आधुनिक काल में ग्रामवासियों के नगरों की ओर पलायन के बाद और नगरों में दिन-ब-दिन बढती कॉक्रीट की ऊंची-ऊंची इमारतों के कारण आदमी प्रकृति से दू...
आधुनिक काल में ग्रामवासियों के नगरों की ओर पलायन के बाद और नगरों में दिन-ब-दिन बढती कॉक्रीट की ऊंची-ऊंची इमारतों के कारण आदमी प्रकृति से दूर होता जा रहा है. ऐसे में प्रकृति के पास लौटना, उसे निहारना, उसके सौंदर्य का रसास्वादन करना जितना दुर्लभ होता जाता है उतना ही अधिक आनंददायक भी. लेकिन प्रकृति के सानिध्य के अभाव में आज सामान्यतः कवि प्रकृति को केंद्र में रखकर कविताएं नहीं लिखता. वह अपने युग के विरोधाभासों और विडम्बनाओं को वाणी देने में अधिक रुचि दिखाता है.. हाइकु-काव्य में भी यही प्रवृत्ति अधिकतर देखने को मिलती है. प्रख्यात कवि ज्ञानेंद्रपति अपने एक हाइकु में कहते हैं, आज -
हाइकु हिए/
मौसम की जगह/
युग बोध है !
अधिकतर हिंदी हाइकु-रचनाओं ने अपने कथ्य का मुख्य विषय सामाजिक-राजनैतिक स्थितियों को ही बनाया है, और यह एक बड़ी आश्वस्ति है कि अनेक कवियों ने वर्तमान असंगत स्थितियों का सामना करते हुए भी प्रकृति की ओर उदासीनता नहीं दिखाई है, बल्कि प्रकृति के सौंदर्य और मानव-मन से उसके सम्बंध को बार-बार रेखांकित किया है. उन्हें लगता रहा है कि प्रकृति स्वयं ही एक ऐसी कविता है जो जीने का अर्थ बताती है –
जीने का अर्थ/
बताती है प्रकृति/
कविता है वो (-डा. पुष्करणा)
प्रकृति के न जाने कितने रूप हैं. सभी को एकसाथ सम्पादित कर पाना बहुत कठिन है. कवि केवल मुख्य रूपों की ओर ही संकेत कर पाता है. जय चक्रवर्ती लिखते हैं
नदी बादल/
हवा खुशबू धूप/
तेरे ही रूप
कवियों को प्रकृति के हर रूप ने आकर्षित किया है. उसके पांच तत्व –धरती, जल, वायु, आकाश और अग्नि-, प्रकृति की ऋतुएं और उसका ऋतु-चक्र, वसंत, ग्रीष्म, पावस, शरद, हेमंत और शिशिर का बारी-बारी से आना और जाना, सूरज, चांद, तारे और इंद्र-धनुष, दिन के चारों प्रहर, पशु-पक्षी, कीट-पतंगे, पेड़-पौधे और झाड़ियां, झरने और नदियां, फूल और पत्तियां, पहाड़ और सागर –सभी की ओर कवि उत्सुकता, विस्मय और विश्वास के साथ अपना रिश्ता बनाता है.
हिंदी के हाइकु रचनाकार ने प्रकृति के पांच तत्वों को –सूक्ष्म और स्थूल, दोनों ही रूपों में- आत्मसात किया है, साथ ही इनका मानव-मन से सीधा-सीधा नाता भी दर्शाया है. आकाश से आदमी ने बहुत-कुछ सीखा है. उसका विराट स्वरूप, धरती की ओर उसका झुकाव, क्षितिज पर धरती से उसका मिलाप वह देखता है और ये बातें कवि-मन को छू जाती हैं –
आसमां हूं मैं/
झुक के चलना है/
आदत मेरी -(सतीशराज पुष्करणा)
नीला आकाश/
सिखाता है सबको/
बनना विराट -(हरिश्चंद्र शाक्य)
क्षितिज पर/
आकाश न टिकता/
तो कहां जाता -(जवाहर इंदु)
यदि आकाश के स्वरूप के साथ ही उसकी विस्तार उल्लेखनीय है तो पानी का बहाव भी मनुष्य को सतत सक्रिय रहने के लिए, चलने के लिए, उत्प्रेरित करता है संस्कृत का एक
सूत्र है, चरैवेति. इसी सूत्र को जल से जोड़कर मीनाक्षी जिजीविषा कहती हैं,
बहता जल/
कहता संग मेरे/
चलता चल
जब बर्फ गिरती है तो पूरी की पूरी धरती उससे ढंक जाती है. ऐसे में रमेश कुमार सोनी कहते हैं –
बनी है वृद्धा/
श्वेत केशी वसुधा/
हिम की वर्षा
ओस भी तो जल का ही एक रूप है. गुलाब की पंखुरी स्वयं ही कितनी कोमलांगी है पर उतनी ही नाज़ुक ओस की बूंद अपनी गोद में लेकर वह बैठी है, अच्छी तरह से जानते हुए कि कुछ देर में ही वह मिट जाएगी. ऐसी कल्पना केवल डॉ. भावना कुंवर जैसी एक कवियित्री ही कर सकती है, -
लिए बैठी है/
गुलाब की पांखुरी/
ओस की बूंद
हवा का एक नैसर्गिक गुण है कि वह भटकती रहती है. स्थिर नहीं होती. भटकन अपने आप में एक दर्द है और इसे वही जान सकता है जो स्वयं भी कभी भटकता फिरा हो. शायद इसीलिए अपने ही अंदाज़ में ज्ञानेंद्र विक्रम सिंह रवि कहते हैं,-
कैसे जानोगे/
पुरवाई की पीर/
बिना भटके
हिंदी हाइकु रचनाओं में जहां एक ओर प्रकृति के सभी पांच तत्त्वों का मनुष्य से नाता रेखांकित किया गया है, वहीं दूसरी ओर ऋतुएं भी हमें संकेत देतीं हैं कि मौसम हमेशा एक सा नहीं रहता. सभी कुछ परिवर्तनशील हैं. परिवर्तन ही प्रकृति का धर्म है. ऋतुएं बारी-बारी से आती हैं. कवि इन्हें बड़े मनोयोग से देखता है.
बसंत को ऋतुराज कहा गया है. बसंत के साथ पतझड़ आता है. पतझड़ नए पत्तों को जगह देता है. पतझड़ मृत्यु का, तो नए पत्ते जीवन का प्रतीक बन जाते हैं. श्याम खरे कहते हैं -
पतझर से/
झरते पत्ते बोले/
आओ बसंत-,
लेकिन झरते पत्ते का दुःख तो अपनी जगह है ही, -
एक अकेला/
पत्ता डगाल पर/
थरथराता-.
जीने और मरने का यह खेल साथ-साथ चलता है. रमाकांत कहते हैं, -दे
खो तो सही/
पत्तों का गिरना/
पेड़ का जीवन.
तभी तो बक़ौल जवाहर इंदु ,
हंसते फूल/
गुलमोहर कहें/
कहां है गर्मी!
पावस ऋतु जहां एक ओर गरमी से निजात दिलाती है वहीं दूसरी ओर भूली-बिसरी यादें भी साथ ले आती है. मन रोने लगता है, शायद इसीलिए रेखा रोहतगी कहती हैं, -
है बरसात/
बाहर भीतर है/
पानी ही पानी.
इस मौसम में कभी ऐसा भी होता है कि हम पानी बरसने का इंतज़ार ही करते रहते हैं और बरसात नहीं होती. ठीक ऐसे ही जैसे लोग वादा करते हैं, आशा जगाते हैं, और फिर मुकर जाते हैं. ओम प्रकाश चौधरी पराग शायद यही तो कह रहे हैं,-
गरजे खूब/
उम्मीद भी जगाई/
बरसे नहीं.
शीत ऋतु में धूप भला किसे अच्छी नहीं लगती पर थोड़ी ही देर के लिए रह पाती है. आई, झलक दिखाई और भाग खड़ी हुई. राजेंद्र बहादुर सिंह राजन हिरण की उपमा देकर अपना हाइकु कुछ इस प्रकार रचते हैं – धूप किरण/
पौष माह में भागे/
जैसे हिरण.
और सुजाता शिवेन इसरार करती हैं, -
धूप जाड़े की/
आकर बैठो पास/
सुनो मन की.
सूरज, चांद, तारे और इंद्रधनुष –सभी हमसे दूर हैं. आकाश में स्थित हैं. लेकिन प्रकृति के इन चमकते, जगमगाते रूपों को कवि अपने मन में बैठा लेता है. सूर्य और बादलों की लुका-छिपी भला किससे छिपी रह सकी है, उसी के परिणाम स्वरूप इंद्रधनुष अपनी छटा बिखेरता है. राजेंद्र वर्मा कहते हैं, -
सूरज खुश/
बूंद-बूंद बादल/
इंद्रधनुष.
हम सभी सूर्य को जल चढाते हैं. सूर्य एहसान-फरामोश नहीं है. डॉ. कुंवर बेचैन, वैज्ञानिक सत्य की ओर इशारा करते हुए बताते है, - जल चढाया/
तो सूर्य ने लौटाए/
घने बादल.
सूर्य अपनी तमाम तेजस्विता के बावजूद अपनी विनम्रता को भी सुरक्षित रखता है. इसी लिए सतीशराज पोखरना कहते हैं, -
डूबता सूर्य/
बन जाता है भव्य/
विनम्रता से.
दिन में सूर्य तो रात में चांद और तारे, अपनी सीमित सामर्थ्य के होते हुए भी, अंधकार से अपना संघर्ष जारी रखते हैं. धरती के अंधेरे को मिटाने के लिए, पवन कुमार आश्चर्य से कहते हैं, -
किसने टांके/
सूरज चांद सितारे/
आसमान में.
लगभग ऐसा ही कवि-सुलभ आश्चर्य हमें भास्कर तेलंग में भी मिलता है,
किस दर्ज़ी ने/
सिला नीला घाघरा/
सितारे टांके.
सितारों को देखकर ज्ञानेंद्र विक्रम सिंह रवि की भूली-बिसरी स्मृतियां जाग जाती हैं और ठीक तारों की ही तरह टिमटिमाने लगती हैं,-
रात तारों में/
टिमटिमाती रही/
तुम्हारी यादें.
प्रकृति में जहां ऊंचे पहाड़ हैं वहीं गहरे समुद्र भी हैं. दोनों ही क्रमशःअपनी ऊंचाइयों और गहराइयों से कवि के मन में डूबते-उतराते रहते हैं. पहाड़ को लेकर कितने ही मुहावरे हिंदी-जगत में प्रचलित हैं. एक मुहावरे का प्रयोग करते हुए सतीशराज पोखरना कहते हैं, -
ऊंट ही नहीं/
सूर्य भी आ जाता है/
पहाड़ के नीचे.
अच्छे-अच्छों का अहं अपने से कमतर लोगों के सामने बौना पड़ते देखा गया है. नवल किशोर बहुगुणा पहाड़ की एक मनोहारी तस्बीर इस हाइकु में बड़ी कुशलता से उकेरते हैं-
बूढा पहाड़/
लपेटे मफलर/
श्वेत बर्फ का.
पहाड़ की तरह समुद्र को भी अपनी गहराई पर बहुत अधिक इतराने की ज़रूरत नहीं है. पानी की एक बूंद भी कम नहीं होती. श्याम खरे के कान में धीरे से,
बूंद ने कहा/
सागर समाया है/
मेरे अंदर.
और फिर, कोई भी अपना स्वभाव बदल नहीं सकता. सतीशराज पोखरना ठीक ही कहते हैं, -
मीठा पानी पी/
समुद्र न बदला/
खारा ही रहा.
सागर और पहाड़ की बातें नदी और झरनों का सहज ही स्मरण करा देतीं हैं. एक सागर है जो तमाम नदियों का मीठा पानी पी कर भी खारा ही बना रहता है, दूसरी ओर
समुद्र के प्रति नदी का समर्पण भाव है. ओम प्रकाश पति के अनुसार ,
चली है नदी/
समुद्र को सौंपने/
निज अस्तित्व
लेकिन सैलाब नदियों में ही आता है. नदियां उबाल खाती हैं तो आसपास तबाही मच जाती है. पर सैलाब का क्या है, वह तो मनुष्य के मन में भी उठता है. शिव बहादुर सिंह भदौरिया कहते हैं, -
मेरे भीतर/
नदी हो चाहे न हो/
सैलाब तो है !
जिस तरह नदी के बहाव में कवि अपनी चेतना का प्रवाह देखता है. उसी तरह वह अपने मनोभावों को झरनों सा झरते हुए पाता है. डॉ. कुंवर बेचैन झरनो की बेचैनी को कुछ इस तरह अभिव्यक्ति देते हैं, -
रहता मौन/
तो ऐ झरने, तुझे/
देखता कौन!
इसी तरह सूर्यभानु गुप्त भी कहते हैं, - अहा झरना/
पर्वतों का वनों से/
बातेंकरना.
भागवत भट्ट कवि के दुःख को झरनों पर आरोपित करके पूछते हैं, -
कौन सा दुःख/
संजोए हैं झरने/
नीर बहाएं.
सुबह होती है, शाम होती है, ज़िंदगी यूंही तमाम होती है. लेकिन ये सुबहें और शामें ही हमारी ज़िंदगी में रंग भी भरती हैं. सुबह होते ही हम हर रोज़ एक नए दिन की शुरूआत करते हैं और अपने नैराश्य के अंधेरे से बाहर आते हैं. रेखा रोहतगी कहतीं हैं, -
हुआ प्रभात/
अंधकार की इति/
अथ प्रकाश
महावीर सिंह भी सुबह सबेरे –
उतर रही/
फुनगी से नीम की/
भोर किरन –
को देखकर अत्यंत प्रसन्न होते हैं. पेड़ की फुनगी से किरण का उतरना आशा का संचार करता है. लेकिन कभी-कभी प्रातःकाल की अरुणाई अपने तमाम प्रकाशोत्सव के बावजूद मन के कैनवस पर कोई रंग नहीं छोड़ पाती. मन कोरा का कोरा रह जाता है. स्वाति भालोटिया मन की इसी स्थिति का चित्रण कुछ इस प्रकार करतीं हैं, -
हरी वादी/
केसरी अरुणाई/
श्वेत है मन
सूरज उगता है तो बेशक डूबता भी है. लेकिन डूबता सूरज भी कम आकर्षक नहीं होता. जवाहर इंदु अपने हाइकु में इसी सत्य को वाणी देने से चूकते नहीं
सिंदूरी शाम/
जल पे लिखे पाती/
आग के नाम
प्रकृति में जहां सूर्य और चंद्र जैसे महा-नक्षत्र हैं वहीं तुच्छ से तुच्छ कीट-पतंग भी हैं. ये कीट-पतंग भी अपनी विविधता और अपने सौंदर्य से कवि को आकर्षित करने में कम नहीं हैं. कीट-पतंगों में एक तितली को ही यदि हम लें तो इस पतंगे ने कितने ही हाइकु रचनाकारों को सृजन के लिए गति प्रदान की है. प्रदीप कुमार दाश जहां तितली की सतत गतिशीलता पर फिदा हैं, -
उड़ी तितली/
छोटा पड़ा क्षितिज/
थकी न हारी
वहीं सुरेश उजाला उसकी सतरंगी आकृति के क़ायल हैं,-
पैरों में बांधे/
सतरंगी धनुष/
तितली उड़ी
फूलों की क्यारी में मंडराती तितली हर पुष्प से सम्वाद करती है. यह सम्वाद किस लिए
है, और क्योंकर है! डॉ. रामनिवास मानव इसका एक बड़ा सटीक उत्तर देते हैं, -
पूछे तितली/
परिभाषा प्रेम की/
फूल फूल से
तितली को निःसंदेह फूल ही सुहाते हैं, लेकिन प्रकृति में केवल फूल ही नहीं हैं, फूलों से लदे पौधे भी हैं और फलों से समृद्ध पेड़ भी हैं. पेड़ हमें फल तो देते ही हैं, छया भी देते हैं और बड़े पुराने वृक्ष आशीर्वाद भी देते प्रतीत होते हैं. राजेंद्र बहादुर राजन की मानें तो.
बुढऊ बाबा/
गांव के बरगद हैं/
हैं काशी बाबा
राह में थक जाने पर आखिर हम पेड़ के नीचे ही तो आराम करते हैं. पेड़ मानों हमें बुलाता है और उसकी पुकार ओमप्रकाश यति जैसे रचनाकार सुन भी लेते हैं, -
पेड़ ने कहा/
थके मुसाफिर से/
आओ सुस्ताओ
इतना ही नहीं, धनंजय मिश्र पेड़ों की झुरमुट में चिड़ियों का जीवन-गीत सुन लेते हैं,-
झुरमुट में/
चहचहाते पक्षी/
जीवन-गीत
हमारे जीवन-वितान में सुख और दुःख का ताना-बाना है, धूप और छांव की आंख-मिचौली का खेल है. फूल और फल हैं तो निश्चय ही कांटे भी हैं. हम चाहें कि मीठे बेर तो तोड़ लें और कांटों से बच जाएं, तो यह सम्भव नहीं है. डॉ. अंजू सुमन इसी तथ्य की ओर संकेत करती हैं. मीठा फल पाने के लिए कांटों का सामना करना ही पड़ेगा क्योंकि,
लिए बैठी है/
बहुत मीठे बेर/
कंटीली झाड़ी
गांधीजी ने एक बार कहा था कि प्रकृति के पास इतना कुछ तो है ही कि वह मनुष्य की वैध आवश्यकताओं (needs) की पूर्ति कर सके. लेकिन वह उसके लालच (greed) को पूरा नहीं कर सकती. लेकिन इस लालच के चलते मनुष्य ने प्रकृति के साथ बहुत दुर्व्यवहार किया है. परिणाम स्वरूप प्राकृतिक पर्यावरण दिन ब दिन दूषित और विकृत होता चला जा रहा है. पेड़ों की संख्या इतनी कम हो गई है कि जो छोटे छोटे सुख हम इनसे प्राप्त कर लेते थे वे भी अब मुश्किल से नसीब हैं. राजेंद्रमोहन त्रिवेदी कहते हैं-
स्वप्न हो गया/
पेड़ों पर झूलना/
कजली गाना
बेचारा आम आदमी अपने अलाव के लिए पेड़ों से जलाऊ लकड़ी प्राप्त कर लेता था, पर
कृष्ण कुमार त्रिवेदी ठीक ही कहते हैं, -
कहां से लाएं/
अलाव की लकड़ी/
पेड़ ग़ायब!
आज जंगलों का सफाया किया जा रहा है, लेकिन आम आदमी के अंदर जो जंगल उग आया है वह तो साफ होने का नाम ही नहीं लेता. डॉ. कुंदन लाल उप्रेती इसी विचार को अपनी वाणी देकर कहते हैं, -
जंगल जला/
आदमी में जंगल/
फिर से उगा.
उप्रेतीजी प्रदूषण से बेहद नाराज़ हैं. नाराज़गी बिल्कुल जायज़ है. कारखाने ज़हर उगल रहे हैं और यह ज़हर पवित्र नदियों में मिल रहा है. ज़मीन भी इससे अछूती नहीं रही है,-
ज़हर बहा/
नदियों की आंहों से/
ज़मीं पेरेशां -.
डॉ. मधु भारती विलाप करती हैं.
‘कहां खो गए/
चौपाल नदी वट/
कोयल कूक !’
संदर्भ
1,-हाइकु -2009, सं. कमलेश भट्ट कमल, नई दिल्ली, 2010
2,-जवाहर इंदु, ‘इतना कुछ’, रायबरेली, 2000/
3,-रेखा कोहतगी, ख्ग समुझै, दिल्ली,2010
4,-राजेंद्र बहादुर सिंह राजन, ‘कदम्ब,’ रायबरेली, 2009
5,-सतीश राज पोखरना, ‘खोल दो खिड़कियां,’ पटना, 2009
6,-महावीर सिंह, ‘मन की पीड़ा’, रायबरेली, 2001
7,-कुंदनलाल उप्रेती, ‘नदी हुई बेताब’, अलीगढ, 2008
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१०, एच आई जी /
१,सर्कुलर रोड
इलाहाबाद -२११००१
मो ९६२१२२२७७८
Surendraverma389.blogspot.in
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