिस पड़ी है और उसकी टोह लेने पुलिस अधिकारी उस औरत के पास आता है।
खास बात यह है कि औरत का अपना पति भी है। मरियल और कमजोर सा ही सही मगर है तो पति। इसलिए पुलिस वाला उसे भड़काता है। ‘तुम इसके आदमी हो? ....उसने झुकी गर्दन, नीची आँखों गहरे अफसोस में ‘हाँ हुजूर’ कहा और हँड़ीली छाती पर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। यह उस पुरुष की तस्वीर है जो औरत के आत्मविश्वास के सम्मुख कँपा हुआ है। औरत ने पुलिस वाले की बातों का जवाब देने से मना कर दिया था। बिडम्बना तब और गहरी लगने लगती है जब वह पुलिस वाले से कहता है कि मेरी जगह आप होते तो शरम तो आपको भी नहीं आती और यह बात उसके कलेजे में ठुक गई जिसे वह कभी भुला नहीं सकता था। इतनी थोथी है पुरुष की सत्ता!! स्त्री के पैर साधकर खड़े भर हो जाने से वह डगमगाने लगता है!! सोमा बुआ भी खम ठोंककर खड़ी हो जातीं तो फूफा के पास कोई रास्ता नहीं बचता लेकिन मानसिक कंडीशनिंग ने इस कदर दबोच रखा है कि बहुत सी स्त्रियों ने स्वयं लक्ष्मण रेखा खींच ली है। एक तरफ वह स्त्री के आत्मविश्वास को अपनी शर्म कहकर किसी तरह जी लेने को तैयार है और दूसरी ओर हर तरह से प्रिय पत्नी बुआ के मानसिक संसार में प्रवेश करना मुनासिब नहीं समझते फूफा। उन्हें हरिद्वार भले न ले जाते मगर उनकी खुशी में रजामंदी तो जाहिर कर सकते थे।
सोमा बुआ इस औरत से भिन्न हैं, वे मां भी हैं, अपने एकमात्र और मृत बेटे की आखिरी निशानी सोने की अंगूठी सिर्फ इसलिए बेच देती हैं कि रिश्तेदार की लड़की की शादी में कुछ शगुन लेकर जा सकें। मगर फूफा के आदेश का उल्लंघन नहीं कर पातीं। दूसरी ओर वह औरत पति की कोई बात नहीं सुनती। मगर खतरे यहां बहुस्तरीय हैं। एक तो यह कि स्त्री किसी भी स्तर पर पुरुष की सहचर नहीं बल्कि अधीनस्थ बनकर रह जाती है। दूसरे, उनकी यह मानसिक कंडीशनिंग कि आज्ञापालन, समारोहों में भागीदारी, गलकचरा, सजना संवरना उनके प्राकृतिक गुण हैं, की सीमाएं भी पुरुष ही निर्धारित करता है। तीसरे, निर्णायक हमेशा पुरुष होता है भले वह पत्नी को, समाज को छोड़ चुका हो। क्या बेटे के मरने का आघात बुआ को नहीं लगा होगा? क्या उसे अपना मन बहलाने का साधन ढूढ़ने की स्वतंत्रता नहीं है? इसी तरह क्या गांव की उस औरत को अपनी निजता का अधिकार नहीं था? क्या परस्त्री गमन की अपेक्षा परपुरुष गमन अधिक शर्मनाक है?
छानबीन करें तो पितृसत्ता की यह संरचना इतनी जटिल नहीं है कि इसे तोड़ा न जा सके। यह बहुत ही कृत्रिम और खोखली नींव पर टिकी है। इसे बनाए रखने के लिए पुरुष को हर क्षण चौकन्ना बने रहने की जरूरत होती है। एक पल को भी उसका ध्यान भंग हुआ नहीं कि दीवार ढही। महेश कटारे की कहानी ‘अतिरिक्त का अकस्मात’ में नायिका मीरा एक झटके से इसे ढहा देती है। मीरा भी साधारण स्त्री है जिसका पति कंठी लेकर घर छोड़ चुका है। उसके खेतों तथा उस पर गाँव भर के दबंगों की नज़र है। वह गाँव के बड़े बुजुर्गों पर भरोसा करती हुई चुपचाप जीवन जीने की कोशिश करती है। मीरा, जिस हरवीर सिंह के पास अपनी सुरक्षा की गुहार लेकर जाती है उन्हीं का पुत्र रतन सिंह गाँव का सरंपच बनना चाहता है। वह वोटों की खातिर किसी को कुछ नहीं बोलता और न ही किसी को अपने विरोध में खड़ा करना चाहता है।
मीरा इस मायने में सोमा बुआ की अपेक्षा आधुनिका है कि वह सामाजिक संबंधों और राजनीतिक सत्ता के गठजोड़ को समझती है। वह भी ग्राम सभा के चुनाव में परचा भर देती है। उसे धमकाया जाता है, डराया जाता है। स्वयं हरवीर सिंह उसे चेतावनी भरे लफ्जों में ताकीद करते हैं कि चुनाव वगैरह भलमनसाहत का काम नहीं है। मगर मीरा, रतन सिंह के अवहेलना की बात याद दिलाकर उन्हें निरुत्तर कर देती है। सत्ता में भागीदारी से महिलाओं की स्थिति पर फर्क पड़ने के ढेरों उदाहरण पंचायती राज व्यवस्था में हैं। उन्होंने अपने पतियों या पुरुष संरक्षकों को नेपथ्य में कर स्वयं बड़े और बोल्ड निर्णय लिए हैं। राजनीतिक शक्ति पर उनकी जकड़ ने निश्चित रूप से उनमें आत्मविश्वास भरा है लेकिन सामाजिक संरचना पर इसका कितना असर हुआ है इस पर और अध्ययन की जरूरत है। अभी भी ऐसे समाचार आते हैं कि स्वयं महिला सरंपच कहीं इज्जत के नाम पर बेटियों को मारने के लिए तत्पर हैं तो कहीं कन्या भ्रूण हत्या में आगे बढ़कर सहायक हैं। क्या स्त्रियों का मानसिक संसार सामाजिक संरचना की गहन परतों के नीचे दबा है? आखिर इन्हें इस बात का इल्म क्यों नहीं है कि वे जो सोच रही हैं वह दरअसल पुरुषवादी सत्ता का थोपा हुआ विचार है?
मीरा एकल व्यक्तित्व नहीं है। वह उस स्त्री समूह का प्रतीक है जो पुरुषों को उसी की भाषा में जवाब देना जानती है। उसका चुनाव लड़ने का निर्णय कोई एकल निर्णय नहीं था। गाँव की सभी औरतें उसके साथ थीं। बिना कोई शोर शराबा किए, बिना नारी शक्ति का झंडाबरदार बने अपने और अपने बच्चों के भविष्य को ध्यान में रखकर सभी महिलाएं एक होती गईं। सामूहिक चेतना के बदलने की एक झलक तब दिखती है जब हरवीर सिंह मीरा को समझाने पहुंचते हैं। कहीं मीरा भावुकता में कदम पीछे न खींच ले, उनका लिहाज न करने लग जाए, सारी औरतें उसके आसपास जमा हो गईं। हरवीर सिंह को एक औरत के संरक्षक होने का जो बोध था, एक झटके से बह गया। इस तरह यह कहानी सिर्फ मीरा की पीड़ा नहीं व्यक्त करती बल्कि गहराई में पितृसत्तात्मक संरचना के पैरोकार और सबसे उच्चतम पायदान पर अवस्थित हरवीर सिंह में भी निरर्थकता बोध जगाती है।
परिवार, पितृसत्तात्मक संरचना का सबसे मजबूत स्तर है। मीरा को गांव की स्त्रियों का साथ भले मिल गया मगर परिवार में स्त्रियों को सबसे तीखा विरोध महिलाओं से ही मिलता है। इस तरह की कहानियों में अक्सर द्वन्द्व दिखलाया जाता है लेकिन मूलगामी प्रश्न करती हुई कहानियां नहीं दिखतीं। ममता कालिया की कहानी ‘बोलने वाली औरत’ अपने शीर्षक में ही स्त्रियों पर खामोशी से तीखा तंज कस जाती है। मानो स्त्रियां बोलने के लिए नहीं होतीं, सोचने के लिए नहीं होतीं सिर्फ दिखने के लिए होती हैं। नायिका दीपशिखा की गलती बस इतनी है कि वह बातों का जवाब दे देती है। स्त्रियों, खासकर बहुओं की आचार संहिता में बोलने की बिलकुल मनाही है। ‘बहू की तरह’ रहने का जुमला इतना असरदार है कि सास, ननद ही नहीं छोटा सा बच्चा भी घर में आई नई बहू को सलीके सिखाने को उद्यत रहता है। बहू बनते ही स्त्रियों का मेटॉमारफॉस हो जाता है और वह बिल्कुल नई दुनिया की जीव बन जाती हैं। अच्छी और महान की कोटि में आने वाली सास और ननद अपनी जुबान नहीं बोलतीं मगर बड़ी मासूमियत से कहती हैं कि उन्हें कोई आपत्ति नहीं बस नात रिश्तेदारों और समाज के सामने निर्धारित आचार संहिता और ड्रेस कोड में रहे बहू।
हिन्दी में न जाने क्यों ऐसी कहानियां बहुत कम हैं कि बहू रूपी नायिका प्रतिवाद दर्ज करती हो और अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाती हो। जबकि स्त्रियों के प्रति दोयम दर्जे का रवैया विवाह के बाद अपनाया जाता है। पिता, भाई या अभिभावक स्वयं तो चिंता में रहते हैं कि बेटी, बहन की शादी कैसे होगी? कहां होगी? लेकिन अपने यहां आने वाली बहू का शोषण करने या उसमें भागीदारी करने में पीछे नहीं हटते। यहाँ तक कि संयुक्त परिवारों के बिखरने का दायित्व अक्सर स्त्रियों पर डाला जाता है और ऐसा दिखलाया जाता है जैसे एक बहुत अच्छी और भव्य परंपरा का अंत उनकी उच्छृंखलता, उनकी स्वतंत्रता और उनके विपथगमन के कारण हो गया। संपत्ति में लड़कियों की भागीदारी तो अभी बहुत हाल की घटना है जबकि संयुक्त परिवार के टूटने की घटना दशकों पहले शुरू हो चुकी थी। दुहाई दी जाती है कि संयुक्त परिवार टूटने से बच्चों और बुजुर्गों की स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा है। मगर संयुक्त परिवार होते हुए भी पिछली कहानी के हरवीर सिंह की स्थिति दिखलाती है कि सामाजिक संरचना की बिडंबना में बुजुर्गों का नेपथ्य में चलते चले जाना एक नियति है। ‘चीफ की दावत’ में भी बूढ़ी माँ को उसका पुत्र ही छिपाता है। इस पर गहरे अध्ययन की जरूरत है कि टूटन के पीछे कितना असर स्त्रियों की स्वतंत्रता और उच्छृंखलता का है और कितना असर स्वयं पुरुषों की महत्वाकांक्षा का है?
परिवार की भव्यता और अपरिवर्तनीयता का तकाजा देकर पूरब भले अपनी श्रेष्ठता पर इतराए लेकिन सदियों से चली आ रही परंपरा में उठ रही सड़ांध से छुटकारा पाना जरूरी है। इसके लिए परिवार के प्रति स्त्रियों का नज़रिया बदलना चाहिए। इसकी एक झलक हृषिकेष सुलभ की कहानी ‘अगिन जो लागी नीर में’ में मिलती है। बिहार की सुदूर गांव में रहने वाली माधुरी देवी आधुनिका हैं जो अपने पति द्वारा परित्यक्त कर दिए जाने के बाद अपनी एकमात्र पुत्री को अपने दम पर पढ़ाती हैं। वे गांव के अस्पताल में मिडवाइफ हैं। कहानी हालांकि स्त्रियों की समस्या से कई स्तरों पर निबटती है लेकिन इसका एक सुंदर पक्ष कहानी का अंत है। दरअसल कहानी की नायिका सुवंथी सनेहा, माधुरी देवी की इकलौती संतान, पटना में ब्यूटी कांटेस्ट जीतकर ख्यातिलब्ध हो जाती हैं और गांव आते समय बरसों पहले घर छोड़ गए पिता को साथ लेकर लौटती हैं। माधुरी देवी अपनी बेटी की इस ‘दया’ को स्वीकार नहीं कर पाती। हालांकि गांव में रहते हुए वे अपने को सुहागिन बताती रही थीं। सिंदूर, बिंदी व चूड़ी जैसे सुहाग चिन्ह का प्रयोग करती थीं। लेकिन जब पति के लौटने की बात सुनती हैं तो उन चिन्हों से छुटकारा पा लेती हैं। माधुरी देवी की आधुनिकता इस मायने में अधिक अर्थपूर्ण है कि उन्होंने परिवार की भव्यता, पति का संरक्षकत्व और सहूलियत को अपनी अस्मिता के समक्ष नकार दिया। जबकि वे बड़े आराम से बेटी के सेटल हो जाने के बाद अपने पति के साथ जीवन का उत्तरादर््ध बिता सकती थीं। लेकिन प्रश्न तो वही था कि उस उम्र में भी क्या उन्हें सोमा बुआ की तरह पति का मोहताज नहीं रहना पड़ता?
यह कहानी पीढ़ीगत द्वन्द्व को भी स्पष्ट करती है जो इन दशकों में और तीखा हुआ है। फेमिनिज्म और जेण्डर स्टडीज पर काम करने वाली शिल्पा फड़के इस परिवर्तन को बहुत शिद्दत से महसूस करती हैं कि नई शताब्दी में लड़कियों ने थोड़ी सी स्वतंत्रता और सहूलियत को अपना दाय मान लिया है और स्वयं को स्त्री अधिकारों की पैरोकार बनने से अलग करने लगी हैं। उनका यह अध्ययन बहुत अर्थपूर्ण है कि सिर्फ निचले तबके की वंचित स्त्रियां ही नहीं बल्कि उच्च-मध्य वर्ग की खाते पीते घर की लड़कियां तो और भी पश्चगामी हो गई हैं। उन्हें पुरुषों द्वारा निर्धारित तथाकथित ‘इज्जत’ ‘नाम’ ‘सहूलियत’ ‘थोड़ी उन्मुक्तता’ से संतोष है। वे परिवार में अपने को ‘गंदी लड़की’ साबित नहीं करना चाहतीं। न ही समाज की नज़रों मेंच्उस’ टाइप की लड़की बनना चाहती हैं जो स्त्रीवाद के नाम पर लेस्बियन संबंधों और देहमुक्ति के अभियानों में शामिल हैं। दरअसल इन दशकों में मुक्त बाजार ने अपने अदृश्य पंजे बड़ी तेजी से फैलाए और गांव गिरांव तक सिर्फ पानी और कोल्ड ड्रिंक की बोतलें नहीं पहुंचीं बल्कि थोड़ी-मोड़ी उन्मुक्तता की बयार भी पहुंची।
पीढ़ियों के इस द्वन्द्व में सबसे भयानक भूमिका अदृश्य बाजार ने निभाई। बाजार के लिए स्त्रियां सबसे साफ्ट टारगेट साबित हुई हैं। स्त्रियों को सहारा देने के साथ उसने एक झटके में उन्हें ‘माल’ या ‘कमोडिटी’ में तब्दील कर दिया। बाजार से खुलेपन और परंपराओं को तहस नहस कर देने की एक बयार सी चली और लगा कि अब सारी परंपराए, सारी वर्जनाएं बीते समय की बात बन जाएंगी। ऐसा नया समाज उठ खड़ा होगा जो अपने लिए नये मूल्यों की आधारशिला तैयार करेगा। मगर समाज औंधेमुंह बाजार के सम्मुख समर्पण कर बैठा और लोग समझ नहीं सके कि अचानक से हो क्या गया? त्यौहारों की संख्या एकाएक बढ़ गई, त्यौहारों में प्रतीक बढ़ गए, मन्दिरों-मस्जिदों-गिरिजाघरों में लाइनों की संख्या बढ़ गई, ढेर सारे धर्म गुरूओं की बाढ़ आ गई और साथ में बुद्धू बक्से से इन सबको एक मंच मिल गया। यह मंच सामूहिक मंचन कर भीड़ नहीं जुटाता बल्कि हर किसी के बेडरूम में सर्वसुलभ बनकर अलग-अलग रह रहे मनुष्यों को भी एक डोर से बांधे रखता है।
सुवंथी सनेहा का एक पिछड़े गांव से पटना तक का सफर और फिर ब्यूटी कांटेस्ट में जीतकर रातों रात गांव की धड़कन बन जाना एकबारगी भले ही स्त्रियों की मुक्ति का दस्तावेज लगता हो लेकिन यह नई पीढ़ी का बाजार की गोद में बैठ जाने का दस्तावेज बन गया। निश्चित रूप से वह अपना निर्णय स्वयं लेने वाली और खालिस भावुकता में न पड़कर प्रेम को जीवन का एक अंग मानने वाली आधुनिका थी लेकिन अपनी मां के संघर्ष और मानसिक यात्रा में न तो साथ रह सकी और न उसे समझ सकी। बाजार की चकाचौंध में उसे भी यही दिखाई पड़ा कि सिंदूर और चूड़ियां पहने हुए उसकी मां दरअसल अपने पति का इंतजार कर रही है। इस चकाचौंध से पस्त सुवंथी की यह कहानी वस्तुतः पूरे देश की कहानी है। उस दशक में अचानक से भारत में सुंदरियों की बाढ़ आ गई थी और ऐश्वर्या राय, सुष्मिता सेन, लारा दत्ता और न जाने कौन-कौन विश्व सुंदरी ही नहीं ब्रह्माण्ड सुंदरी तक बन गईं और कई बरसों तक भारतीय सुंदरियां अंतिम तीन, अंतिम दस में जगह बनाती रहीं जब करोड़ों भारतीय धड़कन थामें टीवी स्क्रीन से चिपटे रहते थे और अचानक उसके बाद भारत में सुंदरियों का टोटा पड़ गया।
सुंदरता को स्त्रियों की मौलिक जरूरत की तरह पेश किया गया है। अस्त्र-शस्त्र के बाद सुंदरता का बाजार आज सबसे बड़ा बाजार है। हद तो यह है कि स्त्रियां स्वयं भी सुंदरता को अपनी प्राकृतिक जरूरत समझती हैं। इसके लिए पुरुष से झगड़ती भी है। इसी तरह तमाम बाध्यताएं उस पर लादी गई हैं। स्त्री मन के कई परतों को खोलती हुई, उसे कई कोणों से बेधती हुई और अंततः उसी परम्परा से अपना स्वत्व तलाशती हुई स्त्री की एक झलक जयश्री राय की कहानी ‘कायांतर’ में मिलती है। नायिका फूलमती गांव की बहू है। पड़ोस में रहने वाली ललिता शहर से आई है और गांव के स्कूल में मास्टरनी है। फूलमती उसके यहां काम करती है और दोनों में एक अदृश्य बहिनापा उभरता है। दूसरी ओर फूलमती अपनी सास और पति बिगेसर की प्रताड़ना की जब तक शिकार होती रहती है। कारण कि फूलमती अपने आचरण में स्वच्छंद है और किसी से भी हँसी ठठा कर लेना, बात व्यवहार कर लेना उसका स्वभाव है। ललिता सब जानती है, देखती है, चुपचाप देखती भर रह जाती है। कुछ कर नहीं पाती।
फूलमती का प्रारंभिक प्रतिरोध बस इतना है कि वह अपनी आदतों से बाज नहीं आती और ललिता से बातें कर मन को हल्का कर लेती है। पति बिगेसर की हत्या हो जाती है तो विधवा फूलमती का जीना मुहाल हो जाता है। एक तो विधवा का सूना और रंगहीन जीवन दूसरे गांव के लोलुप पुरुषों की निगाहें। उसे सजना संवरना पसंद है वह तो मिलता नहीं दूसरी ओर देह पर जबर्दस्ती वाले घाव लगते जाते हैं। जब उसका मानसिक संसार आहत होता है तो उसे दौरे पड़ने लगते हैं। इस दौरे को देवी की सवारी आने से जोड़ दिया जाता है। वृहस्पतिवार के दिन लोग दर्शनों के लिए आते, वह उनसे श्रृंगार के सामान सिंदूर, साड़ी और चूड़ी मांगती और पैरों से मारकर आशीर्वाद देती। इस क्रम में पीछे जितने भी लोगों ने उसका या बिगेसर का शोषण किया था सबसे बदला ले लेती है। दरअसल स्त्री का देवी रूप पुरुष सत्ता बल्कि कहें कि पितृ सत्तात्मक संरचना की गुम्फन से निकला है और उसी रूप का प्रयोग फूलमती उस सत्ता से अपने बदले के लिए कर लेती है। स्त्री का यह कायांतरण दरअसल उसकी मानसिक संसार की यात्रा का साधन बन सकता था मगर उसे पूंजित परंपराओं तक सीमित रखा गया। और जिस धर्म के आवरण में सामाजिक रीतियों की पैकेजिंग कर पुरुष, स्त्री पर तरह-तरह की अशक्तताएं लादता है उसी के सहारे वह उन शक्तियों से बदला लेती हुई दिखती है।
श्रृंगार की वस्तुओं की मांग के अतिरिक्त प्रतिरोध में यह भी दिखता है कि स्त्री का भी मन करता है कि सब कुछ तहस नहस कर दे, शैतान बुद्धि वालों को पैरों तले कुचल डाले और कुछ न कर पाने की विवशता में कम से कम गालियों से दुश्मन को ढंक दे। लेकिन स्त्री के इस रूप को सामने नहीं लाया जाता। दरअसल देश में स्त्रियों के भी अविवाहित रह जाने की लंबी परंपरा थी जिसे कालांतर में नष्ट कर दिया गया। गार्गी की कथा भी कम प्रतीकवादी नहीं है। ध्यातव्य है कि अधिकतर देवियां अविवाहित हैं। नवरात्रों में भी कन्याओं (कंजकों) को पूजने की प्रथा है। देवियों ने शारीरिक शक्ति के बल पर राक्षसों, दुर्जनों का संहार तक किया। बुरी शक्तियों से न सिर्फ स्त्रियों की बल्कि पूरे मानव जाति की रक्षा की मगर पूजा करते समय वे मातृरूपेण हो जाती हैं। धीरे-धीरे स्त्रियों को मातृत्व के दायरे में समेट दिया गया।
माँ बनना गौरवपूर्ण है, स्त्रियों की पूर्णता है या उनके जीवन की सार्थकता है यह सोच कोई प्राकृतिक सोच नहीं है। इसे गहराई से समझना होगा। जब सिमोन बउआ स्त्रियों की स्थिति की पड़ताल करते हुए लिख रही थीं तो उन्होंने बिलकुल प्राथमिक स्तर पर जाकर स्पष्ट किया था कि माँ बनना उनकी शारीरिक विशिष्टता है न कि उनकी मानसिक जरूरत। यदि माँ बनना इतना ही गौरवपूर्ण है तो गर्भावस्था के दौरान वे इतना मुखमलिन क्यों हो जाती हैं? संतान रूप में बेटी को पाकर दुखी क्यों हो जाती हैं? लगातार कई बेटियों को जनने वाली माँएँ आत्महत्या तक क्यों कर लेती हैं? प्रसव-पूर्व (प्री नॅटल) और प्रसव-पश्चात (पोस्ट नॅटल) अवसाद जैसी बीमारियां क्यों अस्तित्व में हैं?
यह इसलिए भी षडयंत्र की तरह लगता है क्योंकि गाहे बगाहे इस गौरव की बलि भी ली गई। कन्याओं के गर्भ की बात तो सर्वविदित है ही अपने मालिक की खातिर अपने बच्चे की जान ले लेना या उसे मर जाने देना सबसे बड़ा त्याग है। पन्नाधाय के त्याग पर आज तक किसी ने उंगली नहीं उठाई? उससे किसकी स्थिति डांवाडोल होती है? क्या कानून या नैतिकता के किसी भी कोण से अपने बच्चे की जान ले लेना स्वीकार्य है? माँ तो अपनी संतान की रक्षा के लिए जान तक दे देती है। लेकिन मनुष्य समाज में तो तमाम माँओं को सती बनाकर बच्चों को अनाथ कर दिया गया। अरविन्द कुमार सिंह की कहानी ‘सती’ ऐसी ही अमानवीयता उजागर करती है। इसकी नायिका नक्कू की माँ है। जाहिर है स्त्री का स्वतंत्र अस्तित्व स्वीकार नहीं। जहाँ फूलमती के पति की मृत्यु के बाद उसे पूरे गाँव ने भोगा उसके उलट नक्कू की माँ को धतूरे का बीज खिलाकर सती कर दिया गया क्योंकि वह छूत वाले रोग (एड्स) से पीड़ित थी। यह रोग भी उसे नक्कू के बाप से ही मिला था। गाँव को डर था कि यदि वह जीवित रही तो न जाने कितनों को वह रोग दे दे? आखिर बिचारा पुरुष, विधवा स्त्री को भोगे बिना कैसे रुक पाता? इसलिए सबसे आसान यही था कि नक्कू के बाप के साथ उसे भी जला ही दिया जाए। मातृत्व को इतना ऊँचा स्थान देने वाला संवेदनशील समाज नक्कू की संवेदना से नहीं हिलता। अलबत्ता वह पुरुष की संवेदना से हिल जाता है कि बिचारा रोग धारिणी स्त्री को देख देखकर मन मसोसकर कैसे रह सकेगा? और फिर सती मईया की पूजा करने के लिए गाँव गिराँव के लोग आने लगे। उन तमाम पतियों की पत्नियां आने लगीं, जिन्होंने अपनी सुरक्षा के लिए नक्कू की माँ को सती करवा दिया था। उसे कोसने वाली, एक-एक टुकड़े के लिए तरसाने वाली, उसे चरित्रहीन कहने वाली उसकी मालकिन भी पूजा की थाल सजाए पहुंच जाती हैं।
स्त्रियों ने अपने स्वत्व, अपनी स्वतंत्रता और अपनी मानसिक कंडीशनिंग से निकलने में लंबी दूरी तय की हैं। मगर बाजार की आवक और वैश्वीकरण की गलत चर्याओं ने एक बार फिर से परिवार, समाज, नैतिकता की दुहाई के साथ वैज्ञानिकता का बेसुरा राग छेड़ दिया है। चूड़ी, सिंदूर, कर्णछेदन, मंगलसूत्र, बिछिया, पायल और ऐसे ही न जाने कितने कृत्रिम प्रतीकों को विज्ञान सम्मत दिखलाकर फिर से उस दौर में लौटने की अपील की जा रही है जिससे आगे बढ़ने में स्त्रियों ने जबर्दस्त संघर्ष किया है। संयुक्त परिवार में सामूहिक सुरक्षा का नॉस्टैल्जिया परोसकर एकल और व्यक्तिगत होते जा रहे मनुष्यों में भय पैदा किया जा रहा है। साहित्य का रुझान देखकर भी लग रहा है कि बाजार और नव सांस्कृतिक उन्नयन के नाम पर स्त्रियों के आंदोलन को सिर्फ बहस तक समेटा जा रहा है।
हालांकि ग्रामीण स्त्रियां आमतौर पर इस विकट जाल से कम प्रभावित हैं। फिर भी अपनी लुभावनी प्रवृत्ति के साथ बाजार ने वहां भी दस्तक दे दी है। श्रमिक स्त्रियों का व्यक्तित्व इस मामले में अधिक सशक्त लगता है। किशोर चौधरी (केसी) अपनी कहानियों में स्त्री के ऐसे ही मजबूत किरदारों को बुनते हैं। उनकी किस्सागोई का शगल बिल्कुल अलग है और वे हिन्दी कहानी धारा के शोर शराबे से दूर रेगिस्तान की गोद में बढ़िया लेखन कर रहे हैं। उनकी कहानियों की स्त्रियां सखा होना चाहती हैं। पुरुष के साथ कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं। लेकिन पुरुष उन्हें बार-बार अपना कंधा रोने के लिए आगे बढ़ा देता है और थपकियां देता रहता है। कहना चाहता है कि दुख से उबरकर सो जाओ या फिर मेरी पाश में आ जाओ सब ठीक हो जाएगा। ‘पक्की जमानत’ कहानी में ठेकेदार वीरेंद्र के साथ काम करते हुए गाँव से आए मजदूर रहते हैं। उन्हीं मजदूरों में रामखेर अपनी पत्नी बजरिया के साथ रहता है। रामखेर को चोरी के झूठे केस में फंसाकर वीरेन्द्र उसे पुलिस के हाथों उठवा देता है और फिर उसे बचाने के नाम पर बजरिया के सम्मुख तारणहार बनता दिखता है। उससे सहायता की आस में बजरिया मालिक की भलमनसाहत समझ सिकुड़ते, मुड़ते, तुड़ते अपना देह बचाने की कोशिश करती है मगर अंत में उसके जाल में फंस जाती है। रामखेर के जमानत पर छूट जाने के बाद भी वीरेन्द्र उसे कमरे पर बुलाता रहता है। धीरे-धीरे बजरिया को पता चलता है कि उसे भोगने के लिए सारा जाल उसी वीरेन्दर का बिछाया हुआ था, तो ऐसी ही एक रात वह बल्लम मारकर उसकी हत्या कर देती है।
बजरिया और वीरेन्द्र के संबंधों की बात जानते हुए भी रामखेर पूरी तरह बजरिया के साथ खड़ा रहता है। जब पुलिस दुबारा बस्ती में आती है तो रामखेर सिहर उठता है लेकिन बजरिया यह कहती हुई सामने खड़ी हो जाती है कि रामखेर की पक्की जमानत उसने पिछले रात ही करा दी थी। आखिर में पुलिस अधिकारी रामखेर के साथ खड़े होते हैं और ठेकेदार के विरुद्ध मुकदमा दर्ज होता है। बजरिया एक बरस जेल में रहने के बाद जमानत पर छूटकर आती है और रामखेर के साथ फिर से साधारण जीवन बिताती है। कथाकार बड़ी पते की बात अंतिम पंक्तियों में कहता है, ‘स्त्री को कमजोर या बलवान कहने से अधिक जरूरी है कि हमें परिस्थितियों और मनोस्थिति को समझना चाहिए। वही बजरिया और रामखेर एक बार मुझे ट्रेन में दिखे। एक आदमी सीट को लेकर रामखेर से उलझ रहा था और बजरिया रामखेर से कह रही थी जाने दो अपन कहीं और बैठ जाएंगे।"
श्रम और आर्थिक आत्मनिर्भरता से जैसा आत्मविश्वास जगता है, कोई भी खालिस वाद या सिद्धांत वैसी विश्वास बहाली नहीं कर सकता। बजरिया अपने मरद के साथ मजदूरी करती थी। लेकिन नीलाक्षी सिंह की कहानी ‘प्रतियोगी’ की नायिका दुलारी अपने पति के साथ काम करते हुए उसकी प्रतियोगी बन जाती है। यह कहानी महिलाओं में अपनी आत्मनिर्भरता की तड़प को बड़ी शिद्दत से दर्शाती है। दुलारी अपने नाम और काम से पहचानी जाना चाहती है बजाय कि छक्कन प्रसाद की पत्नी के रूप में। कहानी की शुरूआत इस दृश्य से होती है कि पति पत्नी गांव के चौराहे पर अलग-अलग दुकान चलाते थे। दुलारी कचरी बनाती थी और छक्कन प्रसाद जलेबी। दोनों कभी कभार एक दूसरे से काम बदल लिया करते थे। समय के साथ गाँव कस्बे में बदलने लगा और छक्कन प्रसाद छोटी सी जलेबी की दुकान को बढ़ाते हुए मिठाई की दुकान खोल लेते हैं और कारीगर रख लेते हैं। देखते ही देखते उनकी बिक्री और ख्याति दोनों बढ़ती चली जाती है। छक्कन प्रसाद चाहते हैं कि दुलारी उनके साथ काम पर आ जाए और दोनों मिलकर काम करें लेकिन दुलारी को लगता है यह दुकान और यह कचरी ही तो उसका वजूद है। यही नहीं रहा तो फिर? दुलारी की यही सोच उसे तमाम स्त्रियों से बिल्कुल अलहदा खड़ा कर देती है। ऐसी व्यावसायिक सोच और उस पर अमल की ताकत बहुत कम लोगों में होती है। जिस तरह छक्कन प्रसान बढ़ती प्रतिष्ठा के साथ उच्च मध्यम वर्ग में शामिल हो गए थे, ऐसे परिवारों की स्त्रियों के लिए सबसे आसान होता है व्यवसाय छोड़कर गृहस्थी संभाल लेना।
व्यवसाय की इस खींचतान और बढ़ती व्यस्तताओं का असर आपसी संबधों पर भी पड़ता है और दोनों एक ही छत के नीचे रहते हुए अजनबी नहीं तो कम से कम शारीरिक तौर पर एक दूसरे से स्वतंत्र होते जाते हैं लेकिन दुलारी हार नहीं मानती। कहानीकार मजबूर हो जाता है लिखने के लिए कि दुलारी का इतिहास ही ऐसा प्रचंड था। अपने वजूद की पहचान होना और उसे बचाए रखना यही सबसे बड़ी जरूरत आधुनिक काल में चले तथाकथित नारीवादी आंदोलनों की थी जिसे समझने से बहुत सी मध्य और उच्च मध्यवर्गीय स्त्रियों ने इंकार कर दिया है। दुलारी ऐसे किसी शोर शराबे से दूर है मगर अपने वजूद के प्रति बिलकुल संजीदा। दुलारी कोई भाषण नहीं देती, न अपने पति को कटघरे में खड़ी करती है मगर चुपचाप उसकी हर बात भी सिर झुकाकर नहीं मान लेती। बढ़ती समृद्धि के बीच भी उसका प्रतिरोध दृढ़ता से चलता रहता है। थोड़ी ही देर बाद कहानी यथार्थ के एक और स्तर में घुस जाती है। दंपत्ति की इस प्रतियोगिता में एक तीसरे चरित्र बाजार ने प्रवेश पा लिया।
बाजार के प्रवेश का यह असर रहा कि छक्कन प्रसाद की दुकान फास्ट फूड सेंटर में तब्दील हो गई जिसमें चाऊमीन, पेस्ट्री, सॉफ्ट ड्रिंक्स आदि सजने लगे और आईसक्रीम की लालच भी टांग दी गई थी। पति से अपने वजूद को बचाए हुए दुलारी के लिए दूसरी चिंता थी कि फास्ट फूड के ज़माने में परंपरागत और पिछड़ी करार दी गई कचरी और जलेबी के स्वाद को कैसे बचाए? बाजार की इस ताकत से लड़ने की ताकत बने दुलारी की दुकान पर रखे कनस्तर पर बैठे माइंड बिहाइंड द सीन मिंटू उस्ताद। मिंटू दुलारी के सपूत थे और उस नई पीढ़ी के प्रतीक भी जो बाजार की चाल को पहचानते हैं और उसी से घायल भी हैं। उन्होंने बिल्कुल सटीक शब्द ‘मुफ्त’ पर अपनी उंगली टिकाई और दुलारी ने बोर्ड टांग दिया, ‘प्रति जलेबी मूल्य एक रुपया, पचास पैसे। चार जलेबियों की खरीद पर दो कचरी और एक कप चाय मुफ्त!’ मुफ्त का माल दिखने पर भला कौन रुकता? हुआ भी यही। स्वयं छक्कन प्रसाद, फास्ट फूड की दुकान के मालिक, नाश्ता करने दुलारी की दुकान की ओर ही बढ़ आते। एक ही सेट में मीठा (जलेबी), नमकीन (कचरी) और पेय (चाय) जैसा नाश्ता भला कहाँ मिलने वाला था?
साहित्य में ग्रामीण भारत की इस जिजीविषा और संवेदन युक्त जीवन के समांतर शहरी इंडिया की ऊब और संत्रास से युक्त जीवन भी है जो कोलाहलों के बीच भी कुछ सार्थक कर पाने में स्वयं को असमर्थ पाता है। स्त्रियों की स्वतंत्रता, स्वच्छंदता, देह पर उसके अधिकारों को लेकर शोर मचाने वाला यह समूह आखिर में हाथ झाड़कर कहता है कि देखा स्त्री की स्वतंत्रता का क्या परिणाम हुआ? रमेश उपाध्याय की कहानी ‘अविज्ञापित’ महिलाओं की स्वतंत्रता का पुरजोर समर्थन करते हुए शुरू होती है। कथाकार ने बड़ी ईमानदारी से किरदारों को पिरोया है। नायिका अलका अग्निहोत्री आधुनिका हैं जिसे अल्ट्रा मॉडर्न भी कहा जा सकता है। वह परिवार, शादी और साधारण गृहस्थ जीवन में विश्वास नहीं रखती और कला जगत में बहुत बड़ा नाम बनना चाहती है। क्या यह चाहना गलत है? क्या ऐसी ख्वाहिश अमानवीय है? क्या पुरुष भी ऐसी चाहना के बाद उसी तरह के संत्रास के शिकार होते हैं? यदि इनमें से किसी भी प्रश्न का उत्तर ना में है तो आखिर अलका के साथ ऐसा क्यों हुआ?
कहानी शुरू से ही अलका अग्निहोत्री को कटघरे में खड़ा करती है और शुरूआती पंक्तियां पढ़कर बताया जा सकता है कि उसका अंत क्या होने वाला है। पूरी कहानी अंत का पीछा करती हुई अंततः वहीं जाकर समाप्त होती है कि अलका न तो कला की दुनिया में नाम बन पाती है, न ख्यातिलब्ध मॉडल बन पाती है, न परिवार बना पाती है। अलका के पक्ष में खड़े होने की बजाय कहानी के वाक्य उसे कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करते हुए महसूस होते हैं। परिवार में न रहने, शादी न करने, छोटा काम न करने और लिव-इन में रहने को तीखे व्यंग्य की तरह प्रस्तुत किया गया है। वाक्य वास्तविक जीवन में प्रश्नों की तरह चुभते हुए प्रतीत होते हैं। ऐसे प्रश्नाकुल समाज में पूछा जाना चाहिए कि बिना गलतियां किए क्या अलका अपने जीवन को अर्थ दे पाती? अंततः हताश और निराश अलका अपनी नौकरानी स्टेला के पार्टनरशिप में ‘अलका एडवर्टाइजिंग’ नामक कंपनी चलाती है। कहानी का अंत एक सूक्ति के रूप में शिक्षा देता हुआ लगता है कि ‘प्रेम के हल्के से अल्पकालिक संबंध जरूरत से ज्यादा विज्ञापित हो जाते हैं जबकि प्रगाढ़ दीर्घकालिक संबंध अविज्ञापित ही रह आते हैं।’ एक वैकल्पिक प्रतिस्थापना यह है कि अविज्ञापित रह जाने वाले संबंध सभी के जीवन में होते हैं लेकिन इससे विज्ञापित होने वाले संबंधों का महत्त्व कम नहीं हो जाता। विज्ञापित संबंध ही अविज्ञापित को वह ताकत प्रदान करते हैं कि अविज्ञापित रहते हुए भी वे दीर्घकालिक हो सकें।
स्त्रियों के प्रति ऐसी भेदीय दृष्टि बड़ी व्यापक है। समाज में दूसरी स्त्रियों की ओर ही नहीं परिवार में भी पुरुष अपनी सुविधानुसार उसके लिए मानक गढ़ता है, उसकी स्थिति पर मनमाना तंज कसता है। जया जादवानी की कहानी ‘परिदृश्य’ में गोयल परिवार की ऐसी ही स्थिति है। मि. और मिसेज गोयल खुशहाल दंपत्ति हैं। कोई बाहरी दबाव और हस्तक्षेप नहीं है। बावजूद इसके मि. गोयल रह रहकर अपनी गरिष्ठता मिसेज गोयल पर थोपते रहते हैं। नाभिकीय परिवार में रहते हुए उन्हें कई बार लगता है कि मिसेज गोयल ज्यादा ही सीधी, सरल और पारिवारिक दायित्व का बोझ उठाने वाली साधारण महिला हैं। ऐसा सोचते हुए वे पत्नी से घृणा की हद तक का व्यवहार करने लगते हैं। उस पर मारक शब्दों से हमला करते हुए अपना गंवारपन छोड़ने को कहते रहते हैं। मिसेज गोयल धीरे-धीरे अपने को बदल डालती हैं और समय के साथ चलने लगती हैं तो एक पार्टी से लौटने पर मि. गोयल बड़े आराम से उन पर कुलटा होने और अधिक मॉडर्न होने का आरोप लगा देते हैं। साथ ही यह सीख भी दे डालते है कि स्त्रियों को एक मर्यादा में तो होना ही चाहिए। कौन सी मर्यादा? कैसी मर्यादा? क्या आकर्षक कपड़े पहन लेना, मेकअप करके सुंदर बन जाना, गैर पुरुषों से बात कर लेना, उनके साथ हँस लेना मर्यादा से बाहर निकल जाना है?
स्त्रियों पर इस तरह के दोहरे आक्षेप और लांछन से मन दुखता है, रिसता है। चाहे शादीशुदा स्त्री हो या फिर गैर शादीशुदा उसे लगातार लोगों की नज़रों की कसौटी पर कसा जाता है। उसके साधारण मानवीय व्यवहार भी चरित्र की कसौटी पर कसे जाते रहे हैं। इस संदर्भ में विचलित मन में शिवमूर्ति की कहानी ‘तिरियाचरित्तर’ की विमली कौंधती रही। नौ दस बरस की उम्र में मजदूरी के लिए धकेल दी गई प्यारी सी लड़की को पूरे समाज की नज़रें आंकती रहती हैं। उसकी स्वच्छंद मुस्कुराहट, बेलौस बातचीत और जीवन की छोटी-छोटी खुशियों के प्रति ललक को गिरावट की नज़र से देखा जाता है। बिल्कुल ग्रामीण परिवेश में ईंट भट्ठे पर कार्यरत मजदूरों, ट्रक ड्राइवरों के बीच रहते हुए विमली महानगरों में रहने वाली स्त्रियों से भी अधिक स्निग्धता से सोचती है। वह अपनी देह के प्रति, अपनी मानसिक दुनिया के प्रति, अपनी जरूरतों के प्रति और सबसे बढ़कर दायित्व के प्रति बोध से भरी हुई है। दुनिया उसे किस नजर से देखती है, उसके पिता उसे किस नजर से देखते हैं, पति और ससुराल वाले क्या समझते हैं उसे इन बातों से कोई सरोकार नहीं। मानो उसने समर्पण कर दिया हो कि पुरुष नज़र का तो काम ही है स्त्रियों में कुलटा, कुलच्छिनी और तिरियाचरित्तर ढूंढ़ना। वह कुछ भी कर ले देखने वाली नज़रें वही ढूंढ़ लेंगी जो वे चाहती हैं। वह कोई भाषण नहीं करती, कोई परिवाद नहीं करती बस जीवन को पूरी शिद्दत से जीती है।
प्रत्येक मनुष्य के लिए दो संसार होता है एक तो भौतिक और दूसरा मानसिक। मानसिक संसार की यात्रा अधिक सूक्ष्म और जटिल होती है लेकिन मनुष्य होने के लिए यह जरूरी है। तिरियाचरित्तर से स्त्री के बालमन, किशोरमन और वयस्कमन की झांकियां मिलती हैं। स्त्री के मानसिक संसार का दर्शन कराती हुई कहानी यह भी प्रतिपादित करती है कि स्त्री केवल उच्छृंखल होकर अपने देह पर अधिकार या उसका मुक्त इस्तेमाल ही नहीं चाहती बल्कि वह अधिकार, दायित्व, अनुमोदन, सखाभाव और प्रेम भी चाहती है। देह का ऐसा इस्तेमाल कि अलग-अलग प्रेमी उसके शरीर का भोग करते रहें और उसे अपने जीवन में या समाज में कोई मान्यता या अधिकार न दें तो इसके लिए वह बिल्कुल तैयार नहीं है। यह प्रस्थापना केवल स्त्री के लिए सही नहीं है। मनुष्य मात्र की यही स्थिति और नियति है लेकिन बिडंबना यह है कि स्त्री को इसके लिए संघर्ष करना पड़ता है। इसी तरह ‘बारहवीं ए की लड़कियां’ कहानी की नायिका शायना जब कहती है कि ‘वे लड़के समझते थे कि जब हम उनके कंधों पर सिर रखकर सोना चाहती हैं तब हम असल में उनके शरीर के किसी हिस्से को छूने के लिए मरी जा रही होती हैं।’ तो इसमें समस्त स्त्री जाति की पीड़ा व्यक्त हो उठती है। स्त्री को मात्र देह मान लेना पीड़ादायक है। बल्कि स्त्री का मानसिक संसार अधिक गहन है क्योंकि वह सदियों से अनभिव्यक्त है, अनछुआ है, परित्यक्त है। इस तरह कि मानो स्त्रियों ने स्वयं यह जुमला अंगीकार कर लिया हो कि सोचना उनके हिस्से में नहीं आता।
मनीषा कुलश्रेष्ठ की कहानी ‘कठपुतलियाँ’ की नायिका सुगना भी खांटी गंवार होने के बावजूद अपने मानसिक वजूद और दैहिक रिश्ते को लेकर संजीदा है। दहेज की रकम न जुट पाने के चलते उसका विवाह एक पोलियोग्रस्त व्यक्ति से हो जाता है, जो विधुर भी है। नंदी और बंसी दो संतान भी हैं। पति रामकिसन के साथ वह बच्चों के देखभाल में लग जाती है और स्वयं को खपा देने की पूरी कोशिश करती है। रामकिसन कठपुतलियों का काम करता है। वह अपना साम्य भी कठपुतलियों से करती है। अपनी मनस के प्रति सजग सुगना बहुत महत्वाकांक्षी, लालायित या व्याकुल बिलकुल नहीं है मगर एकाकीपन में कभी-कभी उसे उकताहट होती है। सुदूर रेगिस्तान में एक बावली की ओर पानी लेने गई सुगना की भेंट जोगेन्दर से हो जाती है जिससे पहले उसका विवाह होने वाला था। जोगेन्दर गाइड का काम करता है और रामकिसन की तरह अशक्त नहीं है। रेगिस्तानी आंधी में खंडहर में छिपने के दौरान वह अपने को संभाल नहीं पाती और जोगेन्दर के आगे समर्पण कर देती है। यह क्षणिक सुख उसके शारीरिक आवेग को जगा देता है और पानी लेने के बहाने वह नियमित रूप से बावली जाने लगती है और गर्भवती हो जाती है।
जोगेन्दर से संबंध बनने के दौरान वह बहुत संजीदा नहीं रहती लेकिन पाप और पुण्य के चौखटे में भी नहीं बंधती। रामकिसन की नसबंदी के चलते उसका गर्भ उसके चरित्र के लिए ग्रहण बन जाता है। सास उसे चरित्रहीन साबित कर उसे वापस मायके भेजने या उसके प्रेमी से पैसा वसूलने के पीछे पड़ जाती है। रामकिसन हालांकि उसकी गतिविधि को समझ चुका था लेकिन उसे छोड़ना नहीं चाहता। सुगना भी परिवार छोड़कर विवाहित जोगेन्दर की उपपत्नी बनकर नहीं रहना चाहती। उसे पत्नी का अधिकार और बंसी व नंदी के मातृत्व की चिंता भी थी। सास जब पंचायत बुलाने और अग्नि परीक्षा की जिद पर अड़ी रहती है तब भी रामकिसन पूरी तरह सुगना के साथ खड़ा रहता है। सुगना भी पूरे मन से परिवार के साथ रहने का निश्चय करती है और जोगेन्दर का ऑफर ठुकरा देती है। पंचायत की अग्नि परीक्षा में रामकिसन द्वारा लाए गए करामाती तेल से उसके हाथ में फफोले नहीं पड़ते और वह रामकिसन की पत्नी मान ली जाती है। दैहिक लालसाओं के बावजूद सुगना का मनस यह समझ चुका था जोगेन्दर के साथ भाग जाने पर उसे कभी पत्नी का दर्जा नहीं मिलता जबकि रामकिसन के साथ वह माँ भी थी और पत्नी भी।
स्त्री मन की इन्हीं भावनाओं को प्रकट करती हुई शहरी माहौल में रचित पंकज सुबीर की कहानी ‘कितने घायल हैं, कितने बिस्मिल हैं...’ नए स्तर पर प्रभावित करती है। कहानी में प्यार को आधुनिक ज़ेहनी माहौल में पारिभाषित करने की कोशिश की गई है। नायिका आपगा के माध्यम से स्त्रियों के मानसिक संसार की गहन पड़ताल भी की गई है। वह आंजिक्य के साथ लिव-इन में रहती है। आंजिक्य के मुकाबले अधिक विचारशील और तर्कयुक्त है। उसने यह शर्त जोड़ रखी थी कि कभी कोई शादी के लिए नहीं कहेगा। विज्ञान की छात्रा थी और तर्क रूपी हथियार से लैस। विज्ञान की इस प्रस्थापना से बिलकुल सहमत कि मानव हृदय को चीरकर देखा जा चुका है। उसमें प्यार-व्यार, प्रेम-वेम जैसा कुछ नहीं होता। मनुष्य खालिस चमड़े की मशीन है जो हार्मोन्स से निर्देशित होता है। आपगा की ज़ेहनी सोच यही है। कहानी की विशिष्टता यह है कि इसमें स्त्री बिल्कुल स्वतंत्र मानवी नजरिए से सोचती हुई दिखती है। आंजिक्य का साथ बस इसलिए है कि वह हैंडसम है, उसे सुंदरता की सेंस है और वह अच्छे से प्यार करता है। आपगा को इससे अधिक कुछ नहीं चाहिए। समय के साथ हार्मोन्स में हलचल होती है और अपनी काम वाली बाई का संतुष्ट जीवन देखकर उसे न जाने क्यों कुछ-कुछ होने लगता है। वह उसे भी दूसरे पुरुषों को आजमाने के लिए उकसाती है मगर उसकी संतुष्टि व अन्यमनस्कता से घायल हो जाती है। मानसिक प्रतिक्रियास्वरूप आंजिक्य में उसे एक आभिजात्य की महक आने लगती है और वह सोचती है कि बाई इसलिए अधिक संतुष्ट है कि उसका पति मजदूरी करता है। वह पसीने की महक और बलिष्ठ भुजाओं और धूल में सने शरीर का स्वाद लेना चाहने लगती है।
इसमें कुछ भी अप्राकृतिक नहीं है। मानसिक स्थिति की एक सहज अवस्था है। आंजिक्य उसकी सहायता करता है। दरअसल उनका संबंध एक दूसरे को पर्याप्त स्पेस देने के नाम पर ही चल रहा था। अंततः आपगा बाई के पति से संबंध बनाती है। परंतु उस रात के बाद मन में सदियों से बसा डर कहिए, संकोच कहिए या कि मानसिक असहजता कहिए वह आंजिक्य के और करीब झुक जाती है। उसमें कुछ-कुछ उमगने लगता है और वह लैला-मजनूं की इन बातों से मन की गुत्थी खोलने की कोशिश करने लगती है कि क्या सचमुच लैला बदसूरत थी? कालांतर से उसके कहने का अर्थ था क्या सचमुच बदसूरत स्त्री या पुरुष से प्रेम किया जा सकता है? क्या प्रेम टेस्टास्ट्रोन और एस्ट्रोजन से अलग भी कुछ है क्या?
दरअसल यह प्रश्न केवल स्त्री का प्रश्न नहीं है। उतना ही पुरुषों का भी है जो बहुत आसानी से दूसरी स्त्रियों की ओर लालायित रहते हैं और मौके बेमौके उनका भोग करने हेतु छुछुआते रहते हैं। शरीर से ऊपर उठना और अंततः मन से भी ऊपर उठना क्या इंसानी फितरत नहीं है? क्या देह का भौतिक और स्थूल स्तर ही एकमात्र जानी गई सच्चाई है? कोई भी स्थिति सभी लोगों पर लागू नहीं होती। न तो सभी पुरुष स्त्रियों के प्रति लालायित रहते हैं और न सभी स्त्रियां नितांत संकोची होती हैं। यह बिल्कुल व्यक्तिगत मामला है। इसमें अनैतिक नैतिक से बढ़कर मन की गहन परतों में छिपी लालसा और विश्लेषण मायने रखता है। मनुष्य अपने को उघाड़ते हुए स्वयं को कहाँ खड़ा पाता है? यही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है। लेकिन क्या मनुष्य परम स्वतंत्र हो सकता है? विज्ञान के तर्कों का इस्तेमाल करना क्या यह नहीं दर्शाता कि उसे भी अपने विचारों के लिए आधार की जरूरत है? इसी तरह क्या मूल्यों के लिए भी आधार की जरूरत नहीं होगी? अब यह कह देने से काम नहीं चलेगा कि चोरी करना पाप है। लोग अपने आसपास चोरी करने वालों को फलते-फूलते और सर्वजनीन परिभाषा में सफल होते देख रहे हैं। समाज को ऐसे मूल्यों की जरूरत है जो व्यक्तिगत आत्मविश्लेषण और आत्मान्वेषण को बढ़ावा देते हों।
पुराने मूल्यों से उखड़कर मनुष्य अभी नए मूल्यों की स्थापना नहीं कर सका है। वह प्रयोगशील अवस्था में है। पुराने सर्वजनीन मूल्य छीजते गए हैं। अब सबके लिए मूल्यों के मायने अलग-अलग हैं। स्त्री संबंधों के मामले में हिन्दी कहानी की स्थिति यह है कि वह न तो पुराने परंपरागत संबंधों के प्रति सहज है और न लिव-इन जैसे नए संबंधों के प्रति। कसौटी पर कसते हुए लेखक अभी एक ओर झुक जाने को अभिशप्त हैं कि भारतीय समाज लिव-इन को स्वीकार नहीं कर रहा। जबकि यथार्थ के धरातल पर ऐसे बहुत से लोग जीवन जी रहे हैं। कविता की कहानी ‘भय’ भी लिव-इन रिलेशन की विसंगतियों को ही उकेरती है। नायिका शालू आखीर में अन्तर्द्वन्द्व में फंस जाती है। सुधीर के साथ रिलेशनशिप में रहते हुए बरसों बाद उसे लगने लगता है कि विवाह कर लेना उसके लिए अच्छा होता। वह लगातार एक भय में जीने लगती है। वह शंकालु हो उठती है। उसे लगता है कि पहले लोग उसकी स्वतंत्रता से जलते और ईर्ष्या करते थे और लिव-इन में रहने को बहादुरी की तरह देखते थे लेकिन भविष्य के प्रति आशंका से वह कांप जाती है और कहने लगती है कि वह महान नहीं है, मजबूर है। शालू की यह मजबूरी लिव-इन की विसंगतियों को ही नहीं दर्शाती बल्कि एक तरह से यह समर्पण ध्वनि है। समाज का सामना हम स्वस्थ मस्तिष्क से नहीं कर पा रहे हैं। मूल्यों की खिसकी आधारशिला को अस्तित्ववाद से एक सहारे की आस थी परंतु विखंडन और बिखराव के दौर ने उसे पीछे छोड़ दिया। आखिर समाज की सड़ांध और सदियों से चली आ रही परंपराओं को तोड़ने का साहस कहाँ से आएगा?
इस साहस के लिए साहित्य मुखापेक्षी होने पर कुछ न कुछ जरूर हाथ लगता है। इसकी एक धुंधली झलक अखिलेश की कहानी ‘अगली शताब्दी के प्यार का रिहर्सल’ में देखी जा सकती है। अखिलेश अपनी कहानियों में केवल किरदार नहीं रचते बल्कि उनकी कहानियां एक विशाल कैनवस की तरह होती हैं जिन्हें पढ़ते हुए आप उसके अंग बनते चले जाते हैं। नायिका दीपा इस मायने में नई सदी की लड़की है कि वह भावुक नहीं है, कमजोर नहीं है, लड़कों से कमतर नहीं है, अपना भला बुरा सोच सकती है, किसी की मोहताज नहीं है। वह प्यार को फैशन की तरह देखती है। दीपा को प्यार करने का मन करता है तो वह इसमें हृदय का पक्ष बिल्कुल आने नहीं देती बल्कि कहें कि इतनी आपाधापी में वह कहीं पीछे छूट गया है। नई सदी में हार्ट बस अटैक शब्द से जुड़ने के लिए बचा रह गया है! वैज्ञानिकों के चीरफाड़ से भी उसमें मूल्य या संवेदना जैसी कोई चीज नहीं मिली। दीपा ने भी अपने हृदय को टटोल लिया था और पूरी तरह आश्वस्त होकर एम. ए. में पहुंचने के बाद प्यार करने का निर्णय लिया। ऐसा प्यार जिसे शादी में भी बदला जा सके। उसने जितेन्द्र को चुना या कहिए उसे प्यार हो गया। क्योंकि ‘प्यार किया नहीं जाता....’ वाला जुमला अभी चल रहा था। जितेन्द्र उसकी कास्ट का था, आई ए एस की तैयारी कर रहा था, कदकाठी में सभी लड़कों से बीस था और बैडमिंटन का खिलाड़ी भी था। सबसे बढ़कर वह सीधा सादा पढ़ाकू टाइप का लड़का था जिसे दीपा अपने हिसाब से अपने अधिकार में रख सकती थी।
कहानी में दीपा, जितेन्द्र और दीपा के पिता सब अपने-अपने गणित में उलझे हुए हैं। बिना किसी का पक्ष लिए और बिना जजमेंटल हुए अखिलेश जिस तरह कहानी को पाठकों के सामने रखते हैं ठीक वैसे ही मूल्यबोध की जरूरत आधुनिक समाज को भी है। किसी कोड या संहिता की बजाय स्वयं के आत्मविश्लेषण से निर्धारित होने वाला मूल्यबोध। प्यार से अलग होकर अचानक टूट जाने की बजाय दीपा ने कुशल विचारक की तरह निर्णय लिया कि वह जितेन्द्र को प्यार के हिंडोले में धीरे-धीरे झुलाती रहेगी और इस बीच दो चार और लोगों से चक्कर चलाकर कोई न कोई कुंवारा आई ए एस अपने लिए ठीक कर लेगी। दूसरी ओर जितेन्द्र यह सोचकर खुश था कि अभी नखरे सह लेगा फिर शादी के बाद बदला लेगा। उसकी नजर दीपा के पिताजी के करोड़ों की संपत्ति पर थी। कहने वाले कह सकते हैं कि संवेदनाओं की जगह भौतिक परिस्थितियां और जीने की सहूलियत ज्यादा मायने रखने लगी है। मगर यही सदा से होता आया है। आजकल इस पर चढ़े आवरण को हटा दिया गया है। स्त्री हो या पुरुष वह संघर्ष, तपस्या, साधना जैसे शब्दों से डरने लगा है और उसे लगता है जो कुछ है वह यही क्षण है। बाजार भी इसमें सहायता कर रहा है। लोग जितना संवेदनाओं से छीजते जा रहे हैं उतना ही वह उनका घर सामानों से भरता जा रहा है। इसे उल्टे तरीके से भी कहा जा सकता है कि जितना लोगों का घर सामानों से भरता जा रहा है उतना ही उनका हृदय संवेदनाओं से खाली होता जा रहा है।
अखिलेश की और भी कहानियों में स्त्री पुरुष संबंधों को बिल्कुल संजीदगी से पेश किया गया है। उसमें कोई शोर नहीं है, कोई बड़ा नाटकीय मोड़ नहीं है। उनकी स्त्रियां जीवन साथी ऐसे बदलती है मानो कपड़े बदल रही हों। आखिर मनुष्य का शरीर कपड़ा ही है। ‘वासांसि जीर्णानि यथा विहाय’ वाली सोच इस कदर नया मोड़ ले लेगी किसी ने सोचा नहीं होगा। लेकिन जब जीवन में ही हृदय नेपथ्य में जाता रहा और दिमाग ने सब कुछ आच्छादित कर लिया तो यह तो होना ही था। हृदय के साथ चलने में खतरे भी बहुत हैं। सबसे बड़ा खतरा तो स्पीड को लेकर है।
हृदय को नकारने की बजाय हृदय को खोलकर रख देने जैसे विकल्प भी कहानियों में मिलते हैं। ऐसे विकल्पों पर गौर करते हुए आकांक्षा पारे काशिव की कहानी ‘तीन सहेलियां तीन प्रेमी...’ याद आती है। यह कहानी स्त्रियों के स्वतंत्र नज़रिए के साथ कई और महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर बात करती है। तीन सहेलियां आभा, स्नेहा और मेघना कामकाजी औरतें हैं जो उम्र के ढलते पड़ाव पर पहुँच चुकी हैं। तीनों स्वतंत्र रहना चाहती थीं और तीनों ने विवाह नहीं किए। उत्तरादर््ध में उन्हें अकेलापन काटने को दौड़ता है और वे समय बिताने के लिए रविवार को अपने प्रेमियों से मिलती हैं। ऐसे ही एक रविवार की चुहलबाजियों के बहाने कहानी यथार्थ के कई परतों को खोलकर ज्यों का त्यों रख देती है।
तीनों सहेलियों के प्रेमी शादीशुदा हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि उम्र के इस पड़ाव पर कुंवारे लड़के नहीं मिलेंगे। वे इतनी संजीदा हैं कि उन्हें यह भी पता है कि उनके प्रेमी खालिस वायदों से उन्हें बहलाते हैं कि वे अपनी-अपनी बीवियों से छुटकारा पाकर उन्हें अपना लेंगे। और निश्चिंत हैं कि ऐसा कुछ नहीं होने वाला। एक सहेली कहती है, ‘समझने की कोशिश करो बच्ची, हम जिंदगी मांग रही हैं। उनकी जिंदगी। सामाजिक जिंदगी, आर्थिक जिंदगी, इज्जत की जिंदगी। वह जिंदगी हमें कोई क्यों देगा। इसलिए नहीं कि हम काबिल नहीं हैं, इसलिए कि हमें आसानी से भावनात्मक रूप से बेवकूफ बनाया जा सकता है।....हम उनका न तो हिस्सा बन सकते हैं न ही हिस्सेदार।’ स्पष्ट रूप से यह स्वीकृति समाज के प्रचलित रवैये के अनुरूप है। इसमें किसी पर दोषारोपण और खुद को उसका पक्षकार बनने की स्वीकृति नहीं है बल्कि स्थिति को ज्यों का त्यों स्वीकार करते हुए आत्मावलोकन है। उन्होंने दुनिया देख ली है कि वे सिर्फ भोग्या नहीं हैं। वे भी भोग सकती हैं।
कहानी कहीं भी नाटकीयता में नहीं उलझती और समाज के भय अथवा दायित्व बोध से आक्रांत नहीं होती। तीनों सहेलियां अंत में स्वीकार करती हैं कि ‘अपनी शर्तों पर जिओ, अपनी शर्तों पर प्रेम करो। जो करने का मन नहीं उसके लिए इनकार करना सीखो, जो पाना चाहती हो, उसके लिए अधिकार से लड़ो।’ मूल्यों के नए धरातल के लिए ऐसी सहज स्वीकृतियों की आवश्यकता है। इतना दमखम कहाँ बचा रह गया है इंसान में? रोज के रोज उसके प्रतिरोध में, उसके बने रहने में कमजोरी आती जा रही है। सभी के लिए एक ही फार्मूला कारगर भी नहीं हो सकता। बल्कि होना यह चाहिए कि जिसको जैसे मन करे, जैसी इच्छा करे वैसे रहे। जो विवाह कर सकते हैं, वे विवाह करें लेकिन किसी समझौते की तरह नहीं। अपना वजूद और अपना अस्तित्व बचाए हुए। जो स्वतंत्र रहना चाहते हैं उन्हें स्वतंत्र रहने का अधिकार हो।
साहित्य से इतर वास्तविक समाज में जब एम्स जैसे बड़े संस्थान में सीनियर रेजिडेंट पति की क्रूरताओं से उकताकर आत्महत्या करती है तो मन खौल उठता है। आखिर स्त्री अधिकारों के प्रति इतनी बेफिक्र क्यों है? समाज कुछ बहस कर और सवाल कर मामले की इतिश्री कर लेता है कि क्या वह विरोध नहीं कर सकती थी? क्या वह अलग होकर नहीं रह सकती थी? क्या वह तलाक नहीं ले सकती थी? क्या वह अपने पति को बेनकाब नहीं कर सकती थी? मगर ये सभी बाहरी लोगों के प्रश्न हैं, जिन्होंने उस जीवन को जीया नहीं है। निश्चित रूप से उसके पास हजारों विकल्प रहे होंगे परंतु उसका एक मूलभूत प्रश्न हो सकता है यह रहा हो कि जैसी मैं हूँ वैसे ही क्यों नहीं जी सकती? बिल्कुल वैसी क्यों नहीं स्वीकार्य हूँ? उसकी आत्महत्या किसी टूटी हुई, बिखरी हुई लड़की की आत्महत्या नहीं रही होगी। निश्चित रूप से वह व्यक्तिगत प्रतिरोध रहा होगा, जिसे और कोई अभिव्यक्ति नहीं मिल सकी। बस इसलिए कि उसे अपनी परिस्थितियों, अपनी शर्तों पर जीने नहीं दिया जा रहा, वह जिंदगी को ही अलविदा कह देगी। उस स्त्री से अधिक वह परिवार जिम्मेवार है जो शादी करके अपने दायित्वों की इतिश्री मान लेता है।
परिवार में विरोध के स्वर दबते जा रहे हैं। नई सदी की यह पीढ़ी आत्महत्याओं के भय के साए में जी रही है। वह समझने को तैयार नहीं कि प्रतिरोध की बजाय सीधे ‘क्लिक’ कर समाधान पाने की राह बहुत दुरूह है। परिवार में आधुनिकता बोध को लेकर गौरव सोलंकी की कहानी ‘बारहवीं ए की लड़कियां’ इस मायने में भी महत्त्वपूर्ण है कि यह भाई बहन के रिश्ते पर बुनी गई है। हिन्दी कहानियों में बहन की भूमिका और उनका प्रदर्शन बहुत सीमित रहा है। यह आश्चर्यजनक है। प्रतीकों और बिम्बों का प्रयोग बहुत कुशलता से किया गया है। नायिका शायना अपनी और अपने भाई की कहानी कहती है और इस बहाने पूरे समाज की बुनावट को उघाड़ती चलती है। हालांकि आम पाठकों के समझने के हिसाब से थोड़ी दूरूह है।
कहानी में भाई बहन का रिश्ता बिल्कुल समान मानवीय धरातल पर बुना गया है। दोनों में दोस्ती और सखापन है, भाई बहन वाली मजबूत इस्पाती दीवार गिर चुकी है। दोनों को एक दूसरे के साथ रहने का सुखद एहसास है और एक दूसरे के लिए पर्याप्त स्पेस भी है। गैर वाजिब तरीके से दुखी हो गए भाई का दिल रखने के लिए शायना उसके साथ बैठकर ब्लू फिल्म भी देखती है और माँ-बाप के साथ गैर-संजीदा हो चुके रिश्ते को सहने की ताकत देती है। वह किसी भी परिस्थिति में अपने भाई को छोड़ने के लिए तैयार नहीं है, चाहे वह कुछ भी करे। पूरी कहानी पढ़ते हुए सजगता के साथ-साथ आधुनिकता बोध बना रहता है साथ ही एक उदासी का माहौल भी मन पर छाता जाता है कि सब कुछ इतना घिनौना, इतना बेतरतीब क्यों होता जा रहा है? समाज की सच्चाइयों को इतने उथले रूप में स्वीकार कर उसे इतना घिनौना और अस्वीकार्य मानने के लिए हम किस कदर अभिशप्त होते जा रहे हैं? क्या स्त्री पुरुष रिश्ते को कभी संजीदगी से स्वीकार नहीं किया जा सकेगा?
नए मूल्यों की स्थापना के लिए तमाम विकल्प तैयार हो रहे थे कि अचानक बाजार की आवक ने स्त्री पुरुष रिश्ते को फिर से पिछले मोड़ पर ला खड़ा किया। स्त्री अधिकारों के पैरोकार अपने को ठगा हुआ महसूस करने लगे। उन्हें लगने लगा कि नारीवाद का जो बिगुल पिछली सदी के छठें सातवें दशक में बजा था, वह अपना वर्तुल पूरा कर फिर से उसी बिंदु पर आ खड़ा हुआ है। यह कहना निश्चित ही जल्दबाजी होगी मगर कुछ कहानियों में ऐसे चिन्ह दिखने लगे हैं। प्रकृति करगेती की कहानी ‘ठहरे हुए से लोग’ बाजार की धमक को सभी रिश्तों पर भारी मानती है। कहानी प्रतीकों और बिम्बों के सहारे आगे बढ़ती है। बाजार के शो रूम में शीशे के पीछे खड़ी डमी वास्तविक मानवी समाज को देखती है और सिहर उठती है कि कैसे दिन चढ़ते ही बाजार बढ़ने लगता है और सबको अपनी चीखों चिल्लाहटों में इस कदर समेट लेता है कि बलात्कार की शिकार हुई लड़की की लाश तक लोगों का ध्यान नहीं जाता। उसके बयान इसलिए महत्त्वपूर्ण हैं कि वह पहले से ही बिल्कुल स्पंदनहीन है। वह बाहर निकलकर जिस लड़के से टकराती है वह एक चलता फिरता इश्तहार निकलता है। जो मनुष्य पहले उपभोक्ता बनने से डरता था अब वही इश्तहार तक बना हुआ घूम रहा है। बिडंबना यह कि डमी को बाहर की दुनिया भयावह मालूम पड़ती है जिसमें बलात्कार है, मरना है, मारना है और शीशे के पार उसे इन चीजों का कोई डर नहीं। वैसे भी मनुष्य अगर इश्तहार में तब्दील होता जाए तो उसे किस बात का डर? किससे डर?
बाजार के धमक की और भी अधिक महत्त्वपूर्ण कहानी वरिष्ठ कथाकार असगर वज़ाहत की ‘किरच किरच लड़की’ है। कहानी में एक लड़का है, एक लड़की है। लड़की लता है और लड़का राहुल। दोनों छोटे-छोटे शहरों से आकर दिल्ली में नौकरी की खोज में लगे हैं। लड़की ने एमबीए किया है और लड़के ने सिविल इंजीनियरिंग। इस अंतहीन खोज में दोनों में प्रेम पनपता है। मगर दोनों शहर और बाजार की गिरफ्त में हैं। एमबीए वाली लड़की को नौकरी मिल जाती है मगर सिविल इंजीनियर को नहीं। लड़की की नौकरी बहुत अजीब है। उसे बड़े शोरूम में डमी मॉडल बनने की नौकरी मिली होती है जिसे कपड़े टांगकर दिन भर चुपचाप खड़े रहना है। इन प्रतीकों से बाजार की क्रूरता और उसकी आपाधापी से सूखती जा रही संवेदनाओं और सूखती जा रही जिजीविषा को रेखांकित किया गया है। लड़का उसे ढूंढ़ता हुआ शो रूम में रोज आने लगता है। पहले उनमें थोड़ी-थोड़ी बात होती है फिर कुछ दिनों बाद इशारों में बात होती है और अंततः लड़की बोलना बंद कर देती है। उदास लड़का उसे कैद से छुड़ाना चाहता है और सेठ से झगड़कर शीशे के पीछे जाकर उसे छूने की कोशिश ही करता है कि छनककर लड़की टूट जाती है और उसकी किरचें दूर तक बिखर जाती हैं। इस तरह टूटना और टूटकर बिखर जाने का प्रतीक बहुत महत्त्वपूर्ण है। बाजार की ताकत के आगे मनुष्य इसी तरह टूट रहा है कि उसके टुकड़ों का भी पता नहीं चल रहा।
बाजार और सांस्कृतिक हमले की व्यापकता के चलते स्त्री और पुरुष अपनी बची खुची अधिकारिता के साथ बाजार की ताकतों से लड़ने में जुट गए हैं। बाजार की ताकत उन्हें ज्यादा क्रूर और वहशियाना लग रही है। इससे आक्रांत होकर कुछ कथाकार ऐसी कहानियां लिखने लगे हैं जो इस बात से बिलकुल आंख मूंदे हुए हैं कि स्त्रियों के अधिकारों की कोई बात पीछे चल रही थी। उसमें न तो परिवार का संघर्ष है, न स्त्री मुक्ति के नारे हैं और न पुरुष के बरअक्स खड़ी होती स्त्री के चित्र। ऐसी कहानियों की नायिकाएं अपनी दुनिया में खुश हैं, महफूज हैं और सुरक्षा का अनंत आवरण उन्हें घेरे रहता है। वे अपनी छोटी सी दुनिया में पति की तंग जेबों, शहर के एकाकीपन, बाजार की आक्रामकता और घटती मानवीयता के बीच चुपचाप आगे बढ़ रही हैं। न उनके मन में शोर है, न जीवन में। दरअसल यह बाजार से आक्रांत स्त्री है जो अपने पति को भी उससे बचाना चाहती है। शोर या सवाल उठने की गुंजाइश ही नहीं है शायद क्योंकि अपना पति, अपना परिवार, अपनी आय और शहर में एकल रिहाइश इससे ज्यादा किस बात की आकांक्षा?
नई प्रवृत्तियां देखकर एकबारगी लगता है कि स्त्री का अपने वजूद और अस्तित्व के लिए संघर्ष अपना वर्तुल पूरा कर फिर से प्राथमिक बिंदु पर आ ठहरा है। हालांकि इस बिंदु पर स्त्रियां थोड़ी अधिक स्वतंत्र, अपनी बात मनवाने में कुशल, दबाव डालने में सक्षम, परिवार के बाकी शोषक सदस्यों से दूर रहने की सहूलियतें लिए हुए और अपनी कंडीशंड सोच के अंतर्गत आने वाली इच्छाओं को पूरा करने में सक्षम हैं। हालांकि निश्चयात्मक तौर पर किसी निर्णय पर पहुंच जाना अभी जल्दबाजी होगी।
अंत में समकालीन कहानी में स्त्री पक्ष की प्रवृत्तियों की बात करें तो पहली प्रवृत्ति ऐसी स्त्रियों की है, जिनमें अपनी स्थिति को लेकर कोई शोर नहीं है। वे पितृसत्तात्मक संरचना से पूर्णतया रची बसी हैं। उसमें सोमा बुआ जैसी बुजुर्ग भी हैं तो बिलकुल नई नवेली हाउसवाइफ भी। दूसरी प्रवृत्ति में पितृसत्तात्मक संरचना में बिना बदलाव चाहे अपनी स्थिति के प्रति सजग और प्रतिरोध दर्ज करती स्त्रियां हैं जैसे दीपशिखा, गुर्जर की रखैल औरत, फूलमती, सुगना, दुलारी, मिसेज गोयल, विमली और बजरिया। इनके शेड्स अलग-अलग हैं और प्रतिरोध का तरीका भी बिल्कुल अलग। जैसे सोमा बुआ न तो दीपशिखा की सास की तरह शोषक हैं और न ही माधुरी देवी की तरह कोई मूलगामी कदम उठाती हैं। तीसरी प्रवृत्ति की स्त्रियां इन संरचनाओं को धता बताकर खड़ी होने की कोशिश करती हैं और कुछ उसे आगे ले जा पाती हैं और कुछ वापस रूढ़िगत मॉडल में लौट आने को तड़पती हैं। ऐसी स्त्रियों में तीनों सहेलियां आभा-स्नेहा-मेघना, शालू, अलका अग्निहोत्री, माधुरी देवी और आपगा को शामिल किया जा सकता है। चौथी प्रवृत्ति में ऐसी स्त्रियां हैं जो नए राजनीतिक-आर्थिक-सामाजिक परिदृश्य में अपने लिए अलग स्पेस ढूंढ़ती हैं और नई दुनिया, नया कैनवास रचती हैं। सुवंथी और मीरा इसी तरह की आधुनिकाएं हैं। पांचवी प्रवृत्ति में बिल्कुल नई पीढ़ी की स्त्रियां हैं जो फिर से रूढ़िवादी संरचना के पाश में हैं मगर उसे अपने अनुसार मोड़ लेने में सक्षम हैं। इन पर पिछली प्रवृत्तियों का कोई असर नहीं है। इन्होंने अंगीकार कर लिया है कि स्त्री स्वतंत्र है और वह बिलकुल पुरुषों की तरह सोच सकती है। पुरुष इसमें दूसरा तत्व नहीं है बल्कि उनका सहचर है। शायना और दीपा ऐसी लड़कियां हैं। छठीं प्रवृत्ति की स्त्रियां उपरोक्त मूलगामिता को अंगीकार कर, बाजार की गोद में उतरते ही बिखर जाने वाली हैं। इस बिखरने में न संभलने का मौका है, न ही फिर खड़े हो सकने की ख्वाहिश।
इसके अतिरिक्त भी बहुत सी प्रवृत्तियां अलग-अलग शेड्स के साथ ढेरों कहानियों में मौजूद हैं लेकिन लेख और लेखक की सीमा है कि सभी को समेटा नहीं जा सकता। स्त्रियों की मानसिक स्वतंत्रता की अवहेलना कर देह की स्वतंत्रता की बात करने वाली भी ढेरों कहानियां लिखी जा रही हैं जिनमें कामुकता ही नहीं बल्कि विकृत कामुकता की छौंक है। कुछ सार्थक बदलाव लायक इनकी ताकत महसूस नहीं होती। इसके अतिरिक्त कन्या भ्रूण हत्या, बलात्कार, दहेजप्रथा, घरेलू हिंसा, कामकाजी महिलाओं का यौन उत्पीड़न, समलैंगिकता जैसे विषयों पर भी ढेरों कहानियां हैं। स्त्रियों के मानसिक संसार की यात्रा कराने या सामाजिक-राजनीतिक-पितृसत्तात्मक गठजोड़ को खोलने की बजाय इनका ध्यान घटना और उससे उपजे आक्रोश, जुगुप्सा पर अधिक है। कुछ विषयों पर कहानियां न मिलने की कमी भी खलती रही। हिन्दी पट्टी में अरेंज मैरिज बिलकुल साधारण बात है। इसने संस्था का रूप धारण कर रखा है। इसकी विसंगतियों को लेकर या उसके प्रति सधा हुआ आक्रोश नहीं मिल पाया। हो सकता है खोजी दृष्टि की सीमा रही हो। कहानियां लव मैरिज से बहुत आगे लिव इन की बात करती हैं लेकिन कहीं भी पुरानी संस्था की विसंगतियों को खोलकर नहीं रखतीं। मुझे अफ्रीकी लेखक सी. न्गोजी अदिचि की कहानी ‘द अरेंजर्स ऑफ मैरिज’ की याद आती रही। इसे पढ़ते हुए लगता ही नहीं किसी दूसरे देश की कहानी पढ़ रहा हूँ। उसकी खासियत है कि पति को ‘नए नवेले पति’ कहकर बार-बार संबोधित किया गया है बिलकुल उसी तरह जैसे हमारे यहां ‘नई नवेली दुल्हन/बहू’ कहने की आदत है।
एक प्रवृत्ति सब में साझी है कि जब भी स्त्री अपनी स्वतंत्रता या समकक्षता की बात करती है, बातें पुरुष के विरुद्ध खड़ी हो जाती हैं। दरअसल शुरूआत से जब पुरुषों ने ही समाज की रचना की तो स्त्री का कदम उठाना भी पुरुषों के विरुद्ध जाएगा। जैसे पैंट पहने तो पुरुष की नकल, कामकाजी बने तो पुरुष की नकल, नशा करे तो पुरुष की नकल, सेना में भर्ती हो तो पुरुष की नकल! इन विसंगतियों को समझकर उसकी कसी बुनावट को उधेड़ने की जरूरत है जिससे परिवार जैसी संस्था में अधिक मानसिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक बहस का माहौल बन सके। यह कितना बिडंबनापूर्ण है कि आज भी परिवार राजसत्ता के रेसिड्यू को ढो रहे हैं! जिसमें झूठा सम्मान, अविवेकी आज्ञाकारिता, गैर जरूरी निर्भरता और बात रख पाने का साहस न होना बहुत आम है।
स्त्रियों की स्वतंत्रता को लेकर जो शोर मच रहा है और सांस्कृतिक खतरे का भय दिखलाया जा रहा है, सब कुछ कागजी है। बिना किसी तानशाही और शोर शराबे के लोकतंत्र के अंतर्गत भी जिस तरह आधी आबादी पर क्रूर तानाशाही चल रही है वह बीती बात बननी चाहिए। इससे कोई संकट नहीं आ जाएगा। मनुष्य, चाहे वह स्त्री हो या पुरुष, मनसजीवी है। वह पशुओं की तरह बैठकर जुगाली नहीं कर सकता। विचारों से आक्रांत रहता है। विचारों की कैद उसके अस्तित्व के लिए भारी पड़ती है। उसे आजादी मिल जाए तो परिवार, समाज, संस्कृति, राजनीति, अर्थव्यवस्था सबकुछ अधिक स्वस्थ और समृद्ध होगा।
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